बुधवार, 18 मार्च 2009

इस्लाम कोई ‘मेन्स-ओनली’ क्लब नहीं

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इस्लाम कोई ‘मेन्स-ओनली’ क्लब नहीं
--शीबा असलम फ़हमी








जब से होश सम्भाला अपने आस-पास जो मुस्लिम समाज देखा उसमें बहुत से मर्द अपनी बीवियों-बहनों से ज़्यादा पढे़-लिखे थे, मगर बहुत-सी औरतें भी अपने शौहरों या भाइयों से ज़्यादा पढी-लिखी थीं। यह भी देखा कि शौहर अपनी बीवी का खर्च उठाते हैं, मगर यह भी कि कई बीवियाँ भी काम करती हैं और अपने शौहरों का खर्च उठाती हैं। कुछ मर्दों को घर पर रहकर घर और बच्चों की देखभाल में मज़ा आता है, तो कुछ औरतें बाहर की दुनिया में मग्न दिखती हैं। एक ही घर में भाई को खाना पकाने का शौक है तो बहन इंजीनियरिंग कर रही है, ऐसी भी औरतें देखीं जिन्हें अपने शौहर की दूसरी शादी से सख्त एतराज़ है, और ऐसी भी कि जो यह मानने से इन्कार करती हैं कि ‘अल्लाह ने शौहर को बीवी की पिटाई का हक दिया है’। और बहुत सी ऐसी औरतें भी देखीं जो यह मानने को तैयार ही नहीं कि अधिकार सारे मरद के और कर्तव्य सारे औरत के हों।



मगर मुल्ला हज़रात तो कुछ और बताते हैं। उनके अनुसार अल्लाह ने हर मर्द को हर औरत से आला बनाया है। इसलिए मर्द और औरत के बीच बराबरी नहीं हो सकती। वे यह भी कहते हैं कि उनके इन दावों पर औरत सवाल नहीं खडे़ कर सकती क्योंकि यह अल्लाह का कानून है। मुल्लाओं के अनुसार औरत पर मर्द का मालिकाना हक है। वह उसका ‘खाविंद’ और ‘क़व्वाम’ है। कोई इन मुल्लाओं से पूछे कि क्या कोई ऐसा शख़्स होगा जो खुशी-खुशी इस व्यवस्था को मान ले कि उसका वजूद सिर्फ पिटने, सेवा करने, जुल्म सहने, तिरस्कार झेलने और सारे समाज और दुनिया से छुपकर चारदिवारी में रगड़-रगड़ कर जीने के लिए है? क्या यह व्यवस्था किसी होशमंद इन्सान को मंज़ूर हो सकती है? और क्या यह मुमकिन है कि जो मज़हब ज़बान, पहनावा, खानपान, नस्ल, ज़ात, लिंग, स्थान व समय की सीमाओं से ऊपर उठकर, सारी कायनात को अपने [इस्लाम के] दायरे में लाने का दावा करे, वह दुनिया की आधी आबादी को मुन्किर [अल्लाह को न माननेवाला], बागी़ व नाफ़रमान होने की तरफ धकेल दे? क्या इस्लाम जैसे एम्बीशियस मज़हब की परिकल्पना इतनी अधकचरी और कमज़ोर होगी कि वह यह नहीं जानती कि एक मां के रूप में यही औरत अपनी औलाद को किस दिशा में मोड़ सकती है? क्या सिर्फ मुसलमान में पैदा हो जाने से एक औरत खुद को बेइज़्ज़ती व तिरस्कार के लिए तैयार कर लेती है? और यह भी सुनती है कि जहन्नम में भी औरतें ही ज़्यादा जाएंगी। मतलब यह कि ‘यहां’ से ‘वहां’ तक ऐश सिर्फ मर्द करेगा। मौलाना, तो फिर औरतों के लिए क्या आफर है कि वह अकी़दे में रहे? और इस तरह के इस्लाम को फैलाकर आप इस्लाम की कैसी खि़दमत कर रहे हैं? समझ में नहीं आता कि अपने क्षुद्र स्वार्थों को पोषित करने मात्र के लिए मुल्लाओं ने न केवल स्त्री समाज में भय, संशय और नफरत का माहौल पैदा कर दिया बल्कि इस्लाम को हास्यास्पद अतार्किक और बर्बर धर्म भी बना डाला है।......



अभी भारत में अल्पसंख्यकवाद की चादर ने इन मुद्दों को ढंक रखा है पर इंटरनेट के ज़माने में यह ज़्यादा दिन नहीं चलेगा। इस्लाम सारी कायनात के लिए आया है जहां न सिर्फ इन्सानों बल्कि जानवर व पेड़-पौधों तक के अधिकार व सम्मान सुरक्षित रखे गए हैं इसलिए औरतों को इस्लाम ने जो दिया है उसे मुल्लाओं के चंगुल से छुडाना ही है।



हंसके मार्च २००९अंक के लेख का अंश



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