गुरुवार, 14 मार्च 2013

स्त्रीत्व की गरिमा का परिवार से कोई विरोध नहीं

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-          डॉ. ऋषभ देव शर्मा
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः I
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वं नताः स्म परिपालय देवि विश्वं II
भारतीय वाङ्मय में स्त्री और स्त्रीत्व को चरम गरिमा प्रदान की गई है और यह समझा जाता है कि सभ्य समाज में स्त्री को सब प्रकार से सम्मानपूर्ण स्थान मिलना चाहिए. लेकिन दूसरी ओर इसी देश के सामाजिक आचरण में स्त्री को पशुओं और दलितों की श्रेणी में रखा जाना भी एक कटु सत्य है. इतिहास गवाह है कि सत्ता और वर्चस्व के पुरुष के हाथ में केंद्रित होते जाने से स्त्री को शासित और अबला बनने को मजबूर कर दिया गया. एक ओर स्त्री को साक्षात शक्ति मानना तथा दूसरी ओर किसी असहायनिरीहमूक प्राणी ही नहीं अन्य वस्तुओं की भाँति पुरुष द्वारा रक्षा और भोग किए जाने की चीज मानना – समाज के स्त्री विषयक सोच अथवा समाज में स्त्री की स्थिति के परस्पर दो विरोधी प्रतीत होने वाले पक्ष हैं. आशय यह कि लंबी कंडीशनिंग ने हमारे यहाँ स्त्री को बलहीन और अशक्त बना डाला. शक्तिशाली को शक्तिहीन बनाने की अपेक्षा अशक्त को सशक्त बनाना अधिक चुनौतीपूर्ण और कठिन है. इसलिए स्त्रीत्व की गरिमा को पुनर्स्थापित करने के लिए आज सामाजिक अभियान चलाने की जरूरत है.
स्त्रीत्व-गरिमा के इस अभियान की केंद्रीय आकांक्षा यह होनी चाहिए कि समाज के सभी क्षेत्रों में स्त्री के अस्तित्व को मनुष्य के रूप में स्वीकृति प्राप्त हो. स्त्री और पुरुष की ऐसी समानता की व्यावहारिक प्रतिष्ठा आवश्यक है जिसमें स्त्री अन्याद्वितीयकगौणउपेक्षिता अनुगामिनी या अनुचर नहींअनिवार्य और सहचर की भूमिका में हो. अर्द्धनारीश्वरवाक् और अर्थसाम और ऋक् तथा द्यावापृथिवी जैसे मिथकों के माध्यम से भारतीय संस्कृति ने सभ्यता के आरंभ से ही स्त्री-पुरुष की इस समानता को स्वीकृति प्रदान की है. इसी युग्म-भाव और पारस्परिकता को आधुनिक संदर्भ में प्रतिष्ठित करना आज की ज़रूरत है. शक्ति और शिव के योग संबंधी मिथ को सामाजिक धरातल पर घटित होते देखने की इच्छा को नोस्टेलजिया न समझा जाए क्योंकि यह रूपक गतिशील है जड़ नहीं और इसे अपनाते समय आधुनिक समाज की आमूलचूल परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा. स्त्री और पुरुष – किसी का भी दूसरे पर निर्भर होना या अंश-अंशी होनाआज स्वीकार्य नहीं हो सकता. आज तो दोनों को एक-दूसरे की स्वतंत्रता और अस्मिता का सम्मान सीखना होगा. स्त्री को अबलापन से पैदा होने वाली हीनता ग्रंथि से बाहर आना होगा और वह आत्मबल अर्जित करना होगा जो एक खास तरह की निर्भीकता प्रदान करता है और विकट परिस्थिति में आत्मनिर्णय का प्रतीक भी है. पातिव्रत्य के नाम पर गुडिया बना दी गई सीता,सावित्रीद्रौपदी और राधा के चरित्रों में निहित इस तेजस्विता को पहचानना होगा वे पुरुष की अनुगामिनी छाया मात्र नहीं हैं. वे अपनी सशक्तता को निर्विवाद रूप से प्रमाणित करने में सक्षम हैं. लेकिन स्त्री के अबला रूप की पोषक शक्तियों ने उनकी इस तेजस्विता की उपेक्षा करके उन्हें पति-परमेश्वर की अनुचरी मात्र बनाकर रख दिया. उन्हें जब तक फिर से परमेश्वरी नहीं बनाया जातातब तक स्त्री-पुरुष-समता का दावा नहीं किया जा सकता. परमेश्वरी बनाने का अर्थ स्त्री के मानवी रूप की पूर्ण स्वीकृति मात्र हैदेवी बनाकर पूजना नहीं.
