गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

‘हंस’ के सम्पादक राजेन्द्र यादव के नाम एक खुला पत्र

14 टिप्पणियाँ

स्त्री-विमर्श के नाम पर कृपया साहित्य में प्रदूषण न फैलायें
-सुधा अरोड़ा




हंस के जून अंक का सम्पादकीय एक और स्त्री विमर्श पढ़कर एक घटना याद आ गयी।


फतेहपुर सीकरी के राजमहल में गाइड बड़े उत्साह से एक जगह का ब्यौरा देते हैं, जहाँ एक विशालकाय चौपड़ का चार खाने वाला ढाँचा है। उससे कुछ ऊपर राजा-महाराजाओं के बैठने की जगह बनी है, जहाँ से राजा चौपड़ खेलते हुए चाल का पासा फेंकते थे। हरी, पीली, लाल, नीली गोटियों की जगह हरे पीले लाल नीले रंग के वस्त्रों, आभूषणों से सजी कन्याएँ खड़ी रहती थीं और पासे को फेंककर अगर चार नम्बर आया तो उस रंग की गोटी के स्थान पर उस रंग के वस्त्रों से सजी सुसज्जित कन्या पैरों में झांझर पहने झँकारती इठलाती हुई नृत्य के अन्दाज में चार घर चलती थीं। जाहिर है, जिन नर्तकियों या कन्याओं को गोटियों का स्थानापन्न बनाने के लिए बुलाया जाता, वे राजा के महल में प्रवेश पाने को अपना अहोभाग्य समझतीं। ‘हंस’ के पन्नों पर जब भी देहवादी सामग्री परोसी जाती है, मुझे राजा इन्द्र का दरबार सजा दिखाई देता है, जहाँ अप्सराओं(!) को रिझाने लुभाने और उनके करतब देखने के लिए राजा इन्द्र बाकायदा ‘हंस’ की शतरंजी चौपड़ का पासा फेंक रहे हैं। आज बाजार ने तो स्त्री को देह तक रिड्यूस कर ही दिया है। स्त्री की अहमियत क्या है ? महज एक देह! इस देह का करतब हम छोटे-बड़े परदे पर हर वक्त देख रहे हैं। स्त्री की देह, सबसे बड़ी बिकाऊ कमोडिटी बनकर हमारे घर में घुस आयी है और हम उसे रोक नहीं पा रहे। लड़कियाँ यह कहने में शर्मिन्दगी महसूस नहीं करतीं कि आपके पास बुद्धि है, आप पढ़ाकर पैसा कमा रहे हैं, हमारे पास देह है, हम उससे पैसा कमा रही हैं और हमें फर्क नहीं पड़ता तो आप क्यों परेशान हैं ? हम या आप ऐसी औरतों की देह की आजादी में कहाँ आड़े रहे हैं ? देह उनकी, वे जैसे चाहें इस्तेमाल करें। पर छोटे-बड़े परदे पर अर्द्धनग्न औरतों की जमात को सामूहिक रूप से भोंडे प्रदर्शन करते देखना मानसिक चेतना पर लगातार प्रहार करता है। मीडिया और फिल्मों और विज्ञापनों में जिस तरह औरत की देह को परोसा जा रहा है, ‘जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक’ को उस दिखाऊ उघाड़ू प्रवृत्ति के विरोध में खड़ा होना चाहिए। आप जैसे विचारवान सम्पादक का ‘एक और स्त्री विमर्श’ तो मीडिया और बाजार के समर्थन में खड़ा, उसकी पीठ थपथपाता ही नहीं, जीभ लपलपाता दिखाई दे रहा है।


