शुक्रवार, 6 जून 2014

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कल रात एक अनुभव ऐसा हुआ जो इस देश में सामान्य अनुभव नहीं कहा जा सकता|
कल का दिन बाकी दिनों के समान वैसा ही अति व्यस्त, भागदौड़ और थकाने वाला था| यह एक सामान्य इतनी सहज हो चुकी दिनचर्या का हिस्सा है कि दिन में घर से बाहर निकलने पर भारत में सौ तरह के तनाव लौटते में संग जाते हैं ऐसे में यदि कोई महिला है तो जाने कितनी अरुचिकर स्थितियों से उसका साबका पड़ता है। तिस पर ये स्थितियाँ इतनी नियमित जीवनानुभव का भाग हो जाती हैं कि सामान्यत: इनका घटना रेखांकित भी करने जैसी घटना नहीं लगता भारतीय समाज की स्त्रियाँ ऐसी अनेक दूसरी प्रकार की घटनाओं को अपने स्त्री जीवन की सामान्य नियति मान स्वीकार किए रहती हैं और अधिक हुआ तो पुरुष को भी उसकी लम्पटता में सदाशयता से स्वीकार किए चलती हैं .... केवल ऐसा कह कर कि `आदमी की जात ही ऐसी है'... उसका होना होना मानो स्त्री के लिए मायने ही नहीं रखता। ऐसी निर्विकारता या अनासक्ति उसकी अपनी विरागता का तो दर्शन करवाती ही है साथ ही पूरुषसमाज से किसी भी प्रकार के परिवर्तन के प्रति हताश निराश हो चुकी मानसिकता की भी व्याख्या करती है। ऐसा मानना मानो इसे स्वीकार कर लेना है कि यह पुरुष समाज कतई नहीं बदल सकता, संघर्ष परिवर्तन के लिए यत्न करना भी अपनी ऊर्जा को व्यर्थ करना है। जैसे कोई यह कहे कि पशु तो पशु ठहरा, उसे तो ऐसा ही बनाया गया है और वह चाह कर भी अपने ट्यून हुए व्यक्तित्व को रत्ती भर भी बदल नहीं सकता










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