सोमवार, 30 मार्च 2009

औरत की दुनिया ( सुगंधि की कहानी - उसकी जुबानी )

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औरत की दुनिया


गतांक से आगे



सुगंधि हों या सखूबाई - दोनों ने अपने जीवन के शुरुआती कठिन समय में किए गए अपने संघर्ष से सबक लिया और दूसरी औरतें उनकी तरह की त्रासदी का शिकार न बनें , इसके लिये अपना पूरा जीव समर्पित कर दिया । अपने जीवन के अंधेरों से जूझने के बाद आज वे दूसरी अनेक महिलाओं के जीवन में आए अंधेरों को रोशनी में बदल रही हैं । इस रोशनी और हरियाली को देखकर पाब्लो नेरूदा के शब्दों को दोहराने का मन होता है - ‘‘ पेड़ क्यों अपनी जड़ों का वैभव छिपाते हैं ? ’’ इन ‘ जड़ों ’ से और जड़ों के त्रासद ‘वैभव’ से पाठकों का परिचय करवाने के लिए इस बार प्रस्तुत है - सुगंधि और सखूबाई की संघर्ष कथा ।


पुनश्च: बेबी हालदार के उपन्यास ‘ आलो आंधारि ’ और सोना चैधरी के उपन्यास ‘ पायदान ’ की ही लीक पर इन दोनों संघर्ष कथाओं का विवरण भी बिल्कुल सीधा - सहज और सपाट है । भाषा और शिल्प से समृद्ध रचनात्मक साहित्य के पाठकों को हो सकता है यह दोनों कथाएं एक ‘ पैबंद ’ की तरह लगें । जो फर्क एक कलात्मक फिल्म और वृत्तचित्रा में होता है , संभवतः वही फर्क एक साहित्यिक रचना और सामाजिक कार्यकर्ता की संघर्ष कथा में है । रचना में कलात्मकता की अपेक्षा रखनेवाले पाठकों को संभवतः इन दोनों आत्मसंघर्ष कथाओं में कथ्य की सपाट बयानी अखर सकती है । ज़रूरत लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता के बीच की खाई को पाटने की है । दिल्ली की एक प्रतिष्ठित संस्था ‘‘ जागोरी ’’ ने पिछले वर्ष लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक मंच पर लाकर एक महत्वपूर्ण कार्यशाला आयोजित की थी । ऐसे प्रयासों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है ।



सुगंधि की कहानी - उसकी जुबानी
प्रस्तुति - सुधा अरोड़ा






मेरा जन्म गढ़वाल (आज के उत्तरांचल राज्य ) के एक छोटे से गाँव में 1952 में हुआ । रिखणीखाल नाम का यह गाँव कोटद्वारा से एक घंटे के रास्ते पर पहाड़ी पर स्थित हैं । वहाँ से कपड़े और बर्तन धोने के लिए भी नीचे नदी तक आना पड़ता था । वहाँ पर साठ सत्तर घर ही होंगे जो ज्यादातर खेती ही करते हैं । कुछ के बच्चे मिलिट्री में हैं तो कुछ रोटी - रोजी की तलाश में मुंबई आ गए ।



बचपन की एक घटना मुझे अब तक याद है - जब मैं छः साल की थी तो अक्सर अपनी मौसी के यहाँ रहनेजाती थी । उनका घर ऊँची पहाड़ी पर था । उस इलाके में रोज भालू आया करते थे । ये भालू बच्चों को उठाकर ले जाते थे । भालू के आतंक से बचने के लिए मेरी मौसी घर के दरवाजे पर अंदर से बहुत बड़ा पत्थर रख देती थी । यह पत्थर इतना भारी होता था कि हम सभी बच्चे और मौसी मिलकर उस पत्थर को लुढ़काकर दरवाजे तक ले आते थे । उसके बाद मौसी हम छोटे बच्चों को एक - एक टोकरी में बंद कर खाट के नीचे टोकरी को खिसकाकर रख देती थी । खाट के चारों तरफ चादर लटका देती थी ताकि टोकरियाँ भी दिखाई न दें । हम सभी बच्चे उसी टोकरी में दुबके दुबके सो जाते थे । और यह रोज की बात थी ।


पहाड़ी इलाके में छः साल रहने के बाद 1958 में जब हम मुंबई आए तो यहीं के होकर रह गये । मेरे पिता मोटर गैरेज में फिटर मैकेनिक थे । मै भांडुप के हिंदी स्कूल में पढ़ने लगी । मुझे याद है जब मैं आठवीं कक्षा में थी तब पहली बार मुझे माहवारी हुईं । स्कूल वालों ने मुझे घर भेज दिया । जब मेरी माँ को इस बात का पता चला तो उन्होने मुझे घर के भीतर घुसने ही नहीं दिया । मुझे बाहर ही बिठा कर रखा । मुझे बड़ा अजीब लगा । उन्होंने कहा - पिताजी के ऊपर देवता आता है और मुझे चेतावनी दी गई कि इसके बाद जब भी तुम्हें माहवारी हो सारे काम छोड़कर घर के बाहर रहना पड़ेगा । इस झंझट से बचने के लिए मैं अपनी माँ को माहवारी की बात बताती ही नहीं थी । उन तीन दिनों में लड़की को बिल्कुल अछूत की तरह दहलीज़ के बाहर चटाई पर बिठा दिया जाता था । आज भी कई परिवारों में ऐसा ही रिवाज है ।



मैंने जैसे - तैसे आठवीं तक पढ़ाई पूरी की । इसके आगे मैं पढ़ न सकी क्यों कि सबसे बड़ी लड़की होने के नाते घर के काम - काज में माँ का हाथ बँटाना पड़ता था । मुझसे सोलह साल छोटी बहन आनंदी तभी पैदा हुई थी और माँ का ऑपरेशन हुआ था इसलिए घर में चार छोटी बहनों और एक भाई की जिम्मेदारी मुझपर आ पड़ी ।



मुंबई के भांडुप इलाके के जिस घर में हम रहते थे , वहाँ नल नहीं था । पानी बाहर से भरकर लाना पड़ता था । सबसे बड़ी होने के कारण पानी के हंडे सिर पर उठाकर लाने का काम मेरे जिम्मे था । कम से कम डेढ़ दो सौ लिटर पानी रोज़ लाना पड़ता था । सिर पर पानी के हंडे लगातार रखने के कारण कई सालों तक मेरे सिर पर तालू की जगह घिस गई थी और वहाँ बाल उगने बंद हो गये थे । बहुत बाद में जब मैंने पानी लाना छोड़ा तब मेरे सिर पर तालू वाली बीच की जगह पर बाल उगने शुरु हुए ।



पिताजी का काम काज अच्छा चलता था । उन दिनों उनके पास कुछेक लड़के काम सीखने आते थे । उन्हीं में से एक था फ्रांसिस , जो तमिलनाडु का रहनेवाला था । हम दोनों में पहचान हुई और धीरे धीरे हम एक दूसरे को चाहने लगे । मेरे घर में जब इस बात का पता चला तब घरवालों ने तुरंत मेरी मंगनी अपनी बिरादरी के एक गढ़वाली आदमी से कर दी , जो मुझसे नौ साल बड़ा था । मेरी इच्छा के बगैर मंगनी कर दी गई । जब शादी का समय आया तो मुझे लगा कि मैं उससे शादी नहीं करना चाहती । अपनी मर्जी से शादी के लिए मैने घर छोड़ दिया ।



1970 में शादी के बाद मैं और फ्रांसिस कुर्ला में रहने लगे । तीन - चार महीने के बाद जब सब कुछ ठीक ठाक हो गया तब फ्रांसिस के माता - पिता हमें भांडुप में अपने घर में ले आए । वे मुझे बहुत मानते थे । फ्रांसिस के पिता ने तो शादी के समय ही मुझसे कहा कि तुम यहाँ क्यों चली आई , यह लड़का तुम्हे संभाल नहीं पाएगा ।



बचपन में मेरा नाम पवित्रा था । मैं ठाकुर परिवार की हिंदू लड़की और फ्रांसिस तमिल परिवार का ईसाई । शादी के बाद मुझे चर्च में जाकर अपना धर्म बदलना पड़ा । मुझे नया नाम ‘ सुगंधि ’ दिया गया । सब के साथ मुझे अक्सर रविवार की प्रार्थना ( संडे मास ) के लिए चर्च जाना पड़ता था । मैं बस अपने सास - ससुर का मन रखने के लिए चर्च चली जाती थी ।

क्रमशः




गुरुवार, 26 मार्च 2009

"विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ”

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यह लेखमाला सुश्री सुप्रणीति वरेण्या ने सन २००३ में (अपनी टीनेज़र की अल्पायु में) लिखी थी, जिसे ४३२ पृष्ठों के ग्रन्थ "स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम" (२००४) (प्रधान सम्पादक डॉ.ऋषभ देव शर्मा, सम्पादक डॉ. कविता वाचक्नवीडॉ. गोपाल शर्मा) के लिए महादेवी जी के स्त्री विषयक विचारों पर हिन्दी में अपनी तरह के पहले लेख (`शृंखला की कड़ियाँ ' पर केंदित ) के रूप में प्रकाशित व सम्मिलित किया गया था |  (इस ग्रन्थ में हिन्दी के प्रतिष्ठित ७० लेखकों के आलेख हैं)। 

