मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

करवा-चौथ और स्त्री-विमर्श

14 टिप्पणियाँ


करवाचौथ की परम्परा मेरे ददिहाल व ननिहाल में सदा से रही है और मुझे अपने घर की महिलाओं, ताई, चाचियों, बुआ आदि व मोहल्ले की शेष स्त्रियों/ कामवाली तक को साज-शृंगार में लदे-फदे दिन बिताते देखना सदा से अच्छा लगता रहा है। मुझे करवाचौथ इसलिए भी अच्छा लगता रहा है क्योंकि घरों के कामकाज में आकण्ठ डूबी रहने वाली महिलाएँ इस दिन इन सब से मुक्ति पा जाती हैं और यह दिन पूरा इन्हें समर्पित होता है, सास से उपहार मिलते हैं, सुबह उठकर नितांत अपने लिए कुछ खाती बनाती हैं,  अपने सूखे से सूखे कठोर हाथों तक पर भी शृंगार सजाती हैं। शादी का सहेज कर रखा जोड़ा वर्ष में एक दिन निकाल कर पहनती हैं और स्वयं को दुल्हन के रूप में पा कर जाने कितनी जीवन-ऊर्जा अर्जित कर लेती हैं।


परस्पर मिलती जुलती हैं, हँसती बोलती और हँसी ठिठोली करती हैं। शाम को एकत्र होती हैं, रात को उत्सव मनाती हैं, पति के हाथ से साल में एक दिन गिलास से घूँट भरती हुईं दाम्पत्य- प्रेम के इस प्रदर्शन में सराबोर हो शर्माती-सकुचाती व गद-गद होती हैं, भीतर तक मन खिलखिला उठता है उनका। बाजार व सिनेमाहाल इस दिन महिलाओं की टोलियों से भरे होते हैं .... ! आप उन महिलाओं की प्रसन्नता समझ नहीं सकते जो घर गृहस्थी में जीवन बिताने के बाद भी एक पूरा दिन अपने ऊपर बिताने को स्वतंत्र नहीं हैं ।


मुझे महिलाओं का यह उत्फुल्ल रूप देखना सदा ही मनोहारी लगता रहा है और इसमें किसी बड़े सिद्धान्त की हानि होती नहीं दीखती कि इसका विरोध किया जाए या इस पर नाक-भौंह सिकौड़ी जाए या हल्ला मचाया जाए। 


यद्यपि यह भी सच है कि मैंने अपनी दादी व सास को कभी करवा-चौथ करते नहीं देखा। स्वयं मैंने एक बार शौकिया के अतिरिक्त तीस वर्ष से अधिक की अपनी गृहस्थी में कभी करवा-चौथ आदि जैसा कोई भी व्रत-उपवास कभी नहीं किया। न मैं सिंदूर लगाती हूँ, न बिछिया पहनती हूँ, न मंगलसूत्र, न बिंदिया, न चूड़ी न कुछ और। हाँ शृंगार के लिए जब चाहती हूँ तो चूड़ी या कंगन या बिंदिया आदि समय-समय पर पहनती रहती हूँ, हटाती रहती हूँ। न मेरी बेटी सुहाग का कोई ऐसा चिह्न पहनती है या ऐसा कोई उपवास आदि करती है जो एकतरफा हो। उसके पति (दामाद जी) व वह, दोनों ही विवाह का एक-एक चिह्न समान रूप से पहनते हैं। इसके बावजूद एक दूसरे के लिए दोनों का बलिदान, त्याग और समर्पण किसी से भी किन्हीं अर्थों में रत्ती भर कम न होगा, अपितु कई गुना अधिक ही है। मेरे दीर्घजीवन की कामना मेरे पिता, भाई, पति, बेटों व बेटी से अधिक बढ़कर किसी ने न की होगी व न मेरे लिए इन से अधिक बढ़कर किसी ने त्याग किए होंगे, बलिदान किए होंगे, समझौते किए होंगे, सहयोग किए होंगे।  दूसरी ओर इनके सुख सौभाग्य की जो व जितनी कामना व यत्न मैंने किए हैं, उनकी कोई सीमा ही नहीं।  


इसलिए प्रत्येक परिवार, दंपत्ति व स्त्री को अपने तईं इतनी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वह/वे क्या करें, क्या न करें। जिन्हें करवाचौथ, गणगौर या तीज आदि करना अच्छा लगता है उन्हें अवश्य करना चाहिए। महिलाओं / लड़कियों के हास-परिहास और साज- शृंगार के एकाध उत्सव की इतनी छीछालेदार करने या चीरफाड़ करने की क्या आवश्यकता है ? दूसरी ओर किसी को बाध्य भी नहीं करना चाहिए कि वे/वह ये त्यौहार करें ही। इतनी स्वतन्त्रता व अधिकार तो न्यूनतम प्रत्येक व्यक्ति का होना चाहिए और व्यक्ति के रूप में स्त्री /स्त्रियों का भी। 


मैं अपनी सभी मित्रों, सखियों, स्नेहियों व परिवारों को करवाचौथ के पर्व पर बधाई व शुभकामनाएँ देती हूँ॥ उनका दाम्पत्य-प्रेम अक्षुण्ण हो, स्थायी हो, दो-तरफा हो और सदा बना रहे !

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

न्यूड वीडियो मामला और राजेन्द्र यादव (भाग 2)

16 टिप्पणियाँ

जैसा कि इस शृंखला के पहले अंक में लिखा गया था कि यह कहानी अधूरी है, जब तक राजेन्द्र यादव का पक्ष इसके साथ नहीं जुड़ जाता। इस संबंध में 'बतकही' की ओर से राजेन्द्र यादव से उनका पक्ष को जानने के उद्देश्य से फोन किया गया था, श्री यादव के अनुसार - इस सम्बन्ध में उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है। राजेन्द्रजी का पक्ष अभी भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। यदि उनका पक्ष नहीं आता तो ज्योति के बयान पर उनका यह मौन, ‘सहमति’ माने जाने का भ्रम उत्पन्न करेगा। वैसे राजेन्द्र यादव के शुभचिन्तक कह रहे हैं कि राजेन्द्र यादव ब्लॉग को गंभीर माध्यम नहीं मानते, यदि उन्हें जवाब देना होगा तो हंस के नवम्बर अंक में अपने संपादकीय के माध्यम से दंेगे। वास्तव में हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उनका पक्ष कहां आता है, किसके माध्यम से हम सबके बीच आता है। महत्वपूर्ण यह है कि उनका पक्ष सबके सामने आए। बहरहालआशीष कुमार ‘अंशु’ से ज्योति कुमारी की बातचीत का दूसरा भाग यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इस बातचीत को साक्षात्कार या रिपोर्ट कहने से अच्छा होगा कि हम बयान कहें। चूंकि पूरी बातचीत एक पक्षीय और घटना केन्द्रित है। यहां गौरतलब है कि दूसरा पक्ष जो राजेन्द्र यादव का है, उन्होंने इस विषय पर बातचीत से इंकार कर दिया है। फिर भी उनका पक्ष उनकी सहमति से कोई रखना चाहे तो स्वागत है। यदि राजेन्द्र यादव स्वयं अपनी बात रखें तो इससे बेहतर क्या होगा? :

इन सारी घटनाओं के दौरान जब मैं थाने में बैठी थी। मेरे मित्र मज्कूर आलम के पास फोन किया जा रहा था। मज्कूर आलम उस दिन अपने घर बक्सर (बिहार) में थे। उन्हें फोन पर बताया जा रहा था- ‘ज्योति थाने में है। यह अच्छा नहीं है। उसे वापस बुला लीजिए।’



मैने सुना थाने में कई लोगों से कह कर फोन कराया गया। दबाव बनाने के लिए। यदि यह बात सच है तो दिल्ली पुलिस की सराहना की जानी चाहिए कि वे किसी के दबाव में नहीं आए।



मैं अकेली रात एक बजे तक थाने में बैठी रही। इस बीच मेरा एमएलसी (मेडिकल लीगल केस) कराया गया। मैं वहाँ देर रात तक इसलिए बैठी रही क्योंकि मैंने तय कर लिया था, जब तक मेरा एफआईआर (फर्स्ट इन्फॉरमेशन रिपोर्ट) नहीं हो जाता, मैं वहाँ  से हिलूँगी नहीं। मेरे एमएलसी में आ गया कि चोट है। ईएनटी में दिखलाया, वहाँ कान के चोट की भी पुष्टि हो गई। एक बजे रात में एक लेडी कांस्टेबल मुझे घर तक छोड़ कर गई।



मुझे जानकारी मिली कि मेरे घर आने के थोड़ी देर बाद ही प्रमोद को छोड़ दिया गया। उसके बाद दो महीने तक कोई कार्यवाही नहीं हुई। मै अपने कान के दर्द से परेशान थी। मुझे चोट लगी थी। दो महीने तक पुलिस की तरफ से कोई कार्यवाही नहीं हुई। पुलिस की जाँच-पड़ताल चल रही होगी, यह अलग बात है। उन्होंने दो महीने तक एक जुलाई की घटना के लिए सीआरपीसी की धारा 164 में मेरा बयान भी नहीं कराया।

घटना के अगले दिन दो जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया मेरे पास। उन्होंने कहा - "क्या मिल गया, पुलिस में बयान दर्ज कराके। लड़का छूट गया। लड़का घर आ गया।"

मैने जवाब दिया- "क्या हो गया यदि प्रमोद छूट कर आ गया। मैंने वही किया जो मुझे करना चाहिए।"

फिर राजेन्द्र यादव ने कहा- "अच्छा ऐसा कर शाम छह बजे मेरे घर आ जा।"

मैंने जवाब में कहा-"अब मैं आपके घर कभी नहीं आने वाली।"

राजेन्द्र यादव- ‘कभी नहीं आना, आज आ जा।’

ज्योतिः ‘क्यों आज ऐसा क्या खास है कि मुझे इतना कुछ हो जाने के बाद भी आपके घर आ जाना चाहिए।’

राजेन्द्र यादवः ‘मैने पुलिस वाले को कह दिया है, वकील को भी बुला लिया है। तू भी आ जा। प्रमोद भी रहेगा। वह तुझे सॉरी बोल देगा। बात खत्म हो जाएगी।’
ज्योतिः ‘उसे पब्लिकली सॉरी बोलना होगा। उसने इतनी बूरी हरकत की है मेरे साथ। तब मैं माफ करूँगी। मुझे लगता है कि जिसे वास्तव में महसूस होगा कि उसने गलती की है, वह सार्वजनिक तौर पर माफी माँगेगा। जब कोई महसूस करता है, अपनी गलती तो उसे सार्वजनिक तौर पर गलती की माफी माँगनी चाहिए। यदि वह सार्वजनिक तौर पर माफी ेमाँगेगा तो उसे सुधरने और अच्छा बनने का एक मौका दिया जा सकता है। उस माफी के बाद भी उसकी हरकतें नहीं बदलती तो उस पर फिर कार्यवायी होनी चाहिए लेकिन प्रमोद को एक मौका मिलना चाहिए, इस बात के मैं हक में हूँ।'


राजेन्द्र यादवः ‘फिर ऐसा कर, सोनिया गांधी को बुला ले, मनमोहन सिंह को बुला ले, ओबामा को बुला ले। रामलीला मैदान में माफी माँगने का सार्वजनिक ्कार्यक्रम रख लेते हैं।’

ज्योतिः ‘आपको जो भी लगे लेकिन जब तक वह सार्वजनिक तौर पर माफी नहीं माँग लेता, मैं माफ नहीं करूँगी ’

जब मेरी और राजेन्द्र यादव की फोन पर यह बात हो रही थी, मीडिया और साहित्य में बहुत से लोगों को इस घटना की जानकारी हो चुकी थी। बहुत से लोगों के फोन आने लगे थे।

एक दिन पहले यानि एक जुलाई को जिस दिन दुर्घटना हुईं, जब मैं पुलिस के आने का इंतजार कर रही थी, उसी वक्त साहित्यिक पत्रिका पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज राजेन्द्र यादव के घर आए थे। प्रेम भारद्वाज जब भी पाखी का नया अंक आता है, उसे देने के लिए वे स्वयं हर महीने राजेन्द्र यादव के घर आते हैं। उस दिन भी वे पाखी देने ही आए थे। जब प्रेम भारद्वाज वहाँ पहुँचेो तो उन्होंने मेरी हालत देखी। राजेन्द्र यादव ने प्रेम भारद्वाज के हाथ से 'पाखी' लेकर कहा ‘ठीक है, ठीक है। अब जाओ।’

मैने कहा- ‘प्रेम भारद्वाज जाएँ क्यों उन्हें भी पता चलना चाहिए, आपके घर में क्या हुआ है?
प्रेम भारद्वाज ने पूछा - ‘क्या हुआ?’
राजेन्द्र यादव का जवाब था- ‘कुछ नहीं हुआ, तुम जाओ यहाँ से।’

प्रेम भारद्वाज के जाने के बाद पुलिस आई। पुलिस के आने का जिक्र मैं पहले कर चुकी हूँ। राजेन्द्र यादव द्वारा दिया गया, शराब पीने का ऑफर जब दिल्ली पुलिस ने ठुकरा दिया और इस बात पर भी सहमत नहीं हुए कि किसी स्त्री पर हमला छोटी बात होती है तो राजेन्द्र यादव को लगा कि यह बात उनसे अब नहीं संभलेगी। उन्होंने किशन को कहा- ‘भारत भारद्वाज को फोन मिलाओ।’