यह भी सामाजिक-सांस्कृतिक विडंबना ही है कि समाज स्त्री को या तो देवी के रूप में पूजता है या दानवी के रूप में उससे घृणा करता है. स्त्री के ये दोनों ही अतिरंजित रूप न तो सामान्य हैं और न स्वीकार्य. सशक्त स्त्री का अर्थ देवी या दानवी होना नहींमानवी होना है जिसमें पुरुष की तरह ही शक्तियाँ भी हैं और दुर्बलताएँ भी. यही मनुष्य की सहज पूर्णता है. मानवी होने के इस नैसर्गिक अधिकार से स्त्री को सभ्यता के किसी असभ्य मोड पर वंचित कर दिया गया और उसका जन्म ही अभिशाप तथा पराधीनता का द्योतक बन गया. जिस मानव-जीव को संपूर्ण पृथ्वी पर केवल इसलिए दंडित किया जाता है कि उसका जन्म स्त्री के रूप में हुआ हैवह शारीरिक और मानसिक स्तर पर अशक्तता का शिकार नहीं होगा तो और क्या होगाइसी से घर-बाहर सर्वत्र पुरुषों को अबाध स्वतंत्रता और निर्णय क्षमता प्राप्त हुईं तथा स्त्रियों को अबला कहकर इनसे वंचित कर दिया गया. स्त्रीत्व की गरिमा की प्रतिष्ठा का अर्थ है स्त्रियों को उनकी हरण की गई अबाध स्वतंत्रता और निर्णय क्षमता लौटाना. जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक अथर्वसंहिता के हवाले से अपने घर में पुत्र और शत्रु के घर में कन्या के जन्म की प्रार्थनाएँ की जाती रहेंगी अथवा ऐतरेय ब्राह्मण के हवाले से कन्या के जन्म को शोक का विषय माना जाता रहेगा.
भारत में तो फिर भी वेदकाल से आज तक सशक्त और स्वतंत्र स्त्रियों के सम्मान के अनेक उदाहरण प्राप्त हैंदुनिया के अन्य अनेक देशों ने दार्शनिक चिंतन और बौद्धिक विमर्श से स्त्रियों को सदा दूर रखने के प्रयास किए तथा उन्हें गुलाम और वहशी कहकर पुरुष के अधीन रहने को विवश किया है. स्त्रीत्व की गरिमा के लिए यह अधीनता टूटनी आवश्यक है ताकि मताधिकारशिक्षा और रोजगार के अवसरों से किसी मानव-जीव को मात्र स्त्री होने के कारण वंचित न किया जाए. इस स्वतंत्रता का अर्थ सौंदर्य प्रतियोगिताओं और विज्ञापनों की उपभोक्तावादी दुनिया की अंधी दौड में शामिल होना मात्र नहीं समझा जाना चाहिए. सशक्त स्त्री अपनी गुलामी के इस नए रूप को पहचानेगी और पुरुषत्व को आधिपत्य तथा स्त्रीत्व को उपभोग का पर्याय बनाने के उत्तरआधुनिक षड्यंत्र को निष्क्रिय बना सकेगीऐसी आशा रखी जानी चाहिए.
यह चिता का विषय है कि विविध माध्यम आज भी स्त्री की स्वतंत्रता पर आक्रमण कर रहे हैं. उसके शरीर और सौंदर्य को विभिन्न सभ्यताओं ने विविध रूपों में अलग-अलग संस्थाओं के नाम पर पुरुष के,कभी एकांत और कभी सार्वजनिकउपभोग की वस्तु बनाने में कभी कोई कोताही नहीं की है. आज भी बाजार की शक्तियां अधिक सुनियोजित ढंग से वही सब कर रही हैं. सशक्त स्त्री पालतू होने से इनकार करेगीमनोरंजन का साधन नहीं बनेगी और इस प्रकार समाज को उन्नत और सुसंस्कृत बना सकेगी. याद रहे कि बाजार की शक्तियों द्वारा चलाई जा रही देह की राजनीति का शिकार होने वाली स्त्रियाँ सशक्त नहीं हैं इसलिए स्त्रीविरोधी जाल में इतनी आसानी से फँस जाती हैं. वस्तुतः अपनी अस्मिता और व्यक्तित्व की गरिमा के प्रति जागरूक हुए बिना हर सशक्तीकरण अपूर्ण है.
