मंगलवार, 16 जून 2009

विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी

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यह लेखमाला सुश्री सुप्रणीति वरेण्या ने सन २००३ में (अपनी टीनेज़र की अल्पायु में) लिखी थी, जिसे ४३२ पृष्ठों के ग्रन्थ "स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम" (२००४) (प्रधान सम्पादक डॉ.ऋषभ देव शर्मा, सम्पादक डॉ. कविता वाचक्नवीडॉ. गोपाल शर्मा) के लिए महादेवी जी के स्त्री विषयक विचारों पर हिन्दी में अपनी तरह के पहले लेख ('शृंखला की कड़ियाँ' पर केंदित ) के रूप में प्रकाशित व सम्मिलित किया गया था | (इस ग्रन्थ में हिन्दी के प्रतिष्ठित ७० लेखकों के आलेख हैं)। 

बाद में सुश्री वरेण्या की यह लेखमाला हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं (यथा, `गवेषणा', केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा आदि ) में भी सम्मिलित हुई व राष्ट्रीय संगोष्ठियों तक में इसके ऐतिहासिक (व इस विषय पर पहली लेखमाला आदि) महत्व का उल्लेख भी हुआ, साथ ही सुश्री सुप्रणीति को ग्रन्थ में सब से कम आयु की लेखक होने का गौरव भी मिला।भारतीय दृष्टि से एक अत्यन्त संतुलित, सटीक, सही व विवेकपूर्ण स्त्रीविमर्श की दिशा तय करने की दृष्टि से महादेवी जी के इस विमर्श को बारम्बार पढ़े जाने की महती आवश्यकता है। आज उनके जन्मदिवस २६ मार्च को सुश्री वरेण्या द्वारा लिखित इस निबंध को (साहित्यकुंज से साभार) यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह लेखमाला के तीन भागों में है, जिन्हें यहाँ क्लिक कर पढ़ा जा सकता है - 



इस बार प्रस्तुत है है उक्त लेखमाला का दूसरा भाग

विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन बने तो स्त्री इतनी दयनीय रहेगी

(शृंखला की कडियाँ )
गतांक से आगे (भाग-)

एक ऐसा ही विषयअर्थ-स्वातंत्र्यहै। धन सदा सबल व्यक्ति का अनुसरण करता है। यह सत्य है कि जब भी स्त्री आर्थिक संकट से गुज़री है, उसे सदा पति, पुत्र, पिता, भाई आदि के चेहरे ताकने पड़े हैं। विवाह के पहले और बाद भी स्त्री का अपनी पैतृक संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहा। पति के घर में उसका काम रहा बच्चों का पालन-पोषण और पति का काम रहा धन की आपूर्ति। ऐसी स्थिति में पति को पत्नी और धन में कोई संबंध नहीं दिखा और आज भी आर्थिक सहायता के लिए स्त्री पुरुष पर निर्भर है। परंतु पति-पत्नी में हर पड़ाव पर संतुलन होना चाहिए, आर्थिक मामलों में भी। जब एक ओर संकट हो तो दूसरी ओर से सहयोग प्रस्तुत हो। परंतु यहाँ संतुलन नहीं है। आर्थिक मामलों में पुरुष पत्नी के हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करता और पत्नी को भी सदा पुरुष से सहयोग माँगना पड़ता है। स्त्री को कमज़ोर बनाने वाले और क्या कारक हो सकते हैं? वह कभी एक सहयोगी को मिलने योग्य आदर नहीं पा सकी। उसकी पहचान सुख के एक साधन या बोझ के रूप में ही हुई।


जब स्त्री को देवी मान लिया जाने लगा तो उससे यही अपेक्षा की गई कि वह दिए गए थोड़े-से प्रसाद को पाकर ही संतुष्ट हो जाए। फिर यह देवी आज कैसे अपने अधिकारों की माँग कर बैठी! ये परिवर्तन पुरुष के लिए असह्य थे। एक सामाजिक प्राणी होने के नाते स्त्री का अर्थ पर उतना ही अधिकार है जितना पुरुष का; जीवन-निर्वाह की समस्याएँ वह भी झेलती है। अपने जीवन के व्यवसाय को मजबूर स्त्रियों की मजबूरी भी अर्थ है। समाज में स्त्रियों की ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि उनके साथ किसी पुरुष संबंधी के होने पर उनकी साधारण सुविधाएँ भी नष्ट हो जाती हैं। यदि ऐसी स्थिति बदली जाए तो स्त्री का विद्रोह बढ़ता जाएगा, जिससे नाश के अलावा और कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती।


