गुरुवार, 6 सितंबर 2012

'कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं ?'


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यह आकस्मिक नहीं कि हिन्दी में पहली बार `उदारवादी परिवर्तन' के प्रभाव दिखाई दे रहे हैं। कविता के क्षेत्र  के अराजक दृश्य पर कोई, गंभीर सामाजिक सांस्कृतिक विवेक के साथ, जिरह शुरू हुई है। मैं इसे `रेडिकल डिस्कोर्स' कहूँगी । दरअसल पश्चिम की सांस्कृतिकता ने जिस तरह पूरे भारतीय समाज को अपने हित में अनुकूलित किया है, उसके लक्षण `फैशन और उपभोग' के मार्ग से  साहित्य में स्पष्ट दीख रहे हैं। वर्जनाओं की रेखाओं को तोड़ने की जल्दबाज़ी में, हिन्दी का `स्त्रीविमर्श'  `बाजारवादी देहविमर्श' के अधीन हो गया है। आज यूरो अमेरिकी `यौन-उद्योग'  इसका केंद्रीय संचालक है।

 हिन्दी में `अनामिका और पवन करण'  की कविताओं में इसके लक्षण देख कर `कथादेश' के जून 2012 अंक में शालिनी माथुर ने गहरी मूलगामी दृष्टि से एक जरूरी आक्रामकता के साथ लेख लिखा ( जिसे 15 जून को नेट पर सर्वप्रथम यहाँ प्रकाशित किया गया -  व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि )। इसके छपते ही `देहमुक्ति'  का `बाजार-दृष्टि'  से संचालित बौद्धिकवर्ग इसके विरोध में टूट पड़ा। कविता तथा `पाठ' के प्रश्न खड़े करके कवियों के असली मन्तव्यों पर नेपथ्य डाला जाने लगा। 

परिचर्चाओं व बहसों का यह क्रम अभी चल ही रहा है - 

  1. व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि : शालिनी माथुर 
  2. आख़िर एकांगिता ही तो अश्लीलता है! 
  3. पवन करण के रुदन से अनामिका की खिलखिलाहट क्या बेहतर है? 
  4. दैहिक गरिमा के भीतर-बाहर 
  5. यह (उनकी) पोर्नोग्राफी नहीं, (आप की) गुंडागर्दी है 
  6. क्या हिंदी की मौजूदा काव्य-संवेदना स्वयं रुग्ण और अश्लील है? 
  7. अनामिका की कविता 'ब्रेष्ट कैंसर और पवन करण की कविता 'स्तन 
  8. कविता को समझने के लिए कविता के योग्‍य बनना पड़ता है
  9. इन्‍हें वीभत्स कहना भी वीभत्स रस का अपमान करना है [शालिनी माथुर]
  10. ‘औरत के नजरिये से’ कुछ और भी कहना जरूरी है [उदभ्रांत]
  11. कविता को कैंसरस बना रहे हैं – ये कवि हैं या वायरस? [डॉ दीप्ति गुप्‍ता]
  12. गफलत छोड़िए, समस्त स्त्री-लेखन स्त्रीवादी लेखन नहीं है! [अर्चना वर्मा]
  13. क्या हिंदी की मौजूदा काव्य-संवेदना रुग्ण और अश्लील है? [आशुतोष कुमार]
  14. कुंडली मारे बैठी स्त्री देह
  15. ''कविता , आलोचना और पोर्नोग्राफी ''
  16. कविता की व्याधि या व्याधि की कविता (हाशिया)

..... इस हड़कंप के बीच कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी ने कथादेश के ताज़ा अंक (सितंबर 2012) में अपनी लंबी टिप्पणी लिखी है, जो इस सारे कुहासे को बहुत धैर्य से साफ करती है तथा इस ओर भी इंगित करती है कि सृजनात्मकता के क्षेत्र में फूहड़ता को मूल्य बनाना एक गहरा सांस्कृतिक, सामाजिक और नैतिकता के विरुद्ध अपराध है। 

प्रभु जोशी का यह लेख शालिनी माथुर के लेख के पश्चात् छिड़े विमर्श को साधता व उसकी परीक्षा करता भी चलता है व साथ ही उसके परिप्रेक्ष्य में उठे प्रश्नों के उत्तर देता हुए हिन्दी की वर्तमान आलोचना व रचना के अंधत्व की तहें भी निर्ममता से उधेड़ता है। दिल्ली के एक मित्र ने डाक से अंक मिलते ही स्कैन कर के लेख मुझे ईमेल कर दिया। उस स्कैनप्रति से तैयार किए इस पाठ को `नेट' पर सर्वप्रथम Beyond the Second Sex (स्त्रीविमर्श)  के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखना मेरे लिए यों महत्वपूर्ण है कि शायद यह शल्यचिकित्सा नई पीढ़ी की रचनात्मकता को सँवारने व सही दिशा देने के लिए भी कई अर्थों में महत्वपूर्ण है और एक प्रकार से इस विमर्श के बहाने कई खतरों व छ्द्मों की पट्टियाँ भी खोलती चलती है। हिन्दी की भावी पीढ़ी इस लेख में दिखाए आधुनिक तकनीकी विद्रूप व छ्द्म की पैमाईश के खतरों से सावधान हो कर ही सही, सही दिशा में बढ़ेगी, यह न्यूनतम आशा है। 

 पाठकों के विमर्श हेतु प्रस्तुत है प्रभु जोशी का, बौद्धिक विमर्श को आमन्त्रित करता, वह लेख ।  
- कविता वाचक्नवी

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'कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं ?' 
 - प्रभु जोशी 



`कथादेश' के ताजा अंक को देखकर यह सुखद विस्मय हुआ कि मूलत: कहानी पर केन्द्रित एक पत्रिका ने अपने पृष्ठों पर कविता को लेकर, इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, सर्वथा नये कोण से एक ऐसी बहस को जन्म दे दिया है, जिसे जरूरी तौर पर किसी कविता-केन्द्रित पत्रिका से बहुत पहले उठना चाहिए था | कदाचित यह वहाँ इसलिए सम्भव नहीं हो सका, चूँकि एक लम्बे कालखण्ड से वहाँ से बहस बिदा हो चुकी है| और अब बहस इस पर भी नहीं होती कि बहस क्यों नहीं हो रही है ?



'कथादेश' के ताजा अंक को देखकर यह सुखद विस्मय हुआ कि मूलत: कहानी पर केन्द्रित एक पत्रिका ने अपने पृष्ठों पर कविता को लेकर, इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, सर्वथा नये कोण से एक ऐसी बहस को जन्म दे दिया है, जिसे जरूरी तौर पर किसी कविता-केन्द्रित पत्रिका से बहुत पहले उठना चाहिए था | कदाचित यह वहाँ इसलिए सम्भव नहीं हो सका, चूँकि एक लम्बे कालखण्ड से वहाँ से बहस बिदा हो चुकी है| और अब बहस इस पर भी नहीं होती कि बहस क्यों नहीं हो रही है ? दरअसल, यह क्षम्य है क्योंकि उनकी किंचित् अपरिहार्य-सी विवशताएँ हैं| मसलन, सम्प्रति वे एक दूसरे की कविता के 'श्रेष्ठ' और 'श्रेष्ठतर' बताने की परिश्रम-साध्य तार्किक युक्तियों को आविष्कृत करने में लगे हुए हैं | नतीजतन उनके पास अवकाश का ही सबसे बड़ा अभाव है | वे यदा-कदा अपनी उन एक-सी जान पड़ने वाली पत्रिकाओं के पृष्ठों पर, परस्पर एक दूसरे से मिथ्या-असहमति प्रकट करते रहते हैं, जबकि अप्रत्यक्ष रूप से वे एक दूसरे से पूरी तरह सहमत हैं | वस्तुत: वहाँ, उन सब के बीच एक अप्रकट समन्वय है| एक ऐसा मतैक्य है, जिसके पार्श्व में हितों की अखण्ड सूत्रबद्धता है| वे मोलियर के पात्रों की तरह एक दूसरे को बधाइयाँ देते हुए बरामद किये जा सकते हैं | 


बहरहाल कहना न होगा कि उनके बीच मूल-समस्या 'महानता' के निर्धारण की है| सबके अपने-अपने महान हैं, और गाहे-ब-गाहे जिनका 'महा-मस्तकाभिषेक' चलता रहता है| सबके अपने-अपने 'कुलश्रेष्ठ' हैं तथा यह चेतावनी जारी कर दी गई है कि उनके 'रचे हुए' की 'मौलिकता' और 'महानता' के प्रति सभी प्रकार की आशंकाओं को पूर्णत: स्वाहा करने के बाद ही कोई उनकी कविता के निकट आये| यह आकस्मिक नहीं कि, कविता के कुछेक 'कुलशील' तो ऐसे भी हैं, जो ऐसे अप्रत्याशित खतरे का पूर्वानुमान लगा कर अपने काव्य-कुटुम्बियों के सदस्यों की कविता के विषय में होठों को 'अद्भुत' शब्द से ही खोलते हैं| और यदि उनके लिए इस शब्द को प्रतिबंधित कर दिया जाये तो वे हमेशा के लिए गूँगे ही हो जाएँ | 



कविता के क्षेत्र में 'प्रतिमान' शब्द को अब पूरी तरह लज्जास्पद बना दिया गया है| और आलोचना-दृष्टि की बात करने वालों को ताकीद कर दी गई है कि वे इस शब्द से एक किस्म की 'हाइजीनिक-डिस्टेंस' बनाकर रखें|
यह अब कतई विस्मय की बात नहीं कि कविता के क्षेत्र में 'प्रतिमान' शब्द को अब पूरी तरह लज्जास्पद बना दिया गया है| और आलोचना-दृष्टि की बात करने वालों को ताकीद कर दी गई है कि वे इस शब्द से एक किस्म की 'हाइजीनिक-डिस्टेंस' बनाकर रखें| यह अवश्यम्भावी है, ताकि आप 'समझ की रूग्णता' के शिकार होने से बचे रह सकें |......कहना न होगा कि अब उस 'काल' की तो कभी की अन्त्येष्टि हो चुकी है, जिसमें कभी कविता के नये पुराने 'प्रतिमानों' की कागारौल मची रहती थी| अब 'प्रतिमान' नहीं बस 'पैराडाइम' हैं, जो साहित्य में पूर्व 'प्रतिमानों' की मरणासन्नता की सर्वज्ञात सूचना है| 'पैराडाइम' सुविधाजनक प्रविधि से 'दाएँ' या 'बाएँ' शिफ्ट होता रहता है| हालांकि, एक 'विचारधारा' के पराभव के पश्चात बायीं तरफ शिफ्ट होने में किंचित् अड़चनें उठ आती हैं| अत: अब किसी भी कोण के शिफ्ट को अनिवार्यत: बायाँ ही मान लिये जाने का अभूतपूर्व और अघोषित प्रस्ताव है| और, अब वामांगियों को विषयवस्तु बनाकर जो कुछ भी रचेगा, वह स्तुत्य ही होगा | चूँकि यह 'दबी हुई अस्मिताओं' का उदयकाल है| कुल मिलाकर निश्चय ही 'घनमंथन' की इस परिस्थिति की निर्मिति में वामालोचना की वयोवृद्धावस्था ने भी काफी हद तक इमदाद की है| फिर नव-उदारवाद के आगमन के साथ ही उन्हें अवकाश पर भी भेज दिया गया है | 



