मंदाकिनी का सच
मंदाकिनी से जो एक बार मिल लेगा, वह उसे कभी भूल नहीं सकेगा। वह लड़की नहीं, किसी उपन्यास की पात्र लगती है। ऐसे पात्र जो अन्य पात्रों-कुपात्रों की भीड़ में अलग से जगमगाते हैं। कथा में उनकी भूमिका छोटी-सी होती है, पर उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा होता है कि अपनी भूमिका से वे बहुत आगे निकल जाते हैं। जैसे चाँद और चाँदनी से भरे आकाश में कोई तारा अलग से जगमगा रहा हो।
यह मंदाकिनी की आकांक्षा नहीं, उसकी नियति है। मंदाकिनी ने जान-बूझ कर कभी ऐसा करना चाहा हो, यह मुझे याद नहीं। दरअसल, वह है ही ऐसी। उसे प्रचलित कसौटियों पर सुंदर नहीं कहा जा सकता, लेकिन वह हमेशा भीड़ में अलग और सबसे आकर्षक नजर आती है। उसकी संपूर्ण अभिव्यक्ति में कुछ ऐसा है जो उसे सुंदर और शीलवान बनाता है। इन दोनों को सात्विक निखार मिलता है उसकी प्रत्युत्पन्न मति और बौद्धिक तीक्ष्णता से। उसने मुझे कई ऐसे किस्से सुनाए थे, जब उसने अपने से बड़ों को ढेर कर दिया था। एक साहब उसके साथ मनाली की सैर करना चाहते थे। मंदाकिनी ने कहा कि दिल्ली में मेरे एक लोकल गार्डियन हैं। दिल्ली से बाहर जाने के लिए मुझे उनसे अनुमति लेनी होगी। सच यह था कि उसका कोई गार्डियन नहीं था। जब वह पाँच साल की थी, उसके पिता का देहांत हो गया था। माँ चित्रकार है और पेरिस में रहती थी। एक दूसरे साहब मंदाकिनी को एक टीवी चैनल में एंकर बना रहे थे। मंदाकिनी ने उनसे कहा कि मैं पीएचडी खत्म करने के बाद ही कोई नौकरी करूँगी। इसके लिए मुझे कम से कम तीन साल इंतजार करना होगा। सच यह था कि तब तक उसने एमए भी नहीं किया था।
वही मंदाकिन जब पिछले महीने मिली, तो तरद्दुद में थी। इसके पहले मैंने उसे ऐसी दुविधा में नहीं देखा था। परेशान होने पर भी वह नहीं चाहती थी कि किसी को उसकी परेशानी की हवा लगे। एक बार उसने कहा था कि सहानुभूति प्रकट करनेवाले और उसके लिए कुछ भी उठा न रखने की कोशिश करनेवाले उसे इतने मिले थे कि अब वह उनसे कोसों दूर रहना चाहती है। उसने जिसकी भी सहानुभूति ली थी, वह कीमत वसूल करने के लिए घोड़े पर सवार हो कर उसके पास पहुँच जाता था। एक लेखक महोदय ने अपने प्रकाशक के यहाँ उसे प्रूफ रीडर लगवा दिया था। दस दिन के बाद ही उनका आग्रह हुआ कि दफ्तर से लौटते हुए मेरे घर आ जाया करना और एक घंटा मेरी किताबों के प्रूफ पढ़ दिया करना। मंदाकिनी बहुत खुश हुई कि उसे एक स्थापित लेखक के साथ काम करने का मौका मिलेगा और वह भाषा की बारीकियाँ सीख सकेगी। पहले दिन वह लेखक के घर गई, तो पता चला कि जिस उपन्यास के प्रूफ उसे पढ़ने हैं, वह अभी लिखा जाना है। महीना पूरा करने के बाद उसने यह नौकरी छोड़ दी। इससे मिलते-जुलते कारणों से उसे कई नौकरियाँ बीच में ही छोड़नी पड़ गई थीं। तब भी जब उसे पैसों की सख्त जरूरत थी। लेकिन मैंने मंदाकिनी को कभी दुखी या उदास नहीं पाया। शायद अकेले में भी हर दस मिनट पर वह खिलखिला उठती हो।