आज समाज में कई दुविधाओं के रहते कुछ प्रश्न खड़े हो गए हैं। हमारी मूर्खताओं और गलतियों के कारण समाज में अराजकता फैली है और सबसे बड़ी समस्या आज की शिक्षा बन गई है। जहाँ हम शिक्षा को एकता और जागृति का कारण मानते हैं, वहीं आजकल शिक्षा प्राप्त कर लोगों में विशिष्ट होने की भावना जन्म ले रही है। शिक्षा यों तो ऊँचे-नीचे, सभी वर्गों को पिरोने का काम करती है, परंतु आज शिक्षितों अशिक्षितों में ऐसी दीवार बन गई है, जिसका टूटना असंभवसा लगता है। दुविधाओं में फँसे लोगों में से यदि एक बचने का मार्ग पा जाए तो उसका यह कर्तव्य बनता है कि वह अपने बाकी बंधुओं की सहायता करे। शिक्षा प्राप्त कर समाज का एक अंग केवल स्वयं शिक्षा प्राप्त कर कैसे चैन की नींद ले सकता है, जब उसके अन्य भाई-बहन अशिक्षित बैठे हैं या फिर साक्षर हो कर ही संतुष्ट बैठे हैं, जब कि जीवन-संसार के बारे में वे कुछ नहीं जानते। शिक्षित महिला-समाज ने अनजाने में ही पुरुष-समाज की कई कमज़ोरियों को भी आत्मसात कर लिया है। उसने शिक्षा तो प्राप्त कर ली किंतु सेवा की भावना मन से भुला दी।


आजकल ऐसी स्त्रियाँ भी मिल जाएँगी जो साक्षर हैं, सरल और कोमल भी हैं, परंतु जो अक्षरज्ञान तक सीमित हैं, विवेकशक्ति उनमें नाम मात्र की भी नहीं। उनके कोमल हृदय पर अच्छे संस्कारों की छाप और अच्छे संस्कारों की नींव की आवश्यकता है।शिक्षा एक ऐसा कर्तव्य नहीं है जो किसी पुस्तक को प्रथम पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक पढ़ा देने से ही पूर्ण हो जाता, वरन् वह ऐसा कर्तव्य है जिसकी परिधि सारे जीवन को घेरे हुए है।


आजकल शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं के दो प्रकार के ध्येय हैंपुरुष की तरह स्वतंत्र जीवन-निर्वाह करना या अपने को विदुषी और शिक्षिता प्रमाणित करना ताकि अपने धन और विद्या के बल पर ऐसा पति पा सकें जो विवाह के बाद सभी सामाजिक सुविधाएँ जुटा सके ताकि भावी जीवन में स्वयं का कोई कर्तव्य रहे। परंतु इन सभी विषयों से अधिक आवश्यक है अपने देश के बच्चों का विकास और अशिक्षित स्त्रियों का विकास ताकि वे अपने बच्चों का भविष्य बनाना सीखें, ुनिया को जानें, स्वावलंबी बनें। स्त्रियों को अपना उत्तरदायित्व समझ कर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए परंतु आजकल स्त्रियाँ, पुरुषों के अनुकरण को ही अपना लक्ष्य समझ रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप धीरे-धीरे उनकी कोमल भावनाएँ रूप बदल कर कठोर हो रही हैं। महादेवी के शब्दों में – “शिक्षा के सत्य अर्थ में शिक्षित वही व्यक्ति कहा जाएगा जिसने अपनी संकीर्ण सीमा को विस्तृत, अपने संकीर्ण दृष्टिकोण को व्यापक बना लिया हो।


