रविवार, 12 जून 2011

औरतनामा : एक कहानी यह भी

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आज, मन्नू जी के ८१ वें जन्मदिवस पर विशेष



                                     औरतनामा : एक कहानी यह भी
Photo of Mannu Bhandari
             
          
                                               

Ek Kahani Yah Bhiमन्नू जी की लेखकीय यात्रा पर केन्द्रितउनकी सशक्त कलम से लिखी हुई लम्बी कथा - एक कहानी यह भी” पढ़ी। कहानी के समापन पर जो पहला भाव मन में आयावह था - नारी  की  अद्भुत शक्ति और सहनशीलता की कहानी। मन्नू जी की जिस अद्भुत एवं अदम्य शक्ति व साहस की झलक उनकी बाल्यावस्था में दिखाई देने लगी थीवही आगे चल कर लेखकीय जीवन में उत्कृष्ट रचनाओं के रूप में और गृहस्थ जीवन में सहनशील व साहसी पत्नी के रूप में साकार हुई। बचपन से ही उनके क्रान्तिकारी कार्य - कॉलेज की लड़कियों को अपने इशारे पे चलानातेजस्वी भाषण देना तोकभी पिता से टक्कर लेनातो कभी डायरैक्टर ऑफ़ एज्युकेशन के सामने अपना तर्क युक्त पक्ष रख कर कॉलेज में थर्ड इयर खुलवाने जैसी बहुजन-हिताय गतिविधियों में लक्षित होने लगे थे। किशोरी मन्नू जी में समाई यह हिम्मतआत्मिक ताक़त सकारात्मक दिशा में प्रवाहित थीमानवीयतान्याय एवं सामाजिक सरोकारों पर पैर जमाये थी। इसके साथ-साथ सघन संवेदना भी उनमें कूट-कूट कर भरी थीजिसके दर्शनआज़ादी के समय होने वाले पीड़ादायक बँटवारे के समयएक ग़रीब रंगरेज़ के अवान्तर प्रसंग में मिलती है। अनेक महत्वपूर्ण प्रसंगों का  ज़िक्र करते हुए लेखिका ने जिस साफ़गोईशालीनता और पारदर्शिता से अपने लेखकीय जीवन से  जुड़े -बेटी मन्नूलेखिका मन्नू,पत्नी मन्नू और माँ मन्नू, नारी मन्नू - के जीवन पक्षों कोसुखद व दुखद अनुभवोंयातनाओं और पीड़ाओं को समेटा हैवे निश्चित ही दिल और आत्मा को छूने वाली हैं। पाठक कालेखक के कथ्य और अभिव्यक्ति से भावनात्मक एकाकारलेखक की अनुभूतियों कीसच्चाई और गहराई को प्रमाणित व स्थापित करता है।


श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के प्रस्ताव पर राजेन्द्र जी के साथ 'सहयोगीउपन्यास एक इंच मुस्कान लिख करअंजाने ही मन्नू जी ने पति राजेन्द्र से अपने बेहतर और उत्कृष्ट लेखन के झन्डे गाड़ दिए। 'बालिगंज शिक्षा सदनसे 'रानी बिड़ला कॉलिजऔर इसके बाद सीधे दिल्ली के 'मिरांडा हाउसमें अध्यापकी,  उनकी अध्ययवसायी प्रवृत्ति एवं उत्तरोत्तर प्रगतिशील होने की कहानी कहती है। मन्नू जी का व्यक्तित्व कितना बहुमुखी रहावे कितनी प्रतिभा सम्पन्न थीइसका पता उन्हें स्वयं को व उनके साथ-साथ हमें भी तब चलता हैजब एक बार ओमप्रकाश जी के कहने परउन्होंने राजकमल से निकलने वाली पत्रिका 'नई कहानीका बड़े संकोच के साथ सम्पादन कार्य भार सम्भाला और कुशलता से उसे बिना किसी पूर्व अनुभव के निभा ले गई। इस दौरान उन्हें लेखकों के मध्य पलने वाले द्वेष-भाव एवं ईर्ष्या का जो खेदपूर्ण व हास्यास्पद अनुभव हुआउससे वे काफ़ी खिन्न हुई और सावधान भी।



लेखिका की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि वे कभी भी किसी वाद या पंथ से  नहीं जुड़ी। उनके अपने शब्दों में -

मेरा जुड़ाव यदि रहा है तो अपने देश....व चारों ओर फैलीबिखरी ज़िन्दगी सेजिसे मैंने नंगी आँखों से देखाबिना किसी वाद का चश्मा लगाए। मेरी रचनाएँ इस बात  का प्रमाण हैं।”                                                  (पृ. 63)

