रत्नावली का सच
मैंने चाहा था तुमको प्रियतम!
मन से, तन से प्रतिपल,
हर क्षण की थी कामना
तुम्हे पाने की,
तुम्ही में खो जाने की,
लेकिन-
तुम जिस रात आए,
मेरे प्रेम-पाश में बंधने,
मुझे उपकृत करने-
उस रात,
मैं मायके में थी न?
बेटी की मर्यादा
मेरे पैरों को रोक रही थी
जंजीर बन कर!
उस रात मेरे भीतर बैठी-
मर्यादित नारी जाग उठी थी
और उस नारी ने कह दिया था--
और बस,
तुम लौट गए थे हत 'अहम्' लेकर!
मैं-
मर्यादा में जकड़ी, तड़फती रही!
सच कहूँ मेरे प्रिय!
उस रात जीत गई थी नारी
और हार गई थी तुम्हारी पत्नी-
रत्नावली बेचारी!
संसार ने पाया महाकवि तुलसी-
रत्नावली रह गई युगों से झुलसी-
तन और मन की आग से!
यही है रत्नावली का सच,
जिसे तुम भी नहीं जान सके मेरे प्रिय!
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डॉ.योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरुण'