शुक्रवार, 27 जून 2008

जितने बंधन, उतनी मुक्ति (एकालाप : स्त्रीविमर्श)

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एकालाप : जितने बंधन, उतनी मुक्ति

ऊपर से यह सवाल कि कैसी मुक्ति?

किससे मुक्ति??

कितनी मुक्ति???

नहीं,
व्याख्या की ज़रूरत नहीं।

मुक्ति चाहिए वहाँ वहाँ ,जहाँ जहाँ बंधन हैं !!!

~~ ऋषभ देव शर्मा

मेरे पिताजी संस्कृत के अध्यापक थे।
आचार्य थे, ज्योतिषी थे.
अनेक शिष्य थे उनके , पुरूष भी, महिलाएं भी।
सभी उनके चरण स्पर्श करते थे आदर से॥
पर महिलाओं को - लड़कियों को - वे मना कर देते थे चरण छूने से।
सदा कहते - स्त्रियों को किसी के चरण नहीं छूने चाहिए - पति और ससुराल पक्ष के वरिष्ठों के अलावा।
कभी किसी ने पूछ लिया - गुरु जी के चरण स्पर्श में कैसी आपत्ति?
आपत्ति है, बेटा। मैं नहीं हूँ आपका गुरु. स्त्री का गुरु है उसका पति.-कहा था उन्होंने

बार बार याद आती है वह बात ; स्त्री का गुरु है उसका पति !!
मन ही मन कई बार पूछा पिताजी से - यह कैसा न्याय है आपका?
पति चुनने का अधिकार तो आपके समाज ने स्त्री से पहले ही छीन लिया था,
आपने गुरु चुनने का अधिकार भी छीन लिया?
आपने तो अपनी ओर से सम्मान दिया स्त्री जातक को, स्त्री जाति को

- चाहे वह किसी भी आयु की हो चरण छूने से रोक दिया; आशीर्वाद दिया, शुभ कामनाएँ दीं ।

अच्छा किया।
पर पति को गुरु घोषित करके कहीं स्त्री के लिए विद्या,ज्ञान और साधना द्वार पर एक स्थायी पहरेदार तो नहीं खड़ा कर दिया ?

वह जिज्ञासा मन में रही - बाल मन की जिज्ञासा थी।
पर आज भी जब कोई छात्रा चरण स्पर्श के लिए झुकती है तो उस आचरण का संस्कार द्विविधा में डाल देता है मुझे।
नहीं, नहीं; लड़कियाँ पैर नहीं छूतीं हमारे यहाँ
- सहज ही मुंह से निकल जाता है उन्हें बरजता यह वाक्य.
कई बार समझाना भी पड़ा है -
मैं आपकी श्रद्धा को समझता हूँ, लेकिन स्त्री पूजनीय है हमारे लिए;
अरे, हम तो कन्या के चरण स्पर्श करते हैं।
[कई बार अपने को टटोला तो यह भी लगा कि दम्भी हूँ - शायद इस तरह अपनी छवि बनाता होऊँगा।]कई बार सोचता हूँ - कैसा दोहरा व्यवहार है हमारा!
एक और हम उनके चरण स्पर्श करते हैं और दूसरी और आज भी पैर की जूती समझते हैं।
गृह लक्ष्मियों की जूतों से पूजा आज भी हो रही है- गाँव ही नहीं, शहर में भी; अशिक्षित घरों में ही नहीं, उच्च शिक्षित घरानों में भी।
जब तक अपना गुरु, अपना मार्ग, अपना मुक्ति पथ स्वयं चुनने की अनुमति नहीं, तब तक इस घरेलू हिंसा से बचना कैसे सम्भव है?
कहते हैं , एक समय की बात है
लोग भगवान बुद्ध के पास पहुंचे और शिकायत की कि यदि स्त्रियाँ बौद्ध भिक्षु बन जायेंगी तो हमारे घर कैसे चलेंगे ?
और तब महिलाओं के सम्बन्ध में तथागत ने यह व्यवस्था दी कि स्त्रियों को पिता,पति और पुत्र के आदेश से चलना चाहिए और उनकी अनुमति से ही संघ में सम्मिलित होना चाहिए।
यानि, मुक्ति पथ है स्त्रियों के लिए भी - पर सशर्त !
जब तक पुरूष न चाहे तब तक स्त्री को बंधन में रहना ही है!
ऊपर से यह सवाल कि कैसी मुक्ति?
किससे मुक्ति??
कितनी मुक्ति???
नहीं, व्याख्या की ज़रूरत नहीं।
मुक्ति चाहिए वहाँ वहाँ, जहाँ जहाँ बंधन हैं !!!
किसी के हाथ बंधे हों, पैर भी मुंह भी, आँख नाक कान भी।
और कोई किसी एक बंधन की कोई एक गाँठ खोलकर पूछे -
और कितनी गांठें खोलनी हूँगी?
मसीहा बनने चले हो तो सारी गांठें खोलो न !
एक भी गाँठ कहीं बंधी रह गई तो मुक्ति तो अधूरी रहेगी न?