हंस का जून अंक आया और अचानक स्त्री विमर्श पर छायी धुन्ध को लेकर पटना से निकलने वाली साहिती सारिकाके सम्पादक सलिल सुधाकर औरअक्सरके वरिष्ठ सम्पादक हेतु भारद्वाज ने स्त्री विमर्श के स्वरूप से चिन्तित होकर परिचर्चाएँ आयोजित करने का निर्णय लिया। स्त्री विमर्श को लेकर न पश्चिम में कहीं कोई धुन्ध है, न भारत में। भारत में इस धुन्ध के प्रणेता आप बन रहे हैं और इस मुगालते में जी रहे हैं कि सदियों से दबी कुचली स्त्री देह को आजाद करेंगे तो एकमात्र आप ही। जो काम फिल्मों में महेश भट्ट, मीडिया में स्त्री के साथ बाजार कर रहा है और जिसे स्त्रियों की एक खास जमात स्वयं सहमति देकर अपने आप को परोस रही है, वही काम साहित्य में एक जिम्मेदार कथा मासिक का सम्पादक कर रहा है- लोलुपता और लम्पटता को बौद्धिक शब्दजाल में लपेटकर सामाजिक मान्यता प्रदान करना।


स्त्री देह को लेकर गालियाँ, अश्लीलता, छिछोरापन कब किस समाज में, किस युग में नहीं रहा ? साहित्य में वह गुलशन नन्दा की सीधी सपाट शब्दावली के दायरे से निकलकर आपके बौद्धिक आतंक का जामा पहनी हुई भाषा में आ गया है। दिक्कत यह है कि रचनात्मक साहित्यकार समाजविज्ञान से सम्बन्धित विषयों पर शोध किये बिना और सामाजिक मनोविज्ञान की बारीकियों को समझे बगैर सामाजिक स्थापनाओं के रूप में अपनी मौलिक उद्भावनाएँ दे रहा है। निजी व्याधि को साहित्यिक रूप से प्रतिष्ठित कर आप उसे समुदाय की व्याधि बनाना चाह रहे हैं।


पश्चिम में पूँजी के आधिक्य से और भारत में पूँजी के अभाव में आजादी और आधुनिकता आयी है। निम्न मध्यवर्गीय लड़कियों की माँगें और महत्वकांक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तो वह देह के बाजार से अपने लिए सुविधाएँ जुटा लेती हैं। शिकागो या न्यू्यॉर्क में चालीस डिग्री के ऊपर गर्मी पड़ती है तो लड़कियाँ ब्रॉ और शॉट्र्स में मॉल में घूमती दिखाई देती हैं। समुद्र या झील के किनारे उनका टॉपलेस में भी नज़र आना हैरानी का बायस नहीं बनता। वहाँ के बाशिन्दों को इसकी आदत हो चुकी है और वहाँ कोई ठिठककर उघड़ी हुई स्त्री देह को देखता तक नहीं। वहाँ की नैतिकता कपड़ों के आवरण से बारह निकल आयी है। भारत के बाशिन्दे अब भी नेक लाइन पर आँखें गड़ा देते हैं और जीन्स से बाहर झाँकती पैंटी के ब्रांड का लेबल पढ़ना नहीं भूलते। नैतिकता का हथियार वहीं वार करता है, जहाँ आज भी स्त्री देह को सौन्दर्य का प्रतीक और सम्मान की चीज़ माना जाता है। उसका भोंडा प्रदर्शन हमें विचलित ही करता है।


स्त्री को ‘अदर दैन बॉडीडिस्कवर करने का स्टैमिना ही नहीं रह गया है- न फिल्म निर्माताओं निर्देशकों में, न आप जैसे सम्पादकों में। अफसोस स्नोवावार्नो की कहानी ‘मेरा अज्ञात मुझे पुकारता है को छापने के बाद भी आप स्त्री देह के सौन्दर्य को उसकी सम्पूर्णता में न देखकर निचले हिस्से का सचजैसी स्थूल शब्दावली में ही देखना चाहते हैं। यह दृष्टि दोष लाइलाज है।


