मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

स्त्रीपक्षीय कविता के तेवर : 'कविता का समकाल'

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स्त्रीपक्षीय कविता के तेवर 
'कविता का समकाल'
- ऋषभ देव शर्मा


कविता का समकाल/ आलोचना/
ऋषभ देव शर्मा/2011/लेखनी/ नई दिल्ली - 110059/
500 
रुपये/ 140 पृष्ठ/
ISBN 9788192082745
कविता के सामाजिक सरोकार का दायरा बड़ा व्यापक है। वह मानवजाति के प्रत्येक प्राणी की चिंता करती है। ऐसे में वह किसी समूह को हाशिए पर छोड़कर नहीं चल सकती। बल्कि हाशिए पर छूटे हुओं को फोकस में लाए बिना वह अपने सरोकार की व्यापकता को सिद्ध नहीं कर सकती। इसीलिए आज की कविता स्त्री और दलित से लेकर जल और पृथ्वी तक की चिंता करती है। इन सबकी उपेक्षा जो की जाती रही, उसकी कुछ तो भरपाई इस तरह हो सकती है। स्त्री को वस्तु बनाकर मनुष्य होने के अधिकार तक से वंचित कर दिया गया, यह मानव इतिहास की सच्चाई है। स्त्रीपक्षीय कविता इसीलिए स्त्री के मनुष्य होने को रेखांकित करती है। यह कविता न तो अनिवार्यतः केवल स्त्री रचनाकारों द्वारा रची गई है और न पुरुषविरोधी ही है। यह तो स्त्री के मानव अधिकारों के लिए आवाज उठानेवाली कविता है। निस्संदेह इस आवाज में स्त्री रचनाकारों का स्वर अग्रणी और प्रखर होना ही चाहिए। 


उल्लेखनीय है कि किसी रचना में निहित बेहतर मानवीय सरोकारों को लेकर हस्तक्षेप करने की काबिलीयत उसके स्त्रीपक्षीय होने की मूलभूत ज़रूरत है। भारतीय स्त्री के संबंध में गढ़े गए मिथों के संदर्भ में स्त्रीपक्षीय चिंतन का मानना है कि ‘नारी की भावशुद्धि‘ की लंबी गाथाएँ पुरुषनिर्मित सीमित मनोकामनाओं का परिणाम हैं। इसी का परिणाम है कि साहित्य में गंभीर स्त्री अंकन जितना कम मिलता है, लाजवंती देवियों की भरमार उतनी ही अधिक है। ऐसी स्थिति का खुलासा करती हुई स्त्रीपक्षीय कविता इस तथ्य को रेखांकित करती है कि घरेलू औरत सिर्फ रोटी नहीं बेलती, यदि उसे समाज चलाने और राष्ट्रनिर्माण का अवसर दिया जाए तो वह अपनी योग्यता प्रमाणित कर देगी और कर भी रही है। (प्रमीला के. पी., औरत की अभिव्यक्ति एवं आदमी का अधिकार, 2004) 


स्त्रीमुक्ति को प्रतिसंस्कृति की पहल बताते हुए लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि हाशिए में अवस्थित स्त्रियों, बच्चों, मजदूरों, दलितों और प्रवंचितों की विभिन्न प्रकार के अधीशत्व से मुक्ति स्त्रीमुक्ति की चरमपरिणति होगी और इसके लिए स्त्रीपक्षीय कविता का संदेश है - 

‘‘मनुष्यता की रक्षा के लिए 
कहना नहीं, सहना तुरंत बंद कर देना होगा।"
                                               (कात्यायनी

स्त्रीकविता के तेवर का यह बदलाव काव्यभाषा के स्तर पर भी दिखाई देता है। इतिहास और परंपरा के हाथों निर्मित सभी भाषाओं में अधीशत्व के लक्षण पाए जाते है। इसीलिए स्त्री भाषा की माँग लिंग-समस्या की अपेक्षा अधिकारों के विनिमय के प्रश्न पर केंद्रित है। स्त्रीकविता इसीलिए प्रभुत्व की भाषा के स्थान पर कर्म की भाषा का विकास कर रही है जिसमें पुरुषवर्चस्ववादी यौन चुटकियों से आक्रांत अभिव्यक्ति को किनारे करके अभी तक अनकहे शब्दरूपों का चयन करने की प्रवृत्ति सामने आ रही है। इस प्रतिभाषा के निर्माण से असली संस्कृति का इजाफा हो रहा है, इसमें दो राय नहीं। 


इस संदर्भ में कुछ कविताओं की चर्चा भी यहाँ अपेक्षित है। ‘थपक थपक दिल थपक थपक‘ (2003 ई., राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110 002) की कविताओं में गगन गिल का स्वर मनुष्यता की ही चिंताओं से अनुप्रेरित है। उन्होंने विषय और भावों से लेकर भाषा और लय तक के चयन में इस कृति के गीतों में नई ज़मीन तोड़ी है। इन रचनाओं की सहजता, वेगशीलता, लोक संस्कृति के प्रति प्रीति, गाँव और प्रकृति की उन्मुक्तता, जूझते रहने की ज़िद तथा जीवन की ऊष्मा हिंदी की स्त्रीकविता के तेवर को परिपुष्ट करने वाली हैं। इस कथन को प्रमाणित करने के लिए ‘निचुड़ा-निचुड़ा‘ को देखा जा सकता है:- 