स्त्री सशक्तीकरण की चर्चा चलते ही कुछ लोगों को घरपरिवार और विवाह के टूटने की चिंता सताने लगती है. इस बारे में मेरा मानना है कि यदि किसी संस्था के जीवित रहने के लिए उसके आधे हिस्से का अशक्त रहना जरूरी हैतो उसे टूट ही जाना चाहिए. परंतु सच्चाई यह नहीं है. इन संस्थाओं के लिए स्त्री का सशक्त होना ही श्रेयस्कर है. इन्हीं संस्थाओं के बीच स्त्री ने सभ्यता और संस्कृति का आविष्कारसंरक्षण और संवर्द्धन किया है. रसोई और घर बनाने से लेकर शिल्प और पशुपालन तक के क्षेत्रों में स्त्री ने ही पहल करके विकास का मार्ग प्रशस्त किया है. वह स्त्री आत्मनिर्भर और स्वायत्त थी. कालांतर में उसे भूमि और संपत्ति का पर्याय बना दिया गयाजिससे उसकी सृजनशीलता कुंठित हुई. अपनी सृजनशक्ति को स्त्रियों ने लोकगीतों के माध्यम से भी प्रमाणित किया है. सृजन स्त्री का स्वभाव हैघर उसका अपना आविष्कार. स्त्री की सशक्तता और घर एक-दूसरे के विरोधी नहीं है. लेकिन घर,परिवार और विवाह को बनाए रखने की एकपक्षीय जिम्मेदारी केवल स्त्री पर नहीं डाली जा सकती. झूठी मर्यादा के नाम पर स्त्री से हर तरह के बलिदान की माँग करना और पुरुष को घर फूँकनेपरिवार तोड़ने तथा विवाह की पवित्रता को भंग करने की केवल पुरुष होने के नाते छूट देना न्यायसंगत नहीं है. सशक्त स्त्री पुरुष के इस स्वैराचार को बर्दाश्त नहीं करेगी तो यह घर-परिवार के हित में ही होगा. इसलिए सबसे पहले स्त्रीत्व की गरिमा की प्रतिष्ठा परिवार के स्तर पर ज़रूरी है.
स्त्रीत्व-गरिमा की प्रतिष्ठा  का अर्थ स्त्री को समाज से अलग करना नहीं है और न ही पुरुष से प्रतिस्पर्धा या विरोध. इसका आधार तो सहयोग और सहानुभूति हैऔर उद्देश्य है व्यापक सामाजिक समरसता. इस समरसता की प्राप्ति में जो प्रवृत्तियाँ बाधक हैं पुरुष को उनसे मुक्त होकर सामाजिक दायित्वबोध के साथ इस अभियान का हिस्सा बनना होगा ताकि वह स्वयं पौरुष की झूठी परिभाषाओं से मुक्त होकर बेहतर मनुष्य बन सके और स्त्री-पुरुष-समता पर आधारित एक बेहतर दुनिया के लिए काम कर सके. सृजन के हर क्षेत्र में स्त्री-पुरुष सहयोगी रहे हैंरह सकते हैं. इस धरती को रूढ़िग्रस्तता,सांप्रदायिकताकट्टरवादभ्रष्टाचारहिंसा और आतंक से मुक्त करने के लिए सशक्त स्त्री की भी उतनी ही जरूरत है जितनी सशक्त पुरुष की.
दुनिया भर में स्त्री आज भी विविध प्रकार की हिंसा झेल रही है. मारपीटक्रूरताअभद्रताबलात्कार और परिवार तथा समाज में तिरस्कार को शताब्दियों से स्त्री नियति मानकर इस तरह बर्दाश्त करती आई है मानो पुरुष के हाथों दिया गया हर तरह का दुःख ही स्त्री का एकमात्र प्राप्य’ हो! ऐसी दमित-शोषित स्त्री,निश्चय हीसमाज के तो क्या अपने भी उत्थान के लिए कुछ कर सकती हैइसमें संदेह है. समाजोत्थान के विविध कार्यक्रमों में उसकी सक्रिय भागीदारी के लिए इस बहुआयामी हिंसा से उसे मुक्त करना होगा. दुर्भाग्य तो यह है कि स्त्री को अवांछित-जीव समझे जाने के कारण यह हिंसा उसके जन्म से पूर्व ही शुरू हो जाती है. ऊपर सेविविध प्रचार माध्यम स्त्री पर हिंसा को नित्य नए आयाम प्रदान कर रहे हैं और सामंती बर्बरता से भरा समाज उन्हें स्वीकृति भी प्रदान कर रहा है. इन माध्यमों में मनोरंजन से लेकर विज्ञापन तक सर्वत्र पुरुष का स्त्री के प्रति व्यवहार हिंसकआक्रामकविद्वेषपूर्ण और मालिकाना ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है. इस षड्यंत्र को भी हमें पहचानना होगा कि कामुकता और विलासिता की अश्लील प्रस्तुति के बीच प्रतिपल स्त्री-पुरुष के सहज प्रेम की हत्या की जा रही है और दर्शक सिर धुनने के बजाय ताली पीट रहे हैं. एक प्रवृत्ति यह भी पनपी है कि स्वावलंबी य स्वतंत्र महिलाओं की छवि क्रूर और दुश्चरित्र के रूप में गढ़ी जा रही है ताकि सशक्त स्त्री को संदेह और घृणा का पात्र बनाया जा सके. इससे एक ओर तो स्त्रीविरोधी अपराध बढ़ रहे हैं तथा  दूसरी ओर विवाह के प्रति वितृष्णा का भाव तेजी से फ़ैल रहा है. ये दोनों ही बातें सामाजिक समरसता के लिए अमंगलकारी हैं. अश्लीलता सदा अमंगलकारी ही होती है. इससे मुक्ति के लिए समाज की मानसिकता में परिवर्तन अपेक्षित है अन्यथा मानव-सभ्यता विकास के नाम पर विनाश को ही प्राप्त होगी.