यूरो-अमेरिकी गर्ली-मेग्ज़ीन्स



बहरहाल , 'कथादेश' के दो अंकों में कदाचित् साहित्य में पहली दफा ''कविता और पोर्नोग्राफी'' के अप्रत्यक्ष गठजोड़ पर हो रही इस तरह की जिरह को पढ़कर मुझे साठ के दशक की यूरो-अमेरिकी गर्ली-मेग्ज़ीन्स का स्मरण हो आया, जिनमें पोर्न-इंडस्ट्री की पूँजी लगी हुई थी | यह प्रिंट में पोर्न को प्रविष्टि दिलाने का ही सुविचारित उपक्रम था, ताकि उसे एक यथेष्ट कानून-सम्मत हैसियत हासिल हो सके | 


उन महिला पत्रिकाओं में उनके सम्पादकीय एकांश के कर्मचारी ही हर अंक में नित नये नामों से चिट्ठियाँ लिखा करते थे| पत्र-सम्पादक नामक स्तंभ में वे स्वयं ही स्त्रियाँ बनकर अपनी यौन संबंधी समस्याओं के विषय में विस्तार से निर्भीक भाषा में लिखते थे कि उनके स्तन का आकार या कुचाग्रों का रंग ऐसा-वैसा होता जा रहा है| योनि संकुचन की शिथिलता बढ़ गयी है...संसर्ग में आनन्द का चरमोत्कर्ष चला गया है.....'बताइये मैं क्या करूँ ?' बाद में वे ही ऐसे प्रश्नों के सन्दर्भ में 'विज्ञान का मुखौटा' लगाकर मिथ्या-गंभीरता के साथ उत्तर तैयार कर के छापते थे, जो उत्तरोत्तर, भाषा के 'सेन्सुअस-इडियम' से अलंकृत किये जाने लगे कि जिसके चलते स्त्रियों से ज्यादा पुरुष पाठकों के 'यौनिक-आनंद' का पाठ-विस्तार होने लगा| रति रोगों की समस्या के समाधान के बहाने, धीरे-धीरे इन पत्रिकाओं में सेक्स को इतना 'ट्रांसपेरेण्ट' बनाया जाने लगा कि हिन्दी के हमारे 'खुला खेल फरूक्काबादी' वाले जुमले का सफल चरितार्थ होने लगा| अब युवतियाँ पुरुष मित्रों से अपने संसर्ग की इच्छा, समस्या और सलाह को समूचे सांस्कृतिक संकोच को तोड़कर रखने लगीं| और जब ऑर्गेज़्म को लेकर समस्याएँ रखी जाने लगीं तो थोड़े ही वक्त में वे पत्रिकाएँ लगभग 'सॉफ्ट पोर्न' की रूप-सज्जा में आ गयीं और उन्होंने बिक्री के मार-तमाम अकल्पित कीर्तिमान बनाने शुरू कर दिये |

स्त्री की देह का नया लोकार्पण  


टेलिजेनिक पिता विज्ञापनों में अपने सुपुत्र को एड्स नामक महारोग से बचाने के लिये उसकी जीन्स की जेब में चुपचाप कण्डोम रखकर अपनी विज्ञानवादी भूमिका में आ गया| बदचलनी बदलकर उत्तर-आधुनिक जीवनशैली कहलाने लगी | माँएँ सैक्सी कहला कर दर्पवती होने लगीं |
....... बहरहाल, दुर्भाग्यवश प्रिंट में हमारे यहाँ स्त्री-यौनिकता का ऐसा सार्वदेशीय खुलापन हासिल करने में मार-तमाम कई अड़चने थीं, लेकिन भला हो कि भारत में एड्स का छींका सौभाग्यवश अमेरिका के 'सेण्टर फॉर डिसीज कण्ट्रोल' की कृपा से ऐसा टूटा कि हम बहुत जल्दी उन तमाम गर्ली-मेग्ज़ीन्स को पछाड़ने की हैसियत में आ गये| 'नाको' के कण्डोम-प्रमोशन कार्यक्रम ने इस उपलब्धि में आशाजनक अभिवृद्धि की| ये माध्यमिक शाला के बच्चों तक में ज्ञानार्जनार्थ वितरित किये गये| बिल क्लिण्टन के भारत आगमन पर बैंगलोर में कण्डोम के स्वागत द्वार बनाये गये| टेलिजेनिक पिता विज्ञापनों में अपने सुपुत्र को एड्स नामक महारोग से बचाने के लिये उसकी जीन्स की जेब में चुपचाप कण्डोम रखकर अपनी विज्ञानवादी भूमिका में आ गया| बदचलनी बदलकर उत्तर-आधुनिक जीवनशैली कहलाने लगी | माँएँ सैक्सी कहला कर दर्पवती होने लगीं | वस्त्र देह पर गनीमत होने लगे | फैशन ने भारतीय स्त्री की देह का नया लोकार्पण किया | प्रोढ़ाओं का यौनिक-निजता को ढाँपते रहने वाला पल्ला उड़ा और युवतियों के लिये 'डॉगी-फक' की फैण्टसी फार्म करने वाली जीन्स की 'बैक-फिटिंग' आने लगी | यह पोर्न इंडस्ट्री के भारत में प्रवेशपूर्व का प्रशस्तीकरण- प्रक्रिया थी | क्योंकि जितनी विदेशी पूँजी के लिए हमने अपनी अर्थ-व्यवस्था के दरवाजे खोले, उससे कई गुना राजस्व चीन अमेरिका से सेक्सटॉयज के व्यापार से अर्जित कर लेता है | एक हम हैं कि इस क्षेत्र में ठिठके और ठहरे हुए हैं फिर हमारे यहाँ सेक्स-वर्जनाओं की बहुत सारी बाधाएँ हैं | वे स्पीड ब्रेकर्स हैं| यदि इसे एक गतिमान समाज बनाना है तो उनकी 'सैद्धांतिकी' बताती है कि 'सामाजिक आघात' ही 'सामाजिक विकास' है | भारत को इस दिशा में शीघ्र ही कार्यवाही करनी है| कहना न होगा कि बाजार के वर्चस्व के बढ़ने के साथ ही यह सम्भव भी होने लगा है | सांस्कृतिक संकोच की बिदाई बेला का पूर्वरंग है | 


जब भाई आशुतोष कुमार ने अपने आलेख में पोर्नोग्राफिक होने के लांछन से इरादतन बदनाम की जा रही हिन्दी की श्रेष्ठतम कविताएँ उद्धृत कीं तो सचमुच ही मैंने उन्हें पहली बार अविकल रूप में पढ़ा और पाया कि हिन्दी में कैंसर एक नयी 'काव्य-युक्ति' बनकर ऐन्द्रिकता से निर्विघ्न क्रीड़ा के लिए ''उपर्युक्त नई और निर्द्वंद्व संकोचहीनता'' के साथ मनोवांछित स्पेस निर्मित करने में सफलतापूर्वक इमदाद कर रहा है| यह रोग और कविता के मध्य नया सहकार है जो कविता की दुनिया को पहली बार इस सूत्र से सेन्सुअसली सम्पन्न बना रहा है | 

बहरहाल, अब हम 'स्तन' नामक कविता के आन्तरिक स्थापत्य को देखें तो वहाँ, उसकी आरंभिक चालीस पंक्तियाँ प्रकारान्तर से 'प्लेज़र विद बेबी बूब्स' का ही वितान रचती है| अत: 'स्तन' कविता की संरचना के बारे में यदि मैं अपनी स्थानीय मालवी बोली में बताऊँ तो कहना होगा, 'ये तो मांड्णा में टिपकी धर देणे का काम है|'

बहरहाल, अब हम 'स्तन' नामक कविता के आन्तरिक स्थापत्य को देखें तो वहाँ, उसकी आरंभिक चालीस पंक्तियाँ प्रकारान्तर से 'प्लेज़र विद बेबी बूब्स' का ही वितान रचती है| अत: 'स्तन' कविता की संरचना के बारे में यदि मैं अपनी स्थानीय मालवी बोली में बताऊँ तो कहना होगा, 'ये तो मांड्णा में टिपकी धर देणे का काम है|' अर्थात् आप मांडना तो अपनी मन-मर्जी का चाहे जैसा बनाइये बस उसके अंत में कहीं 'टिपकी' (बिन्दी) लगा दीजिये| यह आपके किये धरे को 'अनालोच्य' बनाने की चतुराई होगी| यह आपके 'चित्रण' को लेकर उठ सकने वाली किसी भी किस्म की आपत्तियों को छीन लेगी| इसलिए कविता में अपनी आरंभिक-संरचना में कवि कुचों से पूर्वरंग की तरह कितनी ही किस्म की 'कुचमात' करता रहे और चाहे कविश्रेष्ठ के लिये यही कविता का आत्यन्तिक अभीष्ट भी हो, लेकिन अंत में करूणा का तिनके की आड़ की तरह उपयोग कर लीजिए | यह आलोचना के खतरे से परिचित होना तथा संभावना को सफलता से दुहना होगा | यह आपत्ति उठाने के लिए मुँहतोड़ उत्तर का आधार होगा| क्योंकि 'करूणा का आचमन' अवशिष्ट की भी शुद्धि करके उसे स्वीकार्य बना देगा | दरअसल कविता में यह अपनी 'चतुराई पर आश्वस्त' कवि का स्वयम् को जरूरत से ज्यादा मेधाग्रस्त समझ लेने का संकट है | 