बाद में सुश्री वरेण्या की यह लेखमाला हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं (यथा, `गवेषणा', केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा आदि ) में भी सम्मिलित हुई व राष्ट्रीय संगोष्ठियों तक में इसके ऐतिहासिक (व इस विषय पर पहली लेखमाला आदि) महत्व का उल्लेख भी हुआ, साथ ही सुश्री सुप्रणीति को ग्रन्थ में सब से कम आयु की लेखक होने का गौरव भी मिला।

भारतीय दृष्टि से एक अत्यन्त संतुलित, सटीक, सही व विवेकपूर्ण स्त्रीविमर्श की दिशा तय करने की दृष्टि से महादेवी जी के इस विमर्श को बारम्बार पढ़े जाने की महती आवश्यकता है। आज उनके जन्मदिवस २६ मार्च को सुश्री वरेण्या द्वारा लिखित इस निबंध को (साहित्यकुंज से साभार) यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। 


यह लेखमाला के तीन भागों में है, जिन्हें यहाँ क्लिक कर पढ़ा जा सकता है -

  1. "शृंखला की कड़िया" : "विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन ....." 
  2. कि अधिक पढ़ी लिखी महिलाओं से विवाह करते उन्हें डर लगता है
  3. "विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ”
- कविता वाचक्नवी
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२६ मार्च ( महादेवी वर्मा के जन्मदिवस ) पर विशेष

"विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ”

- सुप्रणीति वरेण्या


1
स्त्री-पुरुष, दोनों ही समाज के मुख्य अंग हैं। यह आयु आश्चर्य में डाल सकता है कि स्त्री-पुरुष दो ऐसी आत्माएँ हैं जिनमें मात्र शरीर-संरचना में ही अंतर है। परंतु यही शरीर-संरचना उनके मानसिक विकास पर सबसे अधिक प्रभाव डालती है। स्त्री में कोमलता स्वभाववश ही पैदा होती है। इससे ही स्त्री की दशा बेटी दुविधाजनक है, यह कथन पूर्णतया उचित नहीं, परन्तु अनुचित कहना सत्य भी नहीं। समय ने ऐसी विषमता खड़ी कर दी है कि उसने स्त्री की इस स्वभाववश उत्पन्न कोमलता को स्थान-स्थान पर उसकी कायरता, उसकी कमज़ोरी बना दिया है। दुर्भाग्य यह है कि भारतीय नारी ने उसे विधि का विधान मानकर चुपचाप स्वीकार कर लिया है।


भारतीय समाज में स्त्री की महत्ता का अवमूल्यन चिंतनीय है। वह अब भी हर घरेलू काम के लिए विवश है। आज भी उसे सिर ढँकना पड़ता है। आज भी उसे ससुराल की इच्छानुसार धनादि की आपूर्ति न करने पर प्रताड़ना सहनी पड़ती है, मृत्यु तक के लिए विवश होना पड़ता है। आज भी विवाहादि के समय कोई अनिष्ट होने पर मिथ्याओं में विश्वास करने वाले समाज के उलाहने जीवनभर सुनने पड़ते हैं। थोड़े शब्दों में, आज भी स्त्री का महत्व पशु के ऊपर आँका जा रहा है, इतना भी नहीं कहा जा सकता।

महिलाओं के लिए दुर्भाग्य का विषय है कि उन्हें ’मानवी’ छोड़, समाज ने बहुत कुछ माना। वे कभी देवी बनकर पूजनीय वस्तु मान ली गईं, कभी नरक का द्वार। परन्तु यह समझने योग्य बात है कि वह पुरुष कितना कमज़ोर होगा जो एक स्त्री के संपर्क मात्र से नरक में ढकेला जा सकता है।

जब समाज में कहीं कुछ ऐसा घटित हो रहा हो, जिसकी उपस्थिति नाशकारी है तो संभवतः समाज के उस भाग को जो इससे अवगत नहीं है, अवगत कराने के लिए स्वतः ही क्रांतिकारी विचारों वाले व्यक्तियों का प्रवेश हो जाता है। स्त्री की इस दुर्दशा का विषय हम सभी से अछूता नहीं रहा है। हम सभी इन परिस्थियों से अवगत हैं और इन विपरीत परिस्थियों के विरुद्ध कई लोग कई प्रयास कर चुके हैं। इन प्रयासों के बारे में बात करते समय महादेवी वर्मा जैसे व्यक्तित्व के बारे में भूल जाना सर्वथा अनुचित होगा।

महादेवी वर्मा की स्त्री के सशक्तीकरण के विषय में बहुत महती भूमिका रही है। ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ उनके इस कार्य का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह पुस्तक उनके विचारों से ओत-प्रोत है और वे निस्संदेह इस विषय को नए आयाम देने और सोच के लिए नए प्रश्न उठाने में अग्रणी व सफल रही हैं।

श्रृंखला की कड़ियाँपाश्चात्य और पूर्वी समाज की कमज़ोरियों, कमियों व नारी की दशा तथा समस्याओं पर प्रकाश डालती है। आरंभ में ’अपनी बात’ को संक्षेप में यह कहकर वे निष्कर्ष देती हैं कि भारतीय नारी की मूल समस्या असंतुलन है। उसमें कहीं असाधारण दीनता है और कहीं असाधारण विद्रोह। ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ का प्रकाशन पुस्तक रूप में १९४२ ई० में हुआ, जबकि इसमें सम्मिलित विविध आलेख १९३१, १९३३, १९३४, १९३५, १९३६ तथा १९३७ में लिखे जा चुके थे और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चा का विषय बन चुके थे।

महिलाओं का स्वभाव अधिक कोमल होता है। प्रेम और घृणा जैसे भाव अधिक स्थायी रूप में उनके हृदय में वास करते हैं। महादेवी इसे स्पष्ट करके कहती हैं कि नारी की इन्हीं विशेषताओं से उनका व्यक्तित्व समाज के उन अभावों की पूर्ति करता है जो पुरुष द्वारा संभव नहीं। दोनों की प्रकृति पूर्णतया विपरीत है। उन विशेषताओं की अनुपस्थिति समाज में ऐसे रिक्त स्थान उत्पन्न कर देगी जो अन्यथा नहीं भरे जा सकते। प्राचीनकाल में समाज का स्त्री के प्रति स्नेह और सम्मान प्रकट करना इसका द्योतक है कि नारी समाज का महत्वपूर्ण और आदरणीय अंग थी। आर्य नारी ने वैदिक काल में कभी सहधर्मिणी के रूप में पति का अंधानुसरण किया हो, ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं। वे कहती हैं, “छाया का कार्य आधार में इस प्रकार अपने आप को मिला देना है, जिससे वह उसी समान जान पड़े और संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण बनना “

स्त्री सहधर्मिणी से अधिक पुरुष की छाया है, यह सोच शायद किसी अशांत वातावरण की देन है, जिसने पुरुष की इस आपत्तिजनक धारणा को भी सिद्धान्त का रूप दे दिया। साथ ही स्त्री ने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को भुला कर अपने विवेकशक्ति खो दी। उसे अपनी सफलता - असफलता पुरुष की संतुष्टि में दीखने लगी, और इसी कारण-वश, जहाँ स्त्री माता या पत्नी के रूप में गौरवान्वित होती थी, वहीं उसे जीवन उदेश्यहीन तथा पिंजड़े- सा लगने लगा। ऐसे समय में उसे लगा कि ऐसी समस्या का निवारण तब होगा जब वह भी पुरुष के समान बने। परिणामस्वरूप उसने व्यक्तित्व में एक टेढ़ेपन को लाने की कोशिश की, जिसके कारण वह पुरुष समान कठोर बन गई। परंतु स्त्री के मधुर व्यक्तित्व का लोप हो गया। इसी से आज की विद्रोहशील नारी अधिक कठोर, निर्मम, स्वाधीन, स्वच्छन्द परंतु अपनी “निर्धारित रेखाओं की संकीर्ण सीमा की बंदिनी” है। लेकिन यह एक स्वाभाविक तथ्य है कि केवल नारी की कोमलता और सहानुभूति ही समाज पर शीतल लेप की भाँति काम कर सकती है।

हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ शीर्षक के अन्तर्गत महादेवी वर्मा आगे लिखती हैं कि अपने पूर्ण से पूर्ण विकसित रूप में होते हुए भी कोई वस्तु दूसरी वस्तु हो ही नहीं सकती। जो वस्तु उससे भिन्न है, उसका अभाव उसमें सदा रहेगा। एक पूर्ण नारी भी इतनी पूर्ण नहीं हो सकती कि पुरुष के स्वभाव को समाहित कर सके। किसी और गुण की पूर्णता स्वयं के अस्तित्व को पूर्ण बना ही नहीं सकती, इसलिए समाज में संतुलन के लिए स्वभावों का आपसी सहयोग ठीक है, परंतु प्रतिद्वन्द्विता ठीक नहीं।

प्रायः पुरुषों का जीवन स्वच्छन्दता में और स्त्रियों का परंपराओं की सीमा के भीतर बीतता है जो उन्हें बाहर के जीवन से अवगत होने का मौका नहीं देता। इसी से महिलाओं में शुष्कता और आक्रोश जैसे भाव अधिक पाए जाने लगे हैं। ऐसे में स्त्रियों के व्यक्तित्व में स्वाभाविक कोमलता के साथ-साथ साहस और विवेक की आवश्यकता है, जिससे वे किसी भी अन्याय के प्रति जवाब देने में जरा भी न चूकें।