‘‘निचुड़ा निचुड़ा दिल था री माँ! 
मैला मैला डर था री माँ! 
माथा टुकता काग था री माँ! 
नीला हो गया साँस था री माँ!
 xxx
सूँघा सोती को नाग ने री माँ! 
ले गया वो मेरा श्वास था री माँ!
xxx 
अटक गया मेरा प्राण था री माँ! 
घुमड़ रुकी हर बात भी री माँ!
xxx 
जलता जलता ज़हर था री माँ! 
ऐंठ मुड़ी मेरी आँत थी री माँ! 
जड़ उखड़ गया मेरा मन था री माँ! 
कुचला गया जो एक साँप था री माँ!‘‘ 

गगन गिल की स्त्री का यह निचुड़ा निचुड़ा दिल अपनी अनिवार्य नियति से वाक़िफ है लेकिन अब अकेले रास्ते पर वापस लौटना संभव नहीं। खोल से बाहर निकलते ही नोंचने वाले पंजों, नाखूनों और डंकों के अनुभव के बाद तो शेर के पेट में चलते चले जाना भी मानो आसान हो जाता हो -

‘‘जाऊँ हूँ जी जाऊँ हूँ 
रस्ते अकेले पे 
लौटे बिना ही कहीं 
दूर चली जाऊँ हूँ 
चुप हूँ जी बहुत चुप 
चाबी फेंक ताले बंद 
सुख में है अपना जी 
भटका करे था बहुत 
बच गई जी बच गई 
किसी घने दुख से 
बच गई 
देखा भले न था 
खोल से गुपचुप बाहर 
उसमें भी नोंच दें थे 
पंजे, नाखून और डंक 
दुनिया बुनिया का क्या जी 
मैल थी, मलाल थी 
आरी चलाती जी पे 
जी का जंजाल थी 
जाऊँ हूँ जी जाऊँ हूँ 
बीहड़ निराले में 
शेर के पेट में ही 
बैठी दूर जाऊँ हूँ।‘‘ 


लोकप्रतीकों और लोककथाओं से अभिव्यक्ति का नया तेवर प्राप्त करती हुई स्त्रीकविता स्त्री के लिए मानव अधिकार का सवाल ज़ोर देकर उठाती है। ‘मैं चल तो दूँ‘ (2005 ई.,सुमन प्रकाशन, सिकंदराबाद -500 025) में संकलित कविता वाचक्नवी की कविताएँ भी इसकी पुरज़ोर गवाही देती हैं। इसमें संदेह नहीं कि कविता वाचक्नवी व्यापक मानवीय सरोकारों वाली कवयित्री हैं। उनके कविता संग्रह में रिश्तों के छीजते जाने की कसक है, प्रणय की सुखद अनुभूतियाँ हैं, एकाकीपन से उपजनेवाले अवसाद का दंश है, सामाजिक विसंगतियों का खुलासा है, उपभोक्तावाद और उत्तर आधुनिकता पर व्यंग्य है, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मुद्दे हैं, युद्ध से उपजा असुरक्षाभाव और आक्रोश है और साथ ही हैं प्रकृति, परिवेश और घर के विविधवर्णी चित्र। लेकिन जो एक स्वर इन सबमें व्यापता है, वह है - स्त्रीजीवन की मर्मांतक वेदना का स्वर। ‘भूकंप‘ कविता का एक अंश यहाँ द्रष्टव्य है -

‘‘तुम्हारे घरों की नींव 
मेरी बाँहों पर थी 
अपने घर के मान में 
सरो सामान में 
भूल गए तुम। 
मैं थोड़ा हिली 
तो लो भरभराकर गिर गए 
तुम्हारे घर। 
फटा तो हृदय 
मेरा ही।‘‘ 

कविता वाचक्नवी ने स्त्री की यातना को कई कोणों से चित्रित किया है। इस संदर्भ में उनकी एक छोटी कविता ‘उसी दिन से‘ इस प्रकार है - 

‘‘जिस दिन 
धुनिये ने 
सेमल की रुई तक को 
धुन डाला 
हवा उसी दिन से 
चिपकी जाती है 
मेरे होठों पर।‘‘ 

अपनी अभिव्यक्ति की खोज करती हुई स्त्रीकविता प्रणय के लिए भी नई भाषा ईजाद करती है - 