जब तक भारत भारद्वाज आए, पुलिस दरवाजे तक आ चुकी थी। भारत भारद्वाज ने आते ही कहा- ‘मैं डीआईजी हूँ आईबी डिपार्टमेन्ट में। आप पहले मुझसे बात कीजिए, उसके बाद प्रमोद को लेकर जाइएगा। ’
मैने वहीं पर कहा- ‘ये रिटायर हो चुके हैं।’

मैने देखा, प्रेम भारद्वाज गए नहीं थे। वे भारत भारद्वाज के साथ लौट आए थे। हो सकता है कि वे भारत भारद्वाज के पास पत्रिका देने गए हों और राजेन्द्र यादव का फोन आ गया हो।

भारत भारद्वाज ने फिर पूछा- ‘क्या हुआ?’
मैने पूरी कहानी उन्हें बताई, यह भी बताया कि घटना के बाद मैने शिकायत की है और मेरी शिकायत पर पुलिस आई है।

भारत भारद्वाज फिर राजेन्द्र यादव के लिए, सलाह देने में व्यस्त हो गए। अनंत विजय को बुला लो, उसके एक भाई सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं। पुलिस ने भारत भारद्वाज से कहा- ‘सर आपको जो भी बात करनी है, थाने में आकर करिए।’

जब एक महिला के साथ बलात्कार होता है या फिर बलात्कार की कोशिश होती है। लड़की की इससे सिर्फ शरीर की क्षति नहीं होती। उसका मन भी टूटता है। हमले का मानसिक असर भी गहरा होता है। मेरे साथ जो हुआ, मैं उससे अभी तक बाहर निकल नहीं पाई हूँ। यह अलग बात है कि मैं लड़ रही हूँ। मैने हिम्मत नहीं हारी है। कानूनी रूप से जो कर सकती थी, कर रही हूँ।लेकिन इस घटना का मेरे अंदर जो असर हुआ है, उसे सिर्फ मैं समझ सकती हूँ । इस तरह के अपराध के लिए समझौता कभी नहीं हो सकता है। कोई ऐसे मामले में समझौता शब्द का इस्तेमाल करता है, इसका मतलब है कि वह लड़की के साथ अन्याय करता है। मैने इस अन्याय को भोगा है। इस तरह के मामले में समझौते की बात कहीं आनी नहीं चाहिए। मैं ना समझौते के लिए कभी तैयार थी, ना हूँ और ना इस मामले में आने वाले समय में समझौता करूँगी।


यह संभव है कि कोई गलती करता है और अंदर से इस बात को महसूस करता है और माफी माँगता है तो उसे माफ करके एक मौका दिया जा सकता है। समझौता और माफी देने में अंतर होता है। यदि मैं प्रमोद को माफ करने पर विचार कर रही हूँ तो इसे समझौता बिल्कुल ना कहा जाए। यह शब्द एक पीड़ित लड़की के लिए अपमानजनक है। एक तो लड़की के साथ गलत हुआ है। लड़की ने उसे भुगता। उस पीड़ा के शारीरिक मानसिक असर से लड़की गुजरी। अब उस पीड़ा से जुझ रही लड़की से अपराधी को माफ करने के लिए कहा जा रहा है और उसे समझौता नाम दिया जा रहा है। यह ऐसा ही है जैसे किसी ने पीड़ा से गुजर रही लड़की को दो थप्पड़ और मार दिया हो। वही सारी घटनाएँ फिर एक बार मेरे साथ दुहराई जा रही हों। इसलिए समझौता नहीं, प्रमोद के लिए माफी शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए। यदि उसे अपनी गलती का एहसास है तो जरूर उसे एक मौका मिलना चाहिए।

अकेला प्रमोद इस गुनाह में शामिल है या फिर कुछ और लोग भी प्रमोद के पीछे इस गुनाह में शामिल हैं। इसका सही-सही जवाब राजेन्द्र यादव दे सकते हैं। मान लीजिए प्रमोद ने किसी के बहकाने पर यह सब किया। पैसा लेकर किया। लेकिन सच यह है कि मेरे साथ अपराध प्रमोद ने किया। मेरा अपराधी प्रमोद है। उसने ऐसा कदम क्यों उठाया? इसका जवाब प्रमोद दे सकता है।


सच्चाई है कि राजेन्द्र यादव ने मेरा वीडियो नहीं बनाया, मुझ पर शारीरिक हमला भी नहीं किया। फिर भी मैने हंस का बहिष्कार किया। इसके पीछे वजह यही है कि राजेन्द्र यादव स्त्री सम्मान की बात करते हैं लेकिन जब उनके सामने स्त्री सम्मान पर हमला हुआ तो वे चुप थे। प्रमोद को पहले दिन थाने से निकलवाने में राजेन्द्र यादव की अहम भूमिका रही। प्रमोद के खिलाफ एफआईआर ना हो, इसमें राजेन्द्र यादव की पूरी भूमिका रही। वह नहीं रूकवा पाए, यह अलग बात है, लेकिन उन्होंने जोर पूरा लगा लिया था। पहले दिन जब प्रमोद थाने से छुट कर आया तो उनके घर में ही था। उनके घर में वह काम करता रहा। उसकी दूसरी बार दो महीने बाद गिरफ्तारी उनके घर से ही हुई। यदि कोई लड़का आपके यहाँ काम करता हो तो यह बात समझ में आती है कि वह आपके नियंत्रण में ना हो और उसका अपराध आपकी जानकारी में ना हो। लेकिन जब राजेन्द्र यादव एक जुलाई की घटना के चश्मदीद हैं, सबकुछ उनकी आँखों के सामने घटा है, वे कम से कम प्रमोद से अपना रिश्ता खत्म कर सकते थे। प्रमोद उनके घर में रहा और काम करता रहा। इतना ही नहीं, उलट राजेन्द्र यादव मुझपर ही दबाव बनाते रहे कि समझौता कर लो। केस वापस ले लो। उनकी तरफ से कई लोगों के फोन आ रहे थे- ‘तुम्हारा साहित्यिक कॅरियर चौपट हो जाएगा। तुम साहित्य से बाहर हो जाओगी।’
मैं नहीं मानी।

राजेन्द्र यादव ने तरह-तरह के एसएमएस भी मेरे पास भेजे। वे साहित्यिक व्यक्ति हैं, इसलिए उनकी धमकी भी साहित्यिक भाषा में थी।

‘तुम जो कर रही हो, समझो इसमें सबसे अधिक नुक्सान किसका है?’

‘मूर्ख उसी डाल को काटता है, जिस पर बैठा होता है।’

‘तुम्हें आना तो मेरे पास ही पड़ेगा।’

यह सारे एसएमएस मेरे पास सुरक्षित हैं। 27 जुलाई को राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘प्रमोद माफी माँगने को तैयार है। लेकिन सार्वजनिक माफी से पहले, वहाँ कौन-कौन से लोग होंगे, यह तय करने के लिए हम लोग मिले। मिलकर बात करते हैं। वह मिलकर भी तुमसे माफी माँग लेगा और सार्वजनिक तौर पर भी माफी माँग  लेगा। मिलने की जगह नोएडा (उत्तर प्रदेश), सेक्टर सोलह का मैक डोनाल्ड तय हुआ।

बात हुई थी माफी माँगने की लेकिन प्रमोद वहाँ भी मुझे धमकाने लगा। अपना केस वापस ले लो वर्ना मार के फेंक देंगे। लाश का भी पता नहीं चलेगा। किशन भी साथ दे रहा था। उस दिन मज्कूर आलम मेरे साथ थे। राजेन्द्र यादव उनके द्वारा सार्वजनिक माफी के लिए सुझाए जा रहे सारे नामों को एक-एक करके खारिज कर रहे थे। मानों घर से राजेन्द्र यादव प्रमोद के साथ सार्वजनिक माफी की बात सोचकर निकले हों और यहाँ आकर बदल गए हों। नामों को लेकर राजेन्द्र यादव की आपत्ति कायम थी। नहीं यह नहीं होगा। इसे क्यों बुलाएँगे।  ऐसा करो कि वकील को बुला लेते हैं। बात खत्म करो।

उनका यह रूख देखकर मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा।
‘जब मैने स्पष्ट कर दिया है कि सार्वजनिक माफी से कम पर बात नहीं होगी और आपको यह स्वीकार्य नहीं है तो मिलने  के लिए क्यों बुलाया?’

राजेन्द्र यादव का वहाँ  बयान था- ‘अब मैं और तुम आमने-सामने हैं। अब प्रमोद से तुम्हारी लड़ाई नहीं है। यदि तुमने मेरी बात नहीं मानी तो अब तुम्हारी लड़ाई मुझसे है।’

इस घटना से पहले मैं राजेन्द्र यादव को ई मेल पर हंस और राजेन्द्र यादव के बहिष्कार की सूचना दे दी थी। उन्होंने हंस के अंक में मेरी कहानी की घोषणा की थी। मैने कहानी देने से मना कर दिया। मैं ऐसी पत्रिका को कहानी नहीं दे सकती, जिसका दोहरा चरित्र हो। मेरे ई मेल भेजे जाने के बाद भी उन्होंने मेरी समीक्षा छाप दी। (यह बातचीत हंस, अक्टूबर 2013 अंक आने से पहले हो चुकी थी, उस वक्त हंस में ‘समीक्षा’ के लिए राजेन्द्र यादव की माफी नहीं छपी थी) मैने जो ई मेल राजेन्द्र यादव को भेजा था, उसमें साफ शब्दों में लिख दिया था कि मेरा निर्णय समीक्षा पर भी लागू होता है। इसके बावजूद उन्होंने समीक्षा छाप दी। समीक्षा छापने के बाद उन्होंने मुझे सूचना भी नहीं दी। मेरी लेखकीय प्रति अब तक मेरे पास नहीं आई।

मेरे पास एक परिचित का फोन आया, तुमने हंस का बहिष्कार किया है और तुम्हारी समीक्षा हंस में छपी है। यह फोन आने के बाद मैने राजेन्द्र यादव को फोन किया। उनकी पत्रिका 20-21 से पहले कभी प्रेस में नहीं जाती है लेकिन राजेन्द्र यादव ने कहा- इस बार पत्रिका 18 को ही प्रेस में चली गई। इसलिए समीक्षा रोक नहीं पाए। मैने कहा- आप अगले अंक में छाप दीजिएगा कि समीक्षा कैसे छप गई? जिससे पाठकों में भ्रम ना रहे। राजेन्द्र यादव ने उस वक्त कहा कि ठीक है। तीन दिनों बाद राजेन्द्र यादव का फोन आया- ‘समीक्षा छापने का निर्णय संजय सहाय का था, इसलिए वही बताएँगे कि क्या जाएगा?’

मैने राजेन्द्र यादव से कहा- ‘आप संजय सहाय से बात करके खबर करवा दीजिएगा।

उनकी तरफ से कोई फोन नहीं आया। मैंने फिर उन्हें ई मेल किया। आपने स्पष्टीकरण की बात कही थी, आप इस बार हंस में क्या छाप रहे हैं, आपका जवाब नहीं आया। इस ई मेल का जवाब नहीं आया तो मैने एक और ई मेल उन्हें लिखा। लेकिन उसका जवाब भी नहीं आया।

जब हंस का सितम्बर अंक हाथ में आया, उसमें राजेन्द्र यादव ने मेरे लिए अपमानजनक बातें लिखी थी। जो उन्हें लिखना था, ज्योति ने हंस का बहिष्कार किया है। वह कहीं नहीं लिखा। उन्होंने मना करने के बावजूद समीक्षा छापने की बात भी कहीं नहीं लिखी। जब तक मैं उनके पास काम कर रही थी, तब तक बहुत अच्छी थी। जब मैने उनके घर में हुए गलत हरकत का विरोध किया तो उन्होंने मेरा साथ नहीं दिया। जब मैने उनका और उनकी पत्रिका का बहिष्कार किया तब उनको याद आया कि मेरा काम दस हजार के लायक भी नहीं था। यदि मेरा काम अच्छा नहीं था तो मुझे हंस में अपने पास रखा क्यों था? निकाला क्यों नहीं? मैंने तो कभी उनसे चंदा नहीं माँगा। क्या राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा बाँटते हैं। यदि राजेन्द्र यादव जबर्दस्ती चंदा बाँटते हैंतो फिर यह चंदा सिर्फ ज्योति को क्यों? यदि चंदा ही दे रहे थे तो फिर बदले में इतना काम क्यों लेते थे?


