एकालाप ४ : मैं नीलकंठ नहीं हुई
-ऋषभ देव शर्मा
-ऋषभ देव शर्मा
वे आए और रेखाएं खींच गए
मेरे चारों ओर
मेरे ऊपर नीचे
सब तरफ़ रेखाएँ ही रेखाएँ
मेरे चारों ओर
मेरे ऊपर नीचे
सब तरफ़ रेखाएँ ही रेखाएँ
.
मेरे हँसने पर पाबंदी
मेरे बोलने पर पाबंदी
मेरे सोचने पर पाबंदी
.
हँसी, तो सभा में उघाड़ी गई
बोली, तो धरती में समाना पडा
सोचा, तो आत्मदाह का दंड भोगा
.
फिर भी मैंने कहा
मैं हँसूँगी
मैं बोलूँगी
मैं सोचूँगी
.
मैंने पैरों में घुंघरू बाँध लिए
और अपने साँवरे के लिए
नाचने लगी
.
नाचती रही
नाचती रही
.
उन्होंने मुझे पागलखाने में डाल दिया
कुलनाशी और कुलटा कहा
साँपों की पिटारी में धर दिया
.
मेरे अंग-अंग से साँप लिपटते रहे
दिन दिन भर
रात-रात भर
मेरे पोर-पोर को डंसते रहे
चूर-चूर हो गयीं
नाग फाँस में मेरी हड्डियां
.
फिर भी
मैं नाचती रही
नाचती रही
नाचती रही
अपने साँवरे के लिए
.
उन्होंने विष का प्याला भेजा
मेरा नाच रुक जाए
मेरी साँस रुक जाए
.
मैंने पी लिया
विष का प्याला
सचमुच पी लिया
कंठ में नहीं रोक कर रखा
.
मैं नीलकंठ नहीं हुई
सारी नीली हो गई
साँवरी हो गयी
साँवरे का रंग जो था
.
मैं हँसती रही
मैं नाचती रही
.
मैं रोती रही
आँसुओं से सींचकर
प्रेम की बेल बोती रही.
.
जाने कब से हँस रही हूँ
जाने कब से नाच रही हूँ
जाने कब से रो रही हूँ
अकेली
.
कभी तो आनंद फल लगेगा
कभी तो अमृत फल उगेगा
.