अपनी गत प्रविष्टि पर सुजाता जी के दिए लिंक द्वारा अभी चोखेरबाली पढ़ कर -
यहाँ "स्त्रीविमर्श" पर कल गत पोस्ट
शीर्षक के माध्यम से अपनी बात कह ही चुकी हूँ। फिर भी, मेरे तईं यद्यपि स्त्री की स्थिति का धर्म से कुछ लेना देना नहीं है, वह पुरुष की सत्तात्मक मानसिकता की यद्यपि सारी कुंठा इस विभेद से हटकर वहन करती आई है, परन्तु निरुपमा की दुर्घटना को साझे "समाज की मानसिकता का प्रतिफल" के रूप में लिया जाना चाहिए अर्थात् सम्प्रदाय -विशेष / जातिविशेष वर्सेज़ स्त्री नहीं अपितु समस्त समाज/सभी सम्प्रदाय वर्सेज स्त्री के रूप में देखा जाना चाहिए।
निरुपमा किसी भी सम्प्रदाय (धर्म ?) में होती, उसके कुँआरे मातृत्व को स्वीकारने की हिम्मत किसी में न होती।
और इस घटना के दो बिन्दुओं ( जातिभेद के कारण हत्या या कुँआरे मातृत्व के कारण हत्या) को स्पष्ट समझते ही यह धुंध छ्टँ जानी चाहिए, ऐसी मेरी आशा है।
अब जरा इस दुर्घटना पर विचार कर लिया जाए तो चीजें स्पष्ट हों।
मैं इसे अन्तर्जातीयता के चलते की गई हत्या नहीं अपितु कुआँरे मातृत्व के चलते की गई हत्या ( यदि पितॄकुल के द्वारा हुई है तो ) मानती हूँ। उसका एक कारण है।
वह कारण यहीं स्पष्ट हो जाता है जब यह स्पष्ट हो जाए कि निरुपमा का अपने तथाकथित प्रेमी (?) से विवाह हुआ क्यों न था।
इस विवाह न होने का एकमात्र कारण क्या निरुपमा के माता-पिता थे? या कोई और भी कारण था?
यह कारण चीन्हना बहुत जरूरी है सुजाता ; क्योंकि जो लड़की महानगर में अकेली रहती है व प्रतिष्ठित पत्रकारिता से जुड़ी है, अपने पैरों पर खड़ी है, और सबसे बढ़कर जो एक पुरुष के साथ सहवास करने का साहस रखती है ( विशेषकर, उस भारतीय समाज में जहाँ विवाहपूर्व यौन सम्बन्ध मानो भयंकरतम जघन्य अपराध मानता है समाज, तिस पर उसमें इतना साहस भी है कि वह लगभग तीन माह का गर्भ वहन कर रही है ( ध्यान रहे यह वह काल होता है जब गर्भावस्था के बाह्य लक्षण सार्वजनिक रूप में दिखाई देने प्रारम्भ होने लगते हैं); ऐसी साहसी व निश्शंक लड़की का माता-पिता के अन्तर्ज़ातीय विवाह के विरोधी होने के डर-मात्र से विवाह न करना कुछ हजम नहीं होता। यदि कोई माता-पिता के डर / दबाव-मात्र से इतना संचालित होता है तो उसका भरे (भारतीय) समाज में विवाहपूर्व गर्भवती होने का साहस करना - ये दो एकदम अलग ध्रुव हैं। एक ही लड़की, वह भी बालिग व आत्मनिर्भर, विवाह करने का साहस न रखे किन्तु सहवास व कुंआरे मातृत्व का साहस रखे, यह क्या कुछ सोचने को विवश नहीं करता ?
