मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

अश्लील है तुम्हारा पौरुष

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एकालाप







अश्लील है तुम्हारा पौरुष



पहले वे
लंबे चोगों पर सफ़ेद गोल टोपी
पहनकर आए थे
और
मेरे चेहरे पर तेजाब फेंककर
मुझे बुरके में बाँधकर चले गए थे.



आज वे फिर आए हैं
संस्कृति के रखवाले बनकर
एक हाथ में लोहे की सलाखें
और दूसरे हाथ में हंटर लेकर.



उन्हें शिकायत है मुझसे !



औरत होकर मैं
प्यार कैसे कर सकती हूँ ,
सपने कैसे देख सकती हूँ ,
किसी को फूल कैसे दे सकती हूँ !



मैंने किसी को फूल दिया
- उन्होंने मेरी फूल सी देह दाग दी.
मैंने उड़ने के सपने देखे
- उन्होंने मेरे सुनहरे पर तराश दिए.
मैंने प्यार करने का दुस्साहस किया
- उन्होंने मुझे वेश्या बना दिया.



वे यह सब करते रहे
और मैं डरती रही, सहती रही,
- अकेली हूँ न ?



कोई तो आए मेरे साथ ,
मैं इन हत्यारों को -
तालिबों और मुजाहिदों को -
शिव और राम के सैनिकों को -
मुहब्बत के गुलाब देना चाहती हूँ.
बताना चाहती हूँ इन्हें --



''न मैं अश्लील हूँ , न मेरी देह.
मेरी नग्नता भी अश्लील नहीं
-वही तो तुम्हें जनमती है!
अश्लील है तुम्हारा पौरुष
-औरत को सह नहीं पाता.
अश्लील है तुम्हारी संस्कृति
- पालती है तुम-सी विकृतियों को !



''अश्लील हैं वे सब रीतियाँ
जो मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद करती हैं.
अश्लील हैं वे सब किताबें
जो औरत को गुलाम बनाती हैं ,
-और मर्द को मालिक / नियंता .
अश्लील है तुम्हारी यह दुनिया
-इसमें प्यार वर्जित है
और सपने निषिद्ध !



''धर्म अश्लील हैं
-घृणा सिखाते हैं !
पवित्रता अश्लील है
-हिंसा सिखाती है !''



वे फिर-फिर आते रहेंगे
-पोशाकें बदलकर
-हथियार बदलकर ;
करते रहेंगे मुझपर ज्यादती.



पहले मुझे निर्वस्त्र करेंगे
और फिर
वस्त्रदान का पुण्य लूटेंगे.



वे युगों से यही करते आए हैं
- फिर-फिर यही करेंगे
जब भी मुझे अकेली पाएँगे !



नहीं ; मैं अकेली कहाँ हूँ ....
मेरे साथ आ गई हैं दुनिया की तमाम औरतें ....
--काश ! यह सपना कभी न टूटे !



- ऋषभ देव शर्मा


पुरुषों के विरुद्ध एक अविश्वास प्रस्ताव

4 टिप्पणियाँ

जहाँ आत्मीयता होती है, वहाँ भी लोग ठगे जाने से बचने की कोशिश करते हैं। यह सावधानी स्त्री-पुरुष व्यवहार में और ज्यादा अपेक्षित है, क्योंकि अब तक के इतिहास की सीख यही है। इसलिए माता-पिता और अभिभावकों का यह एक मूल कर्तव्य है कि वे लड़की को लड़की के रूप में विकसित होते समय ही उन फंदों और गड्ढों से अवगत कराते रहें जो आगे उसकी राह में आनेवाले हैं। इसके साथ ही, उसे निर्भय होने और स्व-रक्षा में सक्षमता की शिक्षा भी देनी चाहिए। लेकिन इस कीमत पर नहीं कि मानवता में ही उसका विश्वास डिग जाए। बहुत ही प्रेम और समझदारी से उसमें यह बोध पैदा करना होगा कि लोग सभी अच्छे होते हैं, पर हमेशा सचेत रहना चाहिए कि वे बुरे भी हो सकते हैं। लड़कियों को यह सीख भी दी जानी चाहिए कि यह बहुत गलत होगा अगर अति सावधानी के परिणामस्वरूप वे किसी पुरुष से आत्मीय रिश्ता बना ही न पाएँ। घृणा तो किसी से भी न करो – ज्ञात पापी से भी नहीं, सभी को प्रेम और विश्वास दो, पर अपनी सुरक्षा की कीमत पर नहीं।