शासन आदि व्यवस्थाओं में आधे समाज के प्रतिनिधि के रूप में स्त्रियों का होना आवश्यक है। स्त्रियों की आवश्यकताएँ, हित संबंधी बातें तो स्त्रियाँ ही समझ सकती हैं और यदि वे प्रतिनिधित्व करें तो समाज भी स्त्रियों के हित-अहित से परिचय पा सकता है।

महादेवी वर्मा के अनुसार ’विवाह’ नामक संस्था पवित्र व उच्चकोटि की है, परंतु वर्तमान काल में उसमें कुछ परिवर्तनों की आवश्यकता है क्योंकि इस पवित्र मानी जाने वाली संस्था में कई रूढ़ियों के प्रवेश के कारण लगातार पतन ही दीख रहा है। स्त्रियों की दुर्दशा के निवारण में समर्थ महिलाएँ भी उचित कदम उठाती नहीं दीख रहीं। जो संपन्न महिलाएँ हैं, वे अपनी गृहस्थी और संतान के लिए सेवक नियुक्त करती हैं, परंतु दुर्भाग्यवश अपना धन और ऊर्जा व्यक्तिगत मनोरंजन आदि में खर्च कर देती हैं। यदि वे इनका सदुपयोग आत्मनिरीक्षण कर अपने स्वत्व को पहचान कर इसी ज्ञान से समाज की मदद कर सकें तो अवश्य ही सुधार के लक्षण दीखेंगे। उन्हें अपने देश की अन्य साधारण महिलओं के अधिकारों, उन्नति के साधनों और अवनति के कारणों से परिचित होना चाहिए। महिलाओं को स्वयं को किसी से ऊँचा जताने की आवश्यकता नहीं, न ही किसी को ऊँचा जताने की, बस आवश्यकता उन्हें उस स्वत्व ही की है जिसे पाकर पुनः समाज का उतना ही महत्वपूर्ण अंग बन सकें; ऐसा स्वत्व जो अचानक रूढ़ियों में कस कर दब गया है। मध्यम वर्ग की नारी स्वावलंबन से रहित है। वह जीवन-भर घरेलू क्लेशों में बँधी रहती है। समाज में भी कोई ऐसी व्यवस्था नहीं जो उन्हें ऐसी परिस्थितियों से उबार कर उनमें आत्मविश्वास भर दे। श्रमजीवी वर्ग की महिलाओं की कहानी सबसे दुःखद है। दिन-भर के असह्य शारीरिक श्रम के पश्चात् जब रात्रि में घर लौटती हैं तब भी उन्हें कुछ शांति के क्षण नहीं मिल पाते। सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि समाज-सुधार के कार्यक्रमों में उन्हें भुला दिया जाता है और वे आजीवन अपने द्रारिद्रय में पीड़ा सहती रहती हैं। उनकी सबसे बड़ी आवश्यकता ज्ञान-प्राप्ति है ताकि वे अपने ऊपर होते अत्याचार का विरोध कर सकें।

महिलाओं का सबसे बड़ा गुण यह है कि वे अपने को और बाह्यजीवन को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेती हैं। वे अपने स्वभाव के गुणों को भी छोड़ने में तत्पर हो सकती हैं, दुःख को परीक्षा मान उसका सामना करती हैं और इसलिए उनकी सतर्कता पुरुष से अधिक प्रतीत होती है। स्त्री में त्याग अथवा बलिदान करने की असीम शक्ति है और वह यह प्रमाणित कर चुकी है कि परिस्थितिवश दुर्बलप्रतीत होती नारी में पुरुष से किसी भी दशा में कम शक्ति नहीं है।

युद्ध और नारी के अन्तर्गत महादेवी लिखती हैं कि पुरुष के जीवन में संघर्ष है तो नारी के जीवन में आत्मसमर्पण। इसी से नारी ने पुरुष की दुर्बलता को पहचान लिया, जब उसकी नीरसता को समझा। गृह के संबंध में वह कहती हैं कि गृहों की नींव स्त्री की बुद्धि पर रखी गई है। स्त्री और पुत्र के आगमन से पुरुष को लगा कि उसे किसी सबल पर शासन नहीं करना बल्कि एक नन्हें निर्बल को सबल बनाना है और एक सामंजस्यपूर्ण गृहस्थी बसाने में उसे कोई आपत्ति नहीं थी। स्त्री ने यह स्पष्ट किया कि अपने शिशु को सबल बनाने के लिए उसे पुरुष की आवश्यकता है और तब से गृह रक्षा और भरण-पोषण की जिम्मेदारी स्वयं पर ली। तब से दैनिक आवश्यकताओं के लिए छीना-झपटी के युद्ध का उद्देश्य बदल गया और युद्ध गृह-समूह की रक्षा के लिए होने लगे। परंतु स्त्रियाँ कभी युद्ध से संबंधित हिंसक धारणा नहीं बना पाईं। उनके लिए युद्ध, युद्ध के अलावा और कुछ नहीं था, था तो उनके गृह-जीवन को धमकाता एक कारण, जिससे उन्हें भय था। क्योंकि वही गृहस्थी अब उनका जीवन बन गई थी।


युद्ध के लिए स्त्री मानसिक और शारीरिक, दोनों ही रूप से अनुपयुक्त तो रही ही, साथ ही उसके विकास में भी यह आड़े आया। जहाँ युद्ध का वातावरण हो, वहाँ एक स्त्री अपने गुणों में स्वतः अपूर्ण हो जाती है, क्योंकि अगले दिन मृत्यु की आशंका लिए बैठे पुरुष के पास नारी के सभी गुण आँकने का समय नहीं, उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं। वह एक रूप की पुतली से अधिक सार्थक नहीं हो पाती और ऐसे में उसके सभी गुण विकसित नहीं हो पाते।

पुरुष के स्वार्थों का दायरा धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसे अधिकारों की सीमा का विस्तार करने की चाह परेशान करने लगी। उसके लिए यह असह्य हो गया कि स्त्री अधिकारों की कामना में रुकावट बने। यदि स्त्री सलाह दे तो अहम् पर चोट पड़ती और यदि उसकी हर बात दुःखी मन से चुपचाप स्वीकार ले तो उसके साहस का उपहास होता। अतः बीच का मार्ग अंततः उसने निकाल ही लिया। उसने नारी के सम्मुख यह तर्क रखा कि युद्ध के प्रति उसकी विमुखता उसकी कायरता है, मूल रूप से दुर्बल होने पर उसकी भावुकता का आवरण काम आता है। बस, फिर स्त्री में चुनौती का उत्तर देने की ललक जाग उठी और वह यह कामना करने लगी कि वह पुरुष की बराबरी में खड़ी हो जाए और जो निष्ठुरता उसकी प्रकृति के विरुद्ध थी, वही निष्ठुरता उसके स्वभाव में बसने लगी। पुरुष को भी अपना मार्ग विस्तृत प्रतीत हुआ। फलस्वरूप आज सामान्यतः युद्ध-प्रिय आधुनिक देशों की नारियों को लगता है कि यदि उनमें दया, करुणा, प्रेम जैसे स्वाभाविक गुण हैं, तो वे जीने योग्य नहीं। पुरुष-सा पाशविक बल और संहार करने की लालसा उनके मन में प्रतिदिन बढ़ रही है।

नारी की कोमलता में उसकी दुर्बलता ने शरण ले ली है।नारीत्व का अभिशापकी चर्चा करते हुए महादेवी कहती हैं कि मानसिकता और शारीरिक बल का समन्वय अत्यन्त आवश्यक है, परंतु प्रायः एक बल की कमी दूसरे की अधिकता से भर जाती है। अतः उसके पशुबल की न्यूनता को आत्मबल से भरना बहुत ही स्वाभाविक है। अपने युद्ध-कौशल में भी प्रतिद्वंद्वियों को चकित करने वाली स्त्री निहत्थी होकर भी, बलवान विपक्षियों से घिरी रह कर भी, अपने आत्मसम्मान की रक्षा कर चुकी है।

समाज को अपनी शक्ति से अधिक देकर, त्याग कर आज की नारी संज्ञाहीन हो गई है, इतनी कि कठोर से कठोर दिल दहला देने वाली यंत्रणाएँ भी वह मूकभाव से सह लेती है। समाज और घर, दोनों ही ओर स्त्री की दशा दयनीय है। विवाह से पूर्व वह पराया धन है, जहाँ उसे सदा ’अपने’ घर जाने की शिक्षा मिलती है। विवाह के समय मानो उसका मोल-भाव होता है और उसी का घर विवाहोपरांत इतना पराया हो जाता है कि दुःख के क्षणों में उसे आत्मीयता और संबल नहीं मिलता, विपत्ति में अन्न के दाने तक नहीं। पतिगृह भी उपेक्षा के अलावा और कुछ देने में असमर्थ ही लगता है। यदि वह अपने पति की अपेक्षा के अनुकूल न हो या उसे वह देने में समर्थ न हो जो पति की इच्छा हो तो उसका शेष जीवन अंधकार में ही बीत जाता है। स्त्री एक बंदिनी के समान है, चाहे सोने का पिंजरा हो या लोहे का, वह स्वतंत्रता की अधिकारिणी नहीं है। वह जिस व्यक्ति की बंदिनी है, वह उसके साथ कैसा भी व्यवहार करे, उसे अवश्य साधुवाद मिल जाएगा। महादेवी स्पष्ट करती हैं – “उनके विचारों में नारी मानवी नहीं, देवी है और देवताओं को मनुष्य के लिए आवश्यक सुविधाओं का करना ही क्या है! नारी के देवत्व की कैसी विडंबना है!”