भरने लगे हैं जो पुराने थे घाव

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भरने लगे हैं जो पुराने थे घाव
अविनाश दत्त, दिल्ली






अपने जैसे लाखों लोगों की तरह 33 वर्षीय उषा चामड़ भी रोज़ सुबह निकल पड़ती थीं लोगों के घरों से मानव मल साफ़ करने के लिए। महीने भर ऐसे यंत्रणादायक काम के बाद उनके हाथ आते थे दस रुपए प्रति व्यक्ति प्रति घर.

छह साल की उम्र से विरासत में मिले इस धंधे यानी मानव मल को सिर पर ढोकर फेंकने के काम को सालों-साल करने के बाद उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था की ज़िन्दगी उन्हें इससे ज़्यादा और अलग भी कुछ देगी.
उनके जैसी ही लक्ष्मी नंदा के लिए ये कुछ ज़्यादा ही कठिन था. शादी के पहले उनके माता-पिता के घर वाले भी सफाई का काम करते थे पर मल उन्होंने पहली बार शादी के बाद उठाया.

चार साल पहले उन्होंने एक सामाजिक संस्था नई दिशा का साथ पकड़ा और उन्हें मानव मल हटाने से मुक्ति मिली। ज़िन्दगी जो बदली तो बदलती चली गई. जल्द ही उषा और लक्ष्मी न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक फैशन शो में मुख्य फैशन मॉडल की हैसियत से भाग लेंगी.

राजस्थान के अलवर ज़िले की रहने वाली ऊषा और लक्ष्मी न्यूयार्क जाने से पहले दिल्ली में रुकीं तो हमारी उनसे बात हुई.

हमने जब उनसे पूछा के न्यूयार्क जाकर क्या करेगीं तो तो ऊषा ने तपाक से उत्तर दिया " कैट वॉक."

और क्या-क्या करेंगे?

"मीटिंग अटेंड करेंगे, शॉपिंग करेंगे, होटलों में भी रुकेंगे और क्या।"

केवल एक झाडू-बाल्टी और टीन का एक छोटे टुकड़े से वो सालों-साल जिन घरों का मल उठाती थीं उन घरों में उन्हें हिकारत की नज़र से देखा जाता था. आज उन्ही घरों में उन्हें बड़े सम्मान से भीतर बुलाया जाता है और ख़ैरियत पूछी जाती है.
उत्साह से लबरेज़ लक्ष्मी और ऊषा आज अपना अतीत पूरी तरह से बदल देने को आतुर हैं.
चार साल पहले नई दिशा से जुड़ने के बाद लक्ष्मी ने पढ़ना लिखना सीखा। आज अपने चारों ओर से अचानक आ रहे नए अनुभवों को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश कर रही हैं.

पहली बार हवाई जहाज़ पर सफ़र करने के बाद उन्होंने लिखा...

“देख कर आई हूँ मैं उस जहाँ को
छू के आई हूँ मैं ऊँचे आसमाँ को
जहाँ लहराता है हवाओं का आँचल
जहाँ रुई जैसे उड़ते हैं बादल
आया है जीवन में नया बदलाव
भरने लगे हैं जो पुराने थे घाव
घाव जो अछूत होने का अहसास था
अछूत नाम के इस कलंक को अपने माथे से मिटाउँगी.”