रसांतर
पुरुषों के विरुद्ध एक अविश्वास प्रस्ताव
राजकिशोर

उस दिन मैं अचानक क्या कह गया, यह मेरी भी समझ में नहीं आया। अवसर था स्त्री-विमर्श पर केंद्रित ब्लॉग ‘चोखेर बाली’ की पहली वर्षगाँठ पर दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित एक विचार बैठक का। मधु किश्वर और सुकृता पॉल बोल चुकी थीं। दोनों के ही भाषण बहुत अच्छे थे । दोनों ने ही स्त्री अस्मिता के मुद्दों पर गहराई से विचार किया था। उनके बाद अपनी बात कहते हुए मैंने पहले तो इस पर आश्चर्य व्यक्त किया कि यहाँ मैं अकेला पुरुष वक्ता हूँ। इस पर ‘चोखेर बाली’ की संचालिकाओं में एक सुजाता ने स्पष्ट किया कि हमारे ब्लॉग पर पुरुष भी लिखते हैं। मुझे यह बात मालूम थी, क्योंकि मैं भी उनमें एक हूँ। फिर, मैंने कहा कि स्त्रीविमर्श सिर्फ पुरुषों का मामला हो भी नहीं सकता, क्योंकि अगर यह सभ्यता विमर्श और सभ्यता समीक्षा है, तो पुरुषों की सहभागिता के बिना यह काम कैसे पूरा हो सकता है? आगे मैंने कहा कि यह भी उल्लेखनीय है कि नारी अधिकारों को प्रतिष्ठित करने में पुरुष लेखको, नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मूल्यवान भूमिका रही है। यह भी कि ऐसे असंख्य पुरुष हुए हैं जिनमें स्त्री के गुण थे और ऐसी स्त्रियाँ भी कम नहीं हुई हैं जिनका व्यक्तित्व पुरुष गुणों के कारण विकृत हुआ है। इसी संदर्भ में मैंने कहा कि स्त्री विमर्श में पुरुषों को खुल कर सहभागी बनाइए और बनने दीजिए, लेकिन स्त्री-पुरुष संबंधों के इतिहास को देखते हुए पुरुषों पर विश्वास कभी मत कीजिए। वे कभी भी धोखा दे सकते हैं और अगर यह धोखा उन्होंने मित्र बन कर दिया, तो यह और भी बुरा होगा।


बात कुछ हँसी की थी और हँसी हुई भी, पर विचार करने पर लगा कि बात में दम है। एक बहुत पुरानी मान्यता है कि स्त्री-पुरुष का साथ आग और फूस का साथ है। दोनों निकट आएँगे, तो फूस का भभक उठना तय है। आजकल के लोग इस तरह की मान्यताओं की खिल्ली उड़ाते हैं। उनका कहना है कि यह बेहूदा बात इसलिए फैलाई गई है ताकि स्त्रियों को बंधन में रखा जा सके। मैं इस स्थापना से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। पुरुष से अधिक कौन जानता होगा कि स्त्री को देख कर पुरुषों के मन में सामान्यत: किस प्रकार की भावनाएँ पैदा होती हैं। इसलिए अगर उन्होंने आग और फूस को दूर-दूर रखने का फैसला किया, तो यह बिलकुल निराधार नहीं था। इसके साथ-साथ होना यह चाहिए था कि ऐसी समावेशी संस्कृति का विकास किया जाता जिसमें स्त्री-पुरुष के बीच की सामाजिक और सांस्कृतिक दूरी घटे और दोनों मित्र भाव से जी सकें। दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं सका। पुरानी, रूढ़िवादी संस्कृति चलती रही, बल्कि कहीं-कहीं उग्र भी हो गई, और उसके प्रति विद्रोहस्वरूप आधुनिक संस्कृति का भी विकास होता रहा, जिसमें स्त्री-पुरुष के साथ को खतरनाक नहीं, बल्कि अच्छा माना जाता है। पुरानी संस्कृति में स्त्री के शील की रक्षा उस पर पहरे बिछा कर, उसे उपमानव बना कर की जाती थी, जैसा आज के तालिबान चाहते हैं, तो दुख की बात यह भी है कि आधुनिक संस्कृति में स्त्री का उपयोग उपभोक्तावाद को बढ़ाने और कामुकता का प्रचार करने में हो रहा है तथा बलात्कार या इसकी आशंका से उसे परिमित और खामोश करने की कोशिश की जा रही है। जरूरत बीच का रास्ता निकालने की है, जहाँ प्रेम भी हो, निकटता भी हो और मानव अधिकारों का सम्मान भी।


