रविवार, 19 अक्टूबर 2008

हिन्दी लेखकों की स्व-अर्जित बदकिस्मती

4 टिप्पणियाँ
यह वैचारिक निबन्ध राजकिशोर जी ने एक वर्ष से भी कुछ अधिक समय पूर्व लिखा था; जो स्वयम् में सामयिक होते हुए भी काल का अतिक्रमण करता है व उनके दृष्टिकोण को व्यक्त करने के साथ साथ पूरे लेखक समाज को एक प्रकार के जुझारुपन के लिए ललकारता -सा है। स्त्री लेखन पर भी कुछ गम्भीर प्रश्न उठाने वाले इस आलेख को स्त्रीविमर्श के सभी पाठकों के लिए प्रथम बार प्रस्तुत किया जा रहा है। आवश्यक नहीं कि आप लेखक के सभी विचारों से सहमत ही हों, फिर भी मूल कथ्य हमें स्वयम् पर व अपने समय के दुर्भाग्यों पर सोचने को विवश करता है। सभी प्रकार की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
-कविता वाचक्नवी


हिन्दी की तस्लीमाएँ कहाँ हैं?
राजकिशोर


तसलीमा नसरीन पर हैदराबाद में मुस्लिम कट्टरपंथियों की ओर से जो हमला हुआ, उसके प्रतिवाद में हिन्दी के दिल्ली-निवासी तमाम मूर्धन्य लेखक एक हो गए, यह आनंद की बात है। तसलीमा कुछ खास मानव मूल्यों का प्रतीक बन चुकी हैं, इसलिए जरूरी है कि उनकी आवाज को दबाने के सभी प्रयत्नों को निष्फल किया जाए। वे अपनी अभिव्यक्तियों में अकेली हैं, यह एहसास तो उनके भीतर पैदा होने ही नहीं दिया जाना चाहिए। दुख की बात यह है कि तसलीमा नसरीन का महत्व समझते हुए भी हिन्दी जगत में यह प्रश्न बार-बार उठाए जाने पर भी नहीं उठ पा रहा है कि हमारी तसलीमाएँ कहाँ हैं। मेरा खयाल है कि हिन्दी को एक नहीं, कई-कई तसलीमा नसरीनों की जरूरत है। कुछ पुरुष तसलीमा भी होने चाहिए।

ऐसा नहीं है कि हिन्दी में विद्रोही पुरुष या महिलाएँ नहीं हैं। उर्दू, बांग्ला या किसी भी अन्य भारतीय भाषा से अधिक बारीकी और गहराई के साथ हिन्दी में स्त्रियों के बहुमुखी शोषण की विवेचना की गई है और की जा रही है। इस समझ के बनने में मार्क्सवाद का विशेष योगदान रहा है। लेकिन मैत्रेयी पुष्पा जैसी लेखिकाओं ने बिना किसी वाद का सहारा लिए सतर्क जीवनानुभव के आधार पर (जीवन किसी भी सिध्दांत से बड़ी पाठशाला है) शोषण, दमन और आत्मदमन के पहलुओं पर निर्भीक हो कर कलम चलाई है। यह जरूर है कि तसलीमा जिस धड़ल्ले से धर्म के वीभत्स रूपों और धर्म की आड़ में चलने वाले अधर्मों पर कलम चलाती हैं, वह हिन्दी में नहीं के बराबर हो रहा है। एक समय में प्रेमचंद, यशपाल और राहुल साँकृत्यायन ने यह काम किया था। भगत सिंह का प्रसिध्द निबंध ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ आज तक चाव से पढ़ा जाता है। इस मूल समस्या पर ध्यान देने के बजाय हिन्दी के प्रसिध्द लेखक भी जाति की समस्याओं पर ज्यादा एकाग्र रहे हैं। निश्चय ही जाति की स्वतंत्र सत्ता बन चुकी है, पर हमें भूलना नहीं चाहिए कि वह धर्म नामक वृक्ष की ही एक शाखा है। ब्राह्मणवाद पर लगातार हमला करना और धर्म की आलोचना के लिए समय या चित्त न निकाल पाना एक गंभीर चूक है। प्रेमचंद की विरासत में इस चूक के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। इस संदर्भ में हमें ‘सरिता’ नामक पत्रिका के संस्थापक-संपादक विश्वनाथ जी का आभारी होना चाहिए जिन्होंने इस पत्रिका के माध्यम से धार्मिक पाखंड के खिलाफ लगातार एक तीखा अभियान चलाया। इस मामले में उन्होंने कछ अतियाँ भी कीं, इसके बावजूद उनका यह काम ऐतिहासिक महत्व का है।

