सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

मेरी माँ


गतांक से आगे





मैं कुपुत्र साबित हुआ, मेरा यह दुख कोई भी चीज कम नहीं कर
सकती। उसका प्रायश्चित यही है, अगर कोई प्रायश्चित हो सकता है, कि मैं एक ऐसी
की रचना करने में अपने को होम कर दूँ जिसमें माँ का स्थान जीवन के
शीर्ष पर होता है। जो अपनी माँ को प्यार नहीं कर पाया, वह दुनिया में किसी और को

प्यार कर सकेगा, इसमें गहरा संदेह है।









माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही
राजकिशोर




विवाह होने के बाद मुझमें थोड़ी पारिवारिकता आई। मैंने दो कमरों का एक फ्लैट लिया और उसमें रहने के लिए माँ-पिता और छोटे भाई-बहन को आमंत्रित किया। वे कुछ दिन कितने सुंदर थे। लेकिन एक बार पिताजी द्वारा एक मामूली-सी घटना के बाद, जो हिन्दू परिवारों के लिए सामान्य-सी बात है, पर उन दिनों मेरे सिर पर लोहिया सवार होने के कारण मैंने उन्हें कहला दिया कि जब तक वे मेरी पत्नी से माफी नहीं माँगते , अब वे मेरे घर में खाना नहीं खा सकते। माफी माँगना मेरे घरेलू परिवेश में एक सर्वथा नई बात थी, जिसका अर्थ समझ या समझा पाना भी मुश्किल था। सो पिताजी अलग हो गए। उनके साथ ही दूसरे सदस्य भी उनके साथ हो लिए। मैंने उस समय मुक्ति की सांस ली थी, पर अब लगता है कि वह मेरी हृदयहीनता थी। जवानी में आदमी बहुत-से ऐसे काम करता है जिनके अनुपयुक्त होने का पछतावा बाद में होता है जब प्रौढ़ता आती है। ऐसे कितने ही पछतावे मेरे सीने में दफन हैं। कभी-कभी वे कब्रा से निकलते हैं और रुला देते हैं।


बाद में माँ से मेरा संपर्क बहुत कम रहा। एक बार जब वह बीमार पड़ी, मैं उसे अपने घर ले आया और उसका इलाज कराया। एक बार जब वह गाँव में मेरे मामा के साथ रह रही थी, 'रविवार' के लिए किसी रिपोर्टिंग के सिलसिले में मेरा उत्तर प्रदेश जाना हुआ और मैं जा कर उससे मिल आया। माँ को लकवा मार गया था। कुछ घंटे उसके साथ बैठ कर चलने को हुआ, तो मैंने उसकी मुट्ठी में दो सौ रुपए रख दिए थे वैसा आनंद न उसके पहले मिला था. न उसके बाद मिला। कोलकाता में जब उसे हृदयाघात हुआ, यह मैं ही था जिसके प्रयास से उसे अस्पताल में भरती कराया गया। अस्पताल में उसकी सुश्रूषा के लिए मैंने एक नर्स रख दी थी। उन दिनों मेरी पत्नी ने भी माँ की बहुत सेवा की। यह मेरे लिए चिरंतन अफसोस की बात रहेगी कि जिस दिन उसका देहांत हुआ, मेरे दफ्तर, आनंद बाजार पत्रिका समूह, में अचानक हड़ताल हो गई थी और मैं दफ्तर के लिए घर से निकला, तो दोस्तों-सहकर्मियों के साथ गप-शप करते हुए काफी समय बीत गया और मैं देर रात गए घर लौटा। उन दिनों मोबाईल नहीं था, नहीं तो इतना बडा अघटन नहीं होता कि मैं माँ के शवदाह में शामिल न हो सका। यह सारा दायित्व मेरी पत्नी ने लगभग अकेले संभाला।