‘चोखेर बाली’ की विचार-बैठक के हफ्ते भर बाद सुजाता ने उनके अपने ब्लॉग ‘नोटपैड’ पर किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा भेजी गई यह टिप्पणी मुझे अग्रेषित की : " सविता भाभी के बहाने स्त्री विमर्श का डंका पीटनेवाले ब्लॉगर पत्रकार आकाश (मूल नाम बदल दिया गया है) जी के सारे स्त्री विमर्श की कलई उस समय खुल गई, जब उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की एक छात्रा के साथ, जहाँ अभी कुछ दिनों पहले वे क्लास लेने जाते थे, के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की। लड़की की तबीयत ठीक नहीं थी। उन्होंने उसे किसी काम के बहाने ऑफिस में बुलाया और फिर उसके लाख मना करने के बावजूद उसे अपनी नई कार से उसे घर छोड़ने गए। फिर वहाँ उसे चुपचाप छोड़ कर आने के बजाय लगभग जबरदस्ती करते हुए उसका घर देखने के बहाने उसके साथ कमरे में गए। लड़की मना करती रही, लेकिन संकोचवश सिर्फ ‘रहने दीजिए सर, मैं चली जाऊँगी’ जितना ही कहा। वे उसकी बात को लगभग अनसुना करते हुए खुद ही आगे आगे गए और उसका घर देखने की जिद की। लड़की को लगा कि पाँच मिनट बैठेंगे और चले जाएँगे। लेकिन उनका इरादा तो कुछ और था। उन्होंने घर में घुसने के बाद जबरदस्ती उसका हाथ पकड़ा, उसके लाख छुड़ाने की कोशिश करने के बावजूद उसे जबरदस्ती चूमने की कोशिश की। लड़की डरी हुई थी और खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन इनके सिर पर तो जैसे भूत-सा सवार था। आकाश ने उस लड़की को नारी की स्वतंत्रता का सिद्धांत समझाने की कोशिश की, ‘तुम डर क्यों रही हो। कुछ नहीं होगा। टिपिकल लड़कियों जैसी हरकत मत करो। तुम्हें भी मजा आएगा। मेरी आंखों में देखो, ये जो हम दोनों साथ हैं, उसे महसूस करने की कोशिश करो।’ डरी हुई लड़की की इतनी भी हिम्म्त नहीं पड़ी कि कहती कि जा कर अपनी बहन को क्यूँ नहीं महसूस करवाते। लड़की के हाथ पर खरोंचों और होंठ पर काटने के निशान हैं। लड़की अभी भी बहुत डरी हुई है।"


यह घटना कितनी सत्य है और कितनी मनगढ़ंत, पता नहीं। लेकिन भारत में ही नहीं, दुनिया के एक बड़े भूभाग में इस तरह की घटनाएँ सहज संभाव्य हैं और होती ही रहती हैं। इसीलिए मेरा यह विश्वास बना है कि स्त्रियों को पुरुषों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए – चाहे वे गुरु हों, शिक्षक हों, चाचा, मामा, मौसा-ताऊ हों, मुँहबोले भाई हों, पड़ोसी हों, मेहमान हों, शोध गाइड हों, संपादक हों, प्रकाशक हों, अकादमीकार हों, नियोक्ता हों, मैनेजर हों, पुजारी हों, पंडे हों – कुछ भी क्यों न हों। कई हजार वर्षों की मानसिकता जाते-जाते ही जाएगी। इस संक्रमण काल में स्त्री को बहुत अधिक सावधान रहने की जरूरत है – खासकर अपने शुभचिंतकों से। इसका मतलब यह नहीं है कि हर पुरुष को संदेह की नजर से देखो। इससे तो सब कुछ कबाड़ा हो जाएगा। नहीं, किसी पर भी अनावश्यक संदेह मत करो। विश्वास का अवसर हरएक को दिया जाना चाहिए। लेकिन सावधानी का दीपक हाथ से कभी नहीं छूटना चाहिए। दीपक बुझा कि परवाना लपका।


