शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

कृष्णा - राजकिशोर

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दुनिया मेरे आगे
तीसरी मुलाकात बहुत दुखदायी थी। वह मुझे नोएडा के एक मॉल में मिली। सिले हुए कपड़े देख रही थी। मैंने ही उसे टोका। इस बीच ढाई-तीन साल बीत चुके थे। उसकी नजरों की चमक और निश्छल हंसी बेदाग थी। पर कहानी बहुत ही करुण। इस बीच उसकी दो शादियां हो चुकी थी। ब्यौरे उसी के मुंह से सुनिए --'दादा, जब पहली बार मेरी शादी हुई, तो मैंने महसूस किया कि यह दुनिया कितनी सुंदर है। मेरे पति को मेरा पिछला इतिहास बता दिया गया था.......

मन करता है कि सड़क पर इतना थूकूं, इतना थूकूं कि सारे मर्द उसमें डूब जाएं।' उसकी आंखें भर आई थीं। खुल कर रोने के लिए वह एक कोने में चली गई।




कृष्णा
- राजकिशोर





उसका मूल नाम कृष्णा था। तीन साल तक वह जिस पेशे में रही, उसका नाम पता नहीं कितनी बार बदला गया होगा। तीन नाम तो उसने खुद ही बताए थे -- रेशमा, गुरमीत और बबली। लेकिन जब दिल्ली के एक वेश्यालय से उसकी मुक्ति कराई गई, तो रजिस्टर में उसने अपना वही नाम लिखवाया जो उसके मां-बाप ने उसे दिया था -- कृष्णा। कृष्णा का एक अर्थ होता है काली, पर वह सांवली थी। स्वस्थ शरीर, सारे अवयव खिले हुए और त्वचा पर अर्ध-परिपक्वता की परत। उसे मुक्त करानेवाली टोली के प्रधान थे एक मित्र पुलिस अधिकारी, जो हमारे इंस्टीट¬ूट में यौन शोषण के व्यापार के लिए स्त्रियों और बच्चों की तस्करी पर शोध कर रहे थे। वे ही मुझे उस जगह ले गए जहां मुक्त कराई गई बारह लड़कियों-स्त्रियों को रखा गया था। कई से मैंने बातचीत की। कृष्णा पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले की थी। मैं बांग्ला जानता हूं, इसलिए उससे बातचीत थोड़ी लंबी चली। चार साल लंबे दोहन के बाद भी उसकी मूल ऊर्जा सूखी नहीं थी। वह एक ऐसे मैने की तरह फुदक रही थी, जो अभी-अभी पिंजरे से निकल पर किसी नरम, हरी डाल पर बैठी हो। कृष्णा का गांव के ही एक लड़के से भालोबासा हुआ और दोनों गांव से भाग आए थे। एक हफ्ते तक बनारस में ऐश करने के बाद दोनों दिल्ली आए और लड़के ने उसे किसी को बेच दिया ।


कृष्णा से दूसरी और तीसरी मुलाकात का श्रेय संयोग को है। मैं किताबें बदलने के लिए आईटीओ के पास स्थित दयाल सिंह लाइब्रेरी गया हुआ था। एक रैक के सामने मैं भी किताबें खोज रहा था, वह भी। उस पर मेरी नजर पड़ी जरूर, पर मैं पहचान नहीं सका। उसने ही मुझ पर दस्तक दी। पता चला कि समाज कल्याण विभाग ने उसे एक संपन्न महिला के घर रखवा दिया था। उसने कृष्णा को पढ़ाया-लिखाया और अब वह इंदिरा गांधी ओपेन विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन की तैयारी कर रही थी। खुशी से मेरी आंखें छलछला आईं । काश, हर बंदी बनाई गई लड़की का भाग्य इतना अच्छा होता।