समाज में आजकल युवक-युवतियों के आपस में बढ़ते संपर्क से शिष्टाचार की परिधि लाँघी जा चुकी है, क्योंकि इतने खुलेपन में वे अपनी सीमाएँ निश्चित नहीं कर पाते। इस समस्या का हल या तो शक्तिबल से हो जो अनुचित ही लगता है। दूसरा मार्ग है समाज में स्त्रीपुरुष का इस चेतना से दूर रहना कि वे स्त्री-पुरुष हैं, जिसेसेक्स-कांशसनेसकहते हैं। परंतु इस मार्ग को इतना सरल नहीं माना जा सकता, यह असंभवसा ही है, क्योंकि इसका अर्थ होगा अपने गुण, स्वभाव, बनावट आदि सब कुछ छोड़कर बस अपनी आत्माओं पर ध्यान देना। सामान्य जन-समाज से ऐसी आशा का फल निराशा के रूप में मिलेगा। किंतु यदि स्त्री-पुरुष में यह चेतना है तो वे अपनी चेतना गुणों के आधार पर समाज को नया रूप देकर दृढ़ बना सकते हैं। यह भी तब तक ठीक है जब तक सामंजस्य है। यदि कहीं दोनों में से कोई एक स्वयं को उत्तम मानने लगे या स्वयं को ही सभी अधिकारों का स्वामी मान ले, तो असंतुलन होगा, जो अब भी है, जिसके बुरे परिणाम हम सब देख ही सकते हैं।


हमारे समाज में बहुत पहले से ही स्त्री-पुरुष के बीच अजीब रेखा खींची गई। विद्यार्थी जीवन में वे एक दूसरे को देखने को भी स्वतंत्र थे। इससे बचपन से ही उनके मन में एक दूसरे के प्रति कौतूहल की ऐसी भावना पैदा हुई कि वे एक दूसरे को सामान्य मानव के बजाय असाधारण समझने लगे। उस समय इसके पीछे उचित मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त रहे होंगे परंतु आज जहाँ समाज में इसके परिणाम दिख रहे हैं वे बहुत अच्छे भी प्रतीत नहीं होते। इसके विपरीत परिणाम जगह-जगह पर देखे जा सकते हैं। पश्चिम में युवक-युवतियाँ नैतिकता की मूल बातों पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते। चरित्र-निर्माण में वे पीछे छूट गए हैं। समाज को आज ऐसे युवकों की आवश्यकता है जो साहसी होने के साथ अच्छे सिद्धान्तों का पालन भी करते हों, स्त्रियों का सम्मान करते हों। आजकल स्त्रियों के मान की रक्षा करने वाल दिलेर कहाँ मिलता है? हाँ, उसके साथ बुरा व्यवहार कर उसे अपमानित करने वाले हर गली में मिल जाते हैं।


साथ में बुरी तरह से फैल रही है एक और समस्या, छोटे-छोटे विद्यार्थियों का रोमानी दुनिया में उड़ना। हर जगह पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों और चित्रों के माध्यम से प्रेम के नाम पर मूर्खतापूर्ण सामग्री परोसी जा रही है, जिसका सच्चे प्रेम से कोई संबंध नहीं है। शिक्षा के बजाय बालक-बालिकाओं, किशोरों और युवक-युवतियों पर उलटे संस्कार यहीं से पड़ते हैं और फिर वे कब दुनिया को किसी स्वप्निल आकाश की अपेक्षा उसके यथार्थ रूप में देख पाते हैं? उनकी मनोस्थिति अस्वस्थ हो जाती है।


इसी संदर्भ में वेशभूषा के विषय में महादेवी कहती हैं कि मनुष्य के हाव-भाव वेशभूषा बहुत कुछ कह सकते हैं। आजकल युवक युवतियों को विद्यार्थी का पूरा श्रेय देना भी कठिन हो जाता है, क्योंकि उन्हें सादी वेश-भूषा में नहीं देखा जा सकता, जिससे कि वे गंभीर और उत्सुक विद्यार्थी लगें। वे अब आकर्षण का केंद्र बनना चाहते हैं। स्त्रियों के विषय में वे यह तर्क करती हैं कि उनसे तपस्विनी बनने की अपेक्षा नहीं की जा सकती, परंतु जिस समाज में पुरुषों की दृष्टि ठीक नहीं और अन्य महिलाओं की स्थिति भी खराब हो वहाँ श्रृंगार छोड़ देने में क्या हानि है? उनका तर्क और बल पकड़ता है जब वे यह कहती हैं कि यदि यह श्रृंगार आत्मतुष्टि या अपने संतोष के लिए है तो फिर इसे घर तक ही क्यों नहीं सीमित कर दिया जाता, क्या इसे बाहर दिखाने की आवश्यकता है?