(यह ज्योति के बयान अंतिम भाग नहीं है......कहानी अभी बाकि है साथियो)





मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

न्यूड वीडियो मामला और राजेन्द्र यादव

10 टिप्पणियाँ


(प्रथम भाग)


जुलाई 2013 में एक समाचार आया था कि राजेन्द्र यादव की प्रिय लेखिका ज्योति कुमारी ने ‘हंस’ का बहिष्कार किया है। सितम्बर के संपादकीय में ज्योति को लेकर श्री यादव का अनर्गल प्रलाप छपा। अक्टूबर संपादकीय में उन्होंने अपनी गलती के लिए युवा लेखिका से क्षमा माँग ली। राजेन्द्र यादव और 'हंस' के बहिष्कार को लेकर आशीष कुमार ‘अंशु’ ने ज्योति कुमारी से लंबी बातचीत की। ज्योति ने विस्तार से पूरी कहानी बयान की। इस कहानी में यदि आने वाले समय में राजेन्द्र यादव का पक्ष शामिल होता है तो यह कहानी पूरी मानी जाएगी। यहाँ प्रस्तुत है, ज्योति का बयान, जैसा उन्होंने आशीष को बताया। 


‘हंस’ का बहिष्कार करना किसी भी नई लेखिका के लिए आसान फैसला नहीं होता। खास तौर पर जब मेरे लेखन की अभी शुरूआत है। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि हंस में जब कहानी छपती है तो अच्छा रिस्पांस मिलता है। मेरी कहानियाँ ‘हंस’, ‘पाखी’, ‘परिकथा’, ‘नया ज्ञानोदय’ और अभी 'बहुवचन' में छपी हैं लेकिन हंस में प्रकाशित किसी भी कहानी के लिए सबसे अधिक फोन, एसएमएस और चिट्ठियाँ मिली हैं। किसी भी लेखक को यह अच्छा लगता है।

मैं पिछले दो सालों से राजेन्द्र यादव और हंस के लिए काम कर रहीं थी। मेरा वहाँ काम यादवजी जो बोले, उसे लिखने का था, हंस में अशुद्धियों को दुरुस्त करना और उसके संपादन से जुड़े काम को भी मैं देखती थी। जब ‘स्वस्थ्य आदमी के बीमार विचार’ पर काम शुरू किया, उसके थोड़ा पहले से मैं उनके पास जा रही थी। लगभग दो साल से मैं उनके पास जा रही हूँ। इस काम के लिए वे मुझे दस हजार रूपए प्रत्येक महीने दे रहे थे। मैं मुफ्त में उनके लिए काम नहीं कर रही थी। सबकुछ ठीक था। यादवजी का स्नेह भी मिल रहा था। उस स्नेह में कहीं फेवर नहीं था। अपनी कहानियों के लिए कभी मैंने उन्हें नहीं कहा। मैं उन्हें लिखने के बाद कहानी दिखलाती थी और कहती थी कि यह यदि हंस में छपने लायक हो तो छापिए। मेरी पाँच-छह कहानियाँ हंस में छपीं।

यदि किसी लेखिका की पहली कहानी छपना उसे किसी साहित्यिक पत्रिका का प्रोडक्ट बनाता है तो मुझे ‘परिकथा’ का प्रोडक्ट कहा जाना चाहिए। मेरी पहली कहानी ‘परिकथा’ में छपी है। मैं हंस की प्रोडक्ट नहीं हूँ। यह सच है कि कथा संसार में मेरी पहचान हंस से बनी। ‘हंस’ मेरे लिए स्त्री विमर्श की पत्रिका रही है। ‘हंस’ से मैने स्त्री अधिकार और स्त्री सम्मान को जाना है। राजेन्द्र यादव जो अपने संपादकीय में लिखते रहे हैं और जो विभिन्न आयोजनों में बोलते रहे हैं। इन सबसे उनकी छवि मेरी नजर स्त्री विमर्श के पुरोधा की बनी।

एक जुलाई 2013 को उनके घर में जो दुर्घटना हुई, उससे पहले उनसे मेरी कोई शिकायत नहीं थी। सब कुछ उससे पहले अच्छा चल रहा था। मैं उन्हें अपने अभिभावक के तौर पर पितातुल्य मानती रही हूँ। मेरा उनसे इसके अलावा कोई दूसरा रिश्ता नहीं रहा। इसके अलावा केाई दूसरी बात करता है तो गलत बात कर रहा है। राजेन्द्र यादव मुझसे कहते थे- ‘तुझे देखकर मेरे अंदर इतना वात्सल्य उमड़ता है, जितना बेटी रचना के लिए भी नहीं उमड़ा। कभी मैं उन्हें कहती थी कि मुझे हंस छोड़ना है तो वे मुझे बिटिया रानी, गुड़िया रानी बोलकर, हंस ना छोड़ने के लिए मनाते थे। राजेन्द्र यादव हमेशा मेरे साथ पिता की तरह ही व्यवहार करते थे।

जब से मैं उनके पास काम कर रहीं हूँ, प्रत्येक सुबह 8.00 बजे- 8.30 बजे उनके फोन से ही मेरी नीन्द खुलती थी। फोन उठाते ही वे कहते- अब उठ जा बिटिया रानी। मैं उनके घर 10.30 बजे सुबह पहुँचती थी। वे रविवार को भी बुलाते थे। रविवार को उनके घर शाम तीन-साढे तीन बजे पहुँचती थी।

राजेन्द्र यादव का मानना था कि वे हंस कार्यालय में एकाग्र नहीं हो पाते हैं। इसलिए वे संपादकीय लिखवाने के लिए घर ही बुलाते थे। जब मैंने राजेन्द्र यादव के साथ काम करना शुरू किया, उन दिनों राजेन्द्र यादव दफ्तर नहीं जाते थे। वे बीमार थे। तीन-चार महीने तक वे बिस्तर पर ही पड़े रहे।‘स्वस्थ आदमी ......’ वाली किताब उन्होंने घर पर ही लिखवाई। उस दौरान वे हंस नहीं जा रहे थे। जब उन्होंने हंस जाना प्रारंभ किया, उसके बाद भी वे रचनात्मक लेखन घर पर ही करते थे। दफ्तर में वे चिट्ठियाँ लिखवाते थे। मेरी नौकरी उनके घर से शुरू हुई थी, इस तरह मेरा एक दफ्तर उनका घर भी था।

30 जून 2013 की रात 10.00 -10.15 बजे के आस-पास मेरे मोबाइल पर नए नंबर से फोन आया। नए नंबर के फोन इतनी रात को मैं उठाती नहीं। लेकिन एक नंबर से दो-तीन बार फोन आ जाए तो उठा लेती हूँ।जब दूसरी बार में मैंने नए नंबर वाला फोन उठाया तो दूसरी तरफ से आवाज आई- ‘मैं प्रमोद बोल रहा हूँ।’ जब मैने पूछा -‘कौन प्रमोद?’ तो उसने राजेन्द्र यादव का नाम लिया। प्रमोद, राजेन्द्र यादव का अटेन्डेन्ट था। ‘हंस’ में मेरी राजेन्द्र यादव और संगम पांडेय से बात होती थी और किसी से कुछ खास बात नहीं होती थी। मैं बातचीत में थोड़ी संकोची हूं, यदि सामने वाला पहल ना करे तो मैं बात शुरू नहीं कर पाती। प्रमोद से मेरी बातचीत सिर्फ इतनी थी कि वह दफ्तर पहुँचने पर राजेन्द्र यादव के लिए और मेरे लिए एक गिलास पानी लाकर रखता था और पूछता था- ‘मैडम आप कैसी हैं?’ इससे अधिक मेरी प्रमोद से कोई बात हुई हो, मुझे याद नहीं।

उसका फोन आना मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। उसने फोन पर कहा- ‘मुझसे आकर मिलो। मैंने तुम्हारा वीडियो बना लिया है। उसे मैं इंटरनेट पर डालने जा रहा हूँ।’

यह फोन मेरे लिए झटका था। कोई यदि वीडियो बनाने की बात कर रहा है तो निश्चित तौर पर यह किसी आम वीडियो की धमकी नहीं होगी। वह नेकेड वीडियो की बात कर रहा होगा। मैंने राजेन्द्र यादव को उसी वक्त फोन मिलाया। जब राजेन्द्र यादव से मेरी बात हो रही थी, उस दौरान भी प्रमोद काफोन वेटिंग पर आ रहा था। राजेन्द्र यादव को मैने फोन पर कहा- ‘प्रमोद नेकेड वीडियो की बात कर रहा है, आप देखिए क्या मामला है?’

राजेन्द्र यादव ने कहा- अब मेरे सोने का वक्त हो रहा है। सुबह बात करूँगा। उनसे बात खत्म हुई प्रमोद का फोन जो वेटिंग पर बार-बार आ ही रहा था। फिर आ गया- उसने फिर मुझे धमकाया।

राजेन्द्र यादव जो दो साल से प्रतिदिन मुझे फोन करके उठाते थे। उस दिन उनका फोन नहीं आया। जब मैंने फोन किया तो उन्होंने कहा- ‘मैं आँख दिखलाने एम्स जा रहा हूं। तुमसे दोपहर में बात करता हूँ। फिर राजेन्द्र यादव का फोन नहीं आया। फिर मैंने ही फोन किया, राजेन्द्र यादव ने फोन पर मुझे कहा- प्रमोद कह रहा है, वीडियो सुमित्रा के पास है और सुमित्रा कह रही है वीडियो प्रमोद के पास है। पता नहीं चल पा रहा कि वीडियो किसके पास है। ऐसा करो, इस मसले को अभी रहने दो। इस पर बात 31 जुलाई वाले कार्यक्रम के बीत जाने के बाद बात करेंगे। मुझे यह बात बुरी लगी। मैंने कहा- ‘आज एक जुलाई है। 31 जुलाई में अभी तीस दिन है। इस बीच प्रमोद ने कुछ अपलोड कर दिया तो फिर मेरी बदनामी होगी। आप भारतीय समाज को जानते हैं। मैं कहीं की नहीं रहूँगी। मैंने कई बार राजेन्द्र यादव को फोन किया और एक बार प्रमोद को भी फोन किया- ‘आप सच बोल रहे हैं या कोई मजाक कर रहे हैं। क्या है उस वीडियो में?’

उसने ढंग से बात नहीं की। उसका जवाब था- ‘जब दुनिया देखेगी, तुम भी देख लेना।’

जब कई बार फोन करने के बाद भी राजेन्द्र यादव ने मेरी बात पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया फिर मैंने उन्हें फोन करके कहा कि मैं शाम में आपके घर आ रही हूँ। यह छोटी बात नहीं है। आप प्रमोद से बात करिए।

मेरे साथ जो दुर्घटना हुई, उसके बाद मैने लोगों से बातचीत बंद कर दी थी। अब जब फिर से बातचीत हो रही है तो यह सुनने में आ रहा है कि कुछ लोग कह रहे हैं- ज्योति अगर राजेन्द्र यादव के घर में कुछ गलत काम नहीं कर रही थी, राजेन्द्र यादव के साथ उसके नाजायज संबंध नहीं थे फिर वह वीडियो की बात से डरी क्यों? यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि यह वीडियो मेरा और राजेन्द्र यादव का होता तो मैं बिल्कुल नहीं डरती। ना मैं घबराती, वजह यह कि प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास काम करता था, फिर क्या वह अपने मालिक का वीडियो अपलोड करता? अपलोड करता तो क्या सिर्फ ज्योति की बदनामी होती? क्या राजेन्द्र यादव की नहीं होती। राजेन्द्र यादव का कद बड़ा है। उनकी बदनामी भी बड़ी होती। यदि वे सेफ होते तो मैं भी सेफ होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। वे मुझे बेटी तुल्य मानते रहे थे। मेरे लिए वे पितातुल्य थे। इसका मतलब था कि यदि प्रमोद ने कोई वीडियो वास्तव में बनाया था तो वह मेरी अकेली की वीडियो होगी। मैं राजेन्द्र यादव के यहाँ काम करती थी तो उनका बाथरूम भी इस्तेमाल करती थी। राजेन्द्र यादव से मेरी घनिष्ठता हो ही गई थी। कई बार जब मेरे घर पानी नहीं आया होता तो राजेन्द्र यादव कहते थे- मेरे घर आ जाओ। डिक्टेशन ले लो और यहीं पर नहा लेना। उनके बाथरूम का कई बार मैने इस्तेमाल नहाने के लिए किया है। मेरा डर यही था, बाथरूम में नहाते हुए कैमरा छुपाकर मेरा नेकेड वीडियो प्रमोद, राजेन्द्र यादव के घर में बना सकता है। एक अकेली लड़की का नेकेड वीडियो जब इंटरनेट पर डाला जाता है तो बिल्कुल नहीं देखा जाता कि वह अकेली है या फिर किसी के साथ है। यदि लड़की वीडियों में नेकेड है तो उसकी बदनामी होनी है, उसकी परेशानी होनी है। इस बात से मैं डरी थी। यदि राजेन्द्र यादव के साथ कोई वीडियो होता फिर डर की कोई बात नहीं थी। यदि राजेन्द्र यादव सेफ हैं तो उनके साथ वाला भी सेफ है।


वीडियो वाली बात से मैं काफी परेशान थी। परेशान होकर मैं राजेन्द्र यादव के घर पहुँची। एक जुलाई को 6.30-6.45 बजे शाम में। मैंने राजेन्द्र यादव से कहा- ‘सर आप मेरे सामने प्रमोद से बात करें कि वह क्या वीडियो है? वह दिखलाए।’

मैं राजेन्द्र यादव को सर ही कहती हूँ। उनका जवाब था- ‘मैं प्रमोद को कुछ नहीं कहूँगा। उसे बुला देता हूँ , तुम खुद ही उससे बात कर लो।’

यह बातचीत राजेन्द्र यादव के कमरे में हुई। वे उस वक्त शराब पी रहे थे। उनके सामने ही प्रमोद ने अपशब्दों का प्रयोग किया। यह मामला अभी न्यायालय में है। प्रमोद यह आलेख लिखे जाने तक जेल में है। इस पूरी घटना में दुखद पहलू यह है कि यह सब एक ऐसे आदमी की नजरों के सामने हुआ जिसकी छवि देश में स्त्रियों के हक में खड़े व्यक्ति के तौर पर है। वह मुकदर्शक बनकर अपने कर्मचारी द्वारा एक स्त्री के लिए प्रयोग किए जा रहे अशालीन भाषा को सुनता रहा। वे उस वक्त भी शराब पीने में मशगूल थे, जब उनका कर्मचारी स्त्री के साथ अमर्यादित व्यवहार कर रहा था। इस पूरी घटना के दौरान राजेन्द्र यादव बीच में सिर्फ एक वाक्य प्रमोद को बोले- ‘यार कुछ है तो दिखा दे ना...’