राजेन्द्र जी के सारा आकाश” और  मन्नू जी की कहानी यही सच है” पर फ़िल्म बना करजब बासु चैटर्जी नेमन्नू जी से शरत्चंद्र की कहानी पर फ़िल्म बनाने के लिए स्वामी” का पुनर्लेखन करवायातो अपनी क्षमता पर विश्वास न करने वाली मन्नू जी ने फ़िल्म के सफल हो जाने पर फिर एक बार अपनी प्रतिभा  को सिद्ध कर दिखाया। इससे बढ़े मनोबल के कारण ही वे शायद अपनी कहानी अकेली” की और कुछ समय बाद प्रेमचन्द के निर्मला”  की स्क्रिप्ट व संवादटेलीफ़िल्म एवं सीरियल के लिए लिख सकीं।


सन् 19७९ में महाभोज” उपन्यास के प्रकाशन से और बाद में १०८०-८१ मेंएन.एस.डी. के कलाकारों द्वारा उसके सफल मंचन से धुँआधार ख्याति अर्जित करने वाली मन्नू जी का सरल व निश्छल मनदेश में राजनीतिक उथल-पुथल के चलते मुनादी” जैसी कविता लिखने वाले धर्मवीर भारती जी कीइन्द्रा गाँधी व संजय गाँधी की  प्रशंसा में लिखी गई कविता सूर्य के अंश” पढ़ कर यह सोचने पर विवश हुआ कि –

सृजन के सन्दर्भ  में शब्दों  के पीछे  हमारे विचारहमारे विश्वासहमारी आस्थाहमारे  मूल्य....कितना कुछ  तो निहित रहता हैतबमुनादी” जैसी कविता  लिखने वाली क़लम एकाएक कैसे यह (सूर्य के अंश) लिख पाई?”              (पृ. 131) 

लेखिका की यह सोच उनके दृढ़ मूल्यों और आस्थाओं का परिचय देती है।


मन्नू जी की बीमारी या अन्य किसी ज़रूरत के समयउनके मिलने वाले कैसे उनके पास दौड़े चले आते थे - यह  मन्नू जी के सहज व आत्मीय स्वभाव की ओर इंगित करता है।


यद्यपि मन्नूजी की कहानी को मैं खंडों में 'तद्भव', 'कथादेशआदि पत्रिकाओं में पढ़ती रहीकिन्तु टुकड़े - टुकड़े कथ्य के सूत्र व पिछले प्रसंग दिमाग़ से निकल जाते थेपर पुस्तक रूप में सारे प्रसंगों व सन्दर्भों को एक तारतम्य में पढ़ने से राजेन्द्र जीमन्नू जी तथा दोनों के लेखकीय एवं वैवाहिक जीवन का जो ग्राफ़ दिलोदिमाग़ में अंकित हुआवह कुछ इस प्रकार है -

विविध ग्रन्थियों (अहंअपना वर्चस्वकथनी और करनी में अन्तरग़लत व बर्दाश्त न किए जा सकने वाले अपने कामों को सही सिद्ध करने का फ़लसफ़ाविवाह संबंध को नकलीउबाऊ और  प्रतिभा का हनन  करने वाला माननाघर को दमघोटू कहकर घर और घरवाली की भर्त्सना करना) एवं कुठांओं (असंवाद व अलगाव की निर्मम स्थिति बनाए रखनापत्नी व लेखक मित्रों के अपने से बेहतर लेखन को लेकर हीन भावना से ग्रस्त रहनाकुंठित मनोवृत्ति के कारण ही असफल प्रेमतदनन्तर असफल विवाह का सूत्रधार होनाइसी मनोवृत्ति के तहत 'यहाँ तक पहुँचने की दौड़'  का  केन्द्रीय भाव मन्नू जी के अधूरे उपन्यास से उठा लेनाआदि आदि) से अंकित और टंकित राजेन्द्र जी का व्यक्तित्व;  - तो दूसरी ओर उभरता है मन्नू जी का शालीन व्यक्तित्व - जो जीवन्ततारचनात्मकतासकारात्मक क्रान्तिओज व शक्ति से आपूरितबचपन से लेकर 28 वर्ष की उम्र तक बेहद उर्जा व उत्साह के साथ जीवन में सधे कदमों से आगे बढ़ती रहीं। विवाहोपरान्त अपने 'एकमात्र भावनात्मक सहारे एवं लेखन के प्रेरणा स्रोत' - 'राजेन्द्र जीसे उपेक्षितअवमानित व अपमानित होकरटूट - टूट कर भीईश्वरीय देन के रूप में मिली अदम्य  उर्जा व शक्ति के बल परविक्षिप्त बना देने वाली पीड़ा को झेलकर स्वयं को सहेज- समेट कर लेखन और अध्यापन के क्षेत्र  में अनवरत ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ती रहीं। संवेदनशीलता - वह भी नारी की और ऊपर से लेखिका की - इतनी नाज़ुक और छुई-मुई कि अंगुली के तनिक दबाव से भी उसमें अमिट निशान पड़ जाएँ - कब तक सही सलामत रहती ?  लम्बे समय और उम्र के साथलगातार निर्मम चोटों से आहत हो किरचों में चूर चूर हो गईसहनशक्ति चुकने लगीबातें अधिक चुभने लगीं आत्मीयता की भूखी आत्माअपने अकेलेपन में शान्ति और सुकून पाने को तरसने लगी......! अदम्य शक्ति की एक निरीह तस्वीर !


