शनिवार, 30 मई 2009

तसलीमा नसरीन की कविताएँ

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तसलीमा नसरीन की कविताएँ





पिता, पति, पुत्र
(अनुवादः शम्पा भट्टाचार्य)


अगर तुम्हारा जन्म नारी के रूप मे हुआ है तो
बचपन में तुम पर
शासन करेंगे पिता
अगर तुम अपना बचपन बिता चुकी हो
नारी के रूप में
तो जवानी में तुम पर
राज करेगा पति
अगर जवानी की दहलीज़
पार कर चुकी होगी
तो बुढ़ापे में
रहोगी पुत्र के अधीन


जीवन-भर तुम पर
राज कर रहे हैं ये पुरुष
अब तुम बनो मनुष्य
क्योंकि वह किसी की नहीं मानता अधीनता -
वह अपने जन्म से ही
करता है अर्जित स्वाधीनता





सतीत्व
(अनुवादः शम्पा भट्टाचार्य)



काया कोई छुए तो हो जाउँगी नष्ट

हृदय छूने पर नहीं ?
हृदय देह में बसा रहता है निरंतर


काया के सोपान को पार किये बिना
जो अंतर गेह में करता है प्रवेश
वह कोई और ही होगा
पर जानती हूँ
वो मनुष्य नहीं होगा




तोप दागना
(अनुवादः शम्पा भट्टाचार्य)



मेरे घर के सामने स्पेशल ब्रांच के लोग
चौबीसों घंटे खड़े रहते हैं
कौन आता है कौन जाता है
कब निकलती हूँ, कब वापस आती हूँ
सब कापी में लिखकर रखते हैं
किसके साथ दोस्ती है
किसकी कमर से लिपटकर हँसती हूँ
किसके साथ फुसफुसाकर बातें करती हूँ ...सब कुछ
लेकिन एक चीज़ जिस वे दर्ज़ नहीं कर पाते
वह है - मेरे दिमाग़ में कौन-सी भावनाएँ
उमड़-घुमड़ रही है
मैं अपनी चेतना मे क्या कुछ सँजो रही हूँ
सरकार के पास तोप और कमान हैं
और मुझ जैसी मामूली मच्छर के पास है डंक


भारतवर्ष

भारतवर्ष सिर्फ भारतवर्ष नहीं है।
मेरे जन्म के पहले से ही,
भारतवर्ष मेरा इतिहास।
बगावत और विद्वेष की छुरी से द्विखंडित,
भयावह टूट-फूट अन्तस में सँजोये,
दमफूली साँसों की दौड़. अनिश्चित संभावनाओं की ओर, मेरा इतिहास।
रक्ताक्त इतिहास. मौत का इतिहास।
इस भारतवर्ष ने मुझे दी है, भाषा,
समृद्ध किया है संस्कृति से,
शक्तिमान सपनों में।
इन दिनों यही भारतवर्ष अगर चाहे, तो छीन सकता है,
मेरे जीवन से, मेरा इतिहास।
मेरे सपनों का स्वदेश।
लेकिन नि:स्व कर देने की चाह पर,
भला मैं क्यों होने लगी नि:स्व?
भारतवर्ष ने जो जन्म दिया है महात्माओं को।
उन विराट आत्माओं के हाथ
आज, मेरे थके-हारे कन्धे पर,
इस असहाय, अनाथ और अवांछित कन्धे पर।
देश से भी ज्यादा विराट हैं ये हाथ,
देश-काल के पार ये हाथ,
दुनिया भर की निर्ममता से,

मुझे बड़ी ममता से सुरक्षा देते हैं-
मदनजित, महाश्वेता, मुचकुन्द-
इन दिनों मैं उन्हें ही पुकारती हूँ- देश।
आज उनका ही, हृदय-प्रदेश, मेरा सच्चा स्वदेश।





कलकता इस बार…
(अनुवाद- सुशील गुप्ता)


