विवाहित पुरुष की संपत्ति और आय में उसकी पत्नी का हिस्सा बराबर का माना जाए। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। बल्कि यह हर दृष्टि से स्वाभाविक औरतार्किक है। लोकतंत्र के युग में रानी की हैसियत राजा के बराबर होनी ही चाहिए।तभी राजा-रानी के बीच प्रेम स्वाभाविक रूप से स्थायी हो सकता है। मजबूरी मेंदिया जानेवाला प्रेम प्रेम नहीं, चापलूसी है। इस चापलूसी के कारण रानी को मांगहोने पर अपना शरीर भी समर्पित करना पड़ता है, इससे बड़ी व्यथा और क्या होसकती है। पुरुषों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े, तब उन्हें पता चलेगा किप्रेमहीन समर्पण कितनी अश्लील चीज है.
गतांक से आगे
राजा-रानी आधा-आधी
- राजकिशोर
- राजकिशोर
जाहिर है, पति-पत्नी के बीच यह आर्थिक व्यवस्था स्त्री की हैसियत को कमजोर करती है। पूंजीवादी व्यवस्था में आपकी हैसियत उतनी ही है आपकी जेब में जितने पैसे हैं। इस संदर्भ में याद किया जा सकता है कि स्त्रियों की परंपरागत पोशाक में जेब ही नहीं होती थी। जब पास में पैसे ही नहीं हैं, तो जेब की क्या जरूरत है। यह स्त्री के स्वाभिमान और अपने निर्णय खुद लेने की उसकी क्षमता पर जबरदस्त प्रहार है। सर्वहारा स्त्री का सामना संपत्तिशाली पति से पड़ता है और वह उसकी चापलूसी करने के लिए बाध्य हो जाती है, जिसे उसके प्रेम के नाम से जाना जाता है। स्त्री को आर्थिक रूप से स्वतंत्र करते देखिए, फिर उसके प्रेम की परीक्षा कीजिए। तब हो सकता है, बहुत-से पुरुषों को निराश होना पड़े। अभी तक उन्होंने ऐसी स्त्री का ही प्रेम जाना है जो उनके सुनहले या रुपहले पिंजड़े में कैद है। इस कैद में अपने को सुखी रखने के लिए स्त्री को पता नहीं कितने छल-छंद सीखने पड़ते हैं, जिसे त्रिया चरित्र के नाम से जाना जाता है।
इसका एक ही समाधान है कि विवाहित पुरुष की संपत्ति और आय में उसकी पत्नी का हिस्सा बराबर का माना जाए। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। बल्कि यह हर दृष्टि से स्वाभाविक और तार्किक है। लोकतंत्र के युग में रानी की हैसियत राजा के बराबर होनी ही चाहिए। तभी राजा-रानी के बीच प्रेम स्वाभाविक रूप से स्थायी हो सकता है। मजबूरी में दिया जानेवाला प्रेम प्रेम नहीं, चापलूसी है। इस चापलूसी के कारण रानी को मांग होने पर अपना शरीर भी समर्पित करना पड़ता है, इससे बड़ी व्यथा और क्या हो सकती है। पुरुषों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े, तब उन्हें पता चलेगा कि प्रेमहीन समर्पण कितनी अश्लील चीज है -- यह आदमी का स्वाभिमान नष्ट करती है और उसे गुलाम बनाती चीज है। अगर हम अपनी सभ्यता को सभ्य बनाना चाहते हैं, तो इस आर्थिक असमानता को नष्ट कर देना जरूरी है। तब तलाक के बाद अपने भरण-पोषण के लिए स्त्री अपने पुरुष की मुखापेक्षी नहीं रह जाएगी। पति और पत्नी की आर्थिक हैसियत एक जैसी होगी। इस व्यवस्था के तहत वैवाहिक जीवन में भी स्त्री पुरुष से हीन नहीं रहेगी। दोनों बराबरी का आनंद उठाएंगे और एक दूसरे को सताने के बारे में नहीं सोचेगा।