पुरुषों द्वारा कुचेष्टा की संभावना के बारे में यदि खुले दिमाग और आत्मविश्वास से सोचा जाए तो समस्या का हल निकल सकता है। स्त्रियाँ यदि अपने सद्भाव से इसे दूर करने की कोशिश करें तो बल प्रदर्शन से मिलने वाले परिणामों से अधिक अच्छे परिणाम मिल सकते हैं, किंतु यहाँ भी जिस पुरुष में आत्मिक परिवर्तन लाना हो, उसके आत्मिक बल का सौ गुना आत्मिक बल उसमें होना चाहिए जो परिवर्तन लाने की चेष्टा कर रहा हो।


पुरुषों को इन विभिन्न परिस्थितियों में एक समझदार सहायक के रूप में अपने को प्रस्तुत करना होगा और स्त्रियों की थोड़ी सी गलतियों की ओर इशारा करने से पहले उनकी कठिनाइयों को भी देखना होगा। यदि स्त्रियाँ व्यवहार में बहुत कटु हों तो इसका अर्थ समझ जाना चाहिए कि उन्हें सज्जन पुरुष कम और समय-समय पर धोखा देने वाले पुरुष अधिक मिले हैं।


मनुष्य जिस समाज का अंग है और सामाजिक प्राणी कहलाता है, वह केवल एक मानव-संगठन नहीं है। इस संगठन के सभी सदस्यों से सभी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा रखी जाती है। साथ में समाज के अपने अनुशासन के नियम भी होते हैं और उनके उल्लंघन पर दंड का भी विधान होता है। छिपा कर किए जाने वाले बुरे आचरण से लोगों के मन को डराने वाला अज्ञात का भय भी है, जो पारलौकिक है। उस ईश्वर के बारे में समाज की विभिन्न धारणाएँ हैं। चूँकि हर सामाजिक प्राणी किसी भी धारणा को अपनाने में स्वतंत्र है, अत: समाज में अलग-अलग धारणाएँ रखने वाले लोग मिल जाते हैं, लेकिन ये धारणाएँ सोच तक ही सीमित रह सकती हैं। मनुष्य को यह स्वतंत्रता अपने व्यवहार में नहीं है क्योंकि प्रत्येक का व्यवहार समाज को प्रभावित करता है। अतः प्राचीनकाल में भी अलग-अलग धारणा रखने वाले लोगों के अलग-अलग समाज नहीं बने।


ऐसा भी नहीं है कि व्यक्ति का पूरा जीवन बस समाज के लिए ही है। उसे निजी जीवन स्थापित रखने का अधिकार यह दर्शाता है कि मानवीय स्वभाव को बंधन नहीं रोक सकते और रोकना भी नहीं चाहिए। जब मानव समाज में पलकर बड़ा होता है तो उसकी मानसिकता में समाज के सिद्धान्तों की नींव गड़ी होती है। अपने विकास के बाद अनुचित लगने वाले सिद्धांतों पर मानव आक्षेप लगा सकता है और तब से बदलाव के रंग दीख पड़ते हैं। सिद्धांतों का रूप समाज में इसी तरह समय-समय पर बदलता रहता है।


समाज के दो मुख्य भाग हैं जो संचालन के महत्वपूर्ण अंग हैं : एक, अर्थ विभाजन और दूसरा, स्त्री-पुरुष-संबंध। किसी भी भाग में खटपट से समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है।


आर्थिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो सभी व्यक्ति एक-दूसरे से भिन्न हैं, परंतु एक-दूसरे के सहयोग से ही वे आगे बढ़ सकते हैं। इस समय समाज में ऐसे भी लोग हैं जो जीवन की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर सकते। यह समाज की लक्ष्य-भ्रष्टता है, क्योंकि समाज का संगठन ही मनुष्य ने इसलिए किया था कि उसे कभी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े। समाज में उत्पन्न अनुचित पक्षपात भी आजकल ऐसी स्थितियाँ खड़ी कर रहा है। जीवन के प्रति ऐसे हताश तथा दासत्व झेल रहे व्यक्तियों का कोई भी सरलसा समाधान संभव नहीं लगता। अपने ही सदस्यों को इतना दिशाहीन बनाने में समाज का ही हाथ है। इन स्थितियों में क्रांतियाँ बवंडरों की भाँति आती हैं और फिर युग में परिवर्तन होते हैं। क्रांति कुछ नहीं करती, बस समाज की धारा की दिशा बदल देती है, लेकिन इस से समाज का पूरा अस्तित्व ही बदल जाता है। जो समाज क्रांति को सहन करने की क्षमता रखता है, वही क्रांति से अपना रूप बचा पाता है और तब व्यापक उलट फेर के बाद स्वच्छता आती है।