जब से मैं भारत के हिन्दी प्रदेश में आधुनिकता की सीमाएँ समझने लगा, तभी से मेरी पिछली गलतियाँ बुरी तरह मुझे हांट कर रही हैं। मैं परिवार में एकमात्र उच्च शिक्षित लड़का था। मुझे संयुक्त परिवार को ढहने से रोकने की पूरी कोशिश करनी चाहिए थी। मुझे अपने मां-बाप की, खासकर बूढ़ी माँ की, सेवा और मदद करनी चाहिए थी। लेकिन यह मैंने नहीं किया। उन दिनों मेरी जो आमदनी थी, वह खुद मेरे लिए ही काफी नहीं थी। लेकिन यह मुख्य कारण नहीं था। माँ से मेरा मन उचट चुका था। मैं उसकी दुनिया से निकल आया था और अपनी दुनिया में पूरी तरह रम चुका था। मुझे यह याद भी नहीं रहता था कि मेरी कोई माँ भी है। उसे शायद याद आता रहता हो, पर वह क्या कर सकती थी? अगर कुछ कर सकती होती, तब भी उसने नहीं किया। लेकिन इसमें सारा दोष मैं अपना ही मानता हूँ (अब मानता हूँ ; उन दिनों दोष की बात दिमाग में भी नहीं आती थी)। यह एक ऐसा पाप था, जिसकी कोई माफी नहीं है। मैं माफ़ी माँगना भी नहीं चाहता -- माँगूँ भी तो किससे। मैं अपने हृदयस्थल में अपने उस पाप को ढोना चाहता हूँ, ताकि उसके अनुताप की रोशनी में अपने सत्यों का लगातार संशोधन और परिमार्जन कर सकूँ।


मुझे इस बात का एहसास है कि मेरे साथ जो बीती है, वह सिर्फ मेरी कहानी नहीं है। वह लाखों (शायद करोड़ों) लोगों की बदबूदार कहानी है। निम्न वर्ग या निम्न-मध्य वर्ग से आनेवाले नौजवान जब थोड़ी-बहुत सफलता अर्जित कर लेते हैं, तो उनके पुराने पारिवारिक रिश्ते धूमिल होने लगते हैं। इनमें सबसे ज्यादा उपेक्षा माँ की होती है। वह सिर्फ देती ही देती जाती है, पाती कुछ नहीं । यहाँ तक कि कृतज्ञता का स्वीकार भी नहीं। मैं माँ को ले कर भावुकता का वह वातावरण नहीं बनाना चाहता जो हिन्दी कविता में एक दशक से बना हुआ है (इसके पहले यह दर्जा पिता को मिला हुआ था)। लेकिन माँ -बेटे या माँ-बेटी का रिश्ता एक अद्भुत और अनन्य रिश्ता है। इस रिश्ते का सम्मान करना जो नहीं सीख पाया, वह थोड़ा कम आदमी है। मेरी माँ जैसी भी रही हो, 'साकेत' में मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्ति मेरे सीने में खुदी हुई है कि माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही। मैं कुपुत्र साबित हुआ, मेरा यह दुख कोई भी चीज कम नहीं कर सकती। उसका प्रायश्चित यही है, अगर कोई प्रायश्चित हो सकता है, कि मैं एक ऐसी संस्कृति की रचना करने में अपने को होम कर दूँ जिसमें माँ का स्थान जीवन के शीर्ष पर होता है। जो अपनी माँ को प्यार नहीं कर पाया, वह दुनिया में किसी और को प्यार कर सकेगा, इसमें गहरा संदेह है।


५३, एक्सप्रेस अपार्टमेंट्स
मयूर कुंज
दिल्ली - ११००९६



1 टिप्पणी:

  1. Bilkul sahi kaha aapne. yah ghar ghar ki kahani hai. aadmi apni bivi bachhon tak simat gaya hai, janm dene walon ke prati kya jimmedari hai vah tab tak yaad nahin aati jab tak ki khud us mukam par nahin pahunch jata. par tab pachhtaye hot kya jab chidiyan chug gayee khet. maa- baap ki mahatta samjhna jaruri hai. hamari sanskriti yahi kahti hai.

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