यदि दुर्भाग्य से वह विधवा हो जाए तो अपने बालक के भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी उसी पर आ पड़ती है। रूढ़ियों से बँधे समाज में शास्त्रों के नियमों को पालने की इतनी ललक अचानक पैदा हो जाती है कि वह इसके लिए एक निरपराध स्त्री को मृत्यु से भी भयंकर दुःखों में ढकेलने के उपरांत भी नहीं हिचकिचाता।

समाज में स्त्री का मूल्य आज जरा भी नहीं। यह तो इसी से स्पष्ट होता है कि स्त्री के अपहरण जैसी कुरीति आज समाज में निरंतर फैल रही है। स्त्री स्वयं भी आज अपने दुःखी जीवन से इतनी परेशान है कि वह इससे छुटकारा पाने के लिए कोई भी मूल्य देने को तैयार है। नारी-अपहरण जैसी समस्या जहाँ मुँह-बाए खड़ी है वहाँ हमारे युवकों का लम्बी तान कर सोना एक आश्चर्य है।

सबसे मूर्खतापूर्ण स्थिति तो तब प्रकट होती है,जब कुछ तर्कशील पुरुष यह तर्क देते हैं कि स्त्रियों को आत्मरक्षा करने से कौन रोकता है? यदि प्रत्येक मानव आत्मरक्षा में इतना ही समर्थ होता तो मनुष्य जाति को कभी सैनिकों और हथियारों की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज आत्मनिर्भरता, अपनी गरिमा, अपने अस्तित्व तक को भुला चुकी महिला से यदि अपने आत्मसम्मान और गरिमा की रक्षा की बात की जाए तो वह अवश्य ही एक निरर्थक प्रयास है।

यदि इसके विरुद्ध एक ऐसा देशव्यापी आंदोलन स्थान ले जिससे लोगों का हृदय नारी वेदना के प्रति संवेदनशील बने और नारी स्वयं भी अपने अस्तित्व और गरिमा को पहचाने तो परिस्थितियों में सुधार की संभावना है “....... अन्यथा नारी के लिए नारीत्व अभिशाप तो है ही.....।“

आधनिक स्त्री परंपरागत रूढ़ियों से जकड़ी स्त्री से अधिक सतर्क लगती है। जब स्त्री को लगा कि उसकी कोमलता पुरुष के सामने उसकी कमजोरी है तो उसने उसे समूल नष्ट कर दिया। अपनी भावुकता और बाह्य संघर्ष के लिए पुरुष पर निर्भर होने की इस प्रकृति को उसने जड़ से उखाड़ फेंका। परंतु वह इस तथ्य से अपरिचित नहीं थी कि कोमलता उसका प्राकृतिक गुण है। अपने इस प्राकृतिक गुण पर नियंत्रण पाकर वह चाहे बाहरी परिस्थितियों का सामना कर लेती हो, परंतु वह अंदर सुखी नहीं।


पाश्चात्य जीवन शैली की नारी भारतीय नारी की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र प्रतीत होती है – साधारणतः आर्थिक आदि दृष्टि से, परंतु महादेवी के अनुसार सामाजिक बंधनों से वह आज भी (चाहे अनभिज्ञ होकर ही) बँधी हुई है। पाश्चात्य नारी की स्वतंत्रता उसे पुरुष के मनोविनोद की वस्तु बने रहने के जंजाल से छूटने का अवकाश देती है, परंतु उसका श्रृंगार के प्रति लगाव, रूप को स्थिर रखने का आकर्षण, साधन और उपकरणों का प्रयोग उसकी दुर्बलता दिखाता है कि उसकी रमणीत्व की इच्छा नहीं नष्ट हुई, उसे गरिमा प्रदान करने वाले गुण अवश्य खो गए। जहाँ उसने पुरुष को नीचा दिखाने के लिए कठिन परिश्रम किया, वहीं वह पुरुष की अपने प्रति जिज्ञासा को जगाने के लिए सौंदर्य को प्रधानता देने लगी। उसका मन सौंदर्य आकर्षण में इतना उलझा है कि उसे स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता।

जिस तरह इंद्र धनुष के रंग हमें विस्मित तो कर देते हैं, पर इससे अधिक उनकी सार्थकता नहीं बन पाती, एक आकर्षक नारी की पुरुष के सामने महत्ता भी वैसी ही रह जाती है। आधुनिक नारी अपने नारीत्व की उपेक्षा भी नहीं सह सकती और इसलिए ऐसा मार्ग अपनाती है। परंतु इस आकर्षित करने वाले मार्ग में भी निरर्थकता है क्योंकि उसका अस्तित्व पुरुष के लिए अधिक मायने नहीं रखता। अतः दोनों ही स्थितियाँ महिलाओं के लिए दुष्कर हैं और आधुनिक पश्चिमी (और भारतीय भी) नारियाँ इन्हीं में जकड़ कर रह गई हैं।

आगे - (भाग-२)

गुरुवार, 19 मार्च 2009

औरत की दुनिया : सुधा अरोडा

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औरत की दुनिया



औरत की दुनिया स्तम्भ का प्रथम भाग २७ फरवरी को आपने पढा था। इसे दुहराने की आवश्यकता नहीं कि इस स्तम्भ को हिन्दी की सम्मानित वरिष्ठ कथाकार सुश्री सुधा अरोड़ा (औपचारिक परिचय गत अंक में देखें) द्वारा लिखा जा रहा है।


गत अंक में सुगंधि व सखुबाई की संघर्षगाथा का प्रथम आमुख आपने पढ़ा। इस बार उस गाथा का उत्तर आमुख आप सुधा जी की कलम से यहाँ पढ़िए व अपने मित्रों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित कीजिए। आगामी अंक में क्रमशः दोनों की आत्मकथाएँ सम्मिलित की जाएँगी.

- कविता वाचक्नवी



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गतांक से आगे






- दस बाई दस के कमरों से खेत खलिहानों तक : सुगंधि और सखूबाई की संघर्ष कथा -






सखूबाई गावित महाराष्ट्र में डहाणु तालुका के मेगपाड़ा बांदघर गाँव की एक आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता हैं । पिछले दस वर्षों से वे ‘ कष्टकरी संघटना ’ के साथ काम कर रही हैं । यह संगठन छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों के हित के लिए कार्य करता है । सखूबाई की प्रेरणा और प्रयास के कारण ही इस संगठन ने गाँव में अपनी एक जगह बनायी है ।



भारत के गाँवों कस्बों में आज भी प्रताड़ना का सिलसिला जारी है। किसी भी औरत को चुडैल या डायन घोषित कर उसके साथ मनमाना सुलूक किया जाता है। इसमें कई बार गाँव की दूसरी औरतें भी शामिल हो जाती हैं। ऐसी औरतें जिन्हें उस औरत से कोई ज़ाती नाराजगी या पुराना बैर हो । कुछ औरतें तमाशा या हिंसा देखने के लिहाज से जमा हो जाती हैं। फिल्मों में जैसी हिंसा, तोड़ फोड़, मारपीट दिखाई देती है, रोजमर्रा की वास्तविकता में उसे सामने घटते हुए देखना भी एक विचित्र परपीड़न को पोसता है ।



इस तरह की घटनाओं में कई बार ‘ डायन ’ औरत को पीट पीट कर उसकी हत्या भी कर दी गयी है। लेकिन हर बार हत्यारे छूट जाते हैं क्योंकि हत्यारा कोई एक नहीं, पूरा समूह होता है और गाँव की व्यवस्था उसे सहमति देती है ।



सखूबाई इसके पीछे के कारणों की जाँच में कुछ तथ्यों को सामने रखती है, ‘मुझे भी किसी दिन मौका मिलते ही ये लोग ‘ चेटकीण ’ (चुड़ैल) बता देंगे । मुझे दबाने के लिए दूसरों को भी भड़काएंगे ! ’ सखूबाई कहती है, ‘ ऐसी औरतें जो मजबूत हैं, जो अपने हक के लिए लड़ती हैं, उन्हें ‘ चेटकीण ’ बुलाने का मौका ढूँढते हैं ये लोग ! ’



औरत को डायन ठहराने के पीछे के कारणों की खोज करें तो कुछ रोंगटे खड़े कर देने वाले तथ्य हाथ लगते हैं । महाराष्ट्र के कैनाड गाँव में एक जमीदार ने एक ऐसी औरत को डायन कहकर प्रचारित कर दिया जिसके आदमी की उन्हीं दिनों मौत हुई थी और उसे उसकी जमीन उसकी विधवा के नाम करनी थी। जमीदार ने कहा कि यह डायन अपने पति को खा गई , इसे गाँव से बेदखल करो। ऐसी विधवा औरतें जिनके बच्चे छोटे छोटे हैं, जिन्हें जमीन अपने नाम करवानी है , उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल करने के लिए उनके बारे में अफवाह फैला दी जाती है कि वे जादू टोना करती हैं । उनके ही पति की मौत की घटना को उन्हें डायन ठहराने के साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जाता है । संयोग से अगर उस दौरान गाँव के किसी भी बच्चे की किसी भी हारी बीमारी से मौत हो जाए तो उसकी जिम्मेदारी सीधे उस औरत पर डाल दी जाती है, जिसे डायन घोषित कर कुछ लोगों का स्वार्थ सधता है और गाँव के अधिकांश लोग झट इस तरह की घटना को डायन के कारण आई आपदा मानकर अपनी तार्किक बुद्धि को ताक पर रख उस औरत की जान के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं ।



