शनिवार, 10 जनवरी 2009

मैंने दीवारों से पूछा

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मैंने दीवारों से पूछा

-डॉ. कविता वाचक्नवी


चिह्नों भरी दीवारों से पूछा मैंने
किसने तुम्हें छुआ कब - कब
बतलाओ तो
वे बदरंग, छिली - खुरचीं- सी
केवल इतना कह पाईं
हम तो
पूरी पत्थर- भर हैं
जड़ से
जन से
छिजी हुईं
कौन, कहाँ, कब, कैसे
दे जाता है
अपने दाग हमें
त्यौहारों पर कभी
दिखावों की घड़ियों पर कभी - कभी
पोत- पात, ढक - ढाँप - ढूँप झट
खूब उल्लसित होता है
ऐसे जड़ - पत्थर ढाँचों से
आप सुरक्षा लेता है
और ठुँकी कीलों पर टाँगे
कैलेंडर की तारीख़ें
बदली - बदली देख समझता
इन पर इतने दिन बदले।
अपनी पुस्तक "मैं चल तो दूँ " (२००५) से




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