शनिवार, 6 मार्च 2010

स्त्रीवादियों से कुछ निवेदन : आदर्श स्त्री कौन ?

महिला आंदोलन के समर्थकों ने, एक बहुत जरूरी काम की उपेक्षा की है। वे हमेशा यही बताते रहते हैं कि अच्छे पुरुष को कैसा होना चाहिए और कैसा नहीं होना चाहिए। यह एक जरूरी और उचित माँग है। हर आंदोलनकारी जिनका विरोध करता है, उनकी गलतियों और कमियों को रेखांकित करता है और उनसे अपने चरित्र को बदलने की माँग करता है। इसलिए महिलाएँ अगर पुरुषों के लिए आचार संहिता तैयार कर रही है, तो यह उनका हक है। हर अच्छा पुरुष इस आचार संहिता पर गौर करेगा और उसकी रोशनी में अपने को सुधारने की कोशिश करेगा। लेकिन कोई भी अच्छा आंदोलन सिक्के के सिर्फ एक पहलू तक अपने को सीमित नहीं रखता। वह आंदोलनकारियों के लिए भी एक आचार संहिता बनाता है


स्त्रीवादियों से कुछ निवेदन



कल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। भारत के लिए यह दिन विशेष महत्व का होनेवाला है। मीडिया को उम्मीद है कि सोमवार को महिला आरक्षण विधेयक पास हो कर रहेगा। सरकार अगर सचमुच चाहती है, तो यह असंभव नहीं है। संख्या का गणित उसके पक्ष में है। लेकिन आरक्षण के विरोधी इस विधेयक को रोकने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। हंगामा तो मामूली बात है।



बहरहाल, महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाता है तो और नहीं पारित हो पाता है, तब भी स्त्रीवादियों से मुझे कुछ निवेदन करना है। जो महिला आंदोलन का विरोध करता है, उसे अच्छा आदमी मान पाना मुश्किल है। ऐसा आदमी औरतों की गुलामी को अनंत काल तक बनाए रखना चाहता है। लेकिन महिला आंदोलन के समर्थकों ने, एक बहुत जरूरी काम की उपेक्षा की है। वे हमेशा यही बताते रहते हैं कि अच्छे पुरुष को कैसा होना चाहिए और कैसा नहीं होना चाहिए। यह एक जरूरी और उचित माँग है। हर आंदोलनकारी जिनका विरोध करता है, उनकी गलतियों और कमियों को रेखांकित करता है और उनसे अपने चरित्र को बदलने की माँग करता है। इसलिए महिलाएँ अगर पुरुषों के लिए आचार संहिता तैयार कर रही है, तो यह उनका हक है। हर अच्छा पुरुष इस आचार संहिता पर गौर करेगा और उसकी रोशनी में अपने को सुधारने की कोशिश करेगा। लेकिन कोई भी अच्छा आंदोलन सिक्के के सिर्फ एक पहलू तक अपने को सीमित नहीं रखता। वह आंदोलनकारियों के लिए भी एक आचार संहिता बनाता है और उसे सख्ती से लागू करने की कोशिश करता है। दुनिया को आदर्श पुरुष चाहिए, तो उसे आदर्श नारियाँ भी चाहिएँ। खेद है कि श्रमिक आंदोलन से भी ज्यादा आयामों के धनी महिला आंदोलन ने इस तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी है। मेरे खयाल से, यह बहुत बड़ी कमी या खामी है और इस कारण भी महिला आंदोलन के लक्ष्यों के पूरे होने में देर लग रही है।



चीन के एक बड़े कम्युनिस्ट ने एक किताब लिखी थी - अच्छा कम्युनिस्ट कैसे बनें। चीन की माओवादी क्रांति के दिनों में और बाद के अनेक वर्षों में भी यह किताब कम्युनिस्ट दायरे में बहुत रुचि के साथ पढ़ी जाती थी। इसे पढ़ने के बाद शायद अनेक कम्युनिस्टों ने अपने को बदला भी होगा। वे कम्युनिज्म के उठान के दिन थे। तब इसमें कुछ रचनात्मक शक्ति थी। लेकिन आजकल यह पुस्तक खोजे से भी नहीं मिलती। इसलिए नहीं मिलती, क्योंकि कम्युनिस्टों को इसकी जरूरत नहीं रह गई है। निर्माण काल में किताबें उपयोगी होती हैं। पतन के दौर में वे दुश्मन जान पड़ती हैं। ठीक ही कहा गया है - " वो मुझे दुश्मन लगे है जो मुझे समझाए है"।



