गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

एक मर्मान्तक आत्मकथ्य : माता न कुमाता ........

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माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले

- राजकिशोर







दुनिया भर में जिस व्यक्ति का मैं सबसे ज्यादा गुनहगार हूँ, वह है मेरी माँ जिस स्त्री ने मेरे सारे नखरे उठाए, जिसने मुझे सबसे ज्यादा भरोसा दिया, जिसने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की, उसे मैंने कोई सुख नहीं दिया। दुख शायद कई दिए। अब जब वह नहीं है, मेरा हृदय उसके लिए जार-जार रोता है।


लगभग साल भर से अकसर रात को सपने के वक्त या सपने में मेरी माँ, मेरे पिता, मेरी भौजी, मेरे बड़े भाई किसी न किसी दृश्य में मेरे सामने आ उपस्थित होते हैं। बड़े भाई की मृत्यु पिछले साल ही हुई। वे मेरे पूर्व पारिवारिक जीवन की एकमात्र जीवित कड़ी थे। शायद उनकी मृत्यु के बाद से ही पुराने पारिवारिक दृश्य बार-बार मेरी स्मृति में या मेरे स्वप्न जगत में मुझे घेर ले रहे हैं। उस समय न कोई विषाद होता है, न कोई आनंद। बस मैं उस दृश्यावली का सामान्य अंग बना अपने अतीत को जीता रहता हूँ लेकिन आँख खुलने पर या वर्तमान में लौटने पर मुझे अपनी माँ और पिता दोनों की बहुत याद आती है । यह ग्लानि घेर लेती है कि मैंने उनके साथ बहुत अन्याय किया। खासकर माँ के साथ, जिसने मुझे अपने ढंग से बहुत प्यार दिया।



परिश्रमी तो मेरे पिता भी थे, पर माँ के मेहनती होने को मैं अधिक गाढ़ी स्याही से रेखांकित करना चाहता हूँ हमारे समुदाय में स्त्रियों का मुख्य काम होता है खाना बनाना, कपड़े धोना और घर को साफ-सुथरा रखना। शुरु में यह सब करते हुए मैंने अपनी माँ को कभी नहीं देखा, क्योंकि जब मैंने होश संभाला, मेरी ममतामयी भौजी घर का चार्ज ले चुकी थीं। माँ मेरे और मेरे छोटे भाई और बहन के कपड़े जरूर धो देती थी। लेकिन बाद में जब पारिवारिक कलह के कारण मेरे बड़े भाई ने अपनी अलग इकाई बना ली, तो माँ ने गजब जीवट का परिचय दिया। वह हम सबके लिए खाना बनाती थी, कपड़े भी धोती थी और दुकानदारी में पिताजी के साथ सहयोग भी करती थी। एक पल के लिए भी बेकार बैठना उसे गवारा नहीं था। मैं उन दिनों आधुनिक साहित्य पढ़-पढ़ कर ऐसा उल्लू का पट्ठा हो चुका था कि एक छोटी-सी बात पर नाराज हो कर मैंने घर छोड़ दिया और अलग अकेले रहने लगा। वह दृश्य मुझे कभी नहीं भूलेगा जब करीब ग्यारह बजे अपने दो-चार कपड़े और कुछ किताबें एक छोटे-से सूटकेस में भर कर मैं घर छोड़ रहा था। पिताजी देख रहे थे, माँ देख रही थी, पर किसी ने भी मुझे नहीं रोका। यह दुख अभी तक सालता है। वैसे तो थोड़ा बड़ा होते ही मुझे यह एहसास होने लगा था कि मेरा कोई नहीं है, पर उस घटना के बाद इसका फैसला भी हो गया।


दरअसल, मुझे न तो पिता पसंद थे, न माँ। वे दोनों बहुत ही साधारण भारतीय थे। उन्हें न तो बच्चों से लाड़-प्यार करना आता था और न उनकी देखभाल करना। घर-द्वार सजाने में भी उनकी कोई रुचि नहीं थी। कपड़े फट जाने पर सिल-सिल कर पहने जाते थे -- जब तक वे एकदम खत्म न हो जाएँ गरीबी थी, पर उससे ज्यादा मानसिक गरीबी थी। एक तरह से मैं अपने आप ही पला, जैसे सड़क पर पैदा हो जानेवाले पिल्ले पल जाते हैं या मोटरगाड़ियों के रास्ते के किनारे के पौधे पेड़ होते जाते हैं। इसीलिए मेरे मानसिक ढांचे में काफी खुरदरापन है। प्रेम पाने की इच्छा है, प्रेम देने की इच्छा है, भावुकता भी है, लेकिन कुछ अक्खड़पन, कुछ लापरवाही, कुछ व्यंग्यात्मकता और कुछ गुस्सा भी है। आज मैं इस बात की सच्चाई को अच्छी तरह समझता हूँ कि जिसे बचपन में दुलार नहीं मिला, उसका व्यक्तित्व जीवन भर के लिए कुंठित हो जाता है। मैं बहुत मुस्तैदी से इस कुंठाग्रस्तता से लड़ता हूं, फिर भी पार नहीं पाता।


दरअसल, मेरे कॉलेज जाने तक मेरे शेष परिवार और मेरे बीच एक भयानक खाई उभर आई थी। मैं पढ़ते-लिखते हुए मध्यवर्गीय जीवन के सपने देख रहा था और इसमें मेरे माता-पिता की कोई भूमिका नहीं थी। मैं एक नई भाषा सीख रहा था और वे भाषा और संस्कृति की दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए थे। वे न अखबार पढ़ते थे न रेडियो सुनते थे। माँ पिता की तुलना में और भी पिछड़ी हुई थी। इस तरह के तथ्य मध्यवर्गीय चाहतों वाले मेरे मन में हीन भावना भरते थे। जब से उसे देखने की मुझे याद है, वह बूढ़ी ही थी और स्त्रीत्व की कोई चमक उसमें नहीं थी। शुरू में उसके प्रति मेरे मन में बहुत चाव था। जब चांद से लाए हुए पत्थर के टुकड़ों में से एक टुकड़े का प्रदर्शन कोलकाता में किया जा रहा था, मैं उसे अपने साथ वह टुकड़ा दिखाने ले गया था। लेकिन धीरे-धीरे मैं उससे उदासीन होने लगा, हालांकि वह अपने ढंग से मेरी चिंता करती रही। मैं जब घर के पास एक छोटा-सा कमरा ले कर रहने लगा, तो उसने ग्वाले से कह कर मेरे लिए रोज एक पाव दूध का इंतजाम कर दिया था।


क्रमश:

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