वैसे, जीवन के एक सामान्य सिद्धांत के तौर पर भी यह सही है। पुरुष पुरुष पर कितना विश्वास करते हैं? स्त्री स्त्री पर कितना विश्वास करती हैं? जहाँ आत्मीयता होती है, वहाँ भी लोग ठगे जाने से बचने की कोशिश करते हैं। यह सावधानी स्त्री-पुरुष व्यवहार में और ज्यादा अपेक्षित है, क्योंकि अब तक के इतिहास की सीख यही है। इसलिए माता-पिता और अभिभावकों का यह एक मूल कर्तव्य है कि वे लड़की को लड़की के रूप में विकसित होते समय ही उन फंदों और गड्ढों से अवगत कराते रहें जो आगे उसकी राह में आनेवाले हैं। इसके साथ ही, उसे निर्भय होने और स्व-रक्षा में सक्षमता की शिक्षा भी देनी चाहिए। लेकिन इस कीमत पर नहीं कि मानवता में ही उसका विश्वास डिग जाए। बहुत ही प्रेम और समझदारी से उसमें यह बोध पैदा करना होगा कि लोग सभी अच्छे होते हैं, पर हमेशा सचेत रहना चाहिए कि वे बुरे भी हो सकते हैं। लड़कियों को यह सीख भी दी जानी चाहिए कि यह बहुत गलत होगा अगर अति सावधानी के परिणामस्वरूप वे किसी पुरुष से आत्मीय रिश्ता बना ही न पाएँ। घृणा तो किसी से भी न करो – ज्ञात पापी से भी नहीं, सभी को प्रेम और विश्वास दो, पर अपनी सुरक्षा की कीमत पर नहीं। हर संबंध की तरह स्त्री-पुरुष संबंध भी एक जुआ है, लेकिन यह जुआ खेलने लायक है, क्योंकि इसी रास्ते हम अपने मनपसंद साथी खोज सकते हैं। इस प्रक्रिया में दुर्घटनाएँ होती हैं, तो होने दो। डरो नहीं, न परिताप करो। लेकिन आँख मूँद कर उस रास्ते पर कभी मत चलो जिसके बारे में तुम्हें पता नहीं कि उस पर आगे क्या-क्या बिछा और फेंका हुआ है। यह संतुलन साधना मामूली बात नहीं है, लेकिन अच्छा जीवन जी पाना भी क्या मामूली बात है?

(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में वरिष्ठ फेलो हैं)


लड़कियों की एक पुरानी मंडी का नया सफर

8 टिप्पणियाँ
जो लोग शहरों, महानगरों में रहते हैं, या विदेश में बैठे फिल्मों से भारत देखते हैं, वे जितना अपने आस पास देख पाते हैं, उसे ही पूरा संसार समझ स्त्री की समानता की पुष्टि में तर्क पर तर्क दिए चल जाते हैंनेट पर, ऑफिस में, या बड़े नगरों में, अख़बारों में, मीडिया में..... इनमें से कौन कितना भारत अपनी पूरी सर्वग्राह्यता में हमें - आपको दिखाता- देखता है, यह कोई दोहराने की बात नहीं है. उस छोटे से 10% को देखते हुए हम उसे ही संपूर्ण सत्य का संपूर्ण प्रतिबिम्ब मान कर स्त्री को उसके मानवी के रूप में जीने के अधिकार के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई के लिए धिक्कारते और कोसते हैं, उन्हें घरों को बर्बाद करने वाली, संस्कृति की संहारक या ऐसे ही जाने कितने तमगों से नवाजते - सिराजाते हैंबिना वास्तविकता को जाने, बिना उसे जानने का कोई यत्न किए, हम आप में से जाने कितने परम-पुरूष इस दंभ में इठलाए जाते हैं कि हमने तो अपने घरों में अपनी स्त्रियों को पूरी स्वतंत्रता दे रखी है, फिर भला ये राक्षसी स्त्रियाँ जनचेतना के नाम पर ऐसी बातें कर के क्यों हमारे घर तोड़ना चाहती हैंचेतना या सत्य यदि किसी के घर को तोड़ता है तो निश्चय जानिए कि उसमें खोट थीअसल में ये स्त्रियाँ आप को कष्ट इसलिए देती हैं क्योंकि ये आपकी पुरूष अहमन्यता को चुनौती देती हैं, और आईना दिखाती हैं कि सब चीज जिसे आप सही दिखाने का दंभ भरते हैं वह उस तरह उतनी सही है नहीं