मानों छुपन छुपाई के खेल में चॉकलेट का डब्बा गुम हो गया हो। जबकि प्रमोद कई बार राजेन्द्र यादव के सामने धमका चुका था- वीडियो इंटरनेट पर अपलोड कर दूँगा। फिर भी वे चुप थे। मैं भी चुप हो जाती। कोई कदम नहीं उठाती लेकिन उसके बाद जो प्रमोद ने किया वह किसी भी स्त्री के लिए अपमानजनक था। मामला न्यायालय में है इसलिए उस संबंध में यहाँ नहीं बता रहीं हूँ। मेरे साथ जो हुआ, उसके बाद मैं समझ गई थी कि मेरा अब यहाँ से बच कर निकलना नामुमकिन है। मैंने राजेन्द्र यादव के कमरे में रखे टेलीफोन से सौ नंबर मिलाया। उस वक्त राजेन्द्र यादव बोले- ‘यह क्या कर रही हो? फोन रख।’ तब तक दूसरी तरफ फोन उठ चुका था। मैंने फोन पर सारी बात बता दी। मेरे साथ क्या हुआ और मुझे मदद की जरूरत है।

फोन रखने के बाद अब तक शांत पड़े राजेन्द्र यादव फिर बोले- ‘यह सब क्या कर रही हो? पुलिस के आने से क्या हो जाएगा? बेवजह बात ना बढ़ा।’

पुलिस को फोन मिलाने के बाद प्रमोद शांत हो गया था। राजेन्द्र यादव ने अब प्रमोद से कहा- ‘तू जा यहाँ से।’ उनकी आज्ञा मिलते ही प्रमोद आज्ञाकारी बच्चे की तरह चला गया। अब राजेन्द्र यादव ने मुझसे कहा- पुलिस को कुछ नहीं बताना है। मैंने कहा- ‘यह नहीं होगा सर। आपके सामने, आपके घर में इतनी बुरी हरकत हुई है मेरे साथ। आपसे मैं बार-बार फोन पर कहती रही कि आप प्रमोद से बात कीजिए लेकिन आपने वह भी नहीं किया। अब मैं पुलिस को सारी बात बताऊँगी।’

यदि मेरे मन में कोई चोर होता तो मैं वहाँ डर जाती। मेरे मन में कोई चोर नहीं था, इसलिए मैं डरी नहीं। मेरे अंदर सिर्फ इतनी बात थी कि मेरे साथ जो हुआ है, वह गलत हुआ है। इसलिए मैं पुलिस में शिकायत करूँगी।

राजेन्द्र यादव लगातार मुझे समझाते रहे कि पुलिस में शिकायत करने से कुछ नहीं होगा। सौ नंबर पर उन्होंने रिडायल किया, शायद यह कन्फर्म करने के लिए कि उनके घर से पुलिस के पास फोन गया था या नहीं? जब उधर से कहा गया कि फोन आया था तो यादवजी ने कहा- ‘अब पुलिस को भेजने की जरूरत नहीं है। आपसी मारपीट थी। अब सुलझ गया सब कुछ।’

मैं वहीं बैठी थी। मैने दुबारा फोन मिलाया कि पुलिस अभी तक नहीं आई? दूसरी तरफ से मुझसे सवाल पूछा गया- ‘मैडम आप इतनी सुरक्षित तो हैं ना, जितनी देर में पुलिस आप तक पहुँच सके?’

मैंने कहा- सुरक्षित हूँ। प्रमोद बाहर बैठा है और राजेन्द्र यादव फोन पर किसी से बात कर रहे हैं।

पुलिस आई। उन्होंने प्रमोद को थाने ले जाने के लिए पकड़ा। साथ में मुझे भी बयान के लिए ले जा रहे थे। राजेन्द्र यादव ने पुलिस वाले से कहा- ‘क्या इतनी छोटी सी बात के लिए ले जा रहे हो? बैठो यहाँ। स्कॉच लोगे या व्हीस्की? मेरे पास 21 साल पुरानी शराब है। एक से एक अच्छी शराब है। कहो क्या लोगे?’

लेकिन पुलिस वाले ने कहा- ‘सर लड़की के साथ ऐसा हुआ है। यह छोटी बात नहीं है।’

मेरा कुर्ता खींच-तान में फट गया था। मेरे पास ऐसी खबर आ रही है कि कुछ लोग कह रहे हैं कि ज्योति ने खुद ही अपने कपड़े फाड़ लिए। कोई भी लड़की पहली बात इतनी बेशरम नहीं होती कि अपने कपड़े खुद फाड़ ले। यदि फाड़ेगी तो उसका उद्देश्य क्या होगा? सामने वाले पर इल्जाम लगाना। मैने इसके लिए प्रमोद पर आरोप नहीं लगाया है। मैंने कहा है कि यह खींच-तान में फटा है।

प्रमोद राजेन्द्र यादव के पास अप्रैल में आया है। वह राजेन्द्र यादव के घर में रहता है। उनके कमरे में सोता है। उसकी गिरफ्तारी भी राजेन्द्र यादव के घर से हुई थी।


रविवार, 6 अक्तूबर 2013

नवरात्र तथा THE HAND THAT ROCKS THE CRADLE

0 टिप्पणियाँ
नवरात्र तथा THE HAND THAT ROCKS THE CRADLE   :   कविता वाचक्नवी


नवरात्रों की इस अवधि में, जबकि सदा की भांति कल भी मैंने स्त्री के वन्दनीया होने और उसे समाज में वन्दनीया का स्थान देने की बात लिखी थी, आज पुनः एक उक्ति याद आ रही है - 
"माता निर्माता भवति"। 


बहुधा लोग इसका अर्थ यह लगाते हैं कि माँ सन्तान / व्यक्ति की निर्माता होती है। जबकि यह पूरा सत्य नहीं है। पूरा सत्य यह है कि माँ के रूप में स्त्री परिवार, समय, समाज, देश, भविष्य, जीवन, राजशाही और सब कुछ की निर्माता होती है। घर व समाज में जिस अनुपात में स्त्री के साथ अन्याय, निरादर व असमानता बढ़ेगी उसी अनुपात में क्रमशः समाज का विध्वंस व विनाश सुनिश्चित है।

इसी प्रसंग में आज कवि William Ross Wallace (1819 – May 5, 1881) की एक ऐतिहासिक कविता स्मरण आ रही है। आप सब भी इस अमूल्य कविता का आनन्द लें, प्रेरणा लें।



THE HAND THAT ROCKS THE CRADLE IS THE HAND THAT RULES THE WORLD.

      BLESSINGS on the hand of women!
        Angels guard its strength and grace.
      In the palace, cottage, hovel,
          Oh, no matter where the place;
      Would that never storms assailed it,
          Rainbows ever gently curled,
      For the hand that rocks the cradle
          Is the hand that rules the world.

      Infancy's the tender fountain,
          Power may with beauty flow,
      Mothers first to guide the streamlets,
          From them souls unresting grow—
      Grow on for the good or evil,
          Sunshine streamed or evil hurled,
      For the hand that rocks the cradle
          Is the hand that rules the world.

      Woman, how divine your mission,
          Here upon our natal sod;
      Keep—oh, keep the young heart open
          Always to the breath of God!
      All true trophies of the ages
          Are from mother-love impearled,
      For the hand that rocks the cradle
          Is the hand that rules the world.

      Blessings on the hand of women!
          Fathers, sons, and daughters cry,
      And the sacred song is mingled
          With the worship in the sky—
      Mingles where no tempest darkens,
          Rainbows evermore are hurled;
      For the hand that rocks the cradle
          Is the hand that rules the world.

शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

नारी अभिव्यक्ति का एक सशक्त ऐतिहासिक प्रयास : नूशु लिपि

11 टिप्पणियाँ
- श्रीश बेंजवाल 



मनुष्य मन हमेशा से स्वयं को अभिव्यक्त करने का इच्छुक रहा है। इसके लिये उसने विभिन्न भाषायें एवं लिपियाँ बनायी। दुनिया में अनेक भाषायें एवं लिपियाँ हैं। हाल ही में पुरानी लिपियों के बारे में पढ़ते हुये मुझे नूशु नामक एक रुचिकर एवं कम जानी जाने वाली चीनी लिपि का पता चला। नूशु का शाब्दिक अर्थ है 'महिलाओं का लेखन', नाम के अनुसार ही यह लिपि विशिष्ट रूप से महिलाओं द्वारा बनायी गयी एवं महिलाओं द्वारा ही प्रयोग की जाती थी।


अरब की तरह चीनी परम्परागत समाज में महिलाओं को पुरुषों के समान शिक्षा का अधिकार नहीं था। परम्परागत चीनी समाज पुरुषों के वर्चस्व वाला था जिसमें लड़कियों को शिक्षा की मनाही थी। इस दौरान दक्षिण चीन के दूरदराज के प्रान्त हुनान के जियांगयोंग क्षेत्र में नूशु नामक एक गुप्त लिपि विकसित हुयी। सैकड़ों सालों में गुप्त रूप से महिलाओं द्वारा ही इसका विकास एवं प्रयोग हुआ। सैकड़ों साल पुरानी इस लिपि के जन्म के समय का सटीक अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता।


यह लिपि चीनी की तरह चित्रलिपि है। यह हुनान प्रान्त के जियांगजांग क्षेत्र के कुछ हिस्सों में बोली जाने वाली तुहुआ नामक चीनी बोली के लेखन हेतु प्रयोग की जाती है। कुछ वर्णचिह्न चीनी से लिये गये हैं जबकि कुछ अलग से विकसित किये गये हैं। चीनी की तरह नूशु ऊपर से नीचे स्तम्भों में लिखी जाती है तथा स्तम्भ दायें से बायें को लिखे जाते हैं। नूशु में लिखा गया कुछ साहित्य मौजूद है।


२०वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चीन में आये सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों के पश्चात महिलाओं की शिक्षा में भागीदारी बढ़ी और नई पीढ़ी की महिलाओं ने नूशु को सीखना बन्द कर दिया। इससे धीरे-धीरे यह प्रयोग से बाहर होती गयी। इसे जानने वाली पुरानी महिलाओं की मृत्यु के साथ-साथ इसका प्रचलन घटता रहा। १९३० में चीन में जापान के आधिपत्य के दौरान जापानियों ने इस लिपि के प्रयोग को दबाने का प्रयास किया क्योंकि उन्हें भय था कि इसका प्रयोग चीनी गुप्त सन्देश भेजने के लिये कर सकते थे। १९६६-७६ के दशक में चीनी सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान भी इसका प्रयोग घटा। इसका वास्तविक लेखन करने वाली अन्तिम दो महिलाओं की क्रमशः १९९० तथा २००४ में मृत्यु हो गयी। वर्तमान में यह लिपि लगभग मृतप्राय है। इसे जानने वाले कुछ शोधकर्ता ही हैं जिन्होंने इसे जानने वाली कुछ अन्तिम महिलाओं से सीखा था। इसके संरक्षण हेतु सरकारी स्तर पर कोई विशेष प्रयास नहीं किये गये। यह दुःखद होगा कि नारी सशक्तिकरण का यह प्रतीक भविष्य की पीढ़ियों के लिये लुप्त हो जायेगा। कुछ संस्थाओं द्वारा इसके संरक्षण हेतु कुछ प्रयास किये गये हैं। इसके यूनिकोडकरण भी प्रस्तावित है।


नूशु के जन्म की कहानी रुचिकर है तथा नारीवाद के इतिहास में एक सशक्त हस्ताक्षर है। यह अभिव्यक्ति के लिये नारी की इच्छा एवं संघर्ष को दर्शाती है। एक-दो अन्य भाषाओं एवं लिपियों का भी महिलाओं से सम्बन्ध रहा है पर नूशु एकमात्र लिपि है जो कि पूरी तरह से महिलाओं को समर्पित कही जा सकती है। नूशु के बारे में अधिक जानकारी के लिये विकिपीडिया पर यह लेख पढ़ें। एक नूशु शोधकर्ता द्वारा बनायी गयी वर्ल्ड ऑफ नूशु नामक वेबसाइट भी पठनीय है।