यह पुरुषवादी नहले पर, स्त्री-वादी दहला मारने की तसल्ली है 


दोनों ही सर्जक अतिरिक्त रूप से सतर्क हैं कि वहाँ कहीं शिशु न आ धमके | क्योंकि कविता में आते ही वह कमबख्त दुधमुँहा उसकी 'अमानत' होने के दावे को खारिज कर देगा, क्योंकि 'जैविक-रूप' से तो वे उसकी ही अमानतें हैं | उन पर उसका 'बॉयोलॉजिकल-'पजेशन' है | उसके जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा है उनसे | वह सस्पेन्शन ऑफ सेक्‍सुएल्टी की अवांछनीय-स्थिति निर्मित कर देगा | कविता में व्यर्थ ही 'यौनिकता' और 'मातृत्व' का द्वैत खड़ा कर देगा| क्योंकि अभी तक संसार में कहीं भी ऐसी स्त्री का बिम्ब नहीं है जिसमें 'मैथुन और मातृत्व' एक साथ रख दिये गये हों | यहाँ तक कि कोई पोर्नोग्राफर भी ऐसा धृष्टतम दुस्साहस नहीं कर पाया है
दूसरी कविता 'ब्रेस्ट कैंसर' है | दोनों ही कविताओं में 'दुद्धुओं' से भाषा से भाषा में पैदा किये जाने वाले खेल में स्वयं को पारंगत समझने वाले कवि का युक्ति-प्रदर्शन है | शायद इसे ही विटगेंस्टाइन ने 'भाषा के छुट्टी पर जाने से पैदा हुई मौज' कहा है | यहाँ कविता में मौज ही प्रतिपाद्य है | यहाँ ध्यान देने की एक महत्वपूर्ण बात और भी है | देखें कि दोनों ही सर्जक अतिरिक्त रूप से सतर्क हैं कि वहाँ कहीं शिशु न आ धमके | क्योंकि कविता में आते ही वह कमबख्त दुधमुँहा उसकी 'अमानत' होने के दावे को खारिज कर देगा, क्योंकि 'जैविक-रूप' से तो वे उसकी ही अमानतें हैं | उन पर उसका 'बॉयोलॉजिकल-'पजेशन' है | उसके जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा है उनसे | वह सस्पेन्शन ऑफ सेक्‍सुएल्टी की अवांछनीय-स्थिति निर्मित कर देगा | कविता में व्यर्थ ही 'यौनिकता' और 'मातृत्व' का द्वैत खड़ा कर देगा| क्योंकि अभी तक संसार में कहीं भी ऐसी स्त्री का बिम्ब नहीं है जिसमें 'मैथुन और मातृत्व' एक साथ रख दिये गये हों | यहाँ तक कि कोई पोर्नोग्राफर भी ऐसा धृष्टतम दुस्साहस नहीं कर पाया है कि स्तनपानरत स्त्री को सम्भोगरत चित्रित कर दे | न कहो 'सृजनात्मक-स्वायत्तता' को वर्जनाहीन ध्रुवान्त तक ले जाने का जो नया स्त्रैण-शौर्य ऐसी कविता में देह के जिस चातुर्य के साथ दिगम्बरत्व का दिग्दर्शन करा रहा है वह कुछ भी करवा सकता है| बहरहाल, स्त्री स्तनों के साथ वहाँ, कविता से धात्री के रूप में तयशुदा ढंग से विस्थापित कर दी गई है | केवल कुचवती है, जो स्त्री को केवल शिश्न-कीलित ऑब्जेक्ट में अवघटित कर देता है| 



कवि-द्वय जानते हैं कि वस्तुत: बच्चा कविता में दाखिल होते ही कविता के निर्धारित स्थापत्य को ध्वस्त कर देगा| उसकी किलकारी से कविता कामाश्रयी होने की रंजकता से हाथ धो बैठेगी | यौनानंद का नियोजित 'उपादानी वृत्त' टूट जायेगा| वह 'रमणीत्व' की ऐन्द्रिकता से पैदा होने वाले 'सुख मे प्रवंचना' खड़ी कर देगा| इसलिए स्पष्टत: दोनों की कविता का अभीष्ट भिन्न नहीं है| अलबत्ता, दूसरे नम्बर की कविता पहले नम्बर की कविता को चुनौती देती है जैसे कहती है, ''यह विषय स्त्री का है, कवि बाबू ! अत: देखो, एक नयी स्त्रैण युक्ति से ऐसे विषय पर कविता की चमकीली गढ़न्त कैसे संभव होती है | आओ, मैं बताती हूँ | '' इस कविता में पवनकरण की कविता को पीछे छोड़ने का सृजन-संकल्प है| यह कविता नहीं है, बल्कि पुरुषवादी नहले पर, स्त्री-वादी दहला मारने की तसल्ली है| पहली कविता की अपेक्षा यहाँ इस कविता में सर्जक के पास अपने 'स्त्री-वर्चस्व' की निर्भीकता भी है | वह निर्द्वन्द होकर कुचों से क्रीड़ा रचती है | यह 'माय वैजाइना माय रूल' की पोर्नोग्राफिक मुनादी का साहस है, जिसके चलते स्त्री की यौनिक-निजता का पोर्न-उद्योग के व्यापक हित में लोकार्पण कराना संभव हुआ था | 


cancer isn't prettyपहली कविता में तो मात्र एक को ही खो देने का हादसा था| यहाँ एक के बजाय दोनों को खो देने से कवि के लिये कविता में 'क्रीड़ा का वृत्त' वृहद् होने की गुंजाइशें बनीं | यह मेसेक्टटॉमी पर एकाग्र कविता है| यहाँ  मेरा मन्तव्य दोनों कविताओं के बीच तुलना करने का कतई नहीं है| 'श्रेष्ठ' और 'श्रेष्ठतर' के पंगे का प्रश्न मेरे लिये सर्वथा निर्मूल है| यह कवि बिरादरी के कौटुम्बिक कलह का आन्तरिक प्रकरण है| पर दूसरी कविता में स्त्री में रजोनिवृत्ति के बाद सेक्स को लेकर जो खिलन्दड़पन अपने पूर्ण प्राकट्रय पर होता है, उसका भी यथोचित योगदान है | घरों में हमें रजोनिवृत प्रौढ़ा चाचियों, मौसियों व बुआओं की नवोढ़ाओं से होने वाली चुहल में इसके स्पष्ट दर्शन मिलते हैं | 


बहरहाल तुलनाएँ सिर्फ उनके मंसूबों की हैं, जो कि अपनी प्रकृति में 'रचना-साम्य' के लिये दोनों सर्जकों को पूर्णत: वशीभूत कर के रखते हैं | क्योंकि दोनों ही कवि 'गोपन' को खोलने की 'थ्रिल' को करूणा के कतरों से छुपाने का स्वांग रचते हुए, उन्हें खोलकर उनसे खेलने को ही अपना 'काव्याभीष्ट' बनाते हैं| वही उनका और कविता का प्रतिपाद्य है| यहाँ  नवगीतकार नईम की बात याद आ रही है, जिसमें वे गोश्तखोरी की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, 'ईद-बकरीद बस तो बहाना है'। यह वैसा ही चातुर्य है, जो करूणा का कारोबार करते हुए फिल्मों के पेशेवर लोग दृष्य-भाषा के माध्यम से दर्शक की 'यौनोत्तेजना' से इस तरह खेलते हैं कि दृश्य से आँख से ज्यादा अन्तर्वस्त्र भीग उठें |

'इमेजिनेटिव सिन्थेसिस' से 'भाषान्ध' बनाने की अचूक तकनीक

निश्चय ही ऐसे में टिप्पणीकर्ता ने इसमें चतुराई से छुपा ली गई 'पोर्नोग्राफिक-नीयत' को पढ़ लिया | उसके पाठ को महान रचनाओं पर 'पोर्नो' होने के लांछन लगाना मानते हुए कविता बिरादरी के पारखियों का एक समूह सहसा तमतमा उठा| दरअसल, पोर्नोग्राफर शब्द के सहारे चित्रात्मक ढंग से 'मिथ्या-यौन तुष्टि' की तरफ ले जाता है | जबकि, 'विजुअल-लैंग्विज' का पोर्नोग्राफर धीरे-धीरे स्त्री को राजी करता है, स्वयं को खोलने के लिए| वह स्वयं को खोलती है और बाद इसके, खुद से खुलकर खेलने लगती है | अपनी यौनिकता भर से नहीं, यौनांगों से खेलते हुए वह 'अन्य' को 'आनन्द' का उपभोक्ता बना लेती है | जो फ्रेम और टेक्स्ट से बाहर है | उसमें पीड़ा और प्रश्नों से भरा कोई सांस्कृतिक संकोच नहीं होता | उसका खिलन्दड़ापन ही माल का सौंदर्यीकरण है | वह जितना खेल के वृत्त का विस्तार करेगी, उतना ही वह उपभोक्ता की तसल्ली का दायरा बृहद बनता जायेगा।  यह 'ब्रेस्ट कैंसर' के लेबल के साथ 'वुमन-सेक्सुअल्टी' की सेंसुअसनेस की पण्य-उद्देश्य के लिये की गई प्रीतिकर पैकेजिंग है| इन बातों को ध्यान में रखकर देखें तो लगता है, यहाँ कविता से मंजा हुआ चातुर्य झलकता है| इस कविता का कवि कुचों को उम्र के दस वर्षों में ले जाता है | पहाड़ों पर चढ़ता है | दूध की नदियाँ बहाता है| पहाड़ खोद कर चुहिया को पकड़ कर लाता है | ज्वैलथीफ के फिल्मी-स्मगलर की तर्ज पर वहाँ से हीरे निकालता है-- यानी एक शब्द की छाया से दूसरे शब्द की तरफ फलाँगते हुए, कई-कई तरह से 'दुद्धुओं' से पर्याप्त दिलेरी के साथ खेलता है | वह कभी उन्हें एब्सट्रैक्ट में ले जाता है फिर कंक्रीट में ले आता है | मुहावरे के परम्परागत अर्थ की छाँह में छुपता है और फिर अर्थ से बाहर निकल कर 'अनर्थ का आनंद' पैदा करता है | यह शब्द में सेक्सुअल की सोलो पर्फार्मेंस है | एक 'इमेजिनेटिव सिन्थेसिस' से 'भाषान्ध' बनाने की अचूक तकनीक है | 