इस वांछित मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिवर्तन का नेतृत्व स्त्री को करना होगा  – भाषा और साहित्य के स्तर से लेकर आर्थिक और राजनैतिक स्तर तक. सभ्यता और संस्कृति का विकास अकेले पिताओं ने नहीं किया हैउसमें माताओं का भी बराबर का योगदान है. भविष्य निर्माण में माताओं के इस योगदान को सुनिश्चित करने के लिए स्त्री को अपने ऊपर थोपे गए अबलापन से निकलना ही होगा. इसके लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता ही काफी नहीं हैशिक्षा और सामाजिक चेतना का व्यापक प्रसार भी आवश्यक है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह भी ध्यान में रखना होगा कि स्त्रीत्व-गरिमा का लक्ष्य शहरी और सुविधासंपन्न स्त्री तक सीमित नहीं है वरन ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्र तक की स्त्री का इसमें सम्मिलित होना अनिवार्य है. साहित्यशिक्षाआर्थिक विकास और राजनैतिक चेतना सभी स्तरों पर ग्रामीण स्त्री की सक्रिय और सार्थक भागीदारी को सुनिश्चित करना होगातभी यह अभियान पूर्णता प्राप्त कर सकता है. इसके लिए स्त्र्री-बहनापा बेहद ज़रूरी है वरना सारे प्रयास व्यर्थ हो जाएँगे. धर्मजाति और संप्रदाय की सीमाओं से परे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि स्त्री संतान को केवल ससुराल जाने के लिए तैयार न किया जाए बल्कि जीवन और जगत के हर मोर्चे के लिए प्रशिक्षित किया जाए. इससे व्यवस्था में विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में स्त्री की भागीदारी को बढ़ाया जा सकता है और उसे एक पूर्ण मानव के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है.
अंत में यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि पूर्ण मानव/मानवी  होने का अर्थ स्त्रीत्व से निवृत्त या विमुख होना कदापि नहीं है. बल्कि इससे तो स्त्री और पुरुष के बीच के रिश्ते को प्रेमपूर्ण होने में और सहायता ही मिलेगी क्योंकि प्रेम के लिए समानता आवश्यक है. मालिक और गुलाम के बीच प्रेम नहीं हो सकता (यदि हो सकता है तो वे मालिक और गुलाम नहीं रहते). प्रेम की अभिव्यक्ति के नाम पर होने वाले अमर्यादित आचरण पर भी इससे अंकुश लगेगा. जयदेवकालिदास और मीराँ की काव्यकृतियाँ अथवा खजुराहो की कलाकृतियों में जो उदात्त प्रेम दीखता हैउसका स्रोत स्त्री-पुरुष की उस समानता में निहित है जिसका आधार परस्पर सहचरी-सहचर होने का उन्मुक्त भाव है. समता के स्तर पर प्रेमपात्र के व्यक्तित्व में अपने व्यक्तित्व के विसर्जन में ही यदि प्रेमियों का मोक्ष निहित है तो इसके लिए अधिकार नहीं समर्पण चाहिए – सहज समर्पण. अशक्त के पास तो समर्पित करने को कुछ अपना होता ही नहीं. इसलिए सशक्त स्त्री से किसी को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है. स्त्रीत्व की गरिमा से अभिमंडित यह नई स्त्री विविध सामाजिक संबंधों को अधिक प्रेम और अधिक गरिमा प्रदान करेगीइस पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए!  O  


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