बुधवार, 12 जून 2013

बलात्कार की न्यायिक प्रक्रिया : मामला हंस और शिकारी का

20 टिप्पणियाँ
बलात्कार की न्यायिक प्रक्रिया 

प्राक्कथन 
प्राचीन संस्कृतियों में अपने प्रति होने वाले अपराध और अपमान का बदला मज़लूम खुद लेता था। कहानी चाहे यूलिसीज़ और इडिपस की हो, चाहे रामायण और महाभारत की, बहादुरी की सारी गाथाएँ ऐसे लोगों के पराक्रम के विषय में है जिन्होंने अपराधी को दण्ड दिया ,अपने और अपने समाज के अपमान का बदला लिया और समाज में सुरक्षा की भावना लाने का प्रयास किया।
जब आधुनिक व्यवस्था आई तो संविधान का राज्य हो गया। अब किसी व्यक्ति के प्रति किया गया अपराध राज्य के प्रति किया गया अपराध माना जाने लगा। अब अपराधी को दण्ड देना राज्य का काम है- समाज को अपराध से मुक्त रखना भी। परन्तु क्या राज्य पीड़ित को न्याय दिला पा रहा है? पीड़ित निहत्था है - उसके पास आत्मरक्षा का भी हक नहीं है, अपराधी हथियारबन्द है और राज्य के बनाए सारे कानून अभियुक्त के अधिकारों की व्यवस्था कर रहे हैं। पीड़ित के पास कोई हक़ नहीं- उसे तो उसके मामले में हो रही सुनवाई की सूचना तक दिया जाना ज़रूरी नहीं। हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम,जस्टिस फार द क्रिमिनल है, न कि जस्टिस फार द विक्टिम ऑफ क्राइम। क्या पीड़ित को न्याय मिल पाता है ?
पिछले कुछ दिनों में भारत के संविधान में प्रदत्त प्रावधानों और न्याय प्रक्रिया के आधार पर उच्चतम न्यायालय द्वारा अपराधी पाए गये जिन अपराधियों को फाँसी की सजा सुनाई गई थी उनमें से दो को वास्तव में फाँसी दे दी गई। वे दोनों आतंकवाद से जुड़े थे अतः उनकी सज़ा से उठे विवाद ने एक और रंग ले लिया, जो राजनीतिक था। कसाब के पक्ष में कविताएँ लिख कर ईमेल द्वारा वितरित की गईं, अफ़ज़ल गुरु की माता, पत्नी तथा पुत्र का चित्र छापते हुये शोक व्यक्त किया गया। हममें से किसी ने भी इन हत्याकांडों में मारे गये दो सौ से भी अधिक पीड़ितों के शोकसंतप्त परिवार वालों के चित्र नहीं देखे, न ही उनकी व्यथा प्रसारित की गई। जिन्होंने अपराधी को फाँसी की सज़ा का समर्थन किया वे प्रतिक्रियावादी ठहराये गये और अपराधी के अधिकारों का समर्थन करने वाले प्रगतिशील कहलाए।
इसी प्रकार वर्ष 2012 के अन्तिम माह में 16 तारीख़ को हुए बर्बरता पूर्ण, नृशंस और क्रूर कृत्य को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ गई। दस अप्रैल 2013 को दिये वक्तव्य में हमारे प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने कहा कि 16 दिसम्बर की घटना ने हमें नया कानून बनाने और संशोधित करने पर मजबूर किया। द्रष्टव्य है कि हमारा देश स्त्री के लिये बनाये गये हर कानून के लिए हादसे का इन्तजार करता रहा है। 'रेप' के विरूद्ध बनाए गए नियम में गवाही का नियम तब बदला गया जब 1979 में मथुरा बलात्कार काण्ड हुआ और कार्यस्थल पर यौनशोषण रोकने का विशाखा दिशा निर्देश ( जो फरवरी 2013 में कानून बन गया ) तब जारी हुआ जब 1997 में राजस्थान में भंवरी देवी का बलात्कार हुआ।
मगर इस बार इंटरनेट पर अधिक सक्रिय रहने वाले नारीवादी संगठनों ने वर्ष 2013 में जस्टिस एस सी वर्मा कमेटी को सिफारिशें भेजने में आश्चर्यजनक भूमिका निभाई। वे घूरने और पीछा करने (स्टाकिंग) के अपराधों को ग़ैरज़मानती बनाना चाहती हैं, ताकि इन अपराधों की गम्भीरता को समझा जाए और न्यायोचित सजा मिले जो सही भी है, परन्तु नाबालिग, पांच छः वर्ष की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वाले अपराधियों को कठोरतम दंड देने के वे सख़्त खिलाफ हैं। गैंगरेप यानी सामूहिक बलात्कार के अपराधी को फाँसी न दिए जाने के पक्ष में उन्होंने हस्ताक्षर अभियान चलाया। अपराधी को क्या सज़ा हो इस बात पर सारा बुद्धिजीवी वर्ग साफ़़़तौर पर वामपंथ और दक्षिणपंथ के आधार पर बँटा दिखाई दिया- इनमें कुछ नारीवादी संगठन भी थे।
प्रस्तुत आलेख मैंने अगस्त सन् 2004 में लिखा था, जब धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई थी, और अपने संगठन के सहयोगियों के साथ साझा किया था। वह आलेख ज्यों का त्यों अपनी सारी दुविधाओं के साथ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रही हूँ। देखें इन नौ वर्षों में क्या बदला- सरकार, न्यायव्यवस्था, सत्ता पक्ष, विपक्ष, वामपंथी, मानवाधिकारवादी, मुजरिम, हत्यारे या पीड़ित और उनके रिश्तेदार, बेकसूर मज़लूम । देखें, कुछ बदला भी है या नहीं ?              -(शालिनी )

- शालिनी माथुर


क्राइम एन्ड पनिशमेंट यानी जुर्म और सजा पर लेखनी उठाने वालों में मैं पहली नहीं हूँ। जब से सामाजिक व्यवस्था बनी है, यह मुद्दा तभी से चर्चा में रहा है।

चौदह अगस्त 2004 को धनंजय चटर्जी नाम के व्यक्ति को फाँसी पर लटका कर सजा दी गई। उसने एक दसवीं कक्षा में पढ़ती हुई बच्ची का क़त्ल किया था, और क़त्ल से पहले बलात्कार। फाँसी उसे क़त्ल का जुर्म करने के लिए दी गई। फाँसी उसे जुर्म के चौदह साल बाद दी गई। राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका खारिज कर दी। उसके बाद पुनः उसने सर्वाच्च न्यायालय से इस आधार पर मुक्ति की याचना की, कि वह चौदह वर्ष जेल में काट चुका है। सर्वाच्च न्यायालय ने एक ही दिन में यह कह कर मामला खारिज कर दिया कि यह विलम्ब अपराधी ने जानबूझ कर स्वयं अपने ऊपर कई स्थानों से मुकदमें चलवा कर करवाया है, क़त्ल की सजा फाँसी है।

जब से ओपेन स्काइ पालिसी के तहत अनेक टी.वी चैनल आए हैं, तब से अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर अनर्गल प्रलाप करने की एक अद्भुत परम्परा प्रारम्भ हो गई है। कातिल के माँ-बाप कितने शोक संतप्त हैं यह सभी चैनल दिखाने लगे। स्टार न्यूज़ ने बताया कि हत्यारे की तीन नम्बर पर अटूट आस्था है। वह जेल की तीन नम्बर कोठरी में रहता है। उसके लिए ट्रे में नाश्ता आता है। वह नाश्ते में एक अंडा, छः टोस्ट, एक फल और एक गिलास दूध पीता है। वह खाने में तली हुई मछली, दाल, चावल, रोटी और सब्ज़ी खाता है। वह रेडियो से मनोरंजन करता है। (बेचारा टी.वी.नहीं देख पाता) उसकी बहन अनब्याही है। कातिल के प्रति दया की याचना करते हुए कुछ मानवाधिकारवादी भी दिखाए जाते रहे ।

इस बीच उस मासूम बच्ची के माता पिता जो कलकत्ता छोड़ कर मुंबई में बस गए थे, वे अपने घर से भाग कर कहीं और जा छिपे ताकि मीडिया पीछा न करे। हममें से कोई नहीं जानता कि इन चौदह वर्षां तक उस बच्ची के माँ बाप ने यह मुक़द्दमा कैसे लड़ा, वकीलों को कितनी फीस दी, कितना पैसा ख़र्च किया और अपनी मासूस बच्ची की हत्या के सदमे को बर्दाश्त करते हुए यह चौदह वर्ष कैसे काटे।

जिस बात ने मुझे बहुत द्रवित किया वह थी, एक व्यक्ति, जो मृत बच्ची का पड़ोसी रहा था तथा जिसकी बेटी उस बच्ची के साथ पढ़ती थी, हत्यारे की फाँसी वाले दिन जेल तक आया। वह चाहता था कि फाँसी ज़रूर हो। हत्यारा उस बिंल्डिग में लिफ़्टमैन था, बिंल्डिंग के बच्चों के स्कूल से घर लौटने पर उन्हें घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी उसकी थी। ज़ाहिर है वह चौदह वर्ष की बच्ची भी उस पर यक़ीन करती रही होगी। सर्वाच्च न्यायालय के वकील ने भी कहा कि अस्सी प्रतिशत से भी अधिक जनता हत्यारे को फाँसी चाहती है। हम जानते है कि फाँसी की सजा जनमत के आधार पर नहीं दी जाती। पर यह दोनों हृदयस्पर्शी बातें यह द्योतित करती हैं कि मानव हृदय आज भी पोयटिक जस्टिस चाहता है - मुजरिम को सज़ा, निर्दोष को माफ़ी।

लेकिन जुर्म और सज़ा के इस मुद्दे पर लेखनी उठाना मेरे लिए उतना सहज नहीं है, जितना किसी अन्य के लिए होता। आज से छः वर्ष पूर्व मैंने स्वयं अपने इन्हीं हाथों से लेखनी उठाकर, अपनी ओर से हस्ताक्षर करके एक दया याचिका राज्यपाल और राष्ट्रपति को सौंपी थी, जिसमें बंदिनी रामश्री के प्राणों की भीख माँगी थी। मेरी उस दया याचिका पर उसकी फाँसी की सजा उम्रकैद में बदल दी गई और आज वह औरत लखनऊ जेल में है। वह अक्सर जेल से मुझे पत्र भिजवाती रहती है। यह बात और है जिस समय मैंने वह दया याचिका लिखी थी, उस समय तक मैंने उसे देखा तक नहीं था। इस प्रकरण में प्रतिष्ठित वकील श्री आई.बी.सिंह मेरे सहयोगी थे।

एक ओैरत को हत्या के लिए माफी ओैर एक आदमी को हत्या के लिए फाँसी, कहीं यह मानदण्ड दोहरे तो नहीं ? आज पुनरावलोकन करना होगा।

मैंने पुरानी फाइलों में से निकाल कर वह दया याचिका पुनः पढ़ी। यह याचिका मैंने अखबार में 16 मार्च 1998 को छपी रिपोर्ट के आधार पर 17 मार्च 1998 को लिखी थी और 18 मार्च 1998 को राज्यपाल को सौंप दी थी ओैर राष्ट्रपति को फैक्स द्वारा प्रेषित कर दी थी। दया-याचिका के आधार पर क्षमादान का अधिकार राष्ट्रपति तथा राज्यपाल दोनों के पास समान रूप से होता है। दया के लिए हमने एक व्यक्ति की निजी एवं विशेष सामाजिक परिस्थिति को आधार बनाया था। हमने कहा था कि बंदिनी ने जेल में ही एक बच्ची को जन्म दिया, जो तीन वर्ष की हो गई पर उससे मिलने कोई नहीं आया पति तक नहीं, कि बंदिनी के साथ उसके पिता तथा भाई भी फाँसी पाने वाले हैं और बंदिनी की फाँसी के बाद उसकी पुत्री अनाथ हो जाएगी, कि जिस समाज में माता पिता के जीवित होते हुए भी पुत्री बराबरी का दर्जा नहीं पाती वहाँ निर्धनवर्ग की अनाथ तीन वर्ष की बच्ची का क्या होगा, कि बंदिनी अपने पिता व भाई के साथ सह अपराधिनी है मुख्यअभियुक्त नहीं, कि न्यायालय में सत्र परीक्षण के दौरान या अपील के दौरान किसी ने उसकी ओर से उचित बचाव या पैरोकारी नहीं की, कि बंदिनी का मामला उच्च अदालतों तक गया ही नहीं, और साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि हम नहीं चाहते कि एक व्यक्ति को केवल इस लिए क्षमा कर दिया जाए कि वह स्त्री है। हमारी दयायाचिका के विषय में अनेक अखबारों ने प्रमुखता से छापा था।

महामहिम को दया याचिका सौपनें जब मैं और गीता कुमार गए तो इस बात पर बार-बार ज़ोर दिया कि फाँसी का मामला सर्वाच्च न्यायालय तक जाना ही चाहिए। रामश्री निपट निरक्षर और इतनी निर्धन थी कि उसकी अपील उच्चतम न्यायालय तक पहुँची ही नहीं थी। उसे उच्च न्यायालय के आदेश से ही फाँसी होने वाली थी। इसके बरअक्स धनंजय चटर्जी का मामला सर्वाच्च न्यायालय तक दो बार गया और राष्ट्रपति तक भी। उसने देर करने के सारे हथकण्डे अपनाए और फाँसी की पूर्व संध्या पर भी उसने यही कहा कि वह स्वयं को दोषी नहीं समझता।

मेरा मन बार-बार अपनी दयायाचिका पर लौट जाता है। वह औरत निचली अदालत से सजा पाकर अपील के बिना 6 अप्रैल 1998 को फाँसी चढ़ जाती, अपने फैसले की कापी पाये बिना। दयायाचिका देने के कई महीने बाद हम लोगों ने उच्च न्यायालय में फीस के पैसे जमा करके बड़ी कठिनाई से फैसले की नकल फैक्स द्वारा इलाहाबाद से मँगवाई थी। फैसला पढ़ कर हम स्तब्ध रह गए थे। माननीय न्यायाधीशों ने रामश्री के विषय में लिखा था कि उसके वकील ने एक बार भी उसे निर्दोष सिद्ध करने की कोशिश ही नहीं की थी, केवल उसकी सज़ा कम करने का अनुरोध किया था, अतः न्यायाधीश के पास फाँसी देने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। फैसले के अनुसार उसके पूरे परिवार को फाँसी होनी थी।

एक निर्धन निरक्षर औरत के मामूली वकील ने मुवक्किल को निर्दाष साबित करना ज़रूरी नहीं समझा, तो जज फाँसी के अलावा क्या सज़ा देता। हमारी पूरी न्यायप्रणाली आमूलचूल परिवर्तन चाहती है। आज से छः साल पूर्व रामश्री के लिए दी गई दया याचिका का मुझे कोई मलाल नहीं।

मामला रामश्री की माफ़ी का हो या धनंजय की फाँसी का, एक बहुत बड़ा सवाल जो हमारे सामने खड़ा है , वह यह कि हर जुर्म की सज़ा पाने के लिए सिर्फ ग़रीब लोग ही जेल में क्यों है?