डेस्कटॉप पर राइयों का पहाड़ 

हमारे समीक्षकों का वृद्ध-वृन्द जो अपनी तकनीक-विरक्त दयनीयता को ''स्वयं के भीतर बचा कर रख ली गई मनुष्यता'' के रूप में विज्ञापित करता है | वे नहीं जानते कि ये 'मौलिकता' की कथित 'मार्मिकता' से भरी कविताएँ सिर्फ सिन्थेटिक कविताएँ हैं-जो साइबर स्पेस को खंगालते रहने की अभ्यस्तता से बहुतेरी गढ़ी जा सकती हैं| इस खदान से कविता के कई चमकीले हीरे जवाहरात निकाल कर उसकी द्युति से हिन्दी आलोचना के अधिपतियों को अभिभूत करते हुए 'भाषान्ध' बनाया जा सकता है|
हमारे समीक्षकों का वृद्ध-वृन्द जो अपनी तकनीक-विरक्त दयनीयता को ''स्वयं के भीतर बचा कर रख ली गई मनुष्यता'' के रूप में विज्ञापित करता है | वे नहीं जानते कि ये 'मौलिकता' की कथित 'मार्मिकता' से भरी कविताएँ सिर्फ सिन्थेटिक कविताएँ हैं-जो साइबर स्पेस को खंगालते रहने की अभ्यस्तता से बहुतेरी गढ़ी जा सकती हैं| इस खदान से कविता के कई चमकीले हीरे जवाहरात निकाल कर उसकी द्युति से हिन्दी आलोचना के अधिपतियों को अभिभूत करते हुए 'भाषान्ध' बनाया जा सकता है| आप गूगल का आश्रय लेकर 'ब्रेस्ट केंसर' को लेकर लिखी गयी कविताओं की राई ढूँढने जायेंगे तो वह आपके कम्प्यूटर के डेस्कटॉप पर राइयों का पहाड़ लगा देगा| आप अपने माउस की मदद से उस पहाड़ में से कविता के काम की चुहिया निकाल लीजिये| भाषा की इतनी पूँजी तो आपके पास होनी ही चाहिये कि चुटकी भर 'रसना' से आप बारह गिलास बना लें |......वहाँ एक नहीं दोनों स्तनों की शल्यक्रिया से की जाने वाली 'बाई-लेटरल मेसटक्टॉमी' पर अलग से कविताएँ भरी पड़ी हैं, जिनका किसी भी साहित्यिक दृष्टि से कोई काव्य-मूल्य नहीं है | वहाँ 'गेट-वेल' पोएट्री है, जो रस्मी तौर पर रोगियों के बीच नर्सों और शुभाकांक्षी-समूहों द्वारा अस्पताल के वोर्डों में वितरित की जाती हैं, ताकि उनकी जिजीविषा और आत्मबल बढ़े| वे रोगी के लिए की जाने वाली लैंग्विज-थैरेपी का हिस्सा हैं | वहाँ हर किस्म की व्याधियों पर लिखी गई कविताओं का जखीरा भरा पड़ा है, जिसको उठाकर कोई 'चतुर कविताभ्यासी' अन्य रोगों पर हिन्दी के वृद्ध समीक्षकों को चमत्कृत कर डालने वाली कविताएँ थमा कर, महानता की कतार में खड़े होने के लिए, उनके हाथों से इतिहास के दरवाजे का गेटपास छीन सकता है| 'वी ऑर क्रैक्ड पॉट्रस' रजस्वला होने के साथ स्त्री से जुड़ जाने वाले नियमित रक्तस्राव को लेकर तंजिया कविताएँ हैं| रजोनिवृति पर भी मसखरी करती कई कविताएँ हैं| और तो और, आप मासिकधर्म के रक्त से सने सेनेट्री नेपकिन को लेकर कविता और पेण्टिंग्स दोनों ही बरामद कर सकते हैं| पेण्टिंग में अचानक कर दी गई मूर्खता जैसा भी सौन्दर्य नहीं है| वहाँ 'दुद्धू' और 'पद्दू' पर भी पोएट्री है| बहरहाल कई कई तरह की बीमारियों की सनसनी और सच्चाई से लथपथ ऐसी कई संभावनाशील कविताएँ और कवि वहाँ हचर-हचर कर रहे हैं| सड़ांध में स्वादनिर्माण करने की व्यंजनविधि में निष्णात हिन्दी के कुछ अतिरिक्त प्रतिभाशाली कवि वहाँ से वांछित क्षेत्र की सामग्री उठायें और उसमें अपने पास से 'मिथ्या-भावमयता' भर कर कई ताजा 'भरवाँ' कविताएँ बना सकते हैं| वे गर्मागर्म भी रहेंगी और आस्वाद के स्तर पर आलोचक के मुखारविन्द से विशेषणों को लार की तरह लगातार टपकाएँगी | 


कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी तमाम चमकीली कविताएँ किसी दिन मौलिकता के संदर्भ में 'विश्वास को इरादतन मुअत्तल' करने का काम करेंगी | यदि ऐसी 'सिन्थेटिक' कविताओं की फसल को आलोचना की टेढ़ी नजरों से बचाने के लिए कोई भाषा के काँटेदार तर्कों की बागड़ करेगा तो वह स्वयं संदिग्ध हो जायेगा | यह `गंजे के सिर पर टोपी का इंतजाम' की कोशिश कही जायेगी |' डोंट ट्राय टू कीप द कैप्स ऑन बाल्ड हेड' | 




हिन्दी में साठ के दशक की 'अकविता' प्रवृत्तियाँ 

यहाँ मैं साठ के दशक का स्मरण करना चाहता हूँ, जब योरप में आमतौर पर और अमेरिका में खासतौर पर 'कल के विरुद्ध बिना किसी कल' वाली पीढ़ी 'विचारहीनता के विचार' की सुरंग में फँस चुकी थी| उस वक्त की अंधी कोख से जन्मी थी, 'एंटी-पोयट्री' जिसके विकृत अनुकरण में हिन्दी में 'अकविता-आंदोलन' खड़ा हो गया था| तब कविता स्त्री की जाँघ में पीप और मवाद ढूँढ रही थी| कवि सड़क पर चलती हर स्त्री को छेद की तरह देख रहा था| मरे हुए बत्तखों की-सी लटकती छातियों पर हस्तमैथुन से वीर्याभिषेक कर रहा था | उस समय की अमेरिकी 'एण्टी-पोएट्री' में 'ब्लैक-पोएट्री' नाम की कविता का फैलाया हुआ 'घृणा का समाजशास्त्र' अपने कपड़े उतार रहा था| नग्नता और फूहड़ता विकृति का नया कीर्तिमान बन रही थी| वह सर्जन नहीं उत्सर्जन था| साथ ही साथ अकहानियों की धमचक भी शुरू हो गई थी| जिसमें समुद्र तट की रेत में श्वेत-स्त्री के साथ संभोग करते हुए, पात्र को 'वह अमेरिका की ले रहा है', जैसा शौर्यानुभव हो रहा था| शायद तभी धर्मवीर भारती ने 'चिकनी सतहें बहते आन्दोलन' तथा कमलेश्वर ने 'ऐय्याश प्रेतों का विद्रोह' नामक लेख बहुत आक्रामकता के साथ लिखे थे| लेकिन यहाँ हिन्दी आलोचना के सामाजिक विवेक की सराहना की जाना चाहिए कि उसने 'बेहतर के लिए मेहतर' की भूमिका निभाई और नाबदान को समय रहते निर्ममता के साथ साफ कर दिया था| 'विजप' ( गंगाप्रसाद विमल, जगदीश चतुर्वेदी और श्याम परमार ) की उस कवि-त्रयी की उन रचनाओं का आज कोई अता-पता नहीं है| लोगों को सिर्फ राजकमल चौधरी की ''मुक्ति-प्रसंग'' भर की स्मृति है| चन्द्रकान्त देवताले आदि जल्दी ही अलग हो गये थे - और स्वयं को व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य से जोड़कर आज अपने समय के एक महत्वपूर्ण कवि होने का सम्मान अर्जित किये हुए हैं| 
आलोचना के पास तब व्यापक सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में सृजन को नाथने का प्रतिबद्ध संकल्प था| कुछ निश्चित प्रतिमान थे | लगता है दुर्भाग्यवश वैसी साहसिक आलोचना अब नहीं रह गयी है | नयी 'दमित अस्मिताओं’ की अभिव्यक्ति के नाम पर आ रही ऐसी फूहड़ता के बारे में कुछ भी बोलते हुए आलोचना की अब घिग्घी बंध जाती है |


इसकी वजह यही थी कि आलोचना के पास तब व्यापक सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में सृजन को नाथने का प्रतिबद्ध संकल्प था| कुछ निश्चित प्रतिमान थे | लगता है दुर्भाग्यवश वैसी साहसिक आलोचना अब नहीं रह गयी है | नयी 'दमित अस्मिताओं’ की अभिव्यक्ति के नाम पर आ रही ऐसी फूहड़ता के बारे में कुछ भी बोलते हुए आलोचना की अब घिग्घी बंध जाती है | 

आलोचना गोलमोल भाषा में अपना छद्म-वक्तव्य देकर बच निकलती है| या फिर मारे डर के वह उल्टे उनकी आरतियों और स्तुतिगान की तैयारियों में जुट जाती है| 

'विचारहीनता के विचार' की सर्वग्रासी अवस्था और आलोचना की सूचना सम्पन्नता की दरिद्रता 

दरअसल सृजनात्मकता के क्षेत्र में ऐसी दारुण दयनीयता इसलिए भी आ गयी है कि वामपंथ के पराभव के पश्चात् के इस उत्तरआधुनिक दौर ने आलोचकों के हाथों से वे उपकरण छीन कर घूरे पर फेंक दिये हैं, जिनसे वे 'सृजन' को कठोरता के साथ कसौटी पर रखते थे| तब वे समूचे सृजन क्षेत्र को विचार से दहकते सवालों को नोंक पर रखते हुए पूछते थे '' तुम्हारे पैमाने और प्रतिमान क्या हैं ?'' पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?'' लेकिन, बकौल नॉम चोमस्की 'अब राजनीति एक बड़ा निवेश हो गयी है और हरेक की जेब में अब अपने-अपने सुभीते और साईज़ का जनतंत्र है| अब मार्केट-फ्रेण्डली फ्रीडम का फण्डा है| चयन को ही सृजन की स्वतंत्रता की तरह बताया जा रहा है| इसलिए कविता व्यापक जन-संदर्भों के सवालों से मुक्त हो गयी है| नतीजतन कवि तथा कविता में 'कैरियरिज्म' ने 'विषय वैचित्र्य' की अनियन्त्रित लिप्सा भर दी है| वह वहाँ जाना चाहता है, जहाँ कभी कोई गया नहीं और कोई जाएगा भी नहीं| यह संस्कृत के 'अगम्यागमन' का ही संकल्प है| वही अब नया 'काव्याभीष्ट' है| फिर भारत जैसे अत्यन्त जटिलता से अंतरग्रथित समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक निषेधों को तोड़े जाने से जो 'थ्रिल' बनती है, वह अब बहुत बिकाऊ सिद्ध हो रही है| भारतीय अंग्रेजी में ऐसे लेखन को लगे हाथ प्रकाशक सर पर उठाने के लिए आगे आ जाता है|
हकीकत ये है कि अब 'फैशन' और 'उपभोग' साहित्य में शिफ्ट हो गया है| यह निश्चय ही 'विचारहीनता के विचार' की सर्वग्रासी अवस्था है| बहरहाल ऐसे समय में 'विचार' की बात करने का अर्थ 'दिगम्बरों' के मुहल्ले में लॉण्ड्री खोलने की जिद करना है|
अत: 'इनसेस्ट' अर्थात् रक्त-संबंधियों से सेक्स का चित्रण बहुत सेलेबल है| याद कीजिए कि कैसे 'ब्लू-बेडस्प्रेड' के प्रकाशन का सौदा तत्काल सत्तर लाख में हो गया| क्योंकि वह सहोदरा से सेक्स को चित्रित करता था| यदि ऐसे साहित्य को हिन्दी में अनूदित कर दिया जाये तो उसकी औकात उस पल्प-लिट्रेचर की रह जायेगी जो रेलों तथा छात्रावासों में पढ़ने-भर की होंगी| हकीकत ये है कि अब 'फैशन' और 'उपभोग' साहित्य में शिफ्ट हो गया है| यह निश्चय ही 'विचारहीनता के विचार' की सर्वग्रासी अवस्था है| बहरहाल ऐसे समय में 'विचार' की बात करने का अर्थ 'दिगम्बरों' के मुहल्ले में लॉण्ड्री खोलने की जिद करना है| 