स्त्री-पुरुष संबंध समाज के दूसरे आवश्यक पहलू हैं। स्त्री बर्बरता के युग में विनोद की वस्तु मानी जाती थी। पुरुष को उसकी इच्छा के बिना ही उसका अपहरण तक कर लेने की छूट थी। सभ्यता के समय स्थिति में सुधार आया। वैदिककाल सबसे आदर्शकाल प्रतीत होता है, जहाँ स्त्री का आदर-सम्मान था, वह किसी भी दृष्टि में पुरुष से हेय नहीं थी, परंतु पुरुष की अधिकार-लालसा से पतन होने लगा। आज स्त्री की स्थिति बर्बरतायुग की स्त्री की स्थिति से मिलती-जुलती है। शासन में महिलाओं के लगभग न्यून प्रतिनिधित्व के कारण सामाजिक व्यवस्था पुरुषों की सुविधानुसार हुई। केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण के छोटे उदाहरणों का सहारा ले पुरुष ने स्त्री और समाज की ओर ध्यान देना ही बंद कर दिया। समाज का कभी इस ओर ध्यान ही नहीं गया कि स्त्री-पुरुष केवल आध्यात्मिक नहीं, व्यावहारिक भी हैं। व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता एक दूसरे के बिना अपूर्ण हैं और इसलिए आज इनके अंसतुलन से समाज में असामंजस्य है।


धर्म के संबंध में यही कहा जा सकता है कि वह सुंदर और पूर्ण तभी है जब उसे हृदय ने स्वीकार किया है और आचरण ने अपनाया है। बुद्धि पर बलपूर्वक थोपा गया धर्म भावनाओं पर अपना बुरा प्रभाव ही दिखा पाता है और फिर उस धर्म का, जीवन से मिलने पर जो सौंदर्य दिखना चाहिए, वह नहीं दीख पड़ता।


समाज के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टि डालने के बाद हम यह भी देखते हैं कि एक ही जाति के सदस्यों में ही स्नेह नहीं रहा। उनमें मेल-जोल, दुःख-सुख का आदान-प्रदान क्रमशः समाप्त होता जा रहा है। इससे समाज में दूरियाँ तो बढ़ ही रही हैं, वैर भाव भी लोगों के मन में पल रहे हैं।


संस्कृतियों के प्रभाव का अवलोकन करते हुए हम पाएँगे कि जिस तरह किसी धर्म का मानव पर सही प्रभाव डालने के लिए उसके हृदय में स्थान बनाना आवश्यक है, वैसे ही संस्कृति के लिए भी मानव-मन पर छाप छोड़ना आवश्यक है। जिन-जिन संस्कृतियों ने हम पर आक्रमण कर अधिकार जमाने का प्रयास किया, वे यहाँ अधिक समय तक नहीं टिक पायीं। परंतु पाश्चात्य संस्कृति यहाँ टिकने में सफल हो गई, क्योंकि वह एक मैत्रीपूर्ण ढंग से यहाँ आई। युद्ध जैसे रूखे तरीके को अपना उसने सामाजिक संस्थाओं द्वारा यहाँ के जन-जीवन के हृदय में प्रवेश किया। आज हमारे भारतीय समाज पर दो तहें हैं, उसके प्राचीन मूल्य और पाश्चात्य संस्कृति के भिन्न विचार। हमारी संस्कृति के ऊँचे सिद्धान्तों और पाश्चात्य सभ्यता के भौतिकवाद की रस्साकशी में यह समाज जर्जर हुआ जा रहा है। यहाँ अर्थ-विभाजन सम नहीं है और स्त्री की दशा शोचनीय है।केवल शक्ति से शासन हो सकता है, समाज नहीं बन सकताजिसकी स्थिति मनुष्य के स्वच्छंद सहयोग पर निर्भर है।


हमारे देश और समाज की यह विडंबना है कि संसार के सबसे उच्चकोटि के सिद्धान्तों के होते हुए भी हम आज पिछड़े हैं। जब सुविधा के सभी उपकरण उपलब्ध हों तो कार्य पूरा करने में कैसी कठिनाई? कठिनाई तब है जब कार्य पूरा करने की कला आती हो। हमें अपने ही अमूल्य सिद्धान्तों का सदुपयोग कर जीने की कला नहीं आती, तो ये सिद्धान्त हम पर बोझ क्यों बनें?