जुर्म और सजा का मसला जटिल होता है और नाजुक भी। हर मसला दूसरे से अलग होता है और विशिष्ट। इसलिए हर मामले को उसकी विशिष्टता में सुलझाने का प्रावधान है। न तो हर हत्या की सजा फाँसी है और न हर चोरी की सज़़ा जेल। मै मानती हूँ कि फाँसी की सजा या तो हो ही न, और यदि हो तो न्याय प्रणाली की सारी राहों को पार करके सर्वाच्च स्तर पर तय की जाय। परन्तु जघन्य अपराधों के क्रूर अपराधियों को कड़ी सज़ा तो मिलनी ही चाहिए।

हमारी न्यायप्रणाली के अनुसार सज़ा के चार मक़सद होते हैं- रिफार्मंटिव - यानी सुधार के लिए, रेस्ट्रिक्टिव यानी अपराधी को बंद करके समाज को उससे बचाने के लिए, डिमास्ट्रेटिव - यानी समाज के अन्य अपराधियों को आगाह कर देने के लिए और रेट्रिब्यूटिव यानी जिसके प्रति अपराध हुआ है उसकी ओर से प्रतिशोध लेने के लिए।

बच्ची के साथ बलात्कार उसके बाद हत्या करने वाले जघन्य अपराधी को सजा देकर समाज को आगाह भी किया गया है और उनके माता-पिता के मन को ठंडक भी पहुँचाई गई है जिन्होंने यह चौदह लम्बे वर्ष मुकद्दमा लड़ते हुए बिताए होंगे। जघन्य हत्या के दोषी के लिए जीवन माँगने वालों ने कहा कि वह चौदह वर्ष जेल में रहा, यह सज़ा काफी है। उन्होंने यह क्यों नहीं पूछा कि हत्या जैसे स्पष्ट मामले की सुनवाई में चौदह वर्ष क्यों लगाए गए। देरी करने के लिए अपराधी दोषी था, यह सर्वाच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया। आमतौर पर ऐसे सभी मामलों में मैंने अपराधियों को तारीख़ बढ़वाते ही देखा है, और इस आधार पर मुक्त होते भी कि मामले में बहुत देर हो रही है सो बेल दे दो, और एक बार बेल हो जाए, तो समझो मुक्ति।
जरा मुड़ कर देखें, तो पाएँगे कि मथुरा बलात्कार के मामले में सारे स्त्री संगठन अपराधियों को सज़ा दिलवाने के लिए उठ खड़े हुए थे और सर्वाच्च न्यायालय द्वारा सज़ा घटा दिए जाने का स्त्री संगठनों ने कड़ा विरोध किया था। इसी प्रकार भंवरी देवी के प्रति अपराध करने वालों को सज़ा न दिये जाने के मामले में सभी स्त्री संगठन न्याय पालिका से नाराज़ हैं और अपना विरोध दर्ज कराते रहे हैं। देश में स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं, यह चर्चा जारी है। बलात्कारों और हत्याकाण्डों का ब्यौरा रखना, मेरी रुचि का विषय नहीं है, इसलिए मैं यह गिनाना नहीं चाहती कि कितने हत्यारे छूट गए। मैं तो यह जानना चाहती हूँ कि आखिर हम चाहते क्या है ? कभी अपराधी को मुक्त करदिए जाने का विरोध करना और कभी अपराधी को सज़ा दिए जाने का विरोध करना एक अन्तर्विरोधी दृष्टि का प्रतीक है। स्त्री संगठनों, मानवाधिकार संगठनो और बुद्धिजीवियों को अपने विचारों में स्पष्टता तो लानी ही होगी।

देश में बढ़ते हुए अपराध और असुरक्षा की भावना का कारण यह नहीं है कि जुर्म की कठोर सज़ा दी जाती है, यहाँ तो समस्या यह है कि असली मुजरिम को सज़ा दी ही नहीं जा पाती। जेलों में बंद कै़दियों में से केवल 10 प्रतिशत ही सज़ायाफ़्ता मुजरिम हैं,शेष 90 प्रतिशत हैं बदनसीब विचाराधीन कैदी, जिनका एक निर्णय लेने में अदालत 10 से 15 वर्ष लगाती है। तिहाड़ जेल में एक समय में बंद 8500 कैदियों में से 7114 विचारधीन कै़दी थे। असली अपराधी या तो स्वेच्छा से तारीख बढ़वाते रहते हैं, या खुले छूट जाते हैं।

भारत में, आज तक ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1860 में बनाई गई क्रूर तथा रूढ़िवादी दण्ड प्रणाली लागू है जो वकीलों और जजों के लिए लाभदायक है, मुजरिमों और मजलूमों के लिए नहीं। ये व्यवस्था निरक्षर निर्धन और कमजोर मुजरिम, तथा बदनसीब बेगुनाह मज़लूम {विक्टिम} को, चाहे वह किसी भी वर्ग का क्यों न हो, न्याय नहीं दिला सकती। हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम क्रिमिनल के अधिकारों की रक्षा करता है, पीड़ित को कोई हक नहीं देता। 

मैंने अपने संगठन की ओर से एक युवा लड़की रोमिल वाही का केस लड़ा था, जिसके सिर में कई गोलियाँ मार कर उसके ससुर और पति ने उसकी हत्या कर डाली थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में लिखा था कि उसकी हत्या से पहले उसे चार दिन तक भूखा रखा गया था। उसकी रिपोर्ट लिखने स्वयं मजिस्ट्रेट को बुलवाना पड़ा था। पुलिस ने रिपोर्ट लिखने से इन्कार कर दिया था, क्योंकि ससुर ज्वांइट डाइटेक्टर प्रासीक्यूशन थे । वे अपनी बड़ी मूँछों के कारण खुद को कर्नल वाही कहलवाना पसंद करते थे। आज वे दोनों बाप बेटा जेल में है। वे हर चार महीने बाद ज़मानत की अर्ज़ी लगाते हैं और उनकी अर्ज़ी का विरोध करने में मृत लड़की के पिता का हर बार चालीस से साठ हजार रुपया खर्च होता है। तीन चार वर्ष तक लाखों रुपया खर्च करके वे थक गए हैं, और अब यदि वे खूब पैसे लगा कर बेल का विरोध नहीं कर सकेंगे तो अपराधी इस आधार पर जमानत पा लेगें कि वे काफी समय से जेल में हैं और निर्णय नहीं हो सका है इसलिए उन्हें कब तक जेल में रखा जाए। मृत लड़की के पिता यदि निर्धन होते तो अपराधी शायद एक क्षण भी जेल में नहीं रहते। अपने इन अट्ठारह साल के अनुभव में मैने दहेज उत्पीड़न और हत्या के बीसियों मामलों में से किसी एक को भी पूरी सज़ा होते नहीं देखा। यह व्यवस्था अपराधी को शक का लाभ 'बेनेफिट आफ डाउट' देती है, अपराध का शिकार तो शिकार होने को अभिशप्त है, पहले शिकारी का, फिर व्यवस्था का।

जो लोग फाँसी की सज़ा का विरोध करना चाहते हैं, वे दण्डविधान में परिवर्तन लाने के लिए संविधान में संशोधन का प्रयास किसी और समय क्यों नहीं करते? दसवीं में पढ़ती हुई मासूम बच्ची का बलात्कार और क्रूरता से हत्या करने वाले अपराधी को मृत्युदण्ड मिलते ही उसके पक्ष में रैली निकालना, बयानबाज़ी करना और फाँसी हो जाने के बाद हाथों में दीपक लेकर उसका महिमामण्डन करते हुए यात्रा निकालना कितना अशोभनीय है, कितना असामयिक ओैर कितना क्रूर यह समझना क्या उसी का काम है जिसने अपनी बच्ची खोई है? मानवता के पक्षधर क्या इतना भी नहीं समझ सकते? 

इस बीच नागपुर में एक सनसनीखे़ज़ घटना हुई जिसमें 13 अगस्त 2004 को कचहरी के अन्दर ही औरतों के समूह ने अक्कू यादव नाम के एक अपराधी को जूते चप्पलों से पीट पीट कर मार डाला। उन्होंने उस पर लाल मिर्च और छोटे चाकुओं से हमला किया। पाँच औरतें अपराध में पकड़ी गईं। चार सौ अन्य औरतें सामने आ गईं और बोलीं कि अपराध में वे भी शामिल हैं। पाँचों औरतों को तत्काल ज़मानत मिल गई। यह अपनी तरह का अनूठा उदाहरण है जहाँ अपनी सुरक्षा, अपने सम्मान और संवेदनाओं के लिए समाज स्वयं उठ खड़ा हुआ। अक्कू यादव 12 बार हत्या और बलात्कार के जुर्म में पकड़ा गया, और हर बार ज़मानत पर छोड़ दिया गया। दस वर्ष से आंतक फैलाने वाला मुजरिम समाज के हाथ मारा गया। यह समाज का स्वायत्त निर्णय था, जहाँ पीड़ित औरतों के समूह ने तय किया कि वह अपराधी को प्रश्रय देने वाली न्यायप्रणाली का मोहताज नहीं रहेगा। भावना इसके पीछे भी उसी पोयटिक जस्टिस की है - अपराधी को सजा और निर्दोष को माफी। ऐसी घटनाएँ भारतीय न्याय-व्यवस्था के लिए ख़तरे की घण्टी हैं।

आज धनंजय चटर्जी को मासूम बच्ची की हत्या और बलात्कार के अपराध पर होने वाली फाँसी से सहमत होने का भी मुझे मलाल नहीं। यह सजाएँ अमानवीय भले ही लगें पर सिद्ध करती हैं कि समाज क्रूर और जघन्य अपराधों को सहन नहीं करेगा। हमें वह समाज बनाना है जहाँ निर्दाष निरपराध लोग भी चैन से जी सकें, जहाँ बच्चियाँ स्कूल जा सकें, पार्कों में खेल सकें, जहाँ माँ - बाप और बच्चों को हर समय बलात्कार और हत्या के खौफ के साये में न जीना पडे़, जहाँ न्यायप्रणाली का एक मात्र ध्येय केवल 99 अपराधियों को इसलिए बचाना न हो कि कहीं एक निरपराध को सजा न हो जाए, बल्कि जन सामान्य को सहज सुरक्षित जीवन जीने में मदद करना हो।

इस प्रकरण में एक अहम् मुद्दा है, मीडिया की भूमिका का। मीडिया गणतन्त्र का चौथा स्तम्भ है। नई तकनीक के कारण टी.वी और अखबार बहुत त्वरित गति से समाचार प्राप्त करके लोगों तक पहुँचाने लगे हैं। नई तकनीक ने उन्हें ताकत दी है, पर क्या उन्होंने इसका सही इस्तेमाल किया है? पत्रकार अपनी ताकत और लोकप्रियता के गर्व में इतने उन्मत्त हैं कि ये वे तय करेंगे कि न्यायवेत्ता न्याय कैसे करें, प्राध्यापक कैसे पढाए, डाक्टर के इलाज में क्या गलती है, सिपाही सरहद पर किस प्रकार लड़े और वैज्ञानिक किस विषय पर शोध करें। यह स्थिति इसलिए पैदा हो गई क्योंकि जनता तक समाचार पहुँचाने का काम पत्रकारों के पास है, वैज्ञानिक शिक्षक, समाज सेवक, न्यायवेत्ता, सिपाही की सीधी पहुँच जनता तक नहीं, वे तो अपने क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, मीडिया एक्सपर्ट कमेंट कर रहा है।

मीडिया 'न्यूज़' की जगह 'व्यूज़' दे रहा है। वह 'समाचार' की जगह 'विचार' दे रहा हैः एक पत्रकार के अपने निजी विचार। सारे पत्रकार समाज के सबसे महान सामाजिक चिन्तक नहीं हैं, यह बात स्पष्ट कर दी जानी चाहिए। उनका दायित्व है समाचार दे कर जनता के मन में विचारों को जगाना, न कि उनके मन में अपने निजी विचार ठूँसना।