कुछ वर्षों से 'माय मॉम्स लवर', 'माय मॉम्स न्यू ब्वाय फ्रेण्ड', 'डोण्ट टेल इट टू मॉम' शीर्षकों वाली कविताओं और कहानियों ने साइबर-बिजनेस में करोड़ों की संख्या में 'हिट्स' दीं| अब तो इन टाइटिल के वीडियो आ गये हैं और उनकी क्लिप्स को अपने ब्लैक-बेरी के जरिये मित्रों को भेजना युवा पीढ़ी का नया उत्तर-आधुनिक सांस्कृतिक-आदान-प्रदान है| 'सविता भाभी' भी अपने प्रेमियों के साथ सेक्स-कथा ग्राफिक्स और एनीमेशन में खासा व्यवसाय कर चुकी है| यदि हिन्दी का कोई कवि ऐसे विषयों को कविता में  शामिल करके अपनी प्रतिभा के विस्फोट का चमत्कार पैदा करने लगे और हम उसकी प्रेरणा के मुख्य स्रोतों से अनभिज्ञ हैं तो यह हमारी आलोचना की सूचना सम्पन्नता की दरिद्रता का प्रमाणीकरण है| यह सामाजिक संदर्भों के इलाके का नया अंधत्व है, जिन्हें चमत्कार की चौंध ने 'फोटोफोबिया' पैदा कर दिया है| उनसे ऐसी चमक में विकृतियों की शक्लों की शिनाख्त नहीं हो पा रही है| यह उनके द्वारा गन्धाते गोबर में गालिब का दिग्दर्शन कर लिया जाना है | 


अब बिजूकों के दिन लद गये !

अब अंत में थोड़ी बातें 'ब्रेस्ट कैंसर' नामक कविता की| रचयिता विदुषी अनामिका की प्रति-टिप्पणी को लेकर | टिप्पणी पढ़कर लगा कि उनमें भरपूर कवि-चातुर्य तो है, लेकिन टिप्पणी की भाषा में भी यथेष्ट चतुराई है| वे टिप्पणी के आरंभ में पहले ही अंग्रेजी की छतरी तान कर रख देती हैं | बीच टिप्पणी में डराने के लिए एक अश्वेत कवयित्री की कविता का बिजूका भी गाड़ देती हैं | लेकिन अब बिजूकों के दिन लद गये | वीरेन्द्र कुमार बर्नवाल, जिन्होंने सबसे ज्यादा अफ्रीकी तथा ब्लैक लिट्रेचर खंगाला है, वे बता सकते हैं कि वहाँ की हालत क्या है| रोजन कॉज ने ब्लैक कविता में जहाँ-तहाँ छितरायी हुई इस तरह की फूहड़ता की पर्याप्त सफाई की है | नेट-युग में अब ऐसे बिजूकों से शायद ही हिन्दी का कोई प्रबुद्ध पाठक डरता हो | बहरहाल, वे शालिनी माथुर की टिप्पणी से जागृत अपने क्रोध की 'धधक' को कोमल के ‘कौशल' से 'केमोफ्रलैज' करती हुई , बाहर से बहुत विनम्र जान पड़ती हैं, लेकिन जिस तरह शुरू में ही बहनापे को छोड़ कर, प्रेमचन्द के भाई साहब में काया प्रवेश करते ही, उनके भीतर की उस ज्ञान-वर्चस्व प्रदर्शन की लालसा लगे हाथ लपक कर बाहर आ गयी, वे अपनी सहोदरा की विवेचनात्मक टिप्पणी को 'कोसने और कलपने' का पर्याय बता कर उसे खारिज करने का अप्रकट उपक्रम करती हैं| फिर कविता के स्वभाव को स्त्री का स्वभाव का पर्याय बताने लगती हैं| हालांकि कविता का अगर यही स्वभाव है, तो उन कविताओं का क्या होगा, जो गरेबान पकड़ कर सच को उगलवाने के लिए आगे आती रही हैं ? खैर ऐसे में मुझे सहसा भोपाल स्कूल की समीक्षा-भाषा के स्वांग की याद हो आयी| जहाँ स्वामीनाथन की कलाकृति या कृष्णबलदेव वैद की कहानियों पर बातें शुरू करते हुए कहा जाता था 'उनकी कृति का, कहें कि प्रकारान्तर से, क्वचित् यह स्वभाव ही रहा आया है कि वे पाठक से सहसा सम्वाद के लिए तैयार ही नहीं होतीं | अपितु वह उसकी तरफ इरादतन अपनी पीठ फेरे रहती हैं | उन्हें शनै: शनै: राजी करना होता है |' ज्ञान चतुर्वेदी ने इस चतुराई पर अपनी निर्मल विनोदी टिप्पणी में कहा 'क्या ये यह कहना चाहते हैं कि इनकी कृतियों को औरतों की तरह पटाने की जरूरत होती है ? यानी पाठकजी आयें फिर कविताजी की पीठ पर हाथ फेरें | गुदगुदी करने लगें | तब न कहो कविता जी बुरा ही मान जाएँ| तब क्या होगा ? ..........बहरहाल, गनीमत थी कि वे अपनी टिप्पणी में मिथिला तक ही गई और खजुराहो या अजंता-एलोरा की गुफाओं में नहीं घुसीं | वर्ना जब भी हमारे यहाँ यौनिकता के फूहड़पन पर टिप्पणी की जाती है, तो विद्वज्जन तर्काकाश में उड़ कर तुरत वहाँ पहुँच जाते हैं | और उनकी ही छत्तों और शिखरों पर चढ़ कर टीवी एंकर्स की तरह बोलने लगते हैं--ये देखिये .. यहाँ पत्थरों में मूर्तियों के स्तन भारी हैं, इनके नितम्ब भी भारी हैं और ये सम्भोगरत भी हैं........अब आप ही बताइये कि क्या ये अश्लील हैं ? 
वे दृष्टि में मर्दवाद के महीन लांछन के लिए टिप्पणीकार को 'शालिनी बाबू' भी कहती हैं| उन्हें ईसा का क्रूसीफिकेशन भी याद हो आया | यहाँ तक कि लगे हाथ फासीवाद तक भी याद आ गया| टक्कर के पुरूष और स्त्री की यौनिकता जगा पाने की जैविक चुनौतियों के पार्श्व में खड़े `ऑर्गेज़्म' को भी वे टिप्पणी में ले आयी हैं | पोर्न का सारा व्यवसाय ही 'ऑर्गेज़्म' को रचने या आविष्कृत करने की प्रविधि पर ही टिका है | कहना ना होगा कि किसी दिन ऐसे ही 'पवन-वेग' से भरा कोई नया 'अतिरिक्त-प्रशंसा का शिकार' हिन्दी कविता का नया सम्भावनाशील हस्ताक्षर अपनी बाजारीकृत दिव्यता के साथ इस विषय पर अनामिका और पवन को पछाड़ता हुआ दृश्य में अपना कीर्ति कलश स्थापित कर सकता है


आगे देखें... वे दृष्टि में मर्दवाद के महीन लांछन के लिए टिप्पणीकार को 'शालिनी बाबू' भी कहती हैं| उन्हें ईसा का क्रूसीफिकेशन भी याद हो आया | यहाँ तक कि लगे हाथ फासीवाद तक भी याद आ गया| टक्कर के पुरूष और स्त्री की यौनिकता जगा पाने की जैविक चुनौतियों के पार्श्व में खड़े `ऑर्गेज़्म' को भी वे टिप्पणी में ले आयी हैं | पोर्न का सारा व्यवसाय ही 'ऑर्गेज़्म' को रचने या आविष्कृत करने की प्रविधि पर ही टिका है | कहना ना होगा कि किसी दिन ऐसे ही 'पवन-वेग' से भरा कोई नया 'अतिरिक्त-प्रशंसा का शिकार' हिन्दी कविता का नया सम्भावनाशील हस्ताक्षर अपनी बाजारीकृत दिव्यता के साथ इस विषय पर अनामिका और पवन को पछाड़ता हुआ दृश्य में अपना कीर्ति कलश स्थापित कर सकता है | 


कुल मिलाकर कविता की इन विदुषी की प्रति-टिप्पणी पढ़कर मुझे लगा कि उनके भीतर क्रोध का छुपा हुआ तारत्व तो इतना है कि यदि उनके पास भाषा का कोई बघनखा होता तो वे चतुराई से ऐसी टिप्पणी का पेट चीर कर उसकी अंतड़ियाँ निकाल कर बाहर कर देतीं |


मुझे उनकी ऐसी चतुराई देखकर संयोगवश हमारे गाँव में हर वर्ष दीवाली के समय आने वाला एक अत्यन्त दक्ष तमाशबीन याद आता है, जिसको सामने जमीन पर रखा गया सिक्का उठाना होता था तो वह पहले उस सिक्के के चारों ओर दौड़-दौड़ कर बनेठी घुमाता| फिर हवा में कोड़ा घुमाकर खुद की पीठ पर भी मार लेता| बाद इसके उस सिक्के के ऊपर से चारों दिशा में से पचीसों गुलाटियाँ लगाता रहता और थक कर अंत में उस सिक्के को उठाता था | कुल मिलाकर, वह इन करतबों के प्रदर्शन से दर्शकों में यह बोध पैदा करने की जुगत भिड़ाया करता था कि कितने-कितने जतन के बाद पहुँच पाया है वो सिक्के के पास| यह संघर्ष का हासिल है| भोपाल में अशोक-युग के 'पूर्वग्रह' में कविताओं की समीक्षा की यही प्रविधि होती थी | इस प्रविधि के अनुकरण से हिन्दी में कई प्रतिभाग्रस्त समीक्षक पैदा हुए जिन्होंने कई तिलों में 'ताड़त्व' और वामनों में 'विराटत्व' भरने की कोशिशें कीं | वहाँ समीक्षाभाषा में गंभीरता का 'उर्ध्‍व-उत्कीर्णन' होता था| कविता 'प्रश्नकीलन' करती रहती थी| आलोचना में शब्दाम्बर की इस वृत्ति पर ज्ञान चतुर्वेदी ने एक टिप्पणी भी लिखी थी - '’प्रश्नकीलन से उत्पन्न अर्थ-सीलन‘’ | जिससे कविता की कठिनता की विवेचना के लिए और और कठिन भाषा में लिखी जा रही समीक्षा भाषा पर उपालम्भ था | उसमें एक पंक्ति थी कि  '' कहीं ऐसा तो नहीं कि गोरखपुर का कल्याण अपने नये गेट-अप में भारत-भवन से निकलने लगा हो और मैं गलती से वही उठा लाया होऊँ ? ''