महिला रचनाकारों की इतनी बड़ी जमात लिख रही है अपनी समस्याओं पर। उन्हें अपनी समस्याओं के बारे में खुद बात करने दीजिए। महिलाओं की बेशुमार अन्तहीन सामाजिक समस्याएँ हैं। बेहद प्रतिकूल सामाजिक स्थितियों में, दहेज प्रताड़ना, भ्रूण हत्या और गर्भपात को झेलती, खेती मजदूरी में पसीना बहाती, घर-परिवार की आड़ी तिरछी जिम्मेदारियों को सम्भालनें और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद पति की लम्पटता, उपेक्षा या हिंसा को झेलती औरत (आपसे बेहतर कौन इस स्थिति को समझ सकता है) का एक बहुत बड़ा वर्ग है जहाँ देह की आजादी या देह मुक्ति कोई मायने नहीं रखती। आज की औरत को घर के अलावा बाहरी स्पेस से जूझना पड़ रहा है तो सोलहवीं सदी का ‘ओथेलो’ भी पुरुष के भीतर फन फैलाये जिन्दा है। बलात्कार और भ्रूण हत्यायें पहले से कई गुना बढ़ गयी हैं। ताजा रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में लिंग अनुपात एक हजार लड़कों के पीछे तीन सौ लड़कियों का रह गया है (द टेलीग्राफ: लंदन 22 जून 2008 -अमित राय) पर वह ‘हंस’ के सरोकार का मुद्दा नहीं है।


स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह-मुक्ति से ही शुरू होगा का झंडा लिए आप अरसे से घूम रहे हैं। ऐसा नहीं कि आप इसमें कामयाब नहीं हुए हैं। आजाद देह वाली स्त्रियों की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई है। हर शहर में वे पनप रही हैं। पहले सिर्फ मीडिया और कॉरपोरेट जगत में ये स्त्रियाँ अपनी देह के बूते पर फिल्मों और मॉडलिंग में जगह पाती थीं या कार्यालयों में प्रमोशन पर प्रमोशन पा जाती थीं।हंसके स्त्री देह मुक्ति अभियान से आन्दोलित हो वे साहित्य के क्षेत्र में भी देह का तांडव अपनी रचनाओं में दिखा रही हैं और देह को सीढ़ी बनाकर राजेन्द्र यादव जैसे भ्रमित सम्पादकों का भावनात्मक दोहन कर अपनी लोकप्रियता के गुब्बारे आसमान में छोड़ रही हैं। अपने इस अश्वमेघ यज्ञ में आप सहभागी बना रहे हैं- रमणिका गुप्ता और कृष्णा अग्निहोत्री को जिनकी आत्मकथाओं को साहित्य में किन कारणों से तवज्जोह दी गयी, यह किसी शोध का विषय नहीं है। आपके अनुसार योनि शब्द अश्लील और आपत्तिजनक है क्यों ‘योनि अकेली ही किसी एटम बम से कम है’। योनि शब्द से किसी भी स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति को परहेज नहीं हो सकता। परहेज तब होता है जब उसे प्रस्तुत करने के नजरिये में खोट दिखाई देता है।हंसके जुलाई अंक में ही फरीदाबाद के डॉ. रामवीर ने इस पर सटीक टिप्पणी कर दी है| कृपया प्रेमचन्द की पत्रिकाहंसके साथजनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिककी BI लाइन हटाकरस्त्री देह की आजादी का मुखपत्ररख दें पचास साल बाद राजेन्द्र यादव के साहित्यिक अवदान को कितना याद रखा जायेगा, इसकी गारन्टी कोई नहीं दे सकता, पर स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह मुक्ति से शुरू होगा’ की उद्घोषणा के प्रथम प्रवक्ता और प्रणेता के रूप में ‘हंस’ सम्पादक का नाम अवश्य स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा।” मैं चाहती हूँ कि इस बहाने एक बुनियादी जिरह शुरू हो जिसमें स्त्री को केवल बुर्जुआ समाजशास्त्र और बाजार के देहशास्त्र के बीच रखकर ही न देखा जाए बल्कि उसकी मुक्ति के प्रश्नों को अधिक समग्रता में खाजा जा सके क्योंकि ये प्रश्न अन्ततः हमें उस दिशा की ओर ले जाते हैं कि कौन सा और कैसा समाज गढ़ना चाहते हैं। आज बाजार की सबसे बड़ी शिकार औरत ही हो रही है और वही सबसे ज्यादा दलित है और अपमानित भी। क्या हम बाजार के यूटोपिया से ही संचालित रहेंगे या इसे लाँघ कर आगे भी जाएंगे ?

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सुभाष नीरव के सौजन्य से साभार

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