सोमवार, 3 मई 2010

एक पत्र निरुपमा के मित्रों के नाम : पिता का पत्र पढ़कर

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एक पत्र निरुपमा के मित्रों के नाम : पिता का पत्र पढ़कर



 १)



  निरुपमा के जीवन की त्रासदी भयानक है, जाने क्यों गत दिनों मुझे मधुमिता याद आती रही। स्त्री जीवन की ऐसी त्रासदियाँ भयावह हैं और इन्हें तत्काल रोका जाना चाहिए। किन्तु ध्यान देने की बात है कि मधुमिता, निरुपमा ..... ये सब तो नाम हैं प्रतिनिधियों के ... उस वर्ग के प्रतिनिधि जिस वर्ग को समाज में सुरक्षा नहीं दे पाए / दे पाते हम/ आप। उस स्त्री-अस्मिता की हत्या पल पल होती है... अस्तित्व की... आत्मा की, प्राण की। 


आप अकेली निरुपमा को ही न्याय दिलाने को क्यों कटिबद्ध हैं? क्यों नहीं समूची स्त्री जाति के न्याय के लिए कोई सार्थक पहल करते? क्यों नहीं इसे एक ऐसे अभियान का रूप देते कि कम से कम हम या हमारे लोग जीवनभर स्त्री की अस्मिता व आदर के प्रति कटिबद्ध रहकर अपने कार्यों से समाज में स्त्री को सम्मानजनक व सुरक्षित स्थान देने / दिलाने की पहल अपने उदाहरणों से करेंगे, या कह लें कि उदाहरण प्रस्तुत करेंगे /  बनेंगे।  निरुपमा की मृत्यु को कम से कम सौ / हजार स्त्रियों के जीवन को पलट देने वाले क्रांति का वाहक क्यों नहीं बनाया जा सकता?

 )
आपने लिखा पिता की ‘धमकी’। 

मुझे इस पत्र में धमकी या हत्या की ओर धकेलने की पृष्ठभूमि रचने जैसा कुछ दिखाई नहीं देता।

यह एक विवश पिता का अपनी पुत्री के नाम समझाते हुए लिखा गया एक सामान्य पत्र है। इसमें उस समाज के एक वृद्ध पिता की विवशता अवश्य झलकती है जिस समाज में कुँआरी लड़की का मातृत्व जीवन-भर की शर्मिन्दगी का सबब होता है और परिवारजनों का जीना दूभर कर देता है समाज में समाज।


हत्यारा वह समाज है। उस समाज का अलाने- फलाने धर्मावलम्बी होना न होना कोई मुद्दा नहीं होना चाहिए। वह समाज भारत में भले ही मुस्लिम हो, हिन्दू हो, ईसाई हो । सब यही करते हैं। इस लिए मुद्दे को धर्म का रंग दे कर उसे भटकाइये मत। यह सीधे सीधे स्त्री प्रश्नों से जुड़ा व स्त्री की सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है, कृपया इसे जातिवाद का मुद्दा न ही बनाएँ तो बड़ी कृपा होगी।

... क्योकि ऐसा करके आप स्त्री की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे को कमजोर कर रहे हैं, और निरुपमा के प्राण जाने को निरर्थक बना देंगे, उसे कोई स्थायी व बड़े प्रश्न का रूप न दे कर। 


हिन्दुओं के प्रति अपनी भड़ास निकालने के और अवसर आपको मिलते रहेंगे, किसी अन्य अवसर का लाभ उठाइयेगा, अभी क्यों बेचारी लड़की का इसमें इस्तेमाल कर रहे हैं... ?


केवल हिन्दुओं को गाली तो तब जायज मानी जाती जब ईसाई, मुस्लिम, अन्य सवर्ण/विवर्ण आदि के लोग अपनी अविवाहित पुत्री के गर्भ को सहर्ष स्वीकारने का साहस रखने वाले होते व वे भी अपनी बेटियों के साथ ऐसा ही न करते ..।


परन्तु दुर्भाग्य यही है कि पूरा समाज यही करता। यही होता आया है।

 इसलिए बन्धु यह कॄपा आप निरुपमा पर करें कि उसके प्राणों का प्रयोग उस जैसी अन्य निरीह वर्ग की स्त्री के लिए करें, न कि उसका दुरुपयोग कर उसकी मॄत्यु को भुनाने की कोशिश करें।

ऐसा मेरा आग्रह है। शेष क्या कहूँ... 




लाज न आवत आपको

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एकालाप





लाज न आवत आपको 



तुम्हें चबाने को हड्डी चाहिए थी
खाने को गर्म गोश्त
चाटने को गोरी चमड़ी
चाकरी को सेविका
और साथ सोने को रमणी.


तुमने मुझे नहीं
मेरी देह को चाहा.
पर मैं देह होकर भी
देह भर नहीं थी.


मैं औरत थी!
मुझे लोकलाज थी!


तरसती थी मैं भी - तुम्हारे संग को
तड़पती थी मैं भी - राग रंग को
पर मुझे लोकलाज थी.


तुम क्या जानो लोकलाज?
बस दौड़े चले आए साथ साथ!


न तुमने रात देखी न बारिश
न तुमने नाव देखी न नदी
तुम्हें लाश भी दिखाई नहीं दी
साँप तो क्या ही दीखता?
तुम लाश पर चढ़े चले आए!
तुम साँप से खिंचे चले आए!
न था तुम्हें कोई भय
न थी लोकलाज.


तुम पुरुष थे
सर्वसमर्थ .


और समर्थ को कैसा दोष?


मैं औरत थी
पूर्ण पराधीन.


और पराधीन को कैसा सुख?


तुम आए
मैंने सोचा-
प्रलय की रात में मेरा प्यार आ गया.
पर नहीं
यह तो कोई और था.
इसे तो
हड्डी चाहिए थी चबाने को
गर्म गोश्त खाने को
गोरी चमड़ी चाटने को
और रमणी साथ सोने को!


पर मैं औरत थी
लोकलाज की मारी औरत!


तुम्हें बता बैठी तुम्हारा सच
और तुम लौट गए उलटे पैरों
कभी न आने को!

- ऋषभ देव शर्मा
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