दरअसल , यह भाषा की चतुराई की सतही इलेक्ट्रोप्लेटिंग है | यह ऐसी कलई है, जो पढ़ते ही खुल जाती है | मुझे काव्य-विदुषी अनामिका की कविता तथा टिप्पणी के तिलस्म को देख कर भवानीप्रसाद मिश्र की एक काव्य पंक्ति याद आ गयी -''चतुर मुझे कुछ नहीं भाया, ना स्त्री, ना कविता |'' चतुराई निश्चय ही आपके चिंतन और अभिव्यक्ति दोनों को ही संदिग्ध बनाती है| एक कवि को अपनी कविता पर स्वयम् ही स्वस्थ-संदेह करना आना चाहिये कि क्या रुग्णता पर लिखी ऐसी सिन्थेटिक कविता मृत्यु के भय या विभीषिका के विरुद्ध खड़ी रह सकती है ? ' हलो ! कहो कैसे हो । कैसी रही ? ' की मसखरी क्या मृत्यु से निबट सकती है ?  वे पाठकीय विवेक का गलत आकलन कर रही हैं |

 मौत ने घर देख लिया है

इसे लोक-विवेक से जाँचें तो समस्या बुढ़िया के मरने के अफसोस की नहीं बल्कि चिन्ता तो यह है कि मौत ने घर देख लिया है | इसलिये काव्य-कुटुम्ब की घबड़ाहट अनुचित तो कतई नहीं है | उन्हें डर है कि ऐसी दंश मारती 'शालिनी-भैया मार्का' आलोचना का कैंसर अन्य कविताओं के भीतर भी वायरस की तरह घुस जायेगा| तब तो ऐसी 'कैंसर-कीलित' कविताओं की उत्तरजीविता ही संदिग्ध हो जायेगी | बहरहाल जो कविता ऐसी टिप्पणी के खिलाफ नहीं लड़ सकी तो वह कैंसर के खिलाफ कैसे और कितनी दूर तक लड़ पायेगी ?
हालांकि जीवन में अपनी रचनात्मकता के बीच हर बड़ा रचनाकार, एक बार 'ईश्वर', 'समय' और 'मृत्यु' से भिड़े बगैर नहीं रहता है | अलबत्ता ये कि कोई भी इन तीनों से भिड़े बिना बड़ा ही नही होता| न वह, न उसकी रचना| क्योंकि ये तीनों प्रश्न शताब्दियों से कला और साहित्य क्षेत्र के रचनाकर्म के लिए चुनौती की तरह बने रहे हैं | यदि इन दो कवियों की कविता इतनी बड़ी हैं तो फिर इस बात का कैसा डर कि उनके विरोध में मात्र एक टिप्पणी के प्रकाशन से इतनी थरथरा गयीं कि उस कविता को बचाने के लिए हाँक लगानी पड़े और वो लोग आपातकालीन सहायता के लिए दौड़ पड़े जो इन दो कविताओं की रक्षा के प्रश्न से 'कीलित' हैं | बहरहाल जरा गौर से देखें तो यह प्रकरण वस्तुत: पोर्न के आक्षेप से बचने भर की हलातोल नहीं है | इसे लोक-विवेक से जाँचें तो समस्या बुढ़िया के मरने के अफसोस की नहीं बल्कि चिन्ता तो यह है कि मौत ने घर देख लिया है | इसलिये काव्य-कुटुम्ब की घबड़ाहट अनुचित तो कतई नहीं है | उन्हें डर है कि ऐसी दंश मारती 'शालिनी-भैया मार्का' आलोचना का कैंसर अन्य कविताओं के भीतर भी वायरस की तरह घुस जायेगा| तब तो ऐसी 'कैंसर-कीलित' कविताओं की उत्तरजीविता ही संदिग्ध हो जायेगी | बहरहाल जो कविता ऐसी टिप्पणी के खिलाफ नहीं लड़ सकी तो वह कैंसर के खिलाफ कैसे और कितनी दूर तक लड़ पायेगी ? 


हैलन गार्डनर ने कहीं लिखा था 'सच्चा समालोचक कभी कवि पर छत्र लगाकर नहीं चलता ' लेकिन यहाँ तो समालोचक छत्र ही नहीं, रक्षा-पाठ व उसका पारायण करता हुआ अंगरक्षक बन जाता है| कवि पर पुरस्कारों की बौछारें भी कर दी जाती हैं| इससे कविताओं को आलोचना का अभयदान प्राप्त हो जाता है | वे कविता के कवच-कुण्डल बन जाते हैं | जबकि हकीकतन, जो प्रशंसाएँ कवि को बिलकुल आरंभ में मिल जाती हैं, वे बाद में उसके साथ बहुत बुरी तरह से पेश आती हैं, यह नहीं भूलना चाहिए | 


स्वयं के रचे को रद्द करने का वस्तुगत विवेक 

सृजन के क्षेत्र में एक बात यह भी है, जिसे नहीं भुलाया जाना चाहिए कि 'महानों' के रचे हुए में भी बहुत कूड़ा होता है | प्रेमचन्द ने सात सौ कहानियाँ लिखीं हैं, लेकिन आज चर्चा में वे बस दस-पन्द्रह ही आती हैं | पिकासो का सारा 'रचा हुआ' महान नहीं है और ना ही हुसैन का | उनका बहुत सारा ऐसा है, जिसका दर्जा 'कलर्ड गारबेज' से ज्यादा नहीं है | हर 'रचा' या 'लिखा' हुआ कृति का दर्जा या कृति का सम्मान हासिल नहीं कर सकता | बर्गसाँ ने रचनात्मकता के क्षेत्र में सर्जन के आत्म की परिपक्वता के स्तर के संदर्भ में कहा था 'टू चेंज मीन्स टू मैच्योर एण्ड टू मैच्योर मींस टू क्रिएट एण्ड रिजेक्ट अवर ओन सेल्फ | सो टू से दि प्रॉसेस आव क्रिएशन इज इनेविटेबली अ प्रॉसेस ऑफ रिजेक्शन टू|' 


बहरहाल, यदि आपने सृजनात्मकता के इलाके में उतरने के बाद स्वयं के रचे हुए को रद्द करने का वस्तुगत विवेक अर्जित नहीं किया तो वक्त की छलनी खुद उसे छान कर घूरे पर फेंक देगी | गांधी के आत्मविवेक ने तो सैकड़ों बार अपनी धारणाओं को डिस-ओन कर दिया था| 


 'सिन्थेटिक कविता' नेट-प्रसूता होती हैं  
'सिन्थेटिक कविता' नेट-प्रसूता होती हैं'सिन्थेटिक कविता' नेट-प्रसूता होती हैं
अंत में पता नहीं भाई आशुतोष कुमार इस सारी बहस में सनी लियोन को क्यों ले आये| साहित्य के बाणभट्टों के समक्ष सिने जगत के महेश भट्टों की-सी आर्थिक विवशताएँ थोड़े ही हैं कि वे सनी लियोन का प्रतिष्ठा मूल्य बनाएँ| 'जिस्म-दो' में भट्ट की पूँजी लगी हुई है, अत: पोर्न इंडस्ट्री की इस ''भग-वती'' की आरती अर्चना उनके लिए जरूरी है, लेकिन हिन्दी जगत के सर्जनात्मक लोगों का ऐसा कोई पूँजी आधारित प्रोजेक्ट नहीं, जिसके चलते वे पोर्न का 'प्रतिष्ठा-मूल्य' बढ़ाने के लिए आगे आयें | आशुतोष भाई आपकी ऐसी कोशिशों से मुझे लग रहा है कि कहीं पवन करण प्रेरणा ग्रहण करके ' प्रिय पोर्न-पुत्री के नाम पिता का पत्र ' शीर्षक से कविता लिखने न बैठ जायें | क्योंकि 'सिन्थेटिक कविता' नेट-प्रसूता होती हैं | वे तुरन्त ही कवि की गोद में चढ़ने के लिये मचल उठती है | 

विचार के कुरूक्षेत्र में न अस्त्र की जरूरत पड़ती है, न शस्त्र की | विचार स्वयं में ही अस्त्र भी है और शस्त्र भी है | विचार से 'मगध' डरता है, ऐसी सूचना श्रीकान्त वर्मा की कविताओं से बरामद हुई थीं | लेकिन 'सृजनात्मकता' भी विचार से डरने लगे, यह ज्यादा विचारणीय है । ये खतरनाक संकेत हैं । दिल्ली में कविता का कहीं कोई 'मगध' तो नहीं बनने लगा है.......?

`विचार से 'मगध' डरता है'

बहरहाल विचार के कुरुक्षेत्र में न अस्त्र की जरूरत पड़ती है, न शस्त्र की | विचार स्वयं में ही अस्त्र भी है और शस्त्र भी है | विचार से 'मगध' डरता है, ऐसी सूचना श्रीकान्त वर्मा की कविताओं से बरामद हुई थीं | लेकिन 'सृजनात्मकता' भी विचार से डरने लगे, यह ज्यादा विचारणीय है । ये खतरनाक संकेत हैं । दिल्ली में कविता का कहीं कोई 'मगध' तो नहीं बनने लगा है.......? 




लेखक से संपर्क 
0731255 1719 / 094253 46356







34 टिप्‍पणियां:

  1. कविता जी,कुछ बातें ऐसी होती हैं जो हम किसी कविता को पढकर महसूस करते हैं (अच्छी भी )लेकिन उसे शब्द बद्ध लिख डालने की कुव्वत या समझिए साहस (भी)हममे नहीं होते ये एक ऐसा ही प्रतिक्रियात्मक लेख है प्रभु जी का |आप और प्रभु जी दोनो को धन्यवाद
    ...

