शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

..... क्योंकि समाज पुरुष-प्रधान है : जिंदा गाड़ दी गई लड़की

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 ..... क्योंकि समाज पुरुष-प्रधान है 

- कविता वाचक्नवी 




पिछले दिनों अलग अलग अवसरों पर जब महिला मुद्दों को लेकर मैंने जरा भी कुछ लिखा तो मेरे ब्लॉग की पोस्ट के बाद व्यक्तिगत रूप से या फेसबुक की वॉल पर टिप्पणी करते हुए अनेक पुरुष - रत्नों ने मुझे समझाईश दी कि कविता जी ज़माना बदल गया है अब कहाँ आप महिलाओं पर अत्याचार की बात करती हैं अब तो ...... आदि आदि अनादि... । 

..... और कुछ महापुरुषों ने तो इतने भद्दे कमेन्ट किए कि उनकी भाषा और विचार पढ़कर उनके प्रति वितृष्णा ही जागी कि कैसे कैसे लोग हैं। अस्तु ! 

आज इस बदले जमाने का सच उघाड़ती सचाई देखें -






कुछ लोग देते हैं कि महिलाओं के प्रति अत्याचार के लिए महिलाओं की ही अधिक भूमिका होती है, उसे क्यों नकारते हैं या पुरुष को क्यों दोषी ठहराते हैं। ऐसा तर्क देने वाले लोग जरा समाज-मनोविज्ञान या समाज शास्त्र आदि को गहराई से जानें समझेंगे तो पता चलेगा कि कभी यदि जब महिलाएँ ऐसा करती हैं तो क्यों करती हैं ।

 ..... क्योंकि समाज पुरुष-प्रधान है। 


बात यह नहीं है कि किसने गलत किया, बात यह है कि क्यों किया गया। हमारी सामाजिक बुनावट में वे कौन- से ऐसे तत्व हैं जो किसी को बाध्य करते हैं ऐसा करने को .... इस पर विचार किया जाना अनिवार्य है। 


ऐसा नहीं कि स्त्री ने जब ऐसा किया तो उसे समझने/ समझाने के लिए किन्हीं बड़े ग्रन्थों का पारायण अनिवार्य है और  न ही इन बातों पर नासमझी का तर्क देकर पीठ फेर लेने से काम चलता है कि केवल  शिक्षित व्यक्ति ही समाज की बनावट और बुनावट को समझ सकते हैं।  यह चीज पुस्तकों से अधिक समाज के मन को और उसकी गतियों को अधिक निकट से समझने की है। क्रिया और प्रतिक्रिया को देखने बूझने की है ,  `किसी ने ऐसा किया तो क्यों किया ' के विवेचन की है। 

जिस आयु में स्त्री माँ बनती है, उस आयु में भारतीय समाज व्यवस्था में वह मुखिया नहीं हो चुकी होती। उसके ऐसा करने के पीछे कई कारक होते हैं, उन कारकों को तलाशना जरूरी है। वे कारक कोई किताबों की चीज नहीं। तब जरा-सा ध्यान देने पर  समझ आ जाएगा कि स्त्री की भूमिका कितनी है और पुरुष की कितनी । 


 एक युवक ने इसी प्रसंग में प्रतिप्रश्न किया कि क्या स्त्री परिवार और समाज में पद पर नहीं होती, क्या उसके पास कोई अधिकार नहीं होते या वह बेटी, माँ, बहू की ज़िम्मेदारी के समय मज़बूर बन जाती है। 

तो ऐसे प्रश्नकर्त्ता ये भूल जाते हैं कि स्त्री के  पद पर होने न होने का प्रश्न नहीं है यहाँ। उसके पद पर होने या अधिकार-सम्पन्न (?) होने से क्या होगा ? 



(1) पहली बात तो यह कि समाज में कितने प्रतिशत महिलाएँ स्वायत्त अथवा अधिकार सम्पन्न हैं?


(2 ) उनके अधिकार की सीमा क्या है ? अर्थात वे अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र हैं, या पति के भी, या पति और परिवार के भी या या बच्चों के भी ? क्या आर्थिक और सामाजिक निर्णयों में उनकी भूमिका / निर्णय का कोई महत्ब है ?


(3) वे अधिकार संपन्न (?) महिलाएँ कहाँ रहती हैं, उन पर अन्य दबावों / निर्णयों / परिस्थितियों का प्रभाव कितना होता है ? 

 
(4) बेटी के जन्म के साथ ही उस के पालन पोषण से जुड़ी असुरक्षा से बचाव के कितने हथियार उसके पास होते हैं ? 


(5) बेटी के जन्म से ही उसके साथ जुड़ी पारिवारिक हीनताबोध , संत्रास की स्थितियों में उसके साथ कितने लोग होते हैं?


(6) बेटी के साथ जुड़ी बलात्कार, छेड़छाड़, अपहरण, दहेज, वर ढूँढने , उसे संतुष्ट करने, उसे बेटी पसंद आने/ न आने, बेटी के बार बार रिजेक्ट हो कर बाजार में बिकती वस्तुओं की तरह अपनी बोली लगाए जाने की पीड़ा ..... अनगिन समस्याओं का क्या हल है उस तथाकथित अधिकार सम्पन्न महिला के पास ?


(7) बेटी के ससुराल में जला दिए जाने , मार दिए जाने या पति के परस्त्रीगामी होने पर उस अधिकार सम्पन्न स्त्री का कितना बस है?

आशा है इतने जरा से कारक उसकी भूमिका का कुछ तो खुलासा कर देंगे । या कम से कम इतना तो पता दे ही देंगे कि सामाजिक संरचना में वे कौन-से तत्व हैं, जिनके कारण यह सब आज भी हमारे आसपास ही चुपचाप व सरेआम भी चल रहा है। 



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