महात्मा गाँधी ने भारत में जब असहयोग आंदोलन शुरू किया, तब उन्होंने असहयोगियों के लिए एक आचरण संहिता तैयार की। यह संहिता बताती थी कि असहयोगी क्या करेगा और क्या नहीं करेगा। बाद में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता के लिए भी कुछ नियम बनाए गए। इन नियमों में एक यह था कि कांग्रेस का सदस्य छुआछूत का बरताव नहीं करेगा। एक और नियम यह था कि वह आदतन खादी पहनेगा। सत्याग्रहियों के लिए तो गाँधी जी ने बहुत सख्त नियम बनाए थे। इनके अलावा, उनकी अपनी कुछ अपेक्षाएँ भी रहती थीं। इसी सबके परिणामस्वरूप कांग्रेस के उस दौर के सदस्यों का चरित्र निर्माण हुआ। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही इतनी बड़ी संख्या में सभी वर्गों की स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन में उतरीं। उनमें से सभी का आम औरतों से अलग व्यक्तित्व बना।



समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया औरतों में कुछ विशेष गुण देखना चाहते थे। दब्बू और हुक्म की गुलाम औरतें उन्हें पसंद नहीं थीं । वे स्त्री को स्वाभिमानी, विवेकशील और साहसी देखना चाहते थे। इसी इरादे से उन्होंने यह बहस छेड़ी थी - आदर्श स्त्री कौन - सावित्री या द्रौपदी ? हिन्दुस्तान के स्त्री समाज ने अभी तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है। महिला आंदोलन के पास इसका जवाब होना चाहिए।



बेशक, आंदोलनकारियों में दूसरों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति हावी होती है। वे सारी कमियाँ उन्हीं में खोजना पसंद करते हैं जिवके खिलाफ उनका आंदोलन होता है। बेशक, अगर पुरुष स्त्रियों को अपने आधिपत्य से मुक्त कर दें, तब स्त्रियों को यह सोचने को मजबूर होना पड़ेगा कि वे अपनी जिंदगी का क्या करें। मेरा निवेदन यह है कि यह खोज अभी से शुरू हो जाना चाहिए। नई स्त्री अपना व्यक्तित्व खोजने में लगेगी, तभी वह पुरुष के चरित्र में भी परिवर्तन कर पाएगी। अगर वह अपने को अपने आदर्शों के अनुसार संस्कारित नहीं करती, तो उसका व्यक्तित्व मिलिटेंट का बना रहेगा और पुरुष उसका प्रतिवादी बने रहने में सुख का अनुभव करेगा। स्त्री के संघर्ष में पुरुष तभी सहयोगी भूमिका निभा सकता है, जब वह स्त्री को रचनात्मक रोल में देखेगा। रचना भी संधर्ष का ही एक चेहरा है।



मैं यह तर्क स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हूँ कि जब तक व्यवस्था नहीं बदलती, तब तक व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता। महाभारत काल की व्यवस्था में ही द्रौपदी पुरुषों की क्रूरता, कायरता और मूढ़ता की आलोचना किया करती थी। रजिया बेगम, मीराँ, लक्ष्मीबाई, झलकारी देवी आदि जिन तेजस्वनी महिलाओं की चर्चा की जाती है, वे सभी उस समय की व्यवस्था में नहीं, उस व्यवस्था के बावजूद ऐसी बनी थीं। इसलिए स्त्री आंदोलन का विस्तार करना है और इसमें क्रांतिकारी कंटेन्ट भरना है, तो स्त्रियों को भी गहरे आत्मनिरीक्षण और स्वनिर्माण से गुजरना होगा। उन्हें अपने फैसले खुद लेना सीखना होगा और इसके लिए आवश्यक योग्यता तथा क्षमता अर्जित करनी होगी। उन्हें यह भी साबित करना होगा कि नई स्त्री सिर्फ अपने लिए ही नहीं, पूरे समुदाय के लिए बेहतर है। यह वर्तमान व्यवस्था में भी काफी दूर तक संभव है और इससे भी इस व्यवस्था को बदलने में सहायता मिलेगी। एक हाथ की ताली कितने दिनों तक बजती रह सकती है?