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  2. बहुत अच्छा लेख लिखा है प्रभु जोशी जी ने। मैंने शालिनी जी का लेख भी यहीं पढ़ा था। फ़िर अनामिका जी का जबाब कहीं और। अब प्रभु जोशी जी का लेख। शालिनी जी ने जो लेख लिखा था उसका जबाब देने के लिये अनामिका जी ने कुतर्क का सहारा लिया था। उसको पहचानने का काम प्रभुजी ने बखूबी किया है। मन खुश हो गया यह लेख पढ़कर।

    आपको धन्यवाद तो दे ही दें इन बेहतरीन लेख को पढ़वाने के लिये। :)

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  3. प्रभु जोशी जी का आलेखबहुत अच्‍छा लगा। उन्‍होंने पवनकरण और अनामि‍का जी की कवि‍ताओं में छि‍पे तथ्‍य को बड़े अच्‍छे से उभारा है। लेख पढाने के लि‍ए आपका धन्‍यवाद...

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  4. एक बेहद ज़रूरी चर्चा की प्रस्तुति पर अभिनंदन.

    दमित अस्मिताओं की अभिव्यक्ति के नाम पर हिंदी साहित्य में एक ओर तों मनुष्य-मनुष्य के बीच घृणा फैलाने की प्रवृत्ति बढ़ी है, तथा दूसरी ओर सतही फिगरल के सहारे गहन अनुभूतियों को अपदस्थ करके साहित्य को देहव्यापार बना देने के व्यसन को गौरवान्वित करने की प्रवृत्ति.

    साहित्य की जन-पक्षीयता आज भी सदा की तरह काम्य है..... विचारधारा के पराभव के बावजूद.

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  5. एक बेहद ज़रूरी चर्चा की प्रस्तुति पर अभिनंदन.

    दमित अस्मिताओं की अभिव्यक्ति के नाम पर हिंदी साहित्य में एक ओर तों मनुष्य-मनुष्य के बीच घृणा फैलाने की प्रवृत्ति बढ़ी है, तथा दूसरी ओर सतही फिगरल के सहारे गहन अनुभूतियों को अपदस्थ करके साहित्य को देहव्यापार बना देने के व्यसन को गौरवान्वित करने की प्रवृत्ति.

    साहित्य की जन-पक्षीयता आज भी सदा की तरह काम्य है..... विचारधारा के पराभव के बावजूद.

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  6. इस विवाद को शुरुआती समय से देख रहा हूं लगातार...राजकिशोर जी का लेख आने तक इसे बहुत ध्‍यान से पढ़ता रहा पर जब राजकिशोर जी जैसे वरिष्‍ठ की भाषा का स्‍तर देखा तो लगा अब इस बहस में बहस कम छींटाकशी और लांछन ज्‍यादा हो रहा है तो बस सरसरी तौर पर देखने लगा..। शालिनी माथुर जी ने अपने पहले आलेख में जो सवाल उठाए थे वे अभी अनुत्‍तरित हैं दूसरा आलेख भी उसी का पूरक ही है। हालांकि अनामिका जी ने एक लंबा लेख लिखकर पाठक के संस्‍कारित न होने और हड़बड़ी में पढ़ने की प्रवृत्ति को कविता की संवेदना तक ना पहुंच पाने के लिए दोषी ठहराया लेकिन उनके लंबे आलेख में स्‍पष्‍टीकरण केवल इतना समझ आया कि स्‍त्रीवादी नजरिये से स्‍तनों का शरीर से अलग हो जाना दुख की नहीं वरन संतोष की बात है....अर्थात जो बात कविता पहले ही कह रही है वही बात आलेख मे भी प्रकारांतर से दोहराई गई....विस्‍तार का अर्थ केवल यह कि एक कविता को समझने के लिए पूरा विधान समझने जितनी जरुरत बता दी गई...। ऐसा लगा जैसे कविता हमारे जैसे सामान्‍य बुद्धि के पाठकों के लिए है ही नहीं....। एक जिद जैसा मामला अधिक लग रहा है, कि कह दिया सो कह दिया...अब आप चाहे जो समझो....पवन करण जी की कविता पर पहले एक पेास्‍ट पर कमेंट में मैंने कहा था कि उसे संदेह का लाभ दिया जा सकता है कि वह शायद पुरुष की देहटटोल मानसिकता पर व्‍यंग्‍य की तरह हो...पर शालिनी माथुर जी का दूसरा आलेख इस संदेह का लाभ देने से मना करता है।
    कहना बस यह कि ये कविताएं अश्‍लील हैं कि नहीं हैं, यह भले ही तय हो कि ना हो, पर ये संवेदना को अपने तयशुदा सांचे में ढालकर कही गई जरुर जान पड़ती हैं। यही वजह है कि एक आम पाठक से तो संस्‍कारित होने की अपेक्षा की जा रही है पर रचनाकार स्वयं काव्‍य-संस्‍कार की जरुरत नकारकर बढ़ रहे हैं। मेरी यह टिप्‍पणी किसी भी सूरत में आलोचना के खाते मे ना डाली जाए....यह केवल एक साधारण पाठक की टिप्‍पणी है जिसे यह पूरा विवाद अप्रिय स्‍तर पर जाता लग रहा है और दोनों कविताओं को वह उस स्‍तर पर सारी कोशिशों के बावजूद नहीं महसूस कर पा रहा है जैसा कि अनामिका जी अपेक्षा करती हैं....

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  8. शालिनी माथुर जी ने एक साहसिक लेख लिखा | जो बहुत ज़रूरी भी था .. अब अगर कोई उनके लेख की आलोचना करता है तो वो शख्स/लेखक/प्राणी भी पवन करण और अनामिका की श्रेणी का ही होगा... कुछ लोगो को ऐसे विषय पे चर्चा करने मैं भी आनंद आता है आप उनको जलील करते रहिये वो मजा लेंगे .. पवन करण और अनामिका उसी श्रेणी के लगते है... क्यों की उनको आनंद शरीर के अंगों की चर्चा में आता है फिर वो चर्चा चाहेकिसी रूप मैं हो ..
    मेरा एक प्रश्न है श्री पवन करण जी से की शरीर के जिस अंग का वो जिक्र अपनी कविता में कर रहे है .. वो केवल प्रियसी या पत्नी का ही नहीं होता ... माँ, बहन, बेटी, मौसी, चाची.. वगैरा वगैरा सबके एक सामान होता है.. तो उन्होंने रोग की व्यथा बताने के लिए सिर्फ ऐसी शब्दावली ही क्यं चुनी... ज़ाहिर है वो परोसना ही पोर्नोग्राफी चाहते थे...
    शालिनी माथुर जी ने एक साहसिक लेख के लिए बधाई... आपका धन्यवाद

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  9. कविता जी , इस गंभीर सामग्री के लिए धन्यवाद |

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  10. कविता जी बहुत लंबी टिप्पणियाँ है .... पढकर कुछ कह पाने की स्थिति में आऊँगी... और अपने ब्लॉग पर शेयर भी करना चाहुंगी साभार ...

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  11. पूरा आलेख पढ़ा .....और मुझे लगा कि पूरा हिंदी भाषी क्षेत्र मगध में तब्दील हो चुका है ..... DrKavita Vachaknavee ji एक बहुत सारगर्भित मानीखेज आलेख पढाने के लिए आपका ह्रदय से आभार ........

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  12. प्रभु जोशी जी ने मुझे मुग्ध भी किया और अपडेट भी किया .....आभार आपका :))

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  13. अगर आज एक बड़ा पाठक वर्ग हिंदी साहित्य से विमुख हो गया हैं तो उसमें ऐसी स्तरहीन कविताओं और उन कविओं के अहंकार पूर्ण प्रतिवादों का बड़ा हाथ हैं ...
    हमारे अग्रणियों कृपया बंद करो नर्म सोफों पर बैठ कर अफ़्रीकी , रूसी , और जर्मन साहित्य पढ़ते हुए कवितायों के नए फोर्मुले बनाना... हमारी संस्कृति और संवेदनाएं भिन्न हैं हम उसी को अंगीकार करेंगे जो हमारे एहसासों और अनुभव की कसौटी पर खरा उतरेगा ..! और मैं एक पाठक की हैसियत से दोनों कविताओं को स्तरहीन और असंवेदनशील घोषित करता हूँ !

    (माया सर से पूर्णतया सहमत हूँ )

    -अहर्निशसागर

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  14. कलम हमारी मानसिकता को नंगा कर कर देती है, ऐसे विद्वान जनों को चाहिए कि और सोंच कर लिखते तो "दो चार" तीक्ष्ण निगाहों से भी आसानी बच जाते और कुछ वर्षों में यह रचनाएं भी कालजयी कहलाई जाती ...
    जिन लोगों को दूसरों के कष्ट का अंदाजा तक नहीं है, वे कवितायें लिख रहे हैं :(

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  15. आलेख बेहतरीन है और हिंदी साहित्य के समाने कई जरूरी सवाल खड़ा करता है. प्रस्तुतीकरण में थोड़ा और काम किया जाना चाहिए.

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  16. अद्भुत लेख है. मैंने तो वहां दोनों कविताओं पर अलग-अलग आधारों पर बेहद संक्षिप्त "अस्वीकृतिमूलक टिप्पणियां की थीं. प्रभु जोशी ने बड़े व्यापक फलक पर न केवल कविताओं की महीन पड़ताल की है, बल्कि अनामिका की प्रति-टिप्पणी की सही ढंग से शल्यक्रिया भी कर दी है. आत्मरक्षा में उन्होंने जो उग्र आक्रामकता दिखाई थी, उसको कुशलता से उघाड़ा है. एक स्त्री के मर्दवादी रवये को इससे बेहतर ढंग से बेनक़ाब नहीं किया जा सकता था. इस महत्वपूर्ण लेख को साझा करने के लिए बधाई, कविता.

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  17. हिंदी कविता नयेपन के और अतिबौद्धिक दिखने के चक्कर में अपना भारतीय मिजाज़ खोती जा रही है. क्या अब स्त्री-विमर्श को अनावृत देह से होकर गुजरना अनिवार्य होगा. अन्तरंगता की शालीनता भंजित होगी. फिर रीतिकाल से भी आगे जाकर कविता को श्लील-अश्लील की नए स्वरुप को खोजना होगा. शायद यह परिधि हमारी अपनी शोच के द्वारा नियमित होगी, किसी और के द्वारा नहीं. ये दोनों कविताओं के शीर्षक ही भारतीय मानस के विपरीत हैं. वीमारी को स्त्री की अस्मिता के बरक्स खड़े कर स्त्री का समर्थन करना कितना उचित है?

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  18. bahut sarthak samwad ho raha h kavitaji. or aap bhi bahut badhiya tarike se is samwad ko aage badha rahi h.
    bahut kum fb pr gambheerta dikhti h...aaj achha laga. apne se asahmat ke vicharon ke prati samaj me sahishnuta kum hoti ja rahi h.
    G.M.