इस परिकल्पित व्यवस्था के पीछे एक मजबूत आर्थिक तर्क भी है। जब लड़की अपने मां-बाप के साए में रहती है, तो वह एक आर्थिक इकाई का सदस्य होती है। अगर मां-बाप पुरुषवादी नहीं हुए, तो उसे भी उतना ही प्रेम और सम्मान मिलता है जितना उसके भाइयों को। विवाह के बाद इस आर्थिक इकाई से उसका संबंध टूट जाता है और वह दूसरी आर्थिक इकाई का सदस्य हो जाती है। यह तार्किक नहीं है कि उसे दो-दो आर्थिक इकाइयों का लाभ मिले। इसलिए यदि यह व्यवस्था बनाई जाए कि उसे अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा न मिले, बल्कि नई आर्थिक इकाई में उसे बराबर का हिस्सेदार बनाया जाए, तो यह शायद ज्यादा उचित और व्यावहारिक होगा। मैं यह दावा नहीं करता कि यह व्यवस्था ही उत्तम है। पिता की संपत्ति में बेटी का हिस्सा रखते हुए भी ऐसी व्यवस्था बनाई जा सके जिसमें विवाह के बाद नए परिवार में उसके साथ समानता का बरताव किया जाए, तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। लेकिन वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में सोचते समय हमें यह खयाल भी रखना चाहिए कि जिस आर्थिक इकाई को वह छोड़ आई है, वहां बहुएं आएंगी और उन्हें नई आर्थिक इकाई में समान हिस्सा मिलेगा। इसलिए एक परिवार पर दुहरा बोझ नहीं डाला जा सकता। एक दूसरी व्यवस्था यह हो सकती है कि विवाह के बाद वर-वधू को उनका हिस्सा दे कर एक स्वतंत्र आर्थिक इकाई बनाने को कहा जाए। लेकिन मैं इसके पक्ष में वोट नहीं दूंगा, क्योंकि यह संयुक्त परिवार की अवधारणा के विरुद्ध है, जो एकल परिवार से हमेशा और लाख गुना बेहतर है।
जो लोग समानता और स्वतंत्रता के समर्थक हैं (और आजकल कौन नहीं है?), उन्हें इस प्रश्न का जवाब देना होगा कि अगर परिवार के भीतर ही अ-समानता और अ-स्वतंत्रता बनी रहती है, तो सामाजिक ढांचे में समानता और स्वतंत्रता कहां से आ सकती है? व्यक्ति को समाज की इकाई माना जाता है, लेकिन मुझे अब इसमें संदेह होने लगा है। जैसे आजकल शब्द को नहीं, वाक्य को भाषा की इकाई माना जाता है, वैसे ही तर्क कहता है कि व्यक्ति को नहीं, परिवार को समाज की इकाई माना जाए। बहुत-से पुरुष और स्त्रियां अकेले रहते हैं, लेकिन यह स्वाभाविक नहीं, अस्वाभाविक स्थिति है। ऐसे व्यक्तियों के असामाजिक हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। ज्यादातर व्यक्ति परिवार में पैदा होते हैं और परिवार में ही जीवन व्यतीत करते हैं। इसलिए व्यक्ति का कोई अर्थशास्त्र नहीं हो सकता। अर्थशास्त्र होगा, तो पूरे परिवार का होगा। वही मूलभूत आर्थिक इकाई है। जो लोकतंत्र को मानता है, वह इससे इनकार कैसे कर सकता है कि इस इकाई के सभी सदस्यों का हक बराबर हो? यहां तक कि बच्चों का भी।
इसका एक ही समाधान है कि विवाहित पुरुष की संपत्ति और आय में उसकी पत्नी का हिस्सा बराबर का माना जाए। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। बल्कि यह हर दृष्टि से स्वाभाविक और तार्किक है। लोकतंत्र के युग में रानी की हैसियत राजा के बराबर होनी ही चाहिए। तभी राजा-रानी के बीच प्रेम स्वाभाविक रूप से स्थायी हो सकता है। मजबूरी में दिया जानेवाला प्रेम प्रेम नहीं, चापलूसी है। इस चापलूसी के कारण रानी को मांग होने पर अपना शरीर भी समर्पित करना पड़ता है, इससे बड़ी व्यथा और क्या हो सकती है। पुरुषों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े, तब उन्हें पता चलेगा कि प्रेमहीन