हिन्दी की इस न्यूनता पर विचार करते समय तीन बातों की ओर तुरंत ध्यान जाता है। पहली बात यह है कि हिन्दी ने पाठकों से अपना जीवंत संपर्क तोड़ लिया है। आज हिन्दी के श्रेष्ठतम लेखक और कवि वे हैं जो सबसे कम पढ़े जाते हैं। यह हुआ इसलिए कि जब हिन्दी के पाठक, भाषा और साहित्य के स्तर पर घुटनों के बल रेंग रहे थे, हिन्दी लेखक ने तय किया कि उसे विश्व स्तर का साहित्य लिखना है। वह भूल गया कि अंग्रेजी का लेखक तरह-तरह के प्रयोग कर सकता है, क्योंकि उसके पास एक बड़ा और संपन्न पाठक परिवार है। हिन्दी के अधिकांश पाठक तो अभी भी प्रेमचंद और यशपाल के जमाने में रह रहे हैं। साहित्यिक महानता की खोज में अपने पड़ोसी पाठक-पाठिकाओं की साहित्यिक जरूरतों को भूल जाना एक सामाजिक अपराध है, जिसकी कोई ग्लानि हिन्दी जगत में दिखाई नहीं पड़ती।

महत्व की दूसरी बात यह है कि हिन्दी में जनप्रिय साहित्य की बेहद कमी है। यहां सिर्फ दो ध्रुवांत हैं -- महान लेखक और मेरठ उद्योग। मेरठ उद्योग के नीरस और कुरुचिकर उत्पादों के भरोसे हिन्दी के लाखों पाठकों को छोड़ देना एक शर्मनाक घटना है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में यह प्रतिभा नहीं है कि वह ऐसी रोचक-रोमांचक किताबें लिख सके, जिन्हें रेल यात्रा के दौरान या फालतू समय में पढ़ने का लुत्फ उठाया जा सके। चंद्रकांता नामक महान कृति इसी हिन्दी में लिखी गई थी, जिसे पढ़ने के लिए बताते हैं कि हजारों लोगों ने हिन्दी सीखी। धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता अभी भी चाव से पढ़ा जाता है। शिवानी के उपन्यासों की बिक्री कम हो गई है, लेकिन हिन्दी के प्रतिभाशाली प्रकाशकों ने अगर जनप्रिय लेखन छापने और बेचने का मोर्चा अलग से खोला होता, जिससे वे और ज्यादा मालामाल हो सकते थे, तो मेरा अनुमान है कि अकेले मनोहर श्याम जोशी तीन महीने में एक उम्दा उपन्यास उन्हें दे सकते थे। अपने को गंभीर मानने वालों को इस कमतर विधा का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए, क्योंकि यही वे प्रवेश द्वार हैं जिनसे हो कर युवा वर्ग का एक हिस्सा गंभीर साहित्य की दुनिया में प्रवेश करता है। कोई बचपन में ही सुकरात या अज्ञेय नहीं हो जाता।

तीसरी बात भी कम गंभीर नहीं है। जैसे धर्म की बेड़ियाँ होती हैं, वैसे ही विचारधारा की भी बेड़ियाँ होती हैं। सन साठ के बाद हिन्दी लेखन की दुनिया में प्रवेश करने वाले ज्यादातर लेखक मार्क्सवाद से प्रभावित थे। यह बहुत अच्छी बात थी। जो मार्क्सवाद से प्रभावित नहीं हुआ, क्या वह भी कोई विचारशील प्राणी है? लेकिन इसके साथ-साथ एक दुर्घटना भी हुई --- हिन्दी के लेखकों ने अपनी-अपनी पार्टियों को अपना ध्रुवतारा मान लिया। पार्टियां वोट की भिखारी हैं। अंग्रेजी की एक कहावत बताती है, भिखारी को चुनने की आजादी नहीं होती। सो मार्क्स के पवित्र नाम के सहारे अपनी अर्ध-पवित्र या पूर्ण अपवित्र राजनीति करने वाली मार्क्सवादी पार्टियों ने धर्म को तो छेड़ा ही नहीं। जो धर्म के छेड़ेगा, उसे दस वोट भी मुश्किल से मिलेंगे। तथाकथित धार्मिक लोगों ने गांधी जी का भी विरोध किया था। जो पार्टियां स्त्री उत्पीड़न का विरोध करेंगी, वे अपने ज्यादातर पुरुष सदस्यों को नाराज कर देंगी। जैसा कि कई मार्क्सवादी महिला कार्यकर्ताओं ने अपने आत्मवृत्तांतों में लिखा है, मार्क्सवादी दलों के नेता और कार्यकर्ता खुद भी स्त्री के सवाल पर पुरुषवादी विकृतियों के असाध्य शिकार हैं। वे स्त्रियों को सहचर नहीं, सखी भी नहीं, अर्ध-रखैल मानते हैं। हिन्दी का लेखक भी, आत्मप्रेरणावश, इसी दलीय षडयंत्र का शिकार बना रहा है। वह भूल गया कि पार्टी का नेता अलोकप्रिय होने का खतरा नहीं उठा सकता, पर लेखक के लिए तो यह वरदान ही है कि समाज में उससे नाराज लोगों की संख्या बढ़ती जाए। मेरे मित्र शंभुनाथ का कहना है कि वह कलम क्या उठी जिसने शत्रु नहीं बनाए। लेकिन तसलीमा ने शत्रु बनाए हैं तो मित्र भी कम नहीं बनाए हैं। यह ज्यादातर हिन्दी लेखकों की स्व-अर्जित बदकिस्मती है कि उन्होंने हिन्दी के व्यापक समाज में न शत्रु बनाए, न मित्र।



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