वरना, जिस समाज और देश और काल में अभी ऐसा बर्ताव 80% सच का हिस्सा है, उस समाज में कोई इक्का- दुक्का लोग स्त्री के मानवाधिकारों की बात करते हैं तो बहुधा लोगों के पेट में ऐंठन क्यों होने लगती है ? क्यों धिक्कार, हिकारत और तिरस्कार शुरू हो जाता है? जिस संसार में कुत्ते-बिल्लियों, पशु- पक्षियों तक के प्रति सम्यक संवेदनापूर्ण मानवीय आचरण की अपेक्षा की जाती है, उस संसार में स्त्री-जीवन के ये सच आप-हम को क्यों नहीं रुलाते? क्यों नहीं झूठे थोथे अंहकार को त्याग कर सब अधिक मानवीय बन स्त्री-मुक्ति के अभियान में स्वयं भी जुट जाते? क्यों स्त्री -प्रश्न आज भी हास्य या वर्जित के श्रेणी में हैं? क्यों स्त्री मुद्दों पर जुटने वाली पुरूष-भीड़ बहुधा 'बहाने से लुत्फ़ उठाने' की मानसिकता के वशीभूत जुटती है? प्रश्न बहुत-से हैं, उत्तर केवल एक हैवह उत्तर सब को अपने मन के भीतर उतर कर स्वयं टटोलना हैऐसा हो चिड़िया खेत चुग जाए और आप सोते रहें.


आप आलोक तोमर जी के सौजन्य से प्राप्त गीताश्री पाकुड़ के इस यथार्थवादी लेख को पढ़िए और जानिए भारत की धरती पर स्त्री की असल स्थिति को, जो आँख खोलने के लिए काफी होना चाहिए कि स्थिति कितनी भयावह है स्त्री की ।
- कविता वाचक्नवी
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गीताश्री पाकुड़, झारखंड से लौटकर

सुशांति मरांडी अब कभी अपनों का भरोसा नहीं कर पाएगी। उसे गैरो ने नहीं, अपनों ने छला है। जब 6 साल की थी तब उसके पिता की मौत खेत में हल चलाते समय ठनका यानी बिजली गिरने से हो गई। इस घटना के छह महीने भी नहीं हुए कि सुशांति ने अपनी मां खो दी। नन्हीं सी जान पर इतनी कम उम्र में ही दुख का पहाड़ टूट पड़ा।


उस समय वह अकेली, बेसहारा-सी पड़ी थी। दूर के एक रिश्तेदार ने उसकी सुध ली। खुद को उसका भाई बताते हुए अपने साथ चलने को कहा। अनाथ और बेसहारा लड़की उंगली थामे चल पड़ी। क्या पता था कि आसान और चैन वाली जिंदगी की तलाश उसे किसी अंधेरे गुफा की तरफ ले जा रही है।उस कथित भाई ने सुशांति को दिल्ली ले जाकर एक पंजाबी परिवार में छोड़ दिया, इस वायदे के साथ कि वह 2-3 दिन में अपना काम करके लौट कर आयेगा। सुशांति इतनी कच्ची उम्र में कुछ समझ नहीं पाई। उस घर में काम करते हुए जिंदगी के 7 साल बिता दिए।