गाँव की किसी भी औरत को उसकी जमीन से बेदखल करने के लिए सबसे आसान तरीका उस जमीन पर कब्जा पाने वाले लोगों को यही लगता है कि काँटे को किसी न किसी बहाने से जड़ से ही उखाड़ डालो। कोर्ट कचहरी के चक्कर में बरसों निकल जाते हैं और हासिल कुछ नहीं होता, वकीलों को घूस देनी पड़ती है फिर भी जमीन हाथ में आने की गारंटी नहीं होती । इसलिए सुनियोजित साजिश को अंधविश्वास का जामा पहना कर गाँव वालों को अपने पक्ष में कर लेना उनके लिए आसान सिद्ध होता है क्योंकि गाँव के लोगों में इस ‘अंधविश्वास’ की जड़ें गहरे तक धँसी हुई है और अंधविश्वास को कोई पुलिस या व्यवस्था बदल नहीं सकती



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क्रमश:



- सुधा अरोड़ा




बुधवार, 18 मार्च 2009

इस्लाम कोई ‘मेन्स-ओनली’ क्लब नहीं

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इस्लाम कोई ‘मेन्स-ओनली’ क्लब नहीं
--शीबा असलम फ़हमी








जब से होश सम्भाला अपने आस-पास जो मुस्लिम समाज देखा उसमें बहुत से मर्द अपनी बीवियों-बहनों से ज़्यादा पढे़-लिखे थे, मगर बहुत-सी औरतें भी अपने शौहरों या भाइयों से ज़्यादा पढी-लिखी थीं। यह भी देखा कि शौहर अपनी बीवी का खर्च उठाते हैं, मगर यह भी कि कई बीवियाँ भी काम करती हैं और अपने शौहरों का खर्च उठाती हैं। कुछ मर्दों को घर पर रहकर घर और बच्चों की देखभाल में मज़ा आता है, तो कुछ औरतें बाहर की दुनिया में मग्न दिखती हैं। एक ही घर में भाई को खाना पकाने का शौक है तो बहन इंजीनियरिंग कर रही है, ऐसी भी औरतें देखीं जिन्हें अपने शौहर की दूसरी शादी से सख्त एतराज़ है, और ऐसी भी कि जो यह मानने से इन्कार करती हैं कि ‘अल्लाह ने शौहर को बीवी की पिटाई का हक दिया है’। और बहुत सी ऐसी औरतें भी देखीं जो यह मानने को तैयार ही नहीं कि अधिकार सारे मरद के और कर्तव्य सारे औरत के हों।



मगर मुल्ला हज़रात तो कुछ और बताते हैं। उनके अनुसार अल्लाह ने हर मर्द को हर औरत से आला बनाया है। इसलिए मर्द और औरत के बीच बराबरी नहीं हो सकती। वे यह भी कहते हैं कि उनके इन दावों पर औरत सवाल नहीं खडे़ कर सकती क्योंकि यह अल्लाह का कानून है। मुल्लाओं के अनुसार औरत पर मर्द का मालिकाना हक है। वह उसका ‘खाविंद’ और ‘क़व्वाम’ है। कोई इन मुल्लाओं से पूछे कि क्या कोई ऐसा शख़्स होगा जो खुशी-खुशी इस व्यवस्था को मान ले कि उसका वजूद सिर्फ पिटने, सेवा करने, जुल्म सहने, तिरस्कार झेलने और सारे समाज और दुनिया से छुपकर चारदिवारी में रगड़-रगड़ कर जीने के लिए है? क्या यह व्यवस्था किसी होशमंद इन्सान को मंज़ूर हो सकती है? और क्या यह मुमकिन है कि जो मज़हब ज़बान, पहनावा, खानपान, नस्ल, ज़ात, लिंग, स्थान व समय की सीमाओं से ऊपर उठकर, सारी कायनात को अपने [इस्लाम के] दायरे में लाने का दावा करे, वह दुनिया की आधी आबादी को मुन्किर [अल्लाह को न माननेवाला], बागी़ व नाफ़रमान होने की तरफ धकेल दे? क्या इस्लाम जैसे एम्बीशियस मज़हब की परिकल्पना इतनी अधकचरी और कमज़ोर होगी कि वह यह नहीं जानती कि एक मां के रूप में यही औरत अपनी औलाद को किस दिशा में मोड़ सकती है? क्या सिर्फ मुसलमान में पैदा हो जाने से एक औरत खुद को बेइज़्ज़ती व तिरस्कार के लिए तैयार कर लेती है? और यह भी सुनती है कि जहन्नम में भी औरतें ही ज़्यादा जाएंगी। मतलब यह कि ‘यहां’ से ‘वहां’ तक ऐश सिर्फ मर्द करेगा। मौलाना, तो फिर औरतों के लिए क्या आफर है कि वह अकी़दे में रहे? और इस तरह के इस्लाम को फैलाकर आप इस्लाम की कैसी खि़दमत कर रहे हैं? समझ में नहीं आता कि अपने क्षुद्र स्वार्थों को पोषित करने मात्र के लिए मुल्लाओं ने न केवल स्त्री समाज में भय, संशय और नफरत का माहौल पैदा कर दिया बल्कि इस्लाम को हास्यास्पद अतार्किक और बर्बर धर्म भी बना डाला है।......



अभी भारत में अल्पसंख्यकवाद की चादर ने इन मुद्दों को ढंक रखा है पर इंटरनेट के ज़माने में यह ज़्यादा दिन नहीं चलेगा। इस्लाम सारी कायनात के लिए आया है जहां न सिर्फ इन्सानों बल्कि जानवर व पेड़-पौधों तक के अधिकार व सम्मान सुरक्षित रखे गए हैं इसलिए औरतों को इस्लाम ने जो दिया है उसे मुल्लाओं के चंगुल से छुडाना ही है।



हंसके मार्च २००९अंक के लेख का अंश



मंगलवार, 17 मार्च 2009

पीड़ा और शिकायत भी

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एकालाप



बनाया था माँ ने वह चूल्हा




चिकनी पीली मिट्टी को
कुएँ के मीठे पानी में गूँथ कर
बनाया था माँ ने वह चूल्हा
और पूरे पंद्रह दिन तक
तपाया था जेठ की धूप में
दिन - दिन भर
दिशा अदल - बदल कर.



उस दिन
आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,
हमारे घर का बगड़
बूँदों में नहा कर महक उठा था,
रसोई भी महक उठी थी -
नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था.



गाय के गोबर में
गेहूँ का भुस गूँथ कर
उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से
और आषाढ़ के पहले
बिटौड़े में सजाती थी उन्हें
बड़ी सावधानी से .


बूँदाबाँदी के बीच बिटौड़े में से
बिना भिगोए उपले लाने में
जो सुख मिलता था ,
आज लॉकर से गहने लाने में भी नहीं मिलता.


सूखे उपले
भक्क से पकड़ लेते थे आग
और
उँगलियों को लपटों से बचाती माँ
गही में सेंकती थी हमारे लिए रोटी
- फूले फूले फुलके.



गेहूँ की रोटी सिंकने की गंध
बैठक तक ही नहीं , गली तक जाती थी.
हम सब खिंचे चले आते थे
रसोई की ओर.


जब महकता था बारिश में बगड़
और महमहाती थी गेहूँ की गंध से रसोई -
माँ गुनगुना उठती थी
कोई लोकगीत - पीहर की याद का.



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.



बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.


आग बढ़ती है
तो रोटी जलने लगती है.
तेरे बहनोई को जली रोटी पसंद नहीं रे!
रोटी को बचाती हूँ तो उँगली जल जाती है.



माँ की उँगलियाँ छालों से भर जाती थीं
पर पिताजी की रोटी पर एक भी काला निशान कभी नहीं दिखा!



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.


बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके ,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.



आग बुझती है
तो रोटी फूलती नहीं
तेरा भानजा अधफूली रोटी नहीं खाता रे!
बुझी आग जलाती हूँ तो आँखें धुएँ से भर जाती हैं.



माँ की आँखों में मोतियांबिंद उतर आया
पर मेरी थाली में कभी अधफूली रोटी नहीं आई!



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.


रोटी बनाना सीखती मेरी बेटी
जब तवे पर हाथ जला लेती है,
आँखें मसलती
रसोई से निकलती है.
तो लगता है
माँ आज भी गुनगुना रही है .



मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न!
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.