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  19. आपने बहुत सयमित शब्दों में शालीनता के साथ इस विषय को आवरण रहित किया. है बधाई .शालिनी माथुर का लेख

    अविस्मरनीय है उसे फिर से पढना आवश्यक है ऐसे गोपनीय गंभीर विषय की विश्लेष्णात्मक व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ है बधाई की पात्रहें

    और ऐसे लेखों की प्रतीक्षा है

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  20. Shukriya Kavita Ji is lekh ko share karane ke liye. Dheere deheere hii sahii kuch sakaratmak disha mein cheeze aage badhtii rahe, isi shubhkamna ke saath..

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  21. ये "आलोचना प्रूफ" दौर है .लेखक हो या कवि रचना की आलोचना को निज आलोचना की तरह लेते है .ओर बाकी लोग समझदारी भरी तटस्थता वाली चुप्पी जेब में डाल लेते है

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  22. ab bharat ki naareya v apne aap ko khudh he aysay frem may dhaal rahi hay.......

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  23. कविता जी , इस गंभीर सामग्री के लिए धन्यवाद |

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  24. शालिनी माथुर जी ने एक साहसिक लेख लिखा | जो बहुत ज़रूरी भी था .. अब अगर कोई उनके लेख की आलोचना करता है तो वो शख्स/लेखक/प्राणी भी पवन करण और अनामिका की श्रेणी का ही होगा... कुछ लोगो को ऐसे विषय पे चर्चा करने मैं भी आनंद आता है आप उनको जलील करते रहिये वो मजा लेंगे .. पवन करण और अनामिका उसी श्रेणी के लगते है... क्यों की उनको आनंद शरीर के अंगों की चर्चा में आता है फिर वो चर्चा चाहेकिसी रूप मैं हो ..
    मेरा एक प्रश्न है श्री पवन करण जी से की शरीर के जिस अंग का वो जिक्र अपनी कविता में कर रहे है .. वो केवल प्रियसी या पत्नी का ही नहीं होता ... माँ, बहन, बेटी, मौसी, चाची.. वगैरा वगैरा सबके एक सामान होता है.. तो उन्होंने रोग की व्यथा बताने के लिए सिर्फ ऐसी शब्दावली ही क्यं चुनी... ज़ाहिर है वो परोसना ही पोर्नोग्राफी चाहते थे...
    शालिनी माथुर जी ने एक साहसिक लेख के लिए बधाई... आपका धन्यवाद

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  25. कविता जी बहुत लंबी टिप्पणियाँ है .... पढकर कुछ कह पाने की स्थिति में आऊँगी... और अपने ब्लॉग पर शेयर भी करना चाहुंगी साभार ...

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  26. Bazarvad ki sanskriti me sabse pahle bikau vastu nari ho gayi hai jo ki samaj ke pratyek sektra me is sanskriti ka jam kar upyog kar ke badhava diya jaraha hai aur har varg is se achuta nahi hai,parivartan ke is daur me adhiktar log ye soch nahi paa rahe ki ham ja kaha rahe hai

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  27. बहुत सारा समय आज सब-सब और सबको पढ़ते हुए बिताया...कथादेश का उपरोक्त अंक हाथ में आते ही उक्त आलेख मैंने भी एक ही बैठकी में आद्ध्योपांत पढ़ा था तथा शायद उसके तुरंत बाद शालिनी जी को फ़ोन करके उनसे एक लम्बी बात करने वाला पहला शख्स भी मैं ही होउंगा !मैंने उनसे कहा था कि फ़ोन पर तो सब कुछ कह नहीं सकता जल्द ही उन्हें "कुछ" लिख भेजूंगा मगर जैसे और जिस तरह के विचार मन-मस्तिष्क में घटाघोप बादलों की तरह उमड़ते चले आ रहे थे उन्हें कागजों पर उकेरने का पर्याप्त एकमुश्त समय मैं एकसाथ नहीं जूता पा रहा था....और इस तरह एक ग्लानि "फील" कर रहा था कि मैंने उन्हें कुछ लिख भेजने को कहा है,जिसे उन्होंने भी उत्सुकतापूर्वक ग्रहण किया....उसके बाद शालिनी जी तो इस नामालूम शख्स को भूल भी चुकी होंगी....मगर अपने विचारों की वादियों में यह "मुझ-वाला" व्यक्ति भटकता ही रहा...भटकता ही रहा ,मेरी व्यस्ताओं ने मुझे वक्त नहीं दिया....बेशक इस बीच फेसबुक नाम की जगह पर बेकार ही फटर-फटर करता रहा और आज जब प्रभु जी को इस विषय पर पढ़ा तो लगा आज मैंने खुद को अभिव्यक्त कर डाला.....आज एक ऐसे गुणी व्यक्ति को पढ़ डाला जिसने मेरे विचारों की कृति को मेरी शक्ति से कई गुणा विस्तार देकर रच दिया....!!ऐसा लगा कि जैसे मैंने किसी तालाब को सोचा था और सामने वाले ने पूरा समन्दर ही मेरे हवाले कर के कहा कि जा इसमें से तू अपना वाला तालाब निकाल ले....!!अब मैं सोच रहा हूँ कि प्रभु को मैं कैसे मिलूं और उनके हाथ....मूंह... माथा....यहाँ तक कि उनके विचार को ही चूम लूं मैं !!....यह बात अब शालिनी के आलेख को एक अथाह विस्तार दे चुकी है....जिसके तर्कों को खंडित कर पाना किसी माई के लाल के बस में नहीं हो शायद.....!!अगरचे हम जैसों अनाम-धन्यों ने ऐसा ही कुछ (जो हमारी कुव्वत के नितांत बाहर भी था...!!) या इसके जैसा दो चार फीसदी भी लिखा होता तो बड़े-बड़े मूर्धन्य साहित्यकारों ने यूँ मसल दिया होता जैसे खुद को काटे जाने पर किसी मच्छर को मसल देते होंगे वो.....!!....मगर अब...??अब क्या करेंगे वे....कहाँ जा छिपेंगे...!!सो भी मैं नहीं जानता अलबता यह अवश्य कहूंगा कि इस विषय पर जैसे प्रभु के इस सबके लिखे जाने के बाद कुछ नहीं बचता !!सो अपन अब चुप ही रहेंगे....कुछ नहीं कहेंगे....!!और अब एक बार और शालिनी जी के आलेख को पढ़कर इसके तुरंत बाद प्रभु जी फिर-फिर से पढेंगे....आमीन....!!
    मगर इससे इतर अपन सबको यह जरूर कहेंगे...कि अपन अपने भीतर से अनामिका और पवन जी के साथ हैं....!!क्यूँ बताएं....??सो ऐसा है ना इन दोनों ने लिखा तो वही है जो "डिमांड" है बाज़ार की और इस बाज़ार युग में आप बाज़ार को खारिज नहीं कर सकते...और जिस वस्तु की जितनी चाहत या डिमांड है....उसका उतना ही बड़ा बाज़ार है....सो हमेशा ही रहेगा..!!जैसा कि प्रभु जी के ही शब्दों में कि जितनी पूँजी अर्जित करने के लिए हमने अपनी अर्थव्यवस्था के द्वार खोले उतनी पूँजी तो चीन अमेरिका को अपने सेक्स-टॉयस बेच कर हासिल कर लेता है !!

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  28. दूसरी बात इन दोनों कविजनों के पक्ष में यह है कि इन दोनों महानुभावों ने अपने "कथ्य" में "जो हम हैं !"वही दर्शाया है !उसमें कोई पाखण्ड समाहित नहीं है और अगर है भी तो बस इतना कि अपने उस मनचले-मांसल "कथ्य" को साहित्य के "कथ्य" रूप में कहने का साहस कर डाला है,जिसे अगर ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती तो ज्यादा अच्छा होता.....बे-वजह ही इन गुब्बारों को जरुरत से ज्यादा "फूला" दिया गया है और कविता पर ध्यान देने और उसकी आलोचना करने के पूर्व अपने-आप की समालोचना करने की ज्यादा आवश्यकता है कि क्या हम सच में अपनी जैविक जरूरतों और मानसिक कल्पनाओं के संसार में वही सब कुछ तो नहीं है जिसे इन कविताओं में रचा-बुना गया है....सो इस नाते यह प्रश्न भी समीचीन है कि इन कविताओं की आलोचना में क्या हमारी खुद की आलोचना भी समाहित नहीं है....!?क्या अपने अलग-अलग निजी "एकांतों" में हम "यही" सब कुछ तो नहीं हैं...!?क्या हमारा प्रकट रूप और भीतर का रूप सच में एक-समान या एकसार है....??क्या सचमुच हम उतने पवित्र हैं....जितना कि खुद को जताते हैं....!?.....या फिर क्या यौनिकता ही अपवित्र भाव याकि तामसिक चीज़ याकि एकदम ही कोई ऐसी गंदली सी चीज़ है,जिसे हममें से कोई भी बंद कमरों में नहीं करता चाहे वो नारी हो या पुरुष....!!....अब नारी की यौनिकता कम और पुरुष में यौनिकता ज्यादा का सवाल अलग है....और दरअसल यही मुख्य सवाल भी है.....और जिस दिन संसार के सारे पुरुष अपनी झूठी पवित्रता का दंभ और "पवित्र-यौनिकता" का पाखंड छोड़ देंगे.....उस दिन इस संसार से यौनिकता सम्बंधित बहुतेरी समस्याएं "तत्काल" ही दूर हो जायेंगी, बिना किसी अतिरिक्त चार्ज के....!!.....लिखे जाने को तो अभी बहुत कुछ है मगर फिलवक्त मुझे तैयार होकर अपने प्रतिष्ठान रवाना होना है और सत्रह सितम्बर को शुभारम्भ होने वाले अपने नए प्रतिष्ठान की तैयारियों में मशरूफ हो जाना है.....यही है जिन्दगी.....यहीं हैं उतार-चढ़ाव....और यहीं है "मस्ती" भी और दुःख भी.....काहे को हम सब बड़ी-बड़ी पवित्र बातें कर के दूसरों का और अपना भी भेजा खराब किये रहते हैं....!!यही अपन को समझ नहीं आता....यदि आपको समझ आये तो बताना.....ओ साब जी......ओ साबनी जी...!!

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  29. बहुत सटीक आलेख .....दोनों कविताओ पर जिस तरह से चिंतन और विमर्श है वो काबिले तारीफ़ है....दोनों कविताओ का पोस्टमार्टम है ये आलेख .....

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  30. Dr Kavita ji ke madhyam se Shalini Mathur aur Shri Prabhu Joshi ke lekh padhe.

    Dono bade vicharottejak hain.

    Main in lekhon men kahi gayi baton ka samarthan karta hun.

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आपकी प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं।अग्रिम आभार जैसे शब्द कहकर भी आपकी सदाशयता का मूल्यांकन नहीं कर सकती।आपकी इन प्रतिक्रियाओं की सार्थकता बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि संयतभाषा व शालीनता को न छोड़ें.

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