मेरे मन में रह- रह कर यह प्रश्न उठता है कि संवेदनशील राजेन्द्र जी अपनी प्रेममयीप्रबुद्धभावुकयोग्य व समर्पित पत्नी के साथसमानान्तर ज़िन्दगी” के नाम पर छल- कपट क्यों करते रहे या मन्नू जी के इन गुणों व प्रतिभाओं के कारण ही वे और अधिक कुंठित महसूस करकेउनके साथ सैडिस्ट” जैसा व्यवहार करते थे ! मन्नू जी की बीमारी में उन्हें अकेला छोड़ कर चले जानाविवाह के बाद भी प्रेमिका मिता से संबंध बनाये रखना। न तो वे साथ रह कर भी साथ रहते थे और न ही संबंध विच्छेद करते थे। 35 वर्षों तक जो मन्नू जी को उन्होंने अधर में लटका कर रखा - क्या उनका  यह बर्ताव अफ़सोस करने योग्य नहीं है क्या अपराध था मन्नू जी का - यही कि वे उनकी एकनिष्ठ पत्नी थी,  उनसे आहत हो हो कर भीउन्हें प्यार करती रहीजो चोटेंघाव बेरहमी से उन्हें मिलेउफ़ किए बिना उन्हें सिर आँखों लगाती रहीं- इस  उम्मीद में कि आज नहीं तो कल'मुड़ मुड़ कर देखने वाले' राजेन्द्र एक बार मुड़ कर समग्रता मेंअपनी मन्नू को एकनिष्ठ आत्मीयता से देखेगें और निराधार कुंठाओं और ग्रन्थियों को काटकर हमेशा के लिए उसके पास लौट आएगें ! लेकिन यह उम्मीद कुछ समय तक तो उम्मीद ही बनी रही और बाद में 'प्रतीक्षाबन कर रह गई। इसे यदि एक निर्विवाद सत्य कहूँतो शायद अत्युक्ति न होगी कि संवेदनशीलविचारशील लेखक राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व का कुंठित पक्ष ही अधिक मुखर और सक्रिय रहाजिसके कारण उनका व्यक्तिगत,लेखकीय और वैवाहिक जीवन कभी स्वस्थ न रह सकाखुशीउल्लास और सहजता के वातावरण में श्वास न ले सका। उनके उस स्वभाव के असह्य बोझ को सहा जीवन संगिनी - मन्नू ने। अपनी उन मानसिक और भावनात्मक यातनाओं का ब्यौरा देते हुएविचारशील मन्नू जी ने पुरुष लेखकों  की प्रतिक्रिया का भी उल्लेख इस प्रकार किया है -

लेखक लोग धिक्कारेगेंफटकारेगें कि इतना दुखी और त्रस्त महसूस करने जैसा आखिर राजेन्द्र ने किया ही क्या है.....क्योंकि हर लेखक / पुरुष के जीवन में भरे पड़े होगें ऐसे प्रेम प्रसंगआखिर उनकी बीवियाँ भी तो रहती हैं।
                                                       
                                                                                        (पृ. 194) 


इस सन्दर्भ में इस तथ्य की ओर मैं सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगी कि अन्य लेखकों की पत्नियों सेमन्नू जी की स्थिति नितान्त अलग थी। क्यों क्योंकि  मन्नू जी के साथ विवाहराजेन्द्र जी पर थोपा हुआ नहीं थाअपितु यह मित्रता से प्रगाढ़ रूप लेता हुआ,पति-पत्नी संबंध में रुपान्तरित हुआ था। राजेन्द्र जीमन्नू जी को स्वेच्छा सेप्यार सेसुशीला जी के सामने उनका हाथ पकड़ कर,  इस क्रान्तिकारी संवाद के साथ