तीसरी मुलाकात बहुत दुखदायी थी। वह मुझे नोएडा के एक मॉल में मिली। सिले हुए कपड़े देख रही थी। मैंने ही उसे टोका। इस बीच ढाई-तीन साल बीत चुके थे। उसकी नजरों की चमक और निश्छल हंसी बेदाग थी। पर कहानी बहुत ही करुण। इस बीच उसकी दो शादियां हो चुकी थी। ब्यौरे उसी के मुंह से सुनिए --'दादा, जब पहली बार मेरी शादी हुई, तो मैंने महसूस किया कि यह दुनिया कितनी सुंदर है। मेरे पति को मेरा पिछला इतिहास बता दिया गया था। फिर भी उसने मुझे पत्नी का सम्मान दिया, इसलिए मैं उसका बहुत आदर करती थी। पर धीरे-धीरे तसवीर बदलने लगी। एक दिन झगड़े के दौरान उसने ताना मारा कि रंडी रह चुकी हो, तो जिंदगी भर रंडी ही रहोगी। रात भर रोती रही। जब वह मुझे इतिहास को ले कर बार-बार मुझे निशाना बनाने लगा, तो मैंने उसे छोड़ दिया और आंटी के घर लौट आई। आंटी ने ही मेरा दूसरी शादी कराई। इस बार लड़के को मेरे अतीत के बारे में नहीं बताया गया। हम दोनों बहुत खुश थे। एक दिन खाने पर उसका एक दोस्त आया। वह अविवाहित था और प्यास बुझाने के लिए कई बार मेरे यहां आ चुका था। उसने मुझे पहचान लिया। उस वक्त तो कोई घटना नहीं हुई। पर दोस्त को विदा कर लौटने के बाद मेरा शरीफ पति बिना कुछ पूछे मुझ पर हाथ-पैर चलाने लगा। जब मैं घायल हो कर गिर पड़ी, तो उसने कुरसी पर बैठ कर इत्मीनान से सिगरेट जलाई और धुआं फेंकती सिगरेट को मेरे दाहिने गाल के नजदीक ला कर चीखने लगा -- बोल साली, तुमने मुझसे यह बात क्यों छिपाई कि तुम पेशा कर चुकी हो? मैंने कहा, इससे तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? क्या मैं अच्छी पत्नी साबित नहीं हुई हूं? फिर मुझे मजबूरी में कुछ दिन पेशा करना पड़ा, तो इसमें मेरा दोष क्या था? समझ लो, वह एक्सिडेंट था। तो यह भी एक्सिडेंट है, ऐसा कह कर उसने मेरे दोनों गाल जला दिए। रात को दो बजे उसने मुझे घर से निकाल दिया। पास के बस स्टैंड पर मैंने रात गुजारी। इस बार मैं आंटी के पास नहीं गई। किसी तरह एक नौकरी हासिल की। अब अकेले ही रहती हूं। किसी मर्द को देखती हूं, तो मुझे अपने दोनों पतियों की याद आने लगती है। मन करता है कि सड़क पर इतना थूकूं, इतना थूकूं कि सारे मर्द उसमें डूब जाएं।' उसकी आंखें भर आई थीं। खुल कर रोने के लिए वह एक कोने में चली गई।


विदा लेने के पहले मैंने उससे कहा, 'अगर मैं विवाहित न होता, तो तुमसे कहता कि मेरे साथ चलो, हम इसी दुनिया में अपनी एक अलग दुनिया बनाएंगे।'

स्त्रीदेह : बलात्कार और सामाजिक दायित्व

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स्त्री से बलात्कार के कारकों पर विरोध जताने वाली गत प्रविष्टि पर आई प्रतिक्रियाओं पर आभार व्यक्त करते समय जिस विचार - मंथन से साक्षात हुआ वह विशद रूप ले गया। उसे मात्र प्रतिक्रियाओं के प्रत्युत्तर में रख छोड़ना उचित नहीं होता।.... देखें >>>http://streevimarsh.blogspot.co.uk/2008/09/blog-post.html 

द्विवेदी जी, जयशंकर जी, समीर जी,रचना जी, पल्लवी जी, प्रजापति जी, नितीश जी, पंगेबाज जी, लवली जी, त्रिपाठी जी व सक्सेना जी!