मुझे तो विवश करता है।
...और फिर यह सोचना मुझे दिखाता है कि एक कुंआरी व सबल तथा आत्मनिर्भर माता द्वारा अपने तथाकथित प्रेमी से विवाह न करने के पीछे और भी कई गुत्त्थियाँ व राज हैं।
ये गुत्त्थियाँ ही/भी वे कारक हो सकती हैं न सुजाता (जी) जिनके कारण परिवार में झगड़ा हुआ होगा।
इसलिए पितृ-परिवार में झगड़े / विरोध / हत्या के लिए केवल अन्तर्जातीयता-मात्र के विरोध को कारक सिद्ध कर के एक सैद्धान्तिकी बनाना और धर्म के नाम पर हिंदुत्व मात्र को दोष देने की प्रथा कम से कम मेरी समझ से ऊपर की चीज है। क्षमा करें।
एक ऐसे अमानवीय समय में जबकि दो व्यक्तियों की हत्या की भर्त्सना करते हुए पूरे समाज को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए व स्त्री की सुरक्षा और उसके जीवन के मौलिक अधिकार, मातृत्व के मौलिक अधिकार की बात होनी चाहिए, सामाजिक न्यायव्यवस्था की बात होनी चाहिए; वैसे समय में ब्राह्मणवाद आदि का नाम लेकर हिन्दुत्व को धिक्कारने के प्रसंग निकालना मुझे उसी शैतानी पुरुषवाद की चाल दिखाई देते हैं जो स्त्री को अपने प्यार की फाँस में फँसा कर उसे भोग्या और वंचिता दोनों बनाता है। विवाह की जिम्मेदारी से बचता है और छलना करता है, दूसरी ओर भाई और अपना परिवार अपना पौरुष दिखाते हैं।
स्त्री क्या करे? कहाँ जाए?
किस न्यायपालिका की शरण ?
उन सब शैतान पुरुषों के लिए तो ऐसे अन्य मुद्दों का उठना बड़ा वरदान है, आरोप व सारा दोष किसी और की ओर जो हुए जा रहा है। ऊपर से उनकी लम्पटता निर्बाध चल सकती है, उस से तो सावधान करने के अवसर पर गालियाँ और कटघरे में आया कोई अन्य मुद्दा|
पुनश्च
६ मई २०१०
तथ्यों के आलोक में इन चीजों को भी जोड़ दिया जाना चाहिए -
निरुपमा को लिखा पिता का पत्र किसने जारी किया?
क्या माता पिता ने स्वयं? या प्रियभांशु ने?
प्रियभांशु के पास वह पत्र आया कैसे?
सन्देह यह जाता है कि निरुपमा की हत्या के समाचार के बाद प्रियभांशु निरुपमा के आवास पर गया होगा, तभी तो वह खोजकर पत्र जारी करता है।
यदि गया तो यह उसका सम्वैधानिक अपराध है, तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने की मंशा और उसे क्रियान्वित करना। अर्थात् प्रियभांशु ने कुछ तथ्य मिटाए भी होंगे, उड़ाए भी होंगे।
क्या यह सम्भव नहीं है कि प्रियभांशु विवाह से मुकर गया हो व निरुपाय निरुपमा अपने माता-पिता के पास इसी दुविधा में गई हो व वहाँ जा कर विवाह न होने की सम्भावना के बावजूद वह प्रियभांशु के गर्भ को नष्ट न करने की जिद्द पर हो... और ऐसी तनातनी, कहासुनी, झगड़े और विवाद का फल हो उसकी मॄत्यु!
प्रियभांशु के मोबाईल के अन्य रेकोर्ड्स की जाँच भी अनिवार्य है।
पिता का पत्र जारी करके सारे कथानक को जातिवाद के रंग में रंगने की साजिश का बड़ा मन्तव्य प्रियभांशु के अपने अपराध से ध्यान हटाने व पुलिस और मीडिया को गुमराह करने की साजिश हो।
वरना मॄत्यु की पहली सूचना के तुरन्त साथ ही प्रियभांशु अपना नाम व चित्र सार्वजनिक न होने की जद्दोजहद में न होता ( जैसा कि कई एजन्सियों ने तब कहा/लिखा/बताया था)।
वस्तुत: यह स्त्री के साथ छलनापूर्ण प्रेम कथा का पारम्परिक दुखान्त व भर्त्सनायोग्य दुष्कृत्य है। जिसकी जितनी निन्दा की जाए कम है। हत्यारों और हत्या की ओर धकेलने वालों को कड़ा दण्ड मिलना ही चाहिए।