इस बार कलकता ने मुझे काफी कुछ दिया,
लानत-मलामत; ताने-फिकरे,
छि: छि:, धिक्कार,
निषेधाञा
चूना-कालिख, जूतम्-पजार
लेकिन कलकत्ते ने दिया है मुझे गुपचुप और भी बहुत कुछ,
जयिता की छलछलायी-पनीली आँखें
रीता-पारमीता की मुग्धता
विराट एक आसमान, सौंपा विराटी ने
2 नम्बर, रवीन्द्र-पथ के घर का खुला बरामदा,
आसमान नहीं तो और क्या है?
कलकत्ते ने भर दी हैं मेरी सुबहें, लाल-सुर्ख गुलाबों से,
मेरी शामों की उन्मुक्त वेणी, छितरा दी हवा में.
हौले से छू लिया मेरी शामों का चिबुक,
इस बार कलकत्ते ने मुझे प्यार किया खूब-खूब.
सबको दिखा-दिखाकर, चार ही दिनों में चुम्बन लिए चार करोड्.
कभी-कभी कलकत्ता बन जाता है, बिल्कुल सगी माँ जैसा,
प्यार करता है, लेकिन नहीं कहता, एक भी बार,
कि वह प्यार करता है.
चूँकि करता है प्यार, शायद इसीलिये रटती रहती हूँ-कलकत्ता! कलकत्ता!
अब अगर न भी करे प्यार, भले दुरदुराकर भगा दे
तब भी कलकत्ता का आँचल थामे, खडी रहूँगी, बेअदब लड्की की तरह!
अगर धकियाकर हटा भी दे, तो भी मेरे कदम नहीं होंगे टस से मस!
क्यों?
प्यार करना क्या अकेले वही जानता है, मैं नही?



प्रेरित नारी

हम हैं- प्रकृति की भेजी हुई स्त्रियाँ
प्रकृति स्त्री को पुरुष की पसलियों से नहीं गढ़ती
हम हैं, प्रकृति की प्रेरित नारियाँ
प्रकृति नारी को पुरुष के अधीन नहीं रखती
हम हैं, प्रकृति की भेजी हुई स्त्रियाँ
प्रकृति स्त्री को स्वर्ग में पुरुषों के पैरों तले नहीं रखती।

प्रकृति ने स्त्री को मनुष्य बनाया है
पुरुष द्वारा निर्मित धर्म इसमें बाधा डालता है
प्रकृति ने स्त्री को मनुष्य बताया है-
समाज से अँगूठा दिखाकर ठहाके लगाता है
प्रकृति ने स्त्री को मनुष्य कहा है-
पुरुषों ने एकजुट होकर कहा है - 'नहीं'।




HAPPY MARRIAGE

My life, like a sandbar,
has been taken over by a monster of a man
who wants my body under his control
so that, if he wishes,
he can spit in my face,
slap me on the cheek,
pinch my rear;
so that, if he wishes,
he can rob me of the clothes,
take my naked beauty in his grip;
so that, if he wishes.
he can chain my feet,
with no qualms whatsoever whip me,
chop off my hands, my fingers,
sprinkle salt in the open wound,
throw ground-up black pepper in my eyes,
with a dagger can slash my thigh,
can string me up and hang me.

His goal: to control my heart
so that I would love him;
in my lonely house at night
sleepless, full of anxiety,
clutching at the window grille,
I would wait for him and sob;
tears rolling down, I would bake homemade bread,
would drink, as if they were ambrosia,
the filthy liquids of his polygynous body
so that, loving him, I would melt like wax,
not turning my eyes toward any other man.
I would give proof of my chastity all my life.

So that, loving him,
on some moonlit night
I would commit suicide
in a fit of ecstasy.





ANOTHER LIFE

Women spend the afternoon squatting on the porch,
picking lice from each other's hair.
They spend the evening feeding the little ones,
lulling them to sleep in the glow of the bottle lamp.
The rest of the night
they offer their back to be slapped and kicked by the men of the house
or sprawl half-naked on the hard wooden cot.
Crows and women greet the dawn together,
the women blowing into the oven to start the fire,
tapping on the back of the winnowing tray with five fingers
and, with two, picking out the stones.
Half their lives women pick stones from the rice.
All their lives stones pile up in their hearts,
no one there to touch them even with two fingers.



-तसलीमा नसरीन







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