-
ऋषभ देव शर्मा



शुक्रवार, 13 मार्च 2009

उन्हें कब किस महिला ने गाली दी, मुझे बताइये

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http://www.wethewomen.org/images/women-power_18.jpg


गत दिनों स्त्रीविमर्श के हमारे नियमित स्तम्भ एकालाप के अंतर्गत प्रस्तुत कविता को मैंने चिट्ठाचर्चा के अपने सोमवासरीय स्तम्भ में सम्मिलित किया। हिन्दी ब्लॉग जगत में विश्व महिला दिवस पर जिन प्रश्नों को उठाया दोहराया गया, उनके सन्दर्भ में उक्त स्तम्भ में इसे सम्मिलित किया था। और, क्योंकि कविता की संवेदना व विचार की तीव्रता अत्यन्त मारक थी सो मैंने इसकी एक काव्यपंक्ति (औरतों के जननांग पर फहरा दो विजय की पताका) को उस अपने स्तम्भ के लिए शीर्ष पंक्ति के रूप में चुना। इसका प्रतिफल जहाँ एक और यह हुआ कि बहुत से लोगों को यह आपत्तिजनक लगा ( उन्होंने अपनी तीव्रातितीव्र आपत्तियाँ दर्ज़ भी करवाईं ), दूसरी ओर कुछ सहृदय ब्लॊग लेखकों को उन स्त्री प्रश्नों/ विषय पर लिखने की मानसिकता में घेरा भी।



ऐसा ही एक उदाहरण सिद्दार्थशंकर त्रिपाठी जी के सत्यार्थमित्र पर आज देखने को मिला । वे लिखते हैं कि -




"हाल ही में ऋषभ देव शर्मा जी की कविता औरतें औरतें नहीं हैं’ ब्लॉगजगत में चर्चा का केन्द्र बनी। इसे मैने सर्व प्रथम ‘हिन्दी भारत’ समूह पर पढ़ा था। बाद में डॉ.कविता वाचक्नवी ने इसे चिठ्ठा चर्चा पर अपनी पसन्द के रूप में प्रस्तुत किया। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस (८ मार्च) के अवसर पर स्त्री विमर्श से सम्बन्धित चिठ्ठों की चर्चा के अन्त में यह कविता दी गयी और इसी कविता की एक पंक्ति को चर्चा का शीर्षक बना दिया गया। इस शीर्षक ने कुछ पाठकों को आहत भी किया।"


यह लेख यद्यपि उन्होंने बड़े सद्भाव व स्त्रीजाति के प्रति आत्मीयता से प्रेरित हो कर लिखा है किंतु लेख के अंत में उन्होंने स्त्री सशक्तीकरण के प्रयास में जुटी स्त्रियों संगठनों के प्रति कुछ ऐसी बातें कह दी हैं जिनका समाधान अनिवार्य है देखें -
("
आजकल स्त्री विमर्श के नाम पर कुछ नारीवादी लेखिकाओं द्वारा कुछेक उदाहरणों द्वारा पूरी पुरुष जाति को एक समान स्त्री-शोषक और महिला अधिकारों पर कुठाराघात करने वाला घोषित किया जा रहा है और सभी स्त्रियों को शोषित और दलित श्रेणी में रखने का रुदन फैलाया जा रहा है। इनके द्वारा पुरुषवर्ग को गाली देकर और महिलाओं में उनके प्रति नफ़रत व विरोध की भावना भरकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जा रही है। यह सिर्फ़ उग्र प्रतिक्रियावादी पुरुषविरोधवाद होकर रह गया है। यह प्रवृत्ति न सिर्फ़ विवेकहीनता का परिचय देती है बल्कि नारी आन्दोलन को गलत धरातल पर ले जाती है।")

इस लेख को प्रथम दृष्ट्या पढ़ कर मेरे मन में कुछ विचार उठे ( या प्रतिक्रिया जो जन्मी), वे एक प्रकार से उन तर्कों ( वस्तुत: आक्षेपों) का उत्तर हैं जो उन्होंने अनचाहे ही स्त्री के शोषण के विरुद्ध कार्य करने वाली इकाइयों अथवा संगठनों पर प्रश्नचिह्न -से लगाए हैं।

मेरा मानना कहना है कि -


कविता वाचक्नवी said...

सिद्धार्थ जी,

आपने इस लेख को जिस भावना से लिखा है उसके प्रति मेरी शुभकामनाएँ,बधाई। अच्छा लगता है कि ऐसा वातावरण बनने लगे जब महिलाओं के प्रति मानवीय दृष्टि से समझ विकसित करने की आवश्यकता अनुभव हो।

जिसको प्रकृति द्वारा जैसा बनाया गया है, उस से उसे शिकायत नहीं है, उसी प्रकार स्त्री को प्रकृति से कोई शिकायत नहीं है अपितु वह इस सुख की दावेदार, बल्कि मैं कहूँगी कि अधिकार की दावेदार, होने पर गर्वोन्नत ही होती है कि woman is second to God. इसलिए इस विषय में दयादृष्टि जैसा भाव भी उसे खलता है और इस स्थिति का लाभ उठाने की ताक में लगे रहने वाला भाव भी।

यदि किसी समाज में उसकी सम्पूर्ण आबादी के आधे हिस्से का २ प्रतिशत ( यानि कुल आबादी का १ प्रतिशत )स्त्री के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाता है, तो इसमें तिलमिलाने जैसी बात कहीं होनी ही नहीं चाहिए। ऐसे तर्क उठने ही नहीं चाहिएँ कि स्त्री-पुरुष का मुद्दा क्यों कहा जा रहा है। आप गिन सकते हैं कितनी स्त्रियाँ वेश्या हैं ( वेश्या कौन बनाता है, किसके आनन्द का साधन हैं वे?) कितनी विधवाएँ सिर मुँडाए अपना जीवन गर्क करती हैं? ( ताकि कहीं किसी पुरुष की दृष्टि रूप पर न पड़ जाए), कितनी बुर्कों में हवा,प्रकाश, धूप तक से वंचित हैं?(ताकि किसी पुरुष का ईमान न डोल जाए)। बाकी सारे एक लाख-भर मुद्दों को छोड़ भी दिया जाए तो यही तीन मुद्दे काफ़ी हैं यह बताने को कि बात केवल कमजोर या सबल की नहीं है। ( बलात्कार का प्रतिशत भी आपको पता ही होगा, उसे भी इसमें और जोड़ लें)।

बात कमजोर और सबल की तब होती जब पता चलता कि क्या किसी कमजोर पुरुष को बुर्का पहनाया गया? या उसे विधुर होने पर जीवन कारा में मरने के लिए छोड़ दिया गया? या किसी महिला ने सबल होने पर अपने बेटे से शारीरिक सम्बन्ध बनाए?

अब एक उदाहरण देती हूँ। आजकल बहुधा बूढ़ों के प्रति उनकी अपनी सन्तान का व समाज का रवैया कितना स्वार्थ का रूप ले चुका है, आप जानते हैं। ऐसी ऐसे भयंकर घटनाएँ, अपने माता-पिता तक की हत्या आदि व न जाने क्या क्या हो रहा है। वृद्धों के अधिकारों की रक्षा करने वाले संगठन व लोग इसका प्रतिकार करते हैं व एक मिशन की भाँति इस दिशा में प्रयास करते हैं कि ऐसी सन्तान के स्वार्थ से उन्हें बचाया जाए। ऐसे लोगों की सामजिक निन्दा, बहिष्कार, हुक्का-पानी बन्द आदि भी किसी न किसी रूप में करवाए जाने की आवश्यकता अनुभव होती है। ताकि वे चेतें, और न चेतें तो दण्ड दिलवाया जाए। अस्तु। क्या वृद्धों के उत्पीड़न वाले मसले पर कोई यह कहता है कि नहीं इसे वृद्ध बनाम सन्तान या युवा का मामला मत बनाओ, यह तो कमजोर बनाम सबल का मामला है।

समाज का सबल वर्ग जिस भी भेस में जिस भी संबन्ध व इकाई पर अपनी सबलता का दुरुपयोग करेगा, वह उस वर्ग पर प्रश्नचिह्न लगाएगा ही।

और क्या ये महिला संगठन सास द्वारा, ननद द्वारा, या बहू द्वारा परस्पर किए जाने वाले अत्याचार को सही ठहराती हैं? क्या ऐसे प्रकरणों में वे उन भूमिकाओं में महिलाओं की निन्दा नहीं करतीं?

सीधी-सी बात है कि अनुपात के आधार पर यह निर्धारण होता है, स्त्रियों के शोषण का ९०% भाग जब पुरुष के माध्यम से सम्पन्न होता, उसके कारण होता है, उसकी शारीरिक व मानसिक कुँठाओं के कारण रचे गए छद्म द्वारा होता है तो सामान्यत: उसे ही तो दोष दिया जाएगा ना!