इस बीच ऐसी दो गैर जिम्मेदार बाते मीडिया धनंजय चटर्जी के मामले में उठाता रहा, और समाज दोहराता रहा, वे ये कि चौदह साल की उम्रकैद वह काट चुका और बलात्कार के लिए यह सज़ा काफ़ी है। 

वास्तविकता यह है कि उम्रकैद का अर्थ है मृत्युपर्यन्त (टिल द लास्ट ब्रेथ) जेल में रहना। चौदह वर्ष की उम्रकैद केवल हिन्दी फिल्मों में दिखाई जाती है, असली उम्र कैद में सारी उम्र जेल में ही रहना पड़ता है। दूसरी बात यह कि धनंजय को हत्या के अपराध की सज़ा मिली है, न कि बलात्कार की। बलात्कार से जुड़ी मेडिकल टेस्ट आदि की प्रक्रिया इतनी जटिल अपमानजनक तथा अपर्याप्त है कि यह मामला यदि हत्या का न होता तो बच्ची के माता पिता बलात्कार का अपराध सिद्ध ही न कर पाते और यदि कर भी लेते तो धनंजय केवल सात वर्ष तक जेल की कोठरी नम्बर तीन में उबले अंडे, छः टोस्ट, दूध, तली मछली और दाल चावल खाकर रेडियो सुनते हुए समय बिताता और उसके बाद ऐसे ही अन्य अपराध करने के लिए स्वतन्त्र हो जाता।

अब दो शब्द बुद्धिजीवियों के विषय में। भारतीय गणतन्त्र में एक है पक्ष और एक है विपक्ष। अक्सर देखा गया है कि शासन जो भी निर्णय ले, उसके विरोध में आवाज उठाना ज़रूरी समझा जाता है, और अनेक बुद्धिजीवी विरोधी पक्ष में जा खड़े होना बेहद जरूरी समझते हैं। यह सच है कि सत्ता के मद में चूर होते प्रशासन के सामने न्याय की बात रखना बुद्धिजीवियों का दायित्व है, पर हमेशा ही विरोध का स्वर उठाते रहना इस वर्ग को अप्रांसगिक बना देगा।

अंहिसा में विश्वास करने वाले गाँधीवादी विचारक यदि फाँसी का विरोध करें तो यह उनकी धारणा के अनुरूप है। पर स्वयं को वामपंथी बताने वाले कम्युनिस्ट संगठनों से जुड़े तथाकथित जनवादी अपने अति बौ़द्धिक लेखों में लोकतन्त्र के विरुद्ध हथियारबन्द आन्दोलनों को सही ठहराते हैं, भले ही इनमें होने वाली हिंसा का शिकार हो कर मरने वालों में वे सब आम नागरिक हों जिनका कोई क़सूर नहीं। खेद है कि इन तथाकथित जनवादियों द्वारा उकसाए गए लोगों द्वारा की गई बेकसूरों की हत्या को जो लोग जायज मानते हैं, वे ही लोग न्याय की पूरी प्रक्रिया से गुजर कर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई उस सजा ए मौत को हिंसक बता कर उसके खिलाफ खड़े हैं जो उस बलात्कारी तथा हत्यारे को सुनाई गई जिसे कसूरवार पाया गया।

फाँसी की सज़ा किसी को भी होनी ही नहीं चाहिए, यह बात अंहिसा में विश्वास करने वाले गांधीवादी विचारक माने तो ठीक हैं, परन्तु महाश्वेता देवी जैसी विदुषी लेखिका तो अपने अनेक लेखों कहानियों और उपन्यासों में ऐसी असहनीय परिस्थितियों में जीते हुए लोगों को चित्रित करती रही हैं जिनके आगे नक्सली हिंसा में शामिल होने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। वे शोषण दमन और अन्याय के विरूद्ध हिंसात्मक प्रतिरोध को ग़लत नहीं मानतीं। ‘हज़ार चौरासी की माँ’ हो या 'नीलछवि', या ‘मास्टर साहब’ या 'घहराती घटाएँ', हिंसात्मक प्रतिरोध का चित्रण महाश्वेता देवी सहानुभूति से ही करती रही हैं, भले ही एक निरुपाय, दमित, शोषित विकल्पहीन व्यक्ति के अन्तिम विकल्प के रूप में।

मासूम बच्ची के बलात्कार और हत्या के अपराधी से निबटने का और क्या विकल्प था? अपराधी की हिमायत में खडे़ अनेक आदतन-विरोधी पक्ष रखने वाले बुद्धिजीवियों की पंक्ति में महाश्वेता देवी का खड़ा होना, मुझे अचभ्मित करता है और विचलित भी। उनके प्रति असीम सम्मान ओैर श्रद्धा रखने के बावजूद इस विषय पर मैं उनसे अपनी असहमति दर्ज कराती हूँ ।

‘मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है’ और जो जीवन हम दे नहीं सकते उसे हम ले भी नहीं सकते’ यह वाक्य कह कर तथागत सिद्धार्थ ने एक सुकोमल निर्दाष हंस का जीवन शिकारी देवव्रत से बचा लिया था। सिद्धार्थ ने यह बात निर्दाष हंस का जीवन बचाने के लिए कही थी। बचपन में पढ़ी इस कहानी का असली अर्थ भूलकर, अपने अति उत्साह में मानवाधिकार के नाम पर बुद्धिजीवी यह वाक्य हंस के स्थान पर शिकारी को बचाने के लिए इस्तेमाल करने लगे। पीड़ित की पीड़ा को पूरी तरह नजरअंदाज करके इस बार ये लोग निर्ममता से अभियुक्त ही नहीं, एक निर्मम अपराधी के पक्ष में खड़े हैं।

गणतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सही इस्तेमाल हमारी बहुत बडी जिम्मेदारी है। हमें मुँह खोलने से पहले सोचना है कि हम निर्दाष हंस को बचाएँगे या नृशंस शिकारी को। )
(शालिनी माथुर, 15 अगस्त 2004 लखनऊ)

-----------------------------------------------------------------------------------------


आज लगभग नौ साल बाद भी मामला ज्यों का त्यों है। 16 दिसम्बर 2012 की खौफनाक घटना के बाद जब पूरा देश सड़कों पर उतर कर बलात्कार व हत्या के लिए कठोरतम सजा की माँग कर रहा था, तब यह बात फिर से चर्चा में आई कि देश की भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रतिभापाटिल ने गृह विभाग की संस्तुति पर तीस लोगों की फाँसी की सजा माफ कर दी थी, जिनमें 22 ऐसे लोगों की सज़ा माफ की गई, जिन्होंने बच्चियों का बलात्कार किया था, सामूहिक हत्याकाण्डों को अंजाम दिया था और छोटे बच्चों को बर्बरतापूर्वक मार डाला था। इंडियाटुडे (22 दिसम्बर2012) में छपी सूचना के अनुसार मोतीराम तथा संतोष यादव बलात्कार के जुर्म में जेल में रह रहे थे, उन्हें सुधारने केलिए उन्हें जेलर के बगीचे का बागवान नियुक्त किया गया। उन्होंने जेलर की दस वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार करके उसे मार डाला। प्रतिभा पाटिल ने उसे क्षमादान दिया। सुशील मुर्मू ने एक नौ वर्षीय बच्चे का गला काट डाला इससे पहले वह अपने छोटे भाई की बलि चढ़ा चुका था, वह भी पाटिल की दया का पात्र बना। धर्मेन्द्र और नरेन्द्र यादव ने नाबालिग़ बच्ची का बलात्कार का प्रयास किया था और उनका प्रतिरोध करने पर उसके परिवार के पाँच लोगों की हत्या कर दी थी और एक दस साल के लड़के की गरदन काट कर उसका शरीर आग में झोंक दिया था। मोहन और गोपी ने एक पांच वर्ष के बच्चे का अपहरण करके उसे यातनाएँ देकर मार डाला और पाँच लाख की फिरौती माँगी।


हम सब जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय 'रेयरेस्ट आफ द रेयर केसेज' में ही मृत्युदण्ड सुनाता है। हमारे देश में खास कर हमारे उत्तर प्रदेश में पिछले एक वर्ष से सामूहिक बलात्कार के बाद छोटी बच्चियों की हत्या अखबार में प्रतिदिन छपने वाली खबर है। यह रेयर नहीं रह गई है, पर सज़ा रेयरली ही सुनाई जाती है।


भेरूसिंह बनाम राजस्थान सरकार के मामले में जिसमें अपराधी ने अपनी पत्नी तथा पाँच बच्चों की नृशंस हत्या की थी,न्यायालय ने कहा "सज़ा देने का उद्देश्य है कि अपराधी बिना सज़ा के न छूट जाए, पीड़ित तथा समाज को यह संतोष हो कि इंसाफ किया गया है। हमारी राय में सज़ा का परिमाण अपराध की क्रूरता पर निर्भर होना चाहिए,अपराधी के आचरण पर भी और असहाय तथा असुरक्षित पीड़ित की अवस्था पर भी। न्याय की माँग है कि सजा अपराध के अनुरूप हो और न्यायालय के न्याय में समाज की उस अपराध के प्रति वितृष्णा परिलक्षित हो। न्यायालय को केवल अपराधी के अधिकारों को ही नहीं, पीड़ित के अधिकारों को भी ध्यान में रखना चाहिए और समाज को भी।" ( एस सी सी पृ0 481 पृ028)

आज हमारे राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी तथाकथित बुद्धिजीवियों के उपहास व निन्दा के पात्र हैं कि उन्होंने प्रतिभा पाटिल की राह नहीं अपनाई। । अखबार में कार्टून है कि कहीं फाँसी के फंदे चीन से आयात न करने पड़ें। पत्रकार भूल रहे है कि ये सजाएँ 20-30 वर्ष पहले दी गई थीं, यदि तभी तामील हो जातीं तो शायद सज़ा का डिमान्स्ट्रेटिव तथा डिटेरेन्ट होने का लक्ष्य पूरा कर कर पातीं।

प्रणव मुखर्जी ने जिन्हें दया के योग्य नहीं समझा उनमें धरमपाल था, जो बलात्कार के अपराध में जेल गया था। बीमारी के नाम पर पैरोल पर छूटा और बलात्कार की शिकार के परिवार के पाँच लोगों को मार डाला। प्रवीण कुमार ने चार लोगों की हत्या की, रामजी और सुरेशजी चौहान ने बड़े भाई की पत्नी की चार बच्चों समेत कुल्हाड़ी से काट कर हत्या की, गुरमीत ने तीन सगे भाईयों की, उनकी पत्नियों बच्चों समेत तेरह लोगों को तलवार से काट डाला, जाफ़र अली ने अपनी पत्नी व पाँच बच्चियों को मार डाला। ( हिन्दुस्तान 5 अप्रैल 2013 )

राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने जिनको क्षमादान नहीं दिया उनमें वीरप्पन के चार साथी भी शामिल हैं। पाठकों को शायद स्मरण हो कि जब सैकड़ों हाथियों और पुलिसकर्मियों की हत्या करने वाले तस्कर वीरप्पन को पूर्ण क्षमादान का आश्वासन देकर उससे आत्मसमर्पण करवाने की बात सरकार चला रही थी तब एक शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी ने याचिका दी थी कि यदि अपराधी से समझौता ही करना या तो क्यों जंगलो की रक्षा करते हुए उसके पति को, वीरप्पन के हाथों मारे जाने दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने शहीद पुलिस अधीक्षक की पत्नी की याचिका पर सरकार द्वारा वीरप्पन से समझौते पर रोक लगा दी थी।


जेल में रहकर अपराधी को अनेक अधिकार हैं। पैरोल पर छूटकर बाहर आकर अपराधों को अंजाम देने और पीड़ित के परिवार को नेस्तानाबूत करने और गवाहों को धमकाने के उदाहरण असंख्य हैं। हमारे प्रयासों से जो कर्नल वाही पिता-पुत्र जेल गए थे वे भी अक्सर लखनऊ की जेल-रोड पर घूमते और फल सब्ज़ी खरीदते देखे जाते थे। हम सबने नीतीश कटारा के हत्यारे विकास यादव, कार से लोगों को कुचलने वाले नंदा और अपराधी मनु शर्मा को पैरोल पर छूट कर मयखानों में डिस्को डांस करते हुए दिखाई देने के समाचार पढ़े हैं।अपराधी स्वयं अपनी सुविधा के अनुसार समर्पण करते हैं। हम लोग यह सब संजय दत्त के मामले में देख ही रहे हैं, कि वे जेल में जाने के लिए 6 महीने की मोहलत माँग रहे हैं,और उनके साथ के अन्य अपराधी भी। मोहलत माँगने का हक़ मुल्ज़िम को है, क्या अपराधी अपने शिकार को कोई मोहलत देते हैं ?