उसी मंदाकिनी के चेहरे पर आज अवसाद के बादल छाए हुए थे। चाय का प्याला आते ही वे बादल बरस पड़े। उसकी बात, जितना मुझे याद है, उसके शब्दों में ही सुनिए -- 'सर, पहली बार इतनी मुश्किल में पड़ी हूँ। आप जानते ही हैं कि किसी को प्यार करना और उसके साथ घर बसाने की बात सोचना मेरे लिए कितना मुश्किल है। बचपन से ही मेरा शरीर पुरुषों की लोलुपता का कातर साक्षी रहा है। प्रतिरोध करना मैंने बहुत बाद में सीखा। तब से मैंने किसी को अपने शिष्ट होने का फायदा उठाने नहीं दिया। शायद मेरी किस्मत ही कुछ ऐसी है कि मुझे हर बिल में साँप ही दिखाई देता है। जो अपने को जितना स्त्री समर्थक दिखाता है, उससे मुझे उतना ही डर लगता है। लेकिन इस बार एक ऐसे लड़के से मेरा पाला पड़ा है, जिसकी मनुष्यता के आगे मैं हार गई। इतना सीधा और सज्जन है कि छह महीना पहले उससे परिचय हुआ था, पर आज तक उसने मुझे छुआ तक नहीं है। सिनेमा हॉल के अंधेरे में भी। लेकिन मैं जानती हूँ कि वह हर क्षण मेरे ही बारे में सोचता रहता है। एमबीए का उसका आखिरी साल है। कल उसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ। मैं कोई जवाब नहीं दे पाई। सर, आप ही बताइए, मुझे क्या करना चाहिए।'
मैं क्या बताता। इस मामले में मेरे अनुभव ऐसे हैं कि सलाह देना असंभव जान पड़ता है। स्त्री-पुरुष संबंधों में जो पेच हैं, उनका कोई हल नहीं है। इसलिए जो भी रास्ता पकड़ो, वह कहीं न कहीं जा कर बंद हो जाता है। फिर भी, चूँकि मंदाकिनी लगातार इसरार किए जा रही थी, इसलिए हालाँकि, अगर, मगर वगैरह लगाते हुए मैंने कहा, 'मेरे खयाल से, तुम्हें अब सेट्ल हो जाना चाहिए। तुम भी नौकरी करती हो। एमबीए पूरा करने के बाद उसे भी अच्छी नौकरी मिल जाएगी। कब तक खुद भटकती रहोगी और दूसरों के भटकाव का कारण बनती रहोगी?' इस पर मंदाकिनी ठठा कर हँस पड़ी। बोली, 'आप ठीक कहते हैं। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की सीख है कि पुरुष को जितनी देर से हो सके, शादी करनी चाहिए और स्त्री को जितनी जल्दी हो सके, शादी कर लेनी चाहिए !'
एक हफ्ते बाद एक साहित्यिक कार्यक्रम के समापन पर मंदाकिनी से मुलाकात हो गई। मंडी हाउस में पेड़ों की छाँह-छाँह चलते हुए मैंने पूछा, 'तो अंत में तुमने क्या फैसला किया?' वह बेहद संजीदा हो आई। फिर मुसकराते हुए कहा, 'मैंने उससे कह दिया कि मेरी शादी हो चुकी है।' अब संजीदा होने की बारी मेरी थी। उसने मुझे भारहीन करने के लक्ष्य से कहा, 'सर, मैंने उससे कहा कि चलो, शादी के बिना ही साथ रहते हैं। पर वह राजी नहीं हुआ। बार-बार पूछता कि शादी से तुम्हें दिक्कत क्या है? एक दिन मैंने उससे कह दिया कि मेरी शादी हो चुकी है। पति इसी शहर में रहता है -- किसी और के साथ। तब से मैंने तय किया है कि मैं शादी नहीं करूँगी। जिसके साथ रहना होगा, यों ही रहूँगी। यह सुनते ही वह भाग खड़ा हुआ। फिर उससे मुलाकात नहीं हुई।'
मैंने सोचा कि मंदाकिनी को बधाई दूँ, पर मेरी आँखें गीली हो आईं। मंदाकिनी ने ही मुझे उबारा, 'सर, आप तो लड़कियों की तरह भावुक हो उठे। मुझे देखिए, कितनी सख्तजान हूँ। झूठ बोल-बोल कर अपने सच को खोज रही हूँ । उस लड़के ने मुझमें कम से कम यह विश्वास तो पैदा कर ही दिया है कि आधा-अधूरा मिला है, तो कभी पूरा भी मिलेगा।'
- राजकिशोर