और जो लोग इस शोषण में हिस्सेदार नहीं हैं, उसे/उन्हें कब किस महिला ने गाली दी, मुझे बताइये। किसने कहा कि वे टार्गेट हैं? ऐसे पुरुषों को कितना मान व आत्मीयता मिलती है, सम्भवत: यह बताने के वस्तु नहीं। और मजे की बात तो यह कि इस मान व आत्मीयता को भी पुरुषों ने स्त्री को ठगने का माध्यम बना लिया है। वे एक प्रकार का स्त्रीहित का छद्म ओढ़ कर महिलाओं की भावनाओं से खिलवाड़ करने से भी नहीं चूकते। बहुधा पुरुष ऐसे भी धूर्त हो जाते है,हैं। स्त्रीविमर्श के नामलेवा तथाकथित नामचीन पुरुषों से आप परिचित ही होंगे।

ऐसे में स्त्री किस आधार पर विश्वास करे पुरुष का। उसके विश्वास को छलनी करने वालों को दोष देने की अपेक्षा यदि कोई कातर,छले हुए को ही दोष दे तो क्या कहा जाए उसकी सोच पर।

यदि वास्तव में पुरुष की अस्मिता को स्त्री से इस प्रकार दोषी ठहराए जाने पर कष्ट पहुँचता है तो इसके लिए स्त्रियों को चुप करवाने की अपेक्षा पुरुषों को धिक्कारने में,शोषण से रोकने में स्त्रियों के साथ मिलकर यत्न किए जाने चाहिएँ ताकि समाज में इस स्त्रियों के लिए रचे गए इस नर्क को समाप्त किया जाए व पुरुषों को भी दोष आने से।

जो पुरुष इस नर्क को रचने में कदापि भागीदार नहीं हैं, वे यह भी जानते हैं कि पुरुषों को दोषी ठहराने वाला तीर उन पर नहीं ताना गया। इसका निशाना वे हैं जो इस पातक के कर्ता हैं। यदि कक्षा में अध्यापक सब बच्चों को डाँटे- फटकारे कि जूते ठीक से पॊलिश नहीं करते हो, या गन्दे ही शाला चले आते हो, तो क्या नियमित व अनुशासनबद्ध रहने वाला कोई विद्यार्थी इस पर तिलमिलाएगा? या क्या ऐसा भी मानेगा कि उसे जूतों के लिए डपटा गया?

अत:जिन पर ये बातें लागू नहीं होतीं, उनको दोषियों के धिक्कारे जाने पर विचलित होने या धिक्कारने वाले को दोष देने या चुप करवाने की जरूरत क्यों आन पड़ती है?

हर अपराधी को दण्ड/ फाँसी मिलनी चाहिए, मिले! परन्तु जो अपराध में संलिप्त नहीं है, उनका न्यायप्रक्रिया या अपराध की प्रतिक्रिया करते व्यक्ति को ही दोषी ठहराना गले न उतरने वाली बात है।

ऋषभदेव जी की कविता पढ़कर उस दिन ‘कुछ’ लोगों ने अपनी तिलमिलाहट में प्रश्नचिह्न लगाए कि "सब पुरुष ऐसे नहीं होते", "उक्त कविता का लेखक भी तो पुरुष ही है" आदि आदि। बात सही है। और यही प्रमाणित करती है कि जो पुरुष स्त्री की अस्मिता की रक्षा के युद्ध में उसके साथ खड़े हैं, उन्हें स्त्री कभी नहीं धिक्कारती। उन्हें स्त्रियाँ मान ही देती हैं। इसका प्रमाण भी यही उदाहरण है कि एक पुरुष की रचना को एक स्त्री ने इतने आदर पूर्वक छापा और उसकी एक पंक्ति के मान के लिए चक्रव्यूह में घिर लोहा लिया। और, इतना ही नहीं, उस पुरुष को अन्य महिला-प्रकल्पों में भी अत्यन्त आदर दिया गया।

दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं कि उन्हें हर स्त्री केवल देह दिखाई देती है। उदाहरण आप से छिपा नहीं है। जब किसी की प्रशंसा में लिखते लिखते लेखक इतना बहक जाता है कि उसके घर परिवार की स्त्रियों पर ही उसकी कलम बहक जाती है। ‘इन्द्रलोक’ (संकेत समझ रहे होंगे)की कल्पना ही उसका ईमान डिगा देती है और वह सामान्य सामाजिक मर्यादा तक से स्खलित हो जाता है कि ....।

और अरविन्द मिश्रा की उस समझ पर क्या कहूँ, जो स्त्री के समक्ष पुरुष के दैहिक बल अधिक होने को स्त्री के "अभिभावक" होने का नाम देकर अपना अहं पोसते हैं और स्त्री के मानापमान की रक्षा करने वालों को SHE MAN और दुनिया के सारे शोषक व चुगद दम्भी पुरुषों को HE MAN समझ उनकी ओर से स्त्री को वस्तु ही ठहराते हैं, जो केवल पुरुष द्वारा उसके आनन्द व उपभोग के लिए बनी है, उसकी मानसिक शारीरिक तृप्ति के लिए बनी है। जब तक, जब-जब, जो-जो आनान्ददायी रहेगी तब तक, वह-वह अच्छी स्त्री कहलाएगी वरना गन्दी, घटिया, पथभ्रष्ट, समाज की पातक व और जाने क्या क्या कहलाएगी।

आपके बहाने बहुत-सी चीजें साफ़ कहने का अवसर मिला, आपके प्रश्नों ने विचार के लिए बाध्य किया, तदर्थ आभारी हूँ। आपकी जागृत सम्वेदना प्रशंसनीय है, बस, उसे बहकने मत दीजिए, अभी उसे बहकाने वालों के असर से बाहर आना है, बस। मानवीयता के संस्कार जब हिलोरें लेते हैं तो समाज मुस्काता है।

शुभकामनाएँ।



पुनश्च-
आपके लेख का मूल स्वर वास्तव में जिस भावना को लेकर उठा है, उसके लिए आपकी प्रशंसा की जानी अत्यावश्यक है।



आप सभी का का क्या कहना है? जो विचार आपके मन में इस सन्दर्भ में उठते हों हमें उनसे परिचित कराइए, व्यक्त कीजिए।

- कविता वाचक्नवी

शनिवार, 7 मार्च 2009

आज महिला दिवस पर, बलात्कार व हत्या के विरुद्ध धरना

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आज महिला दिवस पर, बलात्कार व हत्या के विरुद्ध धरना


महिला इकाई, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च ) को भारतीय समयानुसार प्रातः ११ बजे से बजे तक, जंतर मंतर (दिल्ली ) पर एक धरने का आह्वान किया गया है |यह धरना बाहुबलियों द्वारा १९ नवम्बर २००८ को प्रीति शर्मा की बलात्कार एवं हत्या किए जाने के विरुद्ध उचित कार्यवाही न करने व एक निर्दोष को बलि का बकरा बना देने के षडयंत्र के परिणाम स्वरूप केस में आई शिथिलता के विरुद्ध एवं जाँच को भटका कर न्याय की माँग कर रहे प्रदर्शनकारियों के समर्थन के साथ साथ विशेष रूप से उत्तराखंड में महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराधों व दमनकारियों के विरुद्ध उचित कार्यवाही करने की मांगों के समर्थन में है ।



माँगें -


  • प्रीति शर्मा हत्याकांड की सीबीआई जाँच हो
  • गिरफ्तार आन्दोलनकारियों की बिना शर्त रिहाई हो
  • आन्दोलनकारियों पर लगाए गए झूठे/ फर्जी मुकद्दमों की जाँच की जाए
  • उत्तराखंड में महिलाओं के विरूद्ध अपराधों पर अंकुश लगाया जाए


कार्यक्रम


Day : 8 March,International Women's डेPlace : Jantar मंतरTime : 11 am to 1 pm





(इमेज को क्लिक कर बड़ा कर देखें )

गुरुवार, 5 मार्च 2009

औरतें औरतें नहीं हैं

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-एकालाप -
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औरतें औरतें नहीं हैं !
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वे वीर हैं
मैं वसुंधरा.
उनके-मेरे बीच एक ही सम्बन्ध -
'वीर भोग्या वसुंधरा.'


वे सदा से मुझे जीतते आए हैं
भोगते आए हैं,
उनकी विजयलिप्सा अनादि है
अनंत है
विराट है.


जब वे मुझे नहीं जीत पाते
तो मेरी बेटियों पर निकालते हैं अपनी खीझ
दिखाते हैं अपनी वीरता.


युद्ध कहने को राजनीति है
पर सच में जघन्य अपराध !
अपराध - मेरी बेटियों के खिलाफ
औरतों के खिलाफ !


युद्धों में पहले भी औरतें चुराई जाती थीं
उनके वस्त्र उतारे जाते थे
बाल खींचे जाते थे
अंग काटे जाते थे
शील छीना जाता था ,
आज भी यही सब होता है.
पुरुष तब भी असभ्य था
आज भी असभ्य है,
तब भी राक्षस था
आज भी असुर है.


वह बदलता है हार को जीत में
औरतों पर अत्याचार करके.


सिपाही और फौजी
बन जाते हैं दुर्दांत दस्यु
और रौंद डालते हैं मेरी बेटियों की देह ,
निचोड़ लेते हैं प्राण देह से.


औरते या तो मर जाती हैं
[ लाखों मर रही हैं ]
या बन जाती हैं गूँगी गुलाम
..


वे विजय दर्प में ठहाके लगाते हैं !


वे रौंद रहे हैं रोज मेरी बेटियों को
मेरी आँखों के आगे.
पति की आँखों के आगे
पत्नी के गर्भ में घुसेड़ दी जाती हैं गर्म सलाखें.
माता-पिता की आँखों आगे
कुचल दिए जाते हैं अंकुर कन्याओं के.


एक एक औरत की जंघाओं पर से
फ्लैग मार्च करती गुज़रती है पूरी फौज,
माँ के विवर में ठूँस दिया जाता है बेटे का अंग !