शिकार के हक़ की रक्षा तो कानून भी नहीं करता। शिकार और उनके दोस्त अहबाब सिर्फ इन्तज़ार करते हैं। अभी गोण्डा में 31 वर्ष पहले हुई पुलिस के एस ओ, श्री के पी सिंह तथा 12 अन्य निर्दोषों की हत्या के अपराधियों को निचली अदालत ने फाँसी की सजा सुनाई। अखबार में सुश्री किंजल सिंह की रोते हुए तस्वीर छपी है, पिता की हत्या के समय वे चार माह की थीं, आज वे एक आइ ए एस अधिकारी हैं। इन 31 वर्षों के बीच उनकी माँ भी गुज़र गईं। (दैनिक जागरण 6 अप्रैल2013) ऐसे अपराधियों के पास सर्वोच्च न्यायालय तक जाने और वहाँ भी अपराधी पाए जाने के बाद भी दया पाने का हक है। सिर्फ पीड़ितों के पास इंसाफ़ पाने का कोई मौलिक अधिकार नहीं ।


सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डा0 ए0एस0 आनन्द ने 'विक्टिम आफ क्राइम - अनसीन साइड’ में लिखा है, " विक्टिम (मज़लूम) दुर्भाग्य से दण्डप्रक्रिया का सर्वाधिक विस्मृत और तिरस्कृत प्राणी है। एंग्लो सेक्सन प्रणाली पर आधारित अन्य प्रणालियों की भाँति हमारी दण्डप्रक्रिया भी अपराधी पर केन्द्रित है - उसके कृत्य,उसके अधिकार और उसका सुधार। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकसित देशों जैसे ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमरीका आदि ने अभागे पीड़ितों पर भी ध्यान देना शुरू किया है, जो दरअसल अपराध के सबसे बड़े शिकार होते हैं और जिनकी क्षतिपूर्ति ( रिड्रेसल ) किया ही जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्रसंघ की घोषणा 1985 के बाद अमरीका ने भी विक्टिम आफ क्राइम एक्ट बनाया। मुजरिम को ज़मानत का अधिकार एक अधिकार स्वरूप मिला है, पर पीड़ित को जमानत का विरोध करने का यह अधिकार नहीं। राज्य की इच्छा पर निर्भर है कि वह चाहे तो विरोध करे चाहे न करे। पूरी दण्डप्रक्रिया में पीड़ित की भूमिका सिवा एक गवाह के कुछ नहीं, वह भी तब, यदि सरकारी वकील चाहे। ’’ (डा0 ए0एस0 आनन्द)


मेरा यह आलेख फाँसी की सज़ा के पक्ष में लिखा गया आलेख नहीं है। यह मज़लूम के हक़ों के पक्ष में लिखा गया लेख है। यह आवाज़ पीड़ित के अधिकार के पक्ष में उठी आवाज है। हमारी दण्डप्रक्रिया क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम कहलाती है, जो क्रिमिनल को केन्द्र में रखती है - उसके अधिकार, उसकी सुविधा, उसकी सुरक्षा, उसकी खुराक, उसका परिवार, उसके परिवार का दु:ख, दंड का विरोध करने का उसका हक, उसका सुधार। निर्भया-काण्ड के अभियुक्त विनय शर्मा ने अदालत के माध्यम से अपने लिए तिहाड़ जेल में फलों अंडे और दूध से युक्त बेहतर खुराक की माँग की है कि वह परीक्षा में बैठेगा। जिन्होंने बेटी खोई है, वे क्या खा रहे होंगे, क्या उन्हें भी ऐसी माँगे रखने का कानूनी हक़ है ? जो अपराध का शिकार हुए,उस पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा न हमारी जिज्ञासा का विषय है, न हमारे कानून की।

आज जब मैं अपने इस पुराने आलेख को पुनः आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ, हमारे आदरणीय बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का जन्मदिन 14 अप्रैल है। अखबार में उनके संविधान सभा में किए गये भाषण का मुख्य अंश छपा है - "संविधान सभा के कार्य पर नज़र डालते हुए नौ दिसम्बर 1946 को हुई उसकी पहली बैठक के बाद अब दो वर्ष ग्यारह महीने और सात दिन हो जाएँगे। संविधान सभा में मेरे आने के पीछे मेरा उद्देश्य अनुसूचित जातियों की रक्षा करने से अधिक कुछ नहीं था। जब प्रारूप समिति ने मुझे उसका अध्यक्ष निर्वाचित किया तो मेरे लिए यह आश्चर्य से भी परे था। इतना विश्वास करने और सेवा का अवसर देने के लिए मैं अनुग्रहीत हूँ। मैं मानता हूँ कि कोई संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे कितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों।’’( दैनिक हिन्दुस्तान रविवार,14 अप्रैल 2013 पृ0 16)

हमारे संविधान निर्माता डाक्टर अम्बेडकर की कही हुई उक्त अन्तिम पंक्ति कितनी सरल और कितनी साधारण है, पर कितनी सारगर्भित। अच्छे लोग पीड़ित की पीड़ा को देखकर पीड़ित के अधिकार की रक्षा के लिए संविधान का इस्तेमाल करेंगे या संविधान में दी गई भाँति भाँति की न्यायिक प्रक्रियाओं का आश्रय लेकर अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करते हए अपराधियों के पक्ष में जलूस निकालते रहेंगे। हमारा समाज और संविधान भोले बेकसूर हंस की रक्षा करेगा या क़ुसूरवार बेरहम शिकारी की ?

- शालिनी माथुर,
ए 5/6 कारपोरेशन फ़्लैट्स,
 निराला नगर, लखनऊ
फोन 9839014660





मुंबई पुस्तक मेले में आयोजित चर्चा सत्र ‘बलात्कार और न्यायिक प्रक्रिया” (19 अप्रैल 2013 की रपट 

“निर्दोष हंस को बचाना है, नृशंस शिकारी को नहीं ”  

“निर्दोष हंस को बचाना है नृशंस शिकारी को नहीं”- यह बात लखनऊ से मुंबई पुस्तक मेले में आईं श्री शालिनी माथुर ने अपने वक्तव्य में कही। इस अवसर पर उन्होंने अपने आलेख “ज़ुर्म और सज़ा” का पाठ किया और स्त्री के प्रति हर तरह की हिंसा और जुड़े हुए सभी न्यायिक मुद्दों पर विस्तार से अपनी बात कही। शालिनी ने कहा कि हमें वह समाज बनाना है जहाँ निर्दोष निरपराध लोग भी चैन से जी सकें, जहाँ बच्चियाँ स्कूल जा सकें, पार्कों में खेल सकें, जहाँ माँ-बाप और बच्चों को हर समय बलात्कार और हत्या के ख़ौफ़ के साए में न जीना पड़े, जहाँ न्याय प्रणाली का एक मात्र ध्येय केवल 99 अपराधियों को इसलिए बचाना न हो कि कहीं एक निरपराध को सज़ा न हो जाए, बल्कि जन सामान्य को सहज, सुरक्षित जीवन जीने में मदद करना हो। उन्होंने आगे कहा कि 1860 से चली आ रही क्रूर तथा रूढ़िवादी दंड प्रणाली आज भी लागू है जो वकीलों तथा जजों के लिए लाभदायक है, मुज़रिमों और मजलूमों के लिए नहीं ।
इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार सुधा अरोड़ा ने कहा कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया इतनी धीमी है कि पीड़ित को न्याय मिलना लगभग असंभव है। कमज़ोर स्त्री अपने अधिकारों के प्रति न तो जागरूक है , न उसे अपने अधिकारों की जानकारी है । कहीं कुछ रास्ता दिखे भी, तो उसके पास इतना साहस नहीं है कि अपने लिए न्याय की गुहार लगा सके । देश की न्यायिक प्रक्रिया उसके लिए एक ऐसी अंतहीन यंत्रणा बन जाती है जो अपराध से अधिक आतंकित करने वाली और डरावनी होती है। जो मामले सामने आते हैं वे तो हम जान लेते हैं लेकिन देश भर में हजारों मामले दर्ज ही नहीं हो पाते क्‍योंकि पुलिस में मामले को ले जाना एक यातनादायक प्रक्रिया है . फिर पूछताछ और तफ्तीश से पीड़ित को इतना तोड़ दिया जाता है कि वह आगे जाने की हिम्मत ही नहीं करती . इस देश में भंवरी देवी के मामले को हम देख सकते हैं जिसे सारे महिला संगठनों की कोशिश के बावजूद न्‍याय नहीं मिल पाया । 
इस चर्चा में मलयालम की प्रसिद्ध लेखिका मानसी ने कहा कि हमारे युवा वर्ग के पास कोई सपने नहीं हैं, कोई लक्ष्य नहीं है इसलिए वो दिशाहारा सा है और पोर्नोग्राफ़िक सामग्री देखकर अपना समय बिताता है। उसके बाद वो उसका प्रेक्टिकल करने के लिए स्त्री के प्रति यौन हिंसा करता है। मराठी लेखिका सुषमा सोनक .ने कहा कि व्यवस्था स्त्री को कभी भी सशक्त नहीं बनाना चाहती । उसी तरह समानता का राग अलापने वाली न्यायिक प्रक्रिया पीड़ित स्त्री को बचाने की जगह अपराधी को ऐसे अवसर देती है जो न सिर्फ़ बच जाए और उस स्त्री को पुनः प्रताड़ित करे । अपराधियों को न सज़ा का भय है न समाज का। 
कथाकार रामजी यादव ने कहा कि कोई भी चीज जहाँ से दिखती है केवल वहीँ गड़बड़ नहीं होती बल्कि उसका सिरा कहीं और होता है . हमारे देश में पूँजी ने जैसा माहौल पैदा किया है वह सोच को ऊपर से नीचे तक थोपता है . स्त्री के साथ व्यव्हार और उसके प्रति धारणाएं आज काम कर रही पूँजी और उसके चरित्र का एक प्रतिबिम्ब है . अक्सर यह देखा गया है कि औद्योगिक और पूंजीवादी समाज में पुरानी जड़ताएं और संस्कृतियाँ टूटती हैं लेकिन भारत में इसका उल्टा चलन दीखता है . पूँजी ने यहाँ स्त्री को न सिर्फ एक कमोडिटी के रूप में पेश किया है बल्कि उसके प्रति सामंती धारणाओं को भी पुख्ता किया है . शासन अब ऐसे लोगों के हाथ में है जो स्त्री को इतना सॉफ्ट शिकार समझते हैं कि उसके साथ हुए दुर्व्यवहार का संज्ञान भी नहीं लेते . वे उन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते हैं जो लिंगभेद और स्त्रियों पर नियंत्रण को एक दर्शन की तरह विकसित कर रही हैं . इंटरनेट पर परोसी जा रही अश्लील सामग्री का बढ़ता व्यापार भारतीय संसद के गलियारे तक पहुँच गया है। बाज़ारवाद की आंधी ने न सिर्फ़ हमारी पूरी व्यवस्था को कब्ज़े में ले लिया है बल्कि हमारे देश की युवा पीढ़ी की मानसिकता को भी नियंत्रित कर लिया है। इसी के चलते इंटरनेट पर पोर्न का सबसे बड़ा बाज़ार पैदा किया गया है जो पूरी आबादी की वैचारिकता को नष्ट कर रहा है। इसका शिकार बनना पड़ता है देश की स्त्री जाति को- धर्म, वर्ग, जाति, वर्ण से परे। भारतीय न्यायव्यवस्था को संवेदनशील तो बनाना ही होगा, पैसे के अनियंत्रित प्रभाव को भी कम करना होगा . केवल निम्न वर्ग ही नहीं , उच्च वर्ग में भी स्त्री के साथ बलात्कार की घटना पर सजा को प्रभावशाली और कारगर बनाना होगा . 
प्रो.रवीन्द्र कात्यायन ने कहा कि तकनीक के प्रचंड आवेग ने जैसे हमारी सारी भावनाओं को अपना गुलाम बना लिया है। हमारी सोचने-समझने की शक्ति समाप्त प्राय हो चली है। इसलिए न हम अपनी आने वाली पीढ़ी को कोई सपना दे पा रहे हैं न कोई स्वस्थ माहौल। व्यवस्था पंगु है और न्यायिक प्रक्रिया पिछड़ी। ऐसे में हज़ारों सालों से चली आ रही स्त्री को गुलामी से कौन मुक्त कराएगा ? स्त्री के प्रति बढ़ते अपराधों के प्रति समाज की असंवेदनशीलता और पुलिस तथा न्याय व्यवस्था की लचर स्थिति ने हमारे समय को बहुत बेबस बना दिया है जहाँ स्त्री के लिए सुरक्षित रहते हुए सम्मान से जीना आज सबसे बड़ी चुनौती है। और अपने समय की इस बेबसी पर हमारा समाज शर्मिंदा भी नहीं होता ! 
शालिनी माथुर ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के अपराधी के प्रति अतिरिक्‍त कन्‍सर्न पर तंज करते हुए कहा - हमारी दण्ड प्रक्रिया अपराधी पर केन्द्रित है - उसके कृत्य , उसके अधिकार और उसका सुधार . ऐसे अपराधियों के पास सर्वोच्च न्यायालय तक जाने और अपराधी पाए जाने के बाद भी दया पाने का हक है .जो अपराध का शिकार हुए , उस पीडि़त व्यक्ति की पीड़ा न हमारे कानून की जिज्ञासा का विषय है , न हमारी . पीडि़तों के पास शीघ्र इंसाफ़ पाने का कोई मौलिक अधिकार नहीं . भारत का क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम क्या कभी जस्टिस फॉर द विक्टिम भी बन पाएगा ?

Related Posts with Thumbnails