‘‘यह सच है, सखे! 
मेरी भाषा की गढ़न 
कविता नहीं लिख सकती, 
वाक् और अर्थ के नियंता 
सुधीजन 
चकला बेलन की चतुर्दिक परिधि में फैले आटे में 
बु़झी तीलियों से 
कविता लिखने के अपराध में 
दंडित भी करेंगे मुझे, 
बवाल भी करेंगे खूब 
पर 
तुम्हारी दाल भात छुई उँगलियाँ 
आटे में उकेरी कविता को बचा लें 
इसी विश्वास से भर 
मैं, तुम्हें 
अपने चौके में बिठा 
अपने हाथों से परोस 
लवण और शक्कर 
सब चखाना चाहती हूँ ....।
 xxx 
बचा सको 
आटे में चींटियाँ लगी कविता को 
तो दाल-भात छुआ अपना हाथ दो, सखे!‘‘
                                                  (व्रतबंध)

लोक और शास्त्र दोनों के प्रतीकों और प्रसंगों का अद्भुत जख़ीरा कविता वाचक्नवी के स्मृतिकोश में विद्यमान है। वे इस सबका उपयोग स्त्री के मानवाधिकार के संघर्ष की कविता रचने के लिए बखूबी करती हैं। ‘मैं चल तो दूँ‘, ‘जल समाधि‘, ‘उत्तरकांड‘, ‘कालपुरुष‘ और ‘गार्गी उवाच‘ में मिथकीय प्रसंगों का नया निर्वचन स्त्रीकविता के खास तेवर को उभारता है: 

‘‘ऋषि! 
तुम भले ही हाँक ले जाओ सब गाय 
और भले ही, तत्वदर्शी होने का 
अहं तुम्हारा 
रहे जीवित 
पर 
आकाश में गूँजते 
तरंगों में लहराते 
विद्युत से कौंधते 
मेरे प्रश्न तो सुनते जाओ। 
शास्त्रार्थ से तुम न दे सकोगे 
इनके उत्तर 
छूट जाएगा सारा दंभ। 
छोड़ दो गउएँ 
मूक प्राणी हैं ..... 
कुछ न कहेंगी 
हकाल ले जाओ भले, 
किंतु मैं 
रोकती हूँ तुम्हारा मार्ग, 
ठहरो .....!! 
प्रश्न तो सुनो, याज्ञवल्क्य!!!‘‘
                               (गार्गी उवाच)

इसी भाँति सविता सिंह के कविता संग्रह ‘नींद थी और रात थी‘ (2005 ई., राधाकृष्ण प्रकाशन, जी-17, जगतपुरी, दिल्ली-110 051) की कविताओं में भी स्त्रीपक्ष व्यापक मानवीय सरोकारों के साथ जुड़कर ही अभिव्यक्त हुआ है। इससे कवित्व को गरिमा मिली है तथा नारेबाजी के सतही मोह से मुक्ति भी। सविता सिंह की कविताएँ ज़ोर देकर स्त्री के सच होने की बात उठाती हैं: 

‘‘चारों तरफ़ नींद है 
प्यास है हर तरफ़ 
जागरण में भी 
उधर भी जिधर स्वप्न जाग रहे हैं 
जिधर समुद्र लहरा रहा है 
दूर तक देख सकते हैं 
समतल पथरीले मैदान हैं 
प्राचीनतम-सा लगता विश्व का एक हिस्सा 
और एक स्त्री है लाँघती हुई प्यास।‘‘
                                          (स्त्री सच है)

स्त्रीपक्षीय कविता देह की राजनीति को भी भलीभाँति समझती है और उसके पैंतरों को नाकामयाब करने पर कटिबद्ध है। ‘जैसे सौंदर्य में स्वायत्त स्त्रियाँ‘ में सविता सिंह आगाह करती हैं कि चमक कई तरह की होती है - आँख की, मन की, आत्मा की और देह की - ठीक उसी तरह जैसे भूख भी कई तरह की होती है - मन की, तन की और ज्ञान की। जो लोग चमक और भूख के सारे प्रकारों को जान लेते हैं वे मीठे जलवाले झरने के पास अपने स्वयं चुने रास्ते से पहुँचते हैं और जीवन की विरल अनंतता को जी पाते हैं और: 

‘‘वे खुश वैसी स्त्रियों की तरह होते हैं 
जो स्वायत्त होती हैं अपने सौंदर्य में।‘‘ 

और तब आता है वह मुकाम ‘जहाँ चट्टानें भाषा जानती हैं‘ : 

‘‘मैं उन सुरम्य घाटियों से गुज़र रही हूँ 
जहाँ चट्टानें भाषा जानती हैं 
ठंड महसूस करती हैं 
सिहरन में इनके भी काँपते हैं होंठ 
हरी काली कहीं 
कहीं बदरंग भूरी 
रंगों के प्रति सजग फिर भी 
जिस्म की ठोस इच्छाओं से बंधी 
प्रकृति की हर आवाज़ को सुनती हैं ये चट्टानें 
एक-एक शब्द बचाती हैं अपने भीतर 
सारे आत्मीय स्पर्श लौटाने के लिए हमें 
मैं उन सुरम्य घाटियों से गुजर रही हूँ 
एक झरना जहाँ बह रहा है 
एक लाल चिड़िया जहाँ मेरा इंतजार कर रही है।‘‘ 

निश्चय ही इस मुकाम पर पहुँचकर कविता की भाषा में स्त्री का मानुषीकरण और प्रकृति का स्त्रीकरण एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं।


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