एकालाप : ८
शोक गीत:एक लड़की की आत्महत्या पर
(भाग १)
- ऋषभ देव शर्मा
(भाग १)
- ऋषभ देव शर्मा
दहक रही यह चिता तुम्हारी, धधक रहे अंगारे .
तरुणि! तुम्हारे अल्हड यौवन को लपटें शृंगारें .
कौन सुन रहा है मरघट में, विकल ह्रदय का रोदन ?
केवल तीक्ष्ण हवाएं करतीं , 'सांय-सांय' अनुमोदन.
अरी कुमारी, सखी, वेदने, ओ दर्दों की बेटी !
असमय परिचित हुई मृत्यु से, और चिता में लेटी .
चिता ही है जीवन का सार.
देवि! नश्वर सारा संसार..[ १ ]
प्रसव क्षणों की महावेदना से जब मुक्ति जुटा कर.
जिस दिन पहले-पहल सखी! तुम रोईं जग में आकर .
सोच रहा था नन्हा मन, यह जीवन का वरदान मिला.
इसीलिए तो रोकर के भी, नादानी में फूल खिला.
किंतु तुम्हें क्या ज्ञात, उसी क्षण क्या जननी पर बीता.
रोया उन्मन
निर्धन बापू, देख देख घर रीता.
ज्ञात था उन्हें विश्व का सार .
बिना धन जीवन है निस्सार..[२]
खेलीं छोटे से आँगन में ,जब तुम किलक किलक कर .
भरा अंक में जब जननी ने तुमको पुलक पुलक कर.
मुस्कानों से नन्हीं बाला ! तुमने फूल खिलाए .
औ' ललाट पर निज बापू के स्नेहिल चुम्बन पाए .
रहीं खेलती और किलकती , पुलक रहीं मन ही मन.
तुम क्या जानी गृह स्वामी का कैसे सुलगा जीवन ?
निरीहों पर फणि की फुंकार.
निर्धनों पर विधि की हुंकार॥[३]
यदा कदा चलता ही रहता अन्न अभाव उपवास।
कई दिनों तक जीते रहते पीकर बस वातास.
किंतु तुम्हें तो सखी! सदा ही दूध खरीद पिलाया.
शुष्क छातियों से पिलवाती क्या निर्धन की जाया ?
रहीं अपरिचित कैसे घर में हर प्राणी जीता है.
केवल दर्द भरा है सबमें शेष सभी रीता है.
मिला उनको शून्य उपहार.
हँसा उनपर अपना संसार .. [४]
गली मुहल्ले में जाकर भी , सखी , बहुत तुम खेली.
निर्धनता किसको कहते हैं ? समझ न सकीं , सहेली!
बचपन में जितनी लीलाएं की होंगी सीता ने.
जितना स्नेह दिया गोपों को प्रिय बाला राधा ने.
रंकसुते ! तुमने भी उतनी लीला करनी चाहीं.
मन का सारा स्नेह उडेला ,सखियों की गलबाहीं .
साम्य का बचपन में विस्तार .
मुग्ध जिस पर कवि का संसार .. [५]
याद नहीं या वह दिन तुमको? मरघट की सुकुमारी !
जिस दिन नभ में रंग उड़ा था, गलियों में पिचकारी..
देख रही थीं तुम क्रीडा को, निज प्यासा मन मारे ।
स्नेहमयी माता शैया पर पड़ी रोग तन धारे.
बदन तप्त था ,बस गृहस्वामी खड़ा हुआ सिरहाने .
मन ही मन था देव मनाता , बुरा किया विधना ने !
फागुन पर बिजली का प्रहार.
सूना फाग , निर्धन घर-बार ..[६]
तरुणि! तुम्हारे अल्हड यौवन को लपटें शृंगारें .
कौन सुन रहा है मरघट में, विकल ह्रदय का रोदन ?
केवल तीक्ष्ण हवाएं करतीं , 'सांय-सांय' अनुमोदन.
अरी कुमारी, सखी, वेदने, ओ दर्दों की बेटी !
असमय परिचित हुई मृत्यु से, और चिता में लेटी .
चिता ही है जीवन का सार.
देवि! नश्वर सारा संसार..[ १ ]
प्रसव क्षणों की महावेदना से जब मुक्ति जुटा कर.
जिस दिन पहले-पहल सखी! तुम रोईं जग में आकर .
सोच रहा था नन्हा मन, यह जीवन का वरदान मिला.
इसीलिए तो रोकर के भी, नादानी में फूल खिला.
किंतु तुम्हें क्या ज्ञात, उसी क्षण क्या जननी पर बीता.
रोया उन्मन
निर्धन बापू, देख देख घर रीता.
ज्ञात था उन्हें विश्व का सार .
बिना धन जीवन है निस्सार..[२]
खेलीं छोटे से आँगन में ,जब तुम किलक किलक कर .
भरा अंक में जब जननी ने तुमको पुलक पुलक कर.
मुस्कानों से नन्हीं बाला ! तुमने फूल खिलाए .
औ' ललाट पर निज बापू के स्नेहिल चुम्बन पाए .
रहीं खेलती और किलकती , पुलक रहीं मन ही मन.
तुम क्या जानी गृह स्वामी का कैसे सुलगा जीवन ?
निरीहों पर फणि की फुंकार.
निर्धनों पर विधि की हुंकार॥[३]
यदा कदा चलता ही रहता अन्न अभाव उपवास।
कई दिनों तक जीते रहते पीकर बस वातास.
किंतु तुम्हें तो सखी! सदा ही दूध खरीद पिलाया.
शुष्क छातियों से पिलवाती क्या निर्धन की जाया ?
रहीं अपरिचित कैसे घर में हर प्राणी जीता है.
केवल दर्द भरा है सबमें शेष सभी रीता है.
मिला उनको शून्य उपहार.
हँसा उनपर अपना संसार .. [४]
गली मुहल्ले में जाकर भी , सखी , बहुत तुम खेली.
निर्धनता किसको कहते हैं ? समझ न सकीं , सहेली!
बचपन में जितनी लीलाएं की होंगी सीता ने.
जितना स्नेह दिया गोपों को प्रिय बाला राधा ने.
रंकसुते ! तुमने भी उतनी लीला करनी चाहीं.
मन का सारा स्नेह उडेला ,सखियों की गलबाहीं .
साम्य का बचपन में विस्तार .
मुग्ध जिस पर कवि का संसार .. [५]
याद नहीं या वह दिन तुमको? मरघट की सुकुमारी !
जिस दिन नभ में रंग उड़ा था, गलियों में पिचकारी..
देख रही थीं तुम क्रीडा को, निज प्यासा मन मारे ।
स्नेहमयी माता शैया पर पड़ी रोग तन धारे.
बदन तप्त था ,बस गृहस्वामी खड़ा हुआ सिरहाने .
मन ही मन था देव मनाता , बुरा किया विधना ने !
फागुन पर बिजली का प्रहार.
सूना फाग , निर्धन घर-बार ..[६]
क्रमशः]