सोमवार, 23 जून 2008

भारत में बेटियों के जिन्दा रहने की दर अब तक के सबसे निम्न स्तर पर

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आकलन है कि भारत में पिछले बीस साल में एक करोड़ बच्ची गर्भपात का शिकार
बनी हैं


ब्रितानी संस्था 'एक्शन एड' ने कहा है कि भारत में नवजात शिशुओं में बच्चियों के ज़िंदा रहने की दर अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है.
संस्था का कहना है कि अजन्मी बच्चियों के गर्भपात की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है.
'एक्शन एड' का मानना है कि नवजात लड़कियों की जान-बूझकर अनदेखी की जाती है और उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाता है.
संस्था की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के संपन्न प्रांतों में गिने जाने वाले पंजाब के एक इलाक़े में ऊँची जातियों के दस लड़कों पर मात्र तीन लड़कियाँ हैं.
'एक्शन एड' की रिपोर्ट का आकलन है कि अगर भारत लड़कों को प्राथमिकता देने के चलन में बदलाव नहीं ला पाता है तो आने वाले दिनों में हालात 'विकट' हो सकते हैं।


लड़कियाँ को न मानें बोझ
लड़कियों की संख्या में आ रही कमी का अध्ययन करने के लिए एक्शन एड ने कनाडा की संस्था इंटरनेशनल डेवेल्पमेंट रिसर्च सेंटर (आईडीआरसी) के साथ हाथ मिलाया.
दोनों संस्थाओं के संयुक्त अध्ययन दल ने उत्तर-पश्चिम भारत के पांच राज्यों में छह हज़ार से ज़्यादा घरों में लोगों से बातचीत की. सर्वेक्षण और भारत की पिछली जनगणना के आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया तो नतीजे लैंगिक अनुपात में बढ़ते अंतर की गंभीरता का अहसास कराने के काफ़ी थे.
रिपोर्ट में बताया गया है कि 'सामान्य' परिस्थितियों में हर 1000 लड़के पर 950 लड़कियाँ होनी चाहिए थीं.
लेकिन सर्वेक्षण में शामिल पाँच में से तीन राज्यों में यह अनुपात 1000 लड़कों पर 800 लड़कियों का पाया गया.
पाँच में से चार राज्यों में वर्ष 2001 की जनगणना के बाद से लड़के और लड़कियों के अनुपात में गिरावट दर्ज की गई.
अध्ययन से यह बात भी सामने आई है कि ऐसा सिर्फ़ गाँवों या ग़रीब या पिछड़े इलाक़ों में ही नहीं हो रहा है.
इसका कहना है कि शहरी इलाक़ों के संपन्न तबकों में भी लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों की संख्या में तेज़ी से कमी आ रही है.
एक्शन एड का मानना है कि गर्भ में पल रहे बच्चे का लिंग बता देने वाली अल्ट्रासाउंड तकनीक का बढ़ता उपयोग इसकी एक वजह हो सकता है


वंश बढ़ाने का बोझ
संस्था की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय औरतों पर लड़के पैदा करने का ज़बर्दस्त दबाव रहता है.
भारतीय समाज के बारे में रिपोर्ट का आकलन है कि यहाँ लड़कियों को संपत्ति न मानकर एक बोझ के रूप में देखा जाता है

रिपोर्ट के मुताबिक कई परिवार अल्ट्रासाउंड तकनीक की मदद से गर्भ में पल रहे बच्चे का लिंग जान लेते हैं और लड़की होने पर गर्भपात कराना बेहतर समझते हैं।



यह सब तब धड़ल्ले से चल रहा है जब भारत में 1994 में बना वह क़ानून लागू है जिसके तहत गर्भ में पल रहे बच्चे के लिंग की पहचान करना और उसके बाद गर्भपात कराना अपराध है।


रिपोर्ट का मानना है कि बच्चे के पैदा होने के दौरान अप्रशिक्षित दाई का होना नाभि में संक्रमण का ख़तरा बढ़ाता है और यह भी बढ़ते लैंगिक असमानता का एक कारण है।


एक्शन एड की महिला अधिकार नीति अधिकारी लौरा तुर्केट कहती हैं, "ख़ौफ़नाक बात तो यह है कि औरतों के लिए बच्ची पैदा करने से बचना अक्लमंदी माना जाता है।"


वे कहती हैं, "व्यापक समाज को देखों तो यह डरावनी और निराशाजनक स्थिति पैदा कर रही है."
लौरा का मानना है, "आगे इसमें बदलाव की ज़रूरत है। भारत को संपत्ति के अधिकार, शादी में दहेज और लिंग के महत्व जैसी सामाजिक और आर्थिक बाधाओं पर ध्यान देना होगा जो पैदा होने से पहले ही लड़कियों को निगल जाती हैं."