वह कथित भाई कभी ना लौटा। गाँव छूटा, बचपन गया और यातना का सिलसिला शुरु हुआ। रोज शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बीच जेहन में गांव का नाम अब भी बसा हुआ था। एक दिन सामान लेने के बहाने बाहर निकली, दुकानदार की मदद से रेलवे स्टेशन और फिर अपने गांव लौट आई। मगर सुशांति के जीवन में जैसे शांति की कोई जगह ही नहीं थी। अपने गांव में भी तिरस्कार और मुश्किलें उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं।सुशांति बताती है कि वह अपने घर बेल पहाड़ी आई परंतु वहाँ उसका घर भी किसी ने हड़प लिया था। सुशांति भूख-प्यासी अपने गाँव के करीब पड़ी थी। वहीं एक आदमी ने सुशांति को देखा जो पाकुड़िया के किशोरी निकेतन के बारे में जानता था। वह उसे किशोर निकेतन लेकर आया। अब सुशांति यहीं रहती है।


पाकुड़ की ही रहने वाली एक और बच्ची का बचपन कुछ इसी तरह छीन गया। अपने माँ-बाप, चार बहन और एक भाई के साथ राधानगर गाँव में रहने वाली श्रीमुनी हेम्ब्रम के परिवार में यूँ तो कई परेशानियां थीं लेकिन सबसे बड़ी परेशानी थी परिवार की गरीबी। घर चलाना जब मुश्किल होने लगा तो श्रीमुनी के पिता ने उसे भी एक पत्थर कारखाने में काम पर लगा दिया। तब श्रीमुनी की उम्र थी 10 साल। परिवार वालों ने जाने किस मजबूरी में कभी पलट कर नहीं देखा।


पत्थर तोड़ते चार साल जैसे-तैसे गुजरे। श्रीमुनी ने कोशिश की कि पत्थर कारखाने से बाहर निकला जाये। उसने जब मालिकों से बात की तो मालिकों ने साफ मना कर दिया। आखिर में श्रीमुनी एक दिन चुपके से पत्थर कारखाने से भाग खड़ी हुई। सीधा जा पहुँची अपने गाँव। लेकिन गाँव में जिस सच्चाई से सामना हुआ, वह पत्थर से कहीं ज्यादा कठोर थी। गाँव में उसका कोई भी परिजन नहीं था, न माँ, न बाप। भाई-बहन भी नहीं। पता चला, उसका पूरा परिवार कहीं कमाने-खाने चला गया है।


किसी तरह वह गाँव के एक आदमी के साथ किशोरी निकेतन पहुँची। अब यहीं वह अपनी जिंदगी के पन्नों को दुरुस्त करने में लगी है। उसने टोकरी बनाना सीखा और अब दूसरों को यह काम सीखा रही है। उसकी पढ़ाई तो चल ही रही है। पाकुड़ के गाँवों में सुशांति और श्रीमुनी जैसी कई-कई लड़कियाँ हैं। इस जंगली इलाके में इन लड़कियों का दुख जंगल से भी कहीं ज्यादा घुप्प और गहरा है। किसी का बचपन छीन गया है तो किसी की जवानी और कोई तस्करी के अंधेरे में खो गया है। कई लड़कियों का अब तक नहीं पता कि वे कहाँ और किस हाल में हैं।


बांग्लादेश की सीमा से लगा है झारखंड का पाकुड़ और साहेबगंज यानी संथाल परगना का इलाका। उच्च गुणवत्ता वाले पत्थर इस इलाके की पहचान हैं लेकिन इन्हीं पत्थरों के कारण इस इलाके की पहचान बदल रही है और अब यह हिस्सा लड़कियों की तस्करी का गढ़ के रुप में जाना जाने लगा है। होता ये है कि इस इलाके से ट्रकों में पत्थर लाद कर बांग्लादेश ले जाया जाता है। पत्थर निकालने एवं ट्रक पर पत्थर भरने का काम ज्यादातर लड़कियाँ ही करती हैं। यहीं से शुरु हो जाता हैं इनकी तस्करी और यौन शोषण का रास्ता।