पूरा देश जीने की इस कला से अनभिज्ञ है और इसका परिणाम सबसे अधिक महिलाओं ने सहा है। हमारे देश की महिलाएँ दूसरे देश की महिलाओं से कहीं अधिक त्यागमयी और सहनशील हैं। परंतु दोष यही रह गया कि वे जीवन की कला नहीं समझ पायीं और समाज उसी का लाभ उठा रहा है। बचपन से कन्या पति के घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियों से अवगत होने में लग जाती है, पराई अमानत कहलाती है। विधवा हो जाए तो जीवन-भर की मुसीबत तो है ही, यदि पति दुराचारी हो तो भी उसके साथ सात जन्मों की प्रार्थना करने को बाध्य है। पुरुष-प्रधान समाज के सिद्धान्तों के अनुसार स्त्री को अपनी पवित्रता का प्रमाण भी देना होगा और हर नारी यदि सीता की भाँति अग्निपरीक्षा से गुजरे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? सिद्धान्तों का असली अर्थ समझ लिया जाए वही बहुत है, उन्हें स्वयं पर लागू करना दूर की बात है। यह जानना बहुत ही असामाजिक अमानवीय प्रतीत होता है कि पुरुष स्वयं स्वतंत्रता की कामना करता है, लेकिन स्त्री से कठिन बंधनों में जकड़ी रहने की अपेक्षा करता है।


परिस्थिति का उत्तरदायित्व स्त्री पर भी आता है, क्योंकि युगों से सिद्धान्तों का भार ढोने वाली महिला ने कभी जीने की कला की ओर अपनी जिज्ञासा जागृत नहीं की। वह आज भी मूक-भाव से यंत्रणा सह रही है, परंतु उसकी इस सहनशीलता की हम प्रशंसा नहीं कर सकते, ठीक उसी तरह से जैसे कि एक मृत शरीर लाख ठोकर भी सह सकता है, लेकिन उसकी सहनशक्ति प्रशंसनीय नहीं है।


आवश्यकता आज आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों पक्षों को मजबूत करने की है। तुला में तब तक संतुलन है जब तक मात्रा-भार दोनों और समान है। मनुष्य सौहार्दपूर्ण जीने की कला सीखे तो प्रगति मार्ग अवश्य खुलेगा, सिद्धान्तों की सही रूप में पहचान भी तभी हो पाएगी।जीवन का चिह्न केवल काल्पनिक स्वर्ग में विचरण नहीं है, किन्तु संसार के कंटकाकीर्ण पथ को प्रशस्त बनाना भी है।महादेवी वर्मा अपनी कृतिश्रृंखला की कड़ियाँमें जहाँ सामाजिक परिस्थितियों पर प्रकाश डाल कर समस्याओं को जता, उनके समाधानों की ओर इंगित करती हैं, वहीं वह यह भी बताती हैं कि स्वयं नारी होकर नारी जागरण और सुधार के विषय में उनके विचार पुरुष समाज के प्रति उग्र हो सकते हैं, लेकिन वे विध्वंसात्मक नहीं हैं।अन्याय के प्रति मैं स्वभाव से असहिष्णु हूँ, अतः इन निबंधों में उग्रता की गंध स्वाभाविक है, परंतु ध्वंस के लिए ध्वंस के सिद्धान्त में मेरा कभी विश्वास नहीं रहा।


प्रगतिशीलता के इस युग में समाज को अपनी भौतिक प्रगति के साथ आत्मा के उत्थान पर भी ध्यान देना चाहिए। जहाँ नारी जागरण के प्रति शिक्षित महिलाओं के कई कर्तव्य हैं, वहाँ पुरुषों से भी सहयोग और समझदारीपूर्ण भूमिका की अपेक्षा की जाती है। बीसवीं शताब्दी के पूर्व में महादेवी वर्मा द्वारा लिखित इस कालजयी कृति के शब्द-शब्द को हम वर्तमान समाज में चरितार्थ होते देख रहे हैं। संक्षेप मेंजब तक बाह्य तथा आंतरिक विकास सापेक्ष नहीं बनते, हम जीना ही नहीं जान सकते"


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