सहजीवन को सहजीवन ही रहने दें
राजकिशोर
भारत की एक विशेषता यह है कि यहाँ जो भी नई चीज आती है, उसमें पुराने की रंगत डालने की कोशिश की जाती है। इस तरह, वह नए और पुराने की एक ऐसी खिचड़ी हो जाती है, जिसमें किसी भी चीज का अपना कोई स्वाद नहीं रह जाता। मेरा खयाल है, सहजीवन (लिव-इन संबंध) के प्रयोग के साथ यही हो रहा है। यह एक सर्वथा नई जीवन शैली है। पहले तो न्यायपालिका ने इसे मान्यता दी, अब वह पूरी कोशिश कर रही है कि इसे विवाह के पुराने ढाँचे में ढाल दिया जाए। यह इस प्रयोग के प्रति न्याय नहीं है। लगता है, विवाह के परंपरागत ढाँचे से मोह टूटा नहीं है।
न्यायालय द्वारा पहले कहा गया कि जब कोई युगल लंबे समय तक (समय की यह लंबाई कितनी हो, यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है) साथ रह ले, तो उनकी हैसियत पति-पत्नी जैसी हो जाती है और इसे विवाह की संज्ञा दी जा सकती है। इस संबंध से जो बच्चे पैदा होंगे, उन्हें अवैध संतान नहीं करार दिया जा सकता। आपत्ति की पहली बात तो यही है कि किसी भी बच्चे को अवैध करार ही क्यों दिया जाए? बच्चा किस प्रकार के संबंध से जन्म लेगा, यह वह स्वयं तय नहीं कर सकता। इसलिए जो भी बच्चे इस संसार में आते हैं, सब की हैसियत एक जैसी होनी चाहिए। इसलिए अवैध बच्चे की धारणा ही दोषपूर्ण है। दूसरी बात यह है कि अगर किसी जोड़े को अंततः पति-पत्नी ही कहलाना हो, तो वह सीधे विवाह ही क्यों नहीं करेगा? सहजीवन की प्रयोगशील जीवन पद्धति क्यों अपनाने जाएगा?
सहजीवन की परिकल्पना का जन्म इसीलिए हुआ क्योंकि विवाह के रिश्ते में काफी बासीपन आ गया है और उसकी अपनी जटिलताएँ बढ़ती जाती हैं। मूल बात तो यह है कि विवाह में प्रवेश करना आसान है, पर उससे बाहर आना कठिन कानूनी तपस्या है। यदि बरसों के इंतजार के बाद विवाह विच्छेद हो भी जाए, तो पुरुष पर ऐसी अनेक जिम्मेदारियाँ लाद दी जाती हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं है। विवाह से संबंधित कानून के अनुसार, तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देना अनिवार्य है। यह एक भोगवादी नजरिया है। इसके तहत माना जाता है कि पुरुष जिस स्त्री से विवाह करता है, वह उसकी देह का उपभोग करता है। इसलिए जब वह वैवाहिक संबंध से बाहर आ रहा है, तो उसे इस उपभोग की कीमत चुकानी चाहिए। यह कीमत पुरुष की संपत्ति और आय के अनुसार तय की जाती है। यानी गरीब अपनी तलाकशुदा पत्नी को कम हरजाना देगा और अमीर अपनी तलाकशुदा पत्नी को ज्यादा हरजाना देगा। मेरा निवेदन है कि यह स्त्री को भोगवादी नजरिए से देखने का नतीजा है। इससे जितनी जल्द मुक्ति पाई जा सके, उतना ही अच्छा है।
विवाह से पैदा हुए बच्चों की परवरिश का मामला गंभीर है। बच्चों के जन्म के तथा पालन-पोषण के लिए दोनों ही पक्ष समान रूप से जिम्मेदार हैं। इसलिए जब वे अपने पिता से या माता से वंचित हो रहे हो, तब यह दोनों पक्षों की जिम्मेदारी हो जाती है कि वे उसके पालन-पोषण की समुचित व्यवस्था करें। यह जिम्मेदारी उस पक्ष की ज्यादा है जिसके पास अपेक्षया ज्यादा संपत्ति या आय हो। लेकिन एक बालिग व्यक्ति का दूसरे बालिग व्यक्ति से गुजारा भत्ते की अपेक्षा करना मानव गरिमा के विरुद्ध है। इस अशालीन कानून से बचने के उपाय अभी तक खोजे नहीं गए हैं, यह आश्चर्य की बात है। ऐसा लगता है कि पुरुष अपने आर्थिक वर्चस्व को छोड़ना नहीं चाहते और स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होना नहीं चाहतीं। ये दोनों ही बातें वैवाहिक जीवन की सफलता के लिए अपरिहार्य हैं। दो आर्थिक दृष्टि से विषम व्यक्तियों के संबंधों में लोकतंत्र का कोई भी तत्व नहीं आ सकता। एक शिकारी बना रहेगा और दूसरा शिकार।
इस समस्या का सबसे सुंदर समाधान यह हो सकता है कि विवाह के बाद परिवार की समस्त संपत्ति और आय को संयुक्त बना दिया जाए, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों का बराबर हिस्सा हो। साथ ही, हर बालिग सदस्य से अपेक्षा की जाए कि वह परिवार के सामूहिक कोष में अपनी क्षमता के अनुसार योगदान करे। यह व्यवस्था अपनाने पर तलाक होने पर किसी को गुजारा भत्ता देने की समस्या का हल संभव है।
आप सोच रहे होंगे कि सहजीवन के प्रसंग में विवाह की इतनी चर्चा क्यों की जा रही है। बात यह है कि विवाह की इन जटिलताओं से बचने के लिए ही सहजीवन का प्रयोग सामने आया है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने अभी-अभी फैसला दिया है कि सहजीवन में रहने वाले पुरुष को भी संबंध विच्छेद के वक्त अपनी साथी को गुजारा भत्ता देना होगा। जिन दो जजों के बेंच ने यह फैसला दिया है, वे अपने इस निर्णय पर मुतमइन नहीं हैं, इसलिए उनके आग्रह पर इस मुद्दे पर विचार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ एक बृहत्तर बेंच का गठन किया गया है। मुझे शक है कि यह बड़ा बेंच भी कुछ ऐसा ही निर्णय दे सकता है, जो सहजीवन को विवाह में बदल दे। यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा और सहजीवन के मूल आधार पर ही कुठाराघात करेगा।
इस तरह के निर्णय स्त्रियों के प्रति सहानुभूति की भावना से पैदा होते हैं। पर वास्तव में ये स्त्रियों का नुकसान करते हैं। स्त्रियाँ पहले से ही काफी पराधीन हैं। अब उन्हें स्वाधीन और स्वनिर्भर बनाने की आवश्यकता है। सहजीवन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। अगर स्त्री-पुरुष संबंध के इस नए और उभरते हुए रूप को विभिन्न बहानों से विकृत किया जाता है, तो यह नए समाज के निर्माण में बाधक होगा। आशा है, न्यायपालिका इस दृष्टि से भी विचार करेगी।
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