झारखंड के एटसेक यानी एक्शन एगेंस्ट ट्रैफिकिंग सेक्सुअल एक्सप्लाएटेशन ऑफ़ चिल्ड्रेन के राज्य संयोजक संजय मिश्रा स्थिति की भयावहता के बारे में बताते हैं कि कैसे काले पत्थर की खान और उसके निर्यात से आदिवासी लड़कियों की जिंदगी काली होती जा रही है। संजय कहते हैं- तस्करी की वजह से एक जनजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। पाकुड़ से पहाड़िया जनजाति खत्म हो रही है। गिनती के परिवार बच गए हैं। उनकी जगह बांग्लादेशी आकर बस रहे हैं। खासकर वहाँ की लड़कियों की संख्या बढ़ती जा रही है।


इस समस्या की गंभीरता पर संजय मिश्रा ने ही प्रशासन का ध्यान खींचा। उन्होंने इस मुद्दे पर व्यापक अध्ययन करने के बाद एक गैर सरकारी संगठन मानवी के साथ मिलकर पिछले साल मई में एक सेमिनार का आयोजन करवाया, उसके बाद प्रशासन की नींद खुली। संजय बताते हैं - मानव तस्करी पाकुड़ जिले के आसपास ही ज्यादा फल फूल रही है। एक तरह से यह इलाका देह बाजार के रुप में कुख्यात हो रहा है। खास कर हिरनपुर में आदिवासी लड़कियों के बीच देह व्यापार एक धंधे का रुप ले चुका है। यहाँ से बाकायदा आदिवासी लड़कियाँ लगातार बांग्लादेश के बाजारों में बेची और भेजी जा रही हैं।


एटसेक ने अपनी पहल पर सिर्फ पाकुड़ जिले में तस्करी की संभावना को देखते हुए दो वीजीलेंस कमिटी का गठन किया है, जो इस पूरे मामले पर नजर रखे हुए है। इनकी सजगता का नतीजा है कि ये लोग समय-समय पर वहाँ लड़कियों को तस्करों के चंगुल से मुक्त कराते रहते हैं। प्रशासन को नींद से जगाने वाली संस्थाओं को भी धीरे धीरे उनका सहयोग मिलने लगा है। अब आए दिन पाकुड़ की देह मंडी से लड़कियाँ बरामद होकर संजय मिश्रा के रांची और पाकुड़ किशोरी निकेतन में पहुंचने लगी हैं।


संजय दावा करते हैं कि उनके संगठन ने अब तक 372 आदिवासी लड़कियों को विभिन्न राज्यों समेत बांग्लादेश से मुक्त करवाया है। एटसेक के आंकड़ो के अनुसार झारखंड की 1.23 लाख आदिवासी लड़कियाँ देश के विभिन्न शहरों में घरेलू नौकरानी के रुप में काम कर रही हैं, जिनमें 2339 दिल्ली में हैं, बाकी हरियाणा, मुंबई और उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में हैं। संजय दुख और चिंता जताते हुए कहते हैं - हिरन पुर में महिला मंडी, पशु हाट से ज्यादा दूरी पर नहीं था। ये सभी अच्छी तरह जानते हैं कि यहाँ से हजारों की तादाद में गैर कानूनी तरीके से पशु भी बांग्लादेश भेजे जाते हैं। लेकिन ये महिलाएँ भी उन्हीं पशुओं की तरह ट्रीट की जाती हैं और ये सिलसिला अब भी जारी है।


असल में राज्य के पुलिस अधिकारी भी नहीं जानते कि लड़कियों की तस्करी के मामले में कानूनी प्रावधान क्या-क्या हैं। इममोरल ट्रैफिकिंग प्रिवेंशन एक्ट में कितनी कड़ी सजा का प्रावधान है, इसका अहसास भी इन पुलिस अधिकारियों को नहीं था। आखिर में स्वयंसेवी संस्थाओं की पहल पर इस मुद्दे पर पुलिस की कार्यशालायें हुईं और मानव तस्करी पर रोक लगाने के लिए बकायदा टास्क फोर्स का भी गठन किया गया। इन कोशिशों का ही नतीजा है कि इलाके में मानव तस्करी के मामले में कमी आई है लेकिन क्या इसे जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता ? संजय मिश्रा कहते हैं- मांग है तो आपूर्ति रहेगी ही। हमें समाज के सोचने के तरीके को बदलना होगा।


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