“ सुशीला जीआप तो जानती ही हैं कि रस्म-रिवाज़ में न तो मेरा कोई खास विश्वास हैन दिलचस्पीबट वी आर मैरिड ! (पृ. ४५) कह कर,अपने जीवन में सम्मानपूर्वक लाए थे। निश्चित ही मन्नू जी  थोपी गई पत्नियों की अपेक्षा श्रेष्ठ व सम्मानित स्थिति में होने के कारण,राजेन्द्र जी से मिलने वाली उपेक्षा से बुरी तरह छटपटाईंहताशा और निराशा के बोझिल सन्नाटे में संज्ञाशून्यवाणी विहीन तक होने की स्थिति में चली गई। प्रेम विवाह में पड़ी दरार अधिक त्रासदायक होती है - दिल को बहुत सालती है....।


मन्नू जी चाहती तो ३५ साल तक तिल -तिल ख़ाक होने के बजायएक ही झटके में अलग भी हो सकती थीलेकिन राजेन्द्र जी के प्रति अपने प्रगाढ़ लगाव के कारणजिसके तार पति के लेखकीय व्यक्तित्व से इस मज़बूती से जुड़े थे कि हज़ार निर्मम प्रहारों के बावज़ूद भी टूट नहीं पा रहे थे। पुस्तक के प्रारम्भ में मन्नू जी ने 'स्पष्टीकरणमें लिखा है –

राजेन्द्र से विवाह करते ही जैसे लेखन का राजमार्ग खुल जाएगा।”  x  x  x  जब तक मेरे  व्यक्तित्व का  लेखक पक्ष  सजीवसक्रिय रहा,चाहकर भी मैंराजेन्द्र से अलग नहीं हो पाई। राजेन्द्र की हरकतें मुझे तोड़ती थींतो मेरा लेखनउससे मिलने वाला यश मुझे जोड़ देता था।“                                               ( पृ. २१५)

मुझे आश्चर्य  होता है कि 1960 से भावनात्मक तूफ़ानों को झेलती हुईपल-पल डूबती साँसों को जीवट से खींच करउनमें पुन: प्राण फूँकती हुईमन्नू जी आज भी किस साहस से  अपने अस्तित्व को बनाए हुए हैं ! मन्नू जी की इस 'गीतामें उनके जीवन के अन्य अतिमहत्वपूर्ण प्रसंगों में - राजेन्द्र जी से जुड़े प्रसंग जिस प्रखरता और प्रचंडता से उभर कर आए हैंउनसे अन्य प्रसंग हर बार कहीं पीछे चले जाते हैंन जाने कौन सी परतों में जाकर छुप  जाते हैं और पति-पत्नी प्रसंग पाठक के दिलोदिमाग़ पर हावी हो जाते है।


मन्नू जी की यह कहानीउनकी लेखकीय यात्रा के कोई छोटे मोटे उतार चढ़ावों की ही कहानी नहीं हैअपितु जीवन के उन बेरहम झंझावातों और भूकम्पों की कहानी भी हैजिनका एक झोंकाएक झटका ही व्यक्ति को तहस नहस कर देने के लिए काफ़ी होता है। मन्नू जी उन्हें भी झेल गईं। कुछ तड़कीकुछ भड़की -फिर सहज और शान्त बन गईं। उन बेरहम झंझावातों के कारण ही मन्नू जी की कलम एक लम्बे समय तक कुन्द रही। रचनात्मकता के सहारे जीवन का खालीपन भरती रहीं थीऔर सन्नाटे को पीने की त्रासदी से गुज़री। किन्तु आज उन्हीं संघर्षों के बल पर वे उस तटस्थ स्थिति में पहुँच गई हैंजहाँ उन्हें न दुख सताता हैन सुख ! एक शाश्वत सात्विक भाव में बनीं रहती हैंऔर शायद इसी कारण वे फिर से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हो गई हैं।


मन्नू जी  के भीतर छुपी अदम्य  नारी शक्तिउस शाश्वत सात्विक भाव  को शत् शत्  नमन करते हुएमैं कामना  करती हूँ कि जब उन्होंने फिर से कलम उठा ही ली हैतो भविष्य में अब वे हम पाठकों को इसी तरह अपनी हृदयग्राही रचनाओं से कृतार्थ करती रहें।


- डॉ. दीप्ति गुप्ता
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