26/05 /2008 से प्रारम्भ हुए पाक्षिक `एकालाप ' स्तम्भ के २००९ - नवम्बर ( प्रथम ) अंक में पुरुष-विमर्श शीर्षक से प्रकाशित कविता के क्रम में इस बार प्रस्तुत है उसका दूसरा भाग -
पुरुष विमर्श - २
ऋषभदेव शर्मा
ओ पिता! तुम्हारा धन्यवाद
सपनों पर पहरे बिठलाए |
भाई! तेरा भी धन्यवाद
तुम दूध छीन कर इठलाए ||
संदेहों की शरशय्या दी
पतिदेव! आपका धन्यवाद ;
बेटे! तुमको भी धन्यवाद
आरोप-दोष चुन-चुन लाए ||
मैं आज शिखर पर खड़ी हुई
इसका सब श्रेय तुम्हारा है!
तुमसब के कद से बड़ी हुई
इसका सब श्रेय तुम्हारा है!
कलकल छलछल बहती सरिता
जम गई अहल्या-शिला हुई;
मन की कोमलता कड़ी हुई
इसका सब श्रेय तुम्हारा है!