सोमवार, 26 मई 2008

एकालाप : Beyond द सेकंड सेक्स ....(स्त्रीविमर्श)

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'एकालाप' शीर्षक से इस ब्लॉग पर स्तम्भ लिखने की योजना को मूर्त रूप देना आरंभ हो रहा है। इस स्तम्भ का दायित्व लिया है डॉ.ऋषभ देव शर्मा ने। आगामी दिनों में नियमत: हम उन्हें यहाँ पढ़ सकेंगे।

एकालाप की पहली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हुई है -- क्यों बड़बडाती हैं औरतें

क्यों बड़बडाती हैं औरतें

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क्यों बड़बडाती हैं औरतें


( ऋषभदेव शर्मा )




नहीं मालूम कि अपने आप से बतियाना कैसी आदत है।
नहीं मालूम, लोग ऐसे आदमी को कैसी नज़र से देखते होंगे..
फिर भी अच्छा लगता है अपने आप से बतियाना।
कभी कभी अपने आप से गुँथ जाना - फल की अपेक्षा के बिना।


मैं ख़ुद से मुखातिब हुआ तो
लगा किसी ने कहा हो -
बड़बड : आप ही आप ; औरतों की तरह

क्यों बडबडाती हैं औरतें !
नहीं, अब कहाँ बडबडाती हैं औरतें ! अब तो वे खूब बोलती हैं.
जाने कब से चुप थीं !!



जाने कब से चुप थी मैं!
शायद तब से जब पहली बार मुझसे मेरा मैं छीन लिया गया था .
छीन लिया गया था मुझसे मेरा जंगल, मेरा खेत, मेरा शिकार, मेरी ताकत.
कल तक सारी धरती सबकी साझी थी,
घर भी साझा था।



कितना मनहूस था वह दिन जब किसी पिता ने
किसी भाई ने
किसी बेटे ने
किसी पति ने
किसी बेटी को
किसी बहन को
किसी मां को
किसी पत्नी को
सुझाव दिया था घर में रहने का,
हिदायत दी थी देहरी न लांघने की
और बंटवारा कर दिया था दुनिया का - घर और बाहर में.
बाहर की दुनिया पिता की थी - वे मालिक थे, संरक्षक थे.
भीतर की दुनिया माँ की थी - वे गृहिणी थीं संरक्षिता थीं.
माँ ने कहा था - मैं चलूंगी जंगल में तुम्हारे साथ; मुझे भी आता है बर्बर पशुओं से लड़ना !!
हँसे थे पिता -तुम और जंगल? तुम और शिकार ??कोमलांगी, तुम घर को देखो. बाहर के लिए मैं हूँ न !प्रतिवाद नहीं सुना था पिता ने और चले गए थे सावधान रहने का निर्देश देकर दरवाजे को उढकाते हुए.
माँ रह गयी थी बड़बड़ाती हुई ........


बस तभी से बड़बड़ा रही हैं औरतें ............

शनिवार, 17 मई 2008

प्रथमा

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आज वागर्थ पर डाली प्रतिक्रिया (सन्दर्भ)


अच्छा कोई भी हो सकता है,उसमें आयु, क्षेत्र, भाषा, लिंग, वर्ग या शिक्षा-अशिक्षा आदि से अन्तर नहीं आता, इसी प्रकार बुरा भी कोई भी हो सकता है, उसके होने में भी इन चीजों का कोई अन्तर नहीं है. स्त्री मुक्ति की लड़ाई किसी वर्ग -विशेष के विरुद्ध नहीं अपितु सामन्ती मनोवृत्ति के विरुद्ध है,शोषक व शोषित के बीच है,जरूरी नहीं कि वह पुरुष ही हो.



रही बात ब्लॊग्स् पर इन सब मुद्दों को परोसने की, तो ऐसी हर चेष्टा पर समूह बना कर जाना व टिप्पणी करना ही वह लालच है, जिसके चलते सब लोग स्त्री विषयक मुद्दों को अपने ब्लॊग्स् पर लिखते हैं ताकि इस बहाने बैठे ठाले एक दिन तो चहल-पहल हो जाए उनके ब्लॊग पर और बाद में वे सब टिप्पणियों के उत्तर में एक अन्तर्दृष्टि सम्पन्न- सा वक्तव्य लिख मारेंगे कि मैंने यह सब सोच समझ कर अत्यन्त विमर्शपूर्ण तरीके से लिखा था. ब्लॊग जगत् पर अभी यह नया नया हथकण्डा है सेक्स, फ़िल्में व गॊसिप आदि की कड़ी में. अत: उन्हें अधिक तवज्जो देने की भी जरूरत नहीं है, जिनके उद्देश्य सन्दिग्ध हैं.


रही बात जयपुर या कहीं भी और या किसी भी और अपराध में महिलाओं के संलग्न होने की,तो गलत, गलत है भले किसी ने भी किया हो. फिर यह कोई पहली महिला है क्या? करोड़ों महिलाएँ भर-भर अपराध में संलिप्त हैं. जो शरीफ़ बन कर घरों में बन्द हैं, उनमें भी अधिकांश छल-कपट की घरेलू राजनीति, ईर्ष्या-द्वेष, तेरा-मेरा, ऐसी-तैसी के जघन्यतम तक के अपराध बैठे-ठाले कर लिया करती हैं. इसी लिए तो उन्हें शिक्षा व समाज के कार्यों से जोड़ने की आवश्यकता है कि उनकी ऊर्जा सकारात्मक कार्यों में लगे, न कि विध्वंस में. शोषित व्यक्ति का मनोविज्ञान समझ आने पर वे आरोपी नहीं अपितु दुष्चक्र का हिस्सा पता चलेंगी.



स्त्री मुक्ति के नाम पर जारी स्त्रिय़ों का वितण्डावाद बल व सहायता की असल अधिकारी व हकदार प्रत्येक स्त्री के विपक्ष में जाता है.
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