औरतें औरतें हैं
न बेटियाँ हैं, न बहनें;
वे बस औरतें हैं
बेबस औरतें हैं.
दुश्मनों की औरतें !


फौजें जानती हैं
जनरल जानते हैं
सिपाही जानते हैं
औरतें औरतें नहीं होतीं
अस्मत होती हैं किसी जाति की.


औरतें हैं लज्जा
औरतें हैं शील
औरतें हैं अस्मिता
औरते हैं आज़ादी
औरतें गौरव हैं
औरतें स्वाभिमान.


औरतें औरतें नहीं
औरतें देश होती हैं.
औरत होती है जाति
औरत राष्ट्र होती है.

जानते हैं राजनीति के धुरंधर
जानते हैं रावण और दुर्योधन
जानते हैं शुम्भ और निशुम्भ
जानते हैं हिटलर और याहिया
कि औरतें औरतें नहीं हैं,
औरतें देश होती हैं.
औरत को रौंदो
तो देश रौंदा गया ,
औरत को भोगो
तो देश भोगा गया ,
औरत को नंगा किया
तो देश नंगा होगा,
औरत को काट डाला
तो देश कट गया.


जानते हैं वे
देश नहीं जीते जाते जीत कर भी,
जब तक स्वाभिमान बचा रहे!



इसीलिए
औरत के जननांग पर
फहरा दो विजय की पताका
देश हार जाएगा आप से आप!


इसी कूटनीति में
वीरगति पा रही हैं
मेरी लाखों लाख बेटियाँ
और आकाश में फहर रही हैं
कोटि कोटि विजय पताकाएँ!


इन पताकाओं की जड़ में
दफ़न हैं मासूम सिसकियाँ
बच्चियों की
उनकी माताओं की
उनकी दादियों-नानियों की.

उन सबको सजा मिली
औरत होने की
संस्कृति होने की
सभ्यता होने की.

औरतें औरतें नहीं हैं
औरतें हैं संस्कृति
औरतें हैं सभ्यता
औरतें मनुष्यता हैं
देवत्व की संभावनाएँ हैं औरतें!

औरत को जीतने का अर्थ है
संस्कृति को जीतना
सभ्यता को जीतना,
औरत को हराने का अर्थ है
मनुष्यता को हराना,
औरत को कुचलने का अर्थ है
कुचलना देवत्व की संभावनाओं को,


इसीलिए तो
उनके लिए
औरतें ज़मीनें हैं;
वे ज़मीन जीतने के लिए
औरतों को जीतते हैं!


सन्दर्भ
:



-ऋषभ देव शर्मा


बुधवार, 4 मार्च 2009

क्या यह व्यक्तिगत महिलास्वतंत्रता का मामला नहीं है?

4 टिप्पणियाँ



(चित्र : The Telegraph से साभार)



क्या यह व्यक्तिगत महिलास्वतंत्रता का मामला नहीं है?


महिलाओं की हीन स्थिति के बारे में एक मूलभुत तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। सब जानते हैं कि राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानन्द, ईश्वरचंद विद्यासागर, रानाडे, गांधी,प्रभृति महापुरुषों द्वारा जो सामाजिक नवजागरण की बहुमुखी प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसका मुख्य उद्देश्य समाजिक कुरीतियों को दूर करना और महिलाओं की उन्नति करना था। पर स्वतंत्रता के बाद और संविधान के लागू होने के उपरान्त हमने मान लिया कि संवैधानिक घोषण हो गई, महिलाओं को बराबरी के हक मिल गए, सब भेदभाव समाप्त हो गए। जो संस्थाएँ समाजसुधार के क्षेत्र में काम कर रही थी, वे शिथिल पड़ती गईं। समाज सुधार के कार्य गौण हो गए और राजनीति से प्रेरित पक्षों पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा, जो संविधान की अपेक्षा और आकांक्षा थी, उसको हम सत्य और तथ्य मानकर निश्चिंत हो गए। नवजागरण का पहिया उल्टा घूमने लगा, चाहे महिलाओं के अत्याचार को लें अथवा जातिवाद के समाप्त करने का? क्य़ा एक दूसरे सामाजिक नवजागरण की आवश्यकता नहीं है?


इस प्रसंग में हम श्रीमती लोतिका सरकार के मामले की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे। ८६ वर्षीय लोतिका सरकार कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से सम्भवतः पहली भारतीय महिला थीं, जिन्होंने डॊक्टरेट हासिल की थी। दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून विभाग की अध्यक्ष थीं। न जाने कितने उनके विद्यार्थी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बने और कितने कानून के प्रोफेसर। अपने समय में वह प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता रही हैं, पिछडे़ और प्रताडि़त वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर रही हैं और महिलाओं के बराबरी के अधिकार माँगने में अग्रणी रही हैं। उनके पति श्री चंचल सरकार एक प्रख्यात पत्रकार, दिल्ली के एक अंगरेज़ी दैनिक के सम्पादक, प्रेस इंस्टिट्यूट के निदेशक रहे। कुछ वर्ष पूर्व उनका देहांत हो गया।


श्रीमती लोतिका का चित्र एक अखबार में छपने के उपरांत उनकी आज की निरीहता का अहसास हुआ, क्योंकि वर्षों से उनको देखा नहीं था। दिल्ली अंग्रेज़ी के एक दैनिक में खबर प्रकाशित हुई कि उनकी देखभाल करनेवाली नौकरानी का दावा है कि उसको श्रीमती सरकार ने अपना घर कानूनी तौर पर दे दिया है, पर एक बिहार के आई.पी.एस। अधिकारी ने दिल्ली पुलीस की मदद से उसको भगा दिया और उस आई. पी.एस. अधिकारी का कहना है कि एल.-१/१०, हौज़खास एन्क्लेव का मकान उनकी पत्नी को लोतिकाजी ने गिफ्ट कर दिया था और उसकी रजिस्ट्री सन २००७ में हो गई थी। अखबारों में यह भी छपा है कि लोतिका सरकार ने पुलिस में रिपोर्ट की है और उपायुक्त पुलिस अधिकारी को भी लिखा है कि वह उसका मकान खाली कर लौटा दे। अधिक विवरण देने की आवश्यकता नहीं है। दाल में कुछ काला है, असहाय वृद्ध विधवा की जायदाद हड़पने की चाल कोई-न-कोई अवश्य कर रहा है। केवल जायदाद ही नहीं, लोतिका सरकार की सुरक्षा का भी प्रश्न है।


ताज्जुब इस बात का है कि इस मामले को अभी तक न दिल्ली उच्च न्यायालय, न सर्वोच्च न्यायालय, न दिल्ली के मानवाधिकार कमिशन और न भारत के मानवाधिकार आयोग ने स्वयमेव संज्ञान में लिया है। महिलाओं के संगठनों ने भी अपनी आवाज़ नहीं उठाई। एक दो दैनिक पत्रों में थोडा बहुत छपा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकारी और चंचल सरकार के सहयोगी पत्रकार सभी चुप से बैठे नज़र आते हैं। दिल्ली सरकार यह कहकर पल्ला छुडा़ना चाहेगी कि यह नागरिकों की जायदाद का मामला है। पर क्या यह मानवाधिकार मामला नहीं है, क्या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला नहीं है और एक महिला का? क्या ऐसे मामलों में लाल चड्डी और लाल साडी़ के विवाद को छोड़कर हमारी क्षमता का उपयोग नहीं होना चाहिए???

साहित्य अमृत
सम्पादकीय
[मार्च २००९]
सं.- त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी










The Telegraph

If a picture speaks a thousand words

Back in the year 1991, Malavika Karlekar came across a series of ancient, very powerful, black and white photographs of Indian women, most of whom had led lives of seclusion. The author was then working on her book, Voices from Within: Early Personal Narratives of Bengali Women (Oxford University Press). She was looking for illustrations for her work, she recalls, and her search had taken her to different photo archives throughout the country, where she sat for days sifting through material. ?It became evident to me while I did
this,? she says, ?that the photographs had another story to tell ? or maybe many women?s stories to narrate?.
Karlekar decided to let the photographs speak for themselves. This is how the idea to ?weave together a visual documentary on Indian women? was born.
And is now visiting Calcutta. Put together by Karlekar and her colleagues at the Centre for Women?s Development Studies (CWDS), and titled, ?Re-presenting Indian Women 1873 to 1947: A Visual Documentary?, the exhibition will be held at the Seagull Arts and Media Resource Centre from February 19 to March 12.
The photographs were collected, according to Karlekar, mainly through personal contacts, as well as institutions. ?We were quite clear that we were not interested in only the known names and faces,? she says, ?so wherever we went, we asked ?Do you have photos of mothers, grandmothers, aunts, etc.??
Invariably the answer was a ?yes? and out would come something ? often faded, torn, but yet appealing in what it said. A niece-in-law of mine, for instance, gave me the picture of her grandmother, Urmila Devi Shastri, and with it came a little printed booklet of her life as a satyagrahi.?
Karlekar explains, ?We decided that the exhibition should span from the earliest photograph we had in our collection ? 1873 ? to the time of the freedom struggle, ending in Independence.?
It took them about a year to put together the first exhibition, of more than 200 photographs, which was held at the India International Centre, Delhi, in 2001 and then another six months for the next one, held in 2004.
The exhibitions have generated a demand for more such events in other parts of the country, Calcutta being one of them.
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