 राजकिशोर






6 टिप्‍पणियां:

  1. कविता जी,

    ये विडंबना ही है कि खुद को राम मनोहर लोहिया के चेले बताने वाले नेता ही महिला रिज़र्वेशन बिल के पीछे लठ्ठ लेकर सबसे ज़्यादा पिले हैं...

    मेरा ये मानना है कि नारी विमर्श पर ये बहस ही बेमानी है...जब दो हाथ बराबर हैं तो फिर ये किसी को जताने की ज़रूरत ही क्यों होती है कि पुरुष और नारी बराबर है...मैंने एक बार गांधी जी के धर्म के बारे में विचार पड़े थे...गांधी जी के अनुसार अगर ये कहा जाता है कि हिंदू धर्म सहिष्णु है, तो यहां भी कहीं न कहीं अपने को श्रेष्ठ साबित करने की ग्रंथि ही काम कर रही होती है...इसलिए अगर कोई कहता है कि महिलाओं को वो सभी अधिकार मिलने चाहिए जो पुरुषों को हासिल हैं...मेरी समझ में यहां भी कहीं न कहीं पुरुष की अपने को श्रेष्ठतर बताने की मंशा ही काम कर रही होती है...

    जय हिंद...

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  2. आज महिला दिवस के दिन यह लेख पढ़कर अच्छा लगा।

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  3. महिला दिवस पर सब्को शुभकामनाये! आरक्षण(कोई भी)एक स्थिति चिन्ह मात्र है। महिलाये राजनीति में आती रही है, आती है और आयेगी भी चाहे संख्या थोडी हो। परन्तु महिलाओ के लिये क्या,कब और कैसे किया गया, यह प्रश्न चिन्ह है। पुरुष - महिला में कौन सशक्त या कौन प्रमुख,येसी धारणा/बहस आज भी मौजूद है। इसमे बदलाव की आवश्यक्ता है हमे। कंही न कंही हम खुद ही जिम्मेदार है

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  4. आदर्श स्त्री कौन --सावित्री या द्रोपदी ?
    बात जब आदर्श की है तो ज़ाहिर है --सावित्री जैसी पतिव्रता और द्रोपदी जैसी स्वाभिमानी और साहसी।
    अब यह संभव है या नहीं वर्तमान परिवेश में , यह कहना मुश्किल है।

    कल महिला दिवस पर ---तैयारी है , पब्स में आधे दाम पर शराब, सिनेमा हाल्स में फ्री टिकेट , और भी कई तरह के डिसकाउंट्स महिलाओं के लिए । आज के व्यवसायिक युग में इसी तरह मनाया जाता है कोई भी दिवस।
    क्या कोई सोच रहा है उन करोड़ों महिलाओं के लिए जो मेहनत के पसीने से इतना भी जुगाड़ नहीं कर पाती की अपने भूखे बच्चे को एक सूखी रोटी का टुकड़ा मुहैया करा सके ।

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  5. बहुत अच्छा लेख , लडकी का शिक्षित और साहसी होना बेहद आवश्यक है , अधिक लड़कियां आज भी आश्रित और खुद को अपने ही घर पर बोझ महसूस करती हैं, अपने ही पिता और माँ के द्वारा भेदभाव सहना उनकी मूक नियति बन जाती है , और खुद परिवार इस दर्द को महसूस नहीं करता , गलत को गलत कहना आज की सबसे बड़ी जरूरत है , और अपनी पुत्री को उसका हक़ दिलवाने में, सबसे पहले माँ को करना चाहिए !
    सादर !

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  6. बेशक अगर हम अच्छा समाज चाहते हैं तो किसी एक से सारी अपेक्षाएँ नहीं की जा सकती. औरतों को अपनी ओर देखना ही होगा. उन्हें अधिक आत्मविश्वासी, आ्त्मनिर्भर और ज़िम्मेदार बनना होगा. पर वे द्रौपदी बनें या सावित्री, यह उन्हीं पर छोड़ देना होगा. समाज इसका जवाब नहीं दे सकता. इसका जवाब खुद औरतों को देना होगा.
    मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि कोई भी आन्दोलन एकपक्षीय होकर अधिक दूर तक नहीं जा सकता. नारी आन्दोलन को अधिक रचनात्मक बनना ही होगा और नारी मुद्दों के साथ-साथ अन्य मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा.

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