आप सभी के प्रति आभारी हूँ कि आप की प्रतिक्रियाओं ने मनोबल बढ़ाया.

२ बातें स्पष्ट कर देना चाह्ती हूं. पहली यह कि इस प्रकार की चर्चा किसी भी प्रकार से किसी को भी व्यक्तिगत रूप से नहीं लेनी चाहिए, न मैं इसे किसी के प्रति व्यक्तिगत दुर्भावना के रूप में लेती हूँ व न ही दूसरों से ऐसा करने की आशा करती हूँ.ऐसी या अन्य ऐसी और भी किसी चर्चा को चर्चा के रूप मेइं ही लेना चाहिए व इसे व्यक्तिगत दोस्ती या दुश्मनी का माध्यम बनने नहीं देना चाहिए.इन अर्थों में मुझे शास्त्री जी के या ऐसे किसी और के प्रति कोई व्यक्तिगत दुर्भावना कदापि नहीं है.

दूसरी बात, ऐसी चर्चाएँ जब भी खुल कर होती हों तो उनसे विचलित होने अथवा घबराने या निराश होने की कतई आवश्यकता नहीं है. तात्विक स्तर पर सभी समझदार व सुलझे हुए लोग परस्पर किसी भी विषय पर खुल कर चर्चा कर सकते हैं.बस चर्चा के उद्देश्य सभी के सामने स्पष्ट होने चाहिएँ कि वे चर्चा चर्चित होने के लिए कर रहे हैं या समय बिताने के लिए या रस लेने के लिए या वास्तव में किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए अथवा किसी सत्य के अन्वेषण व स्थापना के लिए.

मेरी ओर से यह बात स्त्री या पुरुष का पक्ष लेने की है ही नहीं। बात तो वास्तव में मनुष्य के रूप में सही व गलत और उचित व अनुचित की पक्षधरता की है, विवेक की है और है सामाजिक हित की चिन्ता की। कई बार कुछ चीजें हम निजी तौर पर अपनी मानवीय कमियों व विवशताओं के चलते कर- सुन लेते हैं किन्तु सामाजिक हित में अपनी उन कमजोरियों को सही सिद्ध करना तो कदापि उचित नहीं कहा जाएगा न? जैसे मान लें कि मैं एक भूखे व्यक्ति के चोरी करने या अज्ञानी द्वारा अपराध करने को बहुत बड़ा विषय न मानूँ या उन्हें अपराधी न मानूँ अथवा अपने बच्चे द्वारा की गई किसी बड़ी भूल को भी क्षमा कर दूँ, किन्तु मेरा नैतिक दायित्व फिर भी यही होता है व रहेगा कि चोरी करना गलत है, पाप है,अपराध है। इसी प्रकार हम अपने जीवन में हजार भूलें करने के बाद भी जब उन भूलों को सही सिद्ध करने में लग जाते हैं-- समस्या तब होती है,गलती वहाँ होती है। अत: सामाजिक हित के निमित्त हमें जीवनमूल्यों का पक्ष लेना ही चाहिए, विवेक का पक्ष लेना ही चाहिए. भले ही एक बार को मैं अपने जीवन में सच न बोलूँ किन्तु कभी यह न मान- कह दूँ कि झूठ बोलना ही सही है. इसका ध्यान बने रहना चाहिए.... और यही मेरे विरोध का निमित्त था. बलात्कार क्योंकि सर्वाधिक जघन्य सामाजिक अपराध है अत: उसके दोषियों को अपराधी न कहकर सही सिद्ध करने की मनोवृत्ति का विरोध सामाजिक व मानवीय पक्षधरता है इसलिए वहा आवश्यक है , यह बात सभी को जब तक संप्रेषित नहीं होती तब तक सारे तंत्र का समेकित प्रयास भी इस अपराध को रोक नहीं सकता। इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए इस प्रकार के असामाजिक वक्तव्य देने में जिस प्रकार के मैंने गत पोस्ट में उद्धृत किए थे.....


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