समर्पण कितनी अश्लील चीज है -- यह आदमी का स्वाभिमान नष्ट करती है और उसे गुलाम बनाती चीज है। अगर हम अपनी सभ्यता को सभ्य बनाना चाहते हैं, तो इस आर्थिक असमानता को नष्ट कर देना जरूरी है। तब तलाक के बाद अपने भरण-पोषण के लिए स्त्री अपने पुरुष की मुखापेक्षी नहीं रह जाएगी। पति और पत्नी की आर्थिक हैसियत एक जैसी होगी। इस व्यवस्था के तहत वैवाहिक जीवन में भी स्त्री पुरुष से हीन नहीं रहेगी। दोनों बराबरी का आनंद उठाएंगे और एक दूसरे को सताने के बारे में नहीं सोचेगा।
इस परिकल्पित व्यवस्था के पीछे एक मजबूत आर्थिक तर्क भी है। जब लड़की अपने मां-बाप के साए में रहती है, तो वह एक आर्थिक इकाई का सदस्य होती है। अगर मां-बाप पुरुषवादी नहीं हुए, तो उसे भी उतना ही प्रेम और सम्मान मिलता है जितना उसके भाइयों को। विवाह के बाद इस आर्थिक इकाई से उसका संबंध टूट जाता है और वह दूसरी आर्थिक इकाई का सदस्य हो जाती है। यह तार्किक नहीं है कि उसे दो-दो आर्थिक इकाइयों का लाभ मिले। इसलिए यदि यह व्यवस्था बनाई जाए कि उसे अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा न मिले, बल्कि नई आर्थिक इकाई में उसे बराबर का हिस्सेदार बनाया जाए, तो यह शायद ज्यादा उचित और व्यावहारिक होगा। मैं यह दावा नहीं करता कि यह व्यवस्था ही उत्तम है। पिता की संपत्ति में बेटी का हिस्सा रखते हुए भी ऐसी व्यवस्था बनाई जा सके जिसमें विवाह के बाद नए परिवार में उसके साथ समानता का बरताव किया जाए, तो इससे बेहतर क्या हो सकता है। लेकिन वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में सोचते समय हमें यह खयाल भी रखना चाहिए कि जिस आर्थिक इकाई को वह छोड़ आई है, वहां बहुएं आएंगी और उन्हें नई आर्थिक इकाई में समान हिस्सा मिलेगा। इसलिए एक परिवार पर दुहरा बोझ नहीं डाला जा सकता। एक दूसरी व्यवस्था यह हो सकती है कि विवाह के बाद वर-वधू को उनका हिस्सा दे कर एक स्वतंत्र आर्थिक इकाई बनाने को कहा जाए। लेकिन मैं इसके पक्ष में वोट नहीं दूंगा, क्योंकि यह संयुक्त परिवार की अवधारणा के विरुद्ध है, जो एकल परिवार से हमेशा और लाख गुना बेहतर है।
जो लोग समानता और स्वतंत्रता के समर्थक हैं (और आजकल कौन नहीं है?), उन्हें इस प्रश्न का जवाब देना होगा कि अगर परिवार के भीतर ही अ-समानता और अ-स्वतंत्रता बनी रहती है, तो सामाजिक ढांचे में समानता और स्वतंत्रता कहां से आ सकती है? व्यक्ति को समाज की इकाई माना जाता है, लेकिन मुझे अब इसमें संदेह होने लगा है। जैसे आजकल शब्द को नहीं, वाक्य को भाषा की इकाई माना जाता है, वैसे ही तर्क कहता है कि व्यक्ति को नहीं, परिवार को समाज की इकाई माना जाए। बहुत-से पुरुष और स्त्रियां अकेले रहते हैं, लेकिन यह स्वाभाविक नहीं, अस्वाभाविक स्थिति है। ऐसे व्यक्तियों के असामाजिक हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। ज्यादातर व्यक्ति परिवार में पैदा होते हैं और परिवार में ही जीवन व्यतीत करते हैं। इसलिए व्यक्ति का कोई अर्थशास्त्र नहीं हो सकता। अर्थशास्त्र होगा, तो पूरे परिवार का होगा। वही मूलभूत आर्थिक इकाई है। जो लोकतंत्र को मानता है, वह इससे इनकार कैसे कर सकता है कि इस इकाई के सभी सदस्यों का हक बराबर हो? यहां तक कि बच्चों का भी।