उनका आकलन है, "अगर हम अभी क़दम नहीं उठाते हैं तो भविष्य सूना-उजड़ा नज़र आ रहा है."
ब्रिटिश मेडिकल पत्रिका 'लैंसेट' का अनुमान है कि भारत में पिछले बीस साल में लगभग एक करोड़ लड़कियों को माँ की पेट से ही अलविदा कह दिया गया.


लड़कियों को निगलती बाधाएँ...
भारत को संपत्ति के अधिकार, शादी में दहेज
और लिंग के महत्व जैसी सामाजिक और आर्थिक बाधाओं पर ध्यान देना होगा जो पैदा होने
से पहले ही लड़कियों को निगल जाती हैं


लौरा तुर्केट, एक्शन एड

शनिवार, 21 जून 2008

लड़कियों में अच्छी नहीं अतिचंचलता

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शोध बताते हैं कि अति चंचल लड़कियों को वयस्क होने पर ज़्यादा गंभीर समस्याएं पेश आ सकती हैं.
21 साल तक की 800 लड़कियों पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि लड़कियों में अति चंचलता वयस्क होने पर उनकी नौकरी की ख़राब संभावनाएं, ग़लत संबंध और कम उम्र के गर्भधारण का कारण बन सकती है.
इससे पहले किए गया एक शोध बचपन में लड़कों की अति चंचलता पर केंद्रित था जिसमें पाया गया था कि लड़कों में अति चंचलता को ज़्यादा आसानी से पहचाना और इलाज किया जा सकता है.
कना़डा और इंग्लैंड के यह शोध 'जनरल साइकाइट्री' पत्रिका में छपे हैं।

लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों में अति चंचलता हालांकि बहुत कम पाई जाती है लेकिन जिन लड़कियों में यह पाई जाती है, उनमें बाद में अनेक समस्याएं पैदा होने की आशंका होती है

शोधार्थियों का मानना है कि ऐसी अतिचंचल लड़कियों के अभिभावकों को स्कूलों में उनके बेहतर प्रदर्शन के लिए शुरूआत से ही उनके सक्रियता स्तर को पहचान कर उन्हें मदद देनी चाहिए.
छह से 21 साल तक की लड़कियों पर केंद्रित इस अध्ययन में ऊपर-नीचे कूदने, आराम से एकटक न बैठने और बेचैनी के लक्षणों को जाँचा।

आक्रामकता
शोधार्थियों ने इनमें शारीरिक आक्रामक व्यवहार के स्तर को भी परखा जैसे लड़ना-झगड़ना, मारपीट करना, उठापटक करना, काटना इत्यादि.
हर दस में से एक लड़की में अति चंचलता का उच्च स्तर पाया गया जबकि दूसरी दस लड़कियों में अति चंचलता के उच्च स्तर के साथ शारीरिक रूप से आक्रामक व्यवहार भी पाया गया.
इस अध्ययन के अनुसार सबसे ज़्यादा चंचल या आक्रामक लड़कियों को दोगुने से भी ज़्यादा धूम्रपान की लत का शिकार होने और अनुचित संबंधों में लिप्त होने के आसार दोगुने से भी ज़्यादा हो सकते हैं और स्कूल में इनका प्रदर्शन चार गुना ख़राब हो सकता है.
जबकि अति चंचल और आक्रामक दोनों व्यवहारों वाली लड़कियों में बाद में कम उम्र में गर्भधारण की समस्या के अलावा अपने साथी के लिए शारीरिक और मानसिक आक्रामकता भी देखी गई.
स्कूल में अच्छे प्रदर्शन के लिए शुरूआत में ही लड़कियों के सक्रियता स्तर को पहचान कर मदद देनी चाहिए
एक चौथाई अति चंचल लड़कियों में बाद में कोई समस्या नहीं पाई गई.
यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन के शोधार्थी और इस अध्ययन के प्रमुख डॉ नेथली फ़ोंटेन ने कहा, "अब से पहले लड़कियों में अति चंचलता पर बहुत कम शोध हुए हैं।"

स्कूल में प्रदर्शन
उन्होंने कहा, "लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों में अति चंचलता हालांकि बहुत कम पाई जाती है लेकिन जिन लड़कियों में यह पाई जाती है, उनमें बाद में अनेक समस्याएं पैदा होने की आशंका होती है."
उन्होंने कहा कि यह बात नई नहीं है क्योंकि बहुत सी समस्याएं तो स्कूल में ख़राब प्रदर्शन से ही पैदा होती हैं.
उनके अनुसार, "इस क्षेत्र में और ज़्यादा शोध की ज़रूरत है ताकि ऐसी समस्याओं के बढ़ने के कारणों और बचाव के उपायों को समझा जा सके."
साउथ-वेस्ट लंदन में बाल और किशोर मनोविज्ञान के सलाहकार डॉ मोरिस वी कहते हैं कि ऐसे ही परिणाम अति चंचल लड़कों में भी देखे गए हैं.
उनके अनुसार, "अति चंचलता अधिकतर लड़कों में ही पाई जाती है और हम इसके कारणों के बारे में नहीं जानते."
उन्होंने कहा, "लड़कियों में ध्यान भंग होने के लक्षण ज़्यादा पाए जाते हैं इसलिए उन्हें ऐसे ही छोड़ दिया जाता है क्योंकि वह बहुत परेशानियाँ पैदा नहीं करतीं"।

"लड़कों के मुक़ाबले लड़कियों में अति चंचलता हालांकि बहुत कम पाई जाती है लेकिन जिन लड़कियों में यह पाई जाती है, उनमें बाद में अनेक समस्याएं पैदा होने की आशंका होती है".
-
डॉक्टर नेथली फ़ोंटेन



बी.बी.सी.से साभार

बुधवार, 18 जून 2008

महिला आरक्षण विधेयक वापस हो : ऐसे ऐसे तर्क

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वोट की राजनीति और तर्क का सच कब एक होते हैं? जरा बानगी लें ---

महिला आरक्षण विधेयक वापस हो: मुलायम

Jun 18, 06:05 pm
लखनऊ। संसद एवं राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने के उद्देश्य से राज्यसभा में पेश विधेयक को लोकतंत्र के लिए खतरनाक करार देते हुए समाजवादी पार्टी [सपा] मुखिया मुलायम सिंह यादव ने बुधवार को इसे अविलंब वापस लेने की मांग की।
मुलायम ने दावा किया कि राष्ट्रीय जनता दल [राजद] अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, जनता दल [यू] अध्यक्ष शरद यादव और शिवसेना भी इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। लोगों को इस साजिश के बारे में जागरूक करने के लिए नई दिल्ली तथा देश के अन्य हिस्सों में संयुक्त रैली आयोजित करने के लिए हम जल्द ही उनसे संपर्क करेंगे।
उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार आगामी लोकसभा चुनावों के ऐन पहले महिला आरक्षण लागू करने की साजिश रच रही है। यह कदम अगर राजनीतिक सहमति के बिना उठाया गया तो अलोकतांत्रिक होगा। केंद्र सरकार से इस विधेयक को तत्काल वापस लेने की मांग करते हुए उन्होंने कहा कि सपा राजनीतिक पार्टियों के माध्यम से महिलाओं को 15 प्रतिशत आरक्षण देने की पक्षधर है। इसमें से 10 फीसदी सीटें अनुसूचित जाति/जनजाति, पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं के लिए सुरक्षित की जानी चाहिए और बारी-बारी से आरक्षण की व्यवस्था को खत्म किया जाए।
पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राजनीतिक दलों को पहले यह आश्वासन दिया है कि यह विधेयक उनकी सहमति से ही संसद में पेश तथा पारित किया जाएगा। उन्होंने कहा कि अब उन्हें पिछले दरवाजे से इस विधेयक को संसद में पेश करने की क्या जल्दी थी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सराहना करते हुए मुलायम ने कहा कि उन्होंने अपनी बात रखी और राजनीतिक दलों में आम सहमति नहीं होने पर महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश नहीं किया।
उन्होंने कहा कि अगर महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया तो कल यह आरक्षण बढ़कर 55 प्रतिशत हो जाएगा जो अन्य वर्र्गो विशेषकर पुरुषों के साथ अन्याय होगा। मुलायम ने आरक्षण की रोटेशन व्यवस्था का भी पुरजोर विरोध करते हुए कहा कि इससे आम आदमी और जनप्रतिनिधियों के संबंध खत्म हो जाएंगे। पंचायत और स्थानीय निकायों में लागू की गई महिला आरक्षण व्यवस्था की खामियों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि अब भी प्रधान पति, प्रमुख पति, परिषद पति और जिला पंचायत अध्यक्ष पति बैठकें आयोजित कर रहे हैं और गैरकानूनी ढंग से रोजमर्रा के कामकाज में हिस्सा ले रहे हैं।
यादव ने कहा कि महिला आरक्षण का विरोध कर रहे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव समेत अन्य नेताओं से जल्द ही मुलाकात करके वह इस मुद्दे पर केंद्र के खिलाफ एक रैली आयोजित करने के लिए वह उनसे सहयोग मांगेंगे। यह पूछने पर कि क्या आगामी लोकसभा चुनाव में वह महिलाओं को 15 फीसदी आरक्षण देने के लिए तैयार हैं, उन्होंने कहा कि महिला नेताओं की काफी कमी है और लोकसभा चुनाव मैदान में उतरने के लिए महिला उम्मीदवारों की संख्या काफी कम है।
साथ ही मुलायम ने कांग्रेस के साथ अपनी पार्टी के लोकसभा चुनावों से पहले तालमेल की अटकलों को भी विराम दे दिया। मुलायम ने कहा कि वह कांग्रेस से कोई समझौता नहीं कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि कम से कम उत्तर प्रदेश में सपा कांग्रेस से बड़ी पार्टी है। हम उससे हाथ कैसे मिला सकते हैं। उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूत करने के इरादे से कही मेरी बात को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है जिससे मीडिया में सपा और कांग्रेस की नजदीकियों की अटकलों को हवा मिलती है।
मुलायम ने लोकसभा चुनावों के बाद किसी गठबंधन आदि के बारे में कोई भी टिप्पणी करने से इनकार किया। उन्होंने दिल्ली में कांग्रेस और सपा के वरिष्ठ नेताओं के बीच संभावित तालमेल के लिए उच्चस्तरीय बैठक आयोजित होने की खबरों को भी निराधार बताया। उन्होंने कहा कि आगामी लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी उम्मीदवारों का फैसला केंद्रीय संसदीय बोर्ड करेगा और इसमें पार्टी के किसी अन्य संगठन का कोई दखल नहीं होगा।

('जागरण' से साभार)

सोमवार, 16 जून 2008

स्त्री विमर्श : एकालाप : २ (पत्नीं मनोरमां देहि )

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पत्नीं मनोरमां देहि
-ऋषभ देव शर्मा









  • व्यवस्था ज़रूरी है समाज के सुचारू संचालन के लिए। इसलिए उन्होंने 'घर' और 'बाहर' का बंटवारा कर दिया


इसी के साथ बंटवारा कर दिया श्रम का।

जन्मना स्त्री होने के कारण मेरे हिस्से में 'घर' और 'घर का काम' आ गया।

वे धीरे-धीरे मालिक बन गए और मैं गुलाम।

मैं चाहकर भी अपना क्षेत्र नहीं बदल सकती थी।

सेवा करना ही अब मेरी नियति थी !




  • मालिक तो मालिक है।

गुलाम उसके लिए मेहनत करते हैं, उत्पादन करते हैं।

हम औरतों ने भी अपनी मेहनत और अपना उत्पादन सब जैसे मालिक के नाम कर दिया।

घर बनाया हमने - बसाया हमने।

मालिक वे हो गए।

होते ही.

हमारे मालिक थे, तो हमारे घर के भी मालिक थे।

हमें बहलाना भी उन्हें खूब आता था।

वस्तुओं पर हमारे नाम अंकित कर दिए गए।

हम खुश।

पर सच तो यही था कि नाम भले हमारे लिखे गए हों, सब कुछ था मालिक का ही।

और तो और, हमारे बच्चे भी हमारे न थे।

उत्पादक स्त्री, उत्पादन स्त्री का; उत्पाद मालिक का।

हमारे श्रम का फल, हमारे सृजन का फल - दोनों ही हमारे न हुए.




  • देह से हमने श्रम भी किया और सृजन भी।

उत्पादन और पुनरुत्पादन - दोनों क्षमताएँ हमारी होकर भी हमारी न रहीं।

न देह और न घर - पर हमारा नियंत्रण रहा।

अपने बारे में, अपने शरीर के बारे में, अपने घर के बारे में, अपनी संतान के बारे में - कोई फैसला करने का हक हमारे पास नहीं रहा।

सारे फैसले हमारे लिए वे करने लगे - कभी पिता बनकर, तो कभी पति बनकर।

वह दिन भी आ गया जब स्त्री को जन्म लेना है या नहीं, यह भी वे ही तय करने लगे।

पुरूष विधाता बन गया।

शायद विधाता कोई पुरूष ही होगा - अगर कहीं हो, या कभी रहा हो।


  • सारे निर्णय उनके हिस्से में आए।

और मेरे हिस्से में आया अनुकरण, अनुगमन, अनुपालन, अनुसरण।

बेशक, उन्होंने मुझे देवी बनाकर पूजा भी।

पर कितनी चालाकी से मुझसे मेरी आजादी के बंधक-पत्र पर हस्ताक्षर करा लिए।

भक्त बनकर आए वे मेरे सामने; और हाथ जोड़कर याचना की -"पत्नीं मनोरमां देहि, मनोवृत्तानुसारिणी/तारिणी दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम। "

हंह!उन्होंने मुझे पत्नी बना लिया - मुझे उनकी आज्ञाओं का ही नहीं, मानसिक और अप्रकट इच्छाओं का भी अनुसरण करना होगा,

अपनी कुलीनता औ पवित्रता के बल पर मैं उन्हें पापों के दुर्गम संसार सागर के पार ले जाऊं।

मैं तो साधन हूँ, माध्यम भर हूँ - उनकी मुक्ति के लिए।

  • और मेरी मुक्ति?

मेरी देह की मुक्ति, मेरे मन की मुक्ति, मेरी आत्मा की मुक्ति??

मेरी वैयक्तिक मुक्ति, मेरी सामाजिक - आर्थिक मुक्ति, मेरी आध्यात्मिक मुक्ति???

नहीं, शायद मेरी मुक्ति का कोई अर्थ नहीं - जब तक मैं छाया हूँ।
छाया कहीं कभी मुक्त होती है?
तो...छाया हूँ मैं...चिर बद्ध छाया?



स्त्री नहीं हूँ मैं?

मंगलवार, 10 जून 2008

बलात्कार : घिनौने चेहरे और तस्वीरें

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हमारे यहाँ अक्सर बड़े से बड़े और छोटे से छोटे दोष, कमी, अपराध, पाप का दायित्व समाज में स्त्री पर डाल दिए जाने की प्रथा अद्यतन चली आ रही है। श्रेय की पगड़ी अक्सर मालिकों के सिर बांधी जाती है, मालिक अर्थात् प्रभुतासम्पन्न। यह अन्तर शोषित वा शोषक के बीच का है। शासक का चेहरा स्त्री के सन्दर्भ में समाज के किसी भी प्रतिभागी का चेहरा हो सकता है, भले ही स्त्री हो या पुरूष। ऐसा नहीं है की सत्ता पाने के पश्चात् स्त्री ने स्त्री पर अत्याचार न किए हों । वह भी बहुधा अपने प्रति हुए सारे अन्याय का बदला शासक बन ने पर शोषितों से लेने की वृत्ति में आ जाती है.किंतु सामाजिक संरचना में बहुधा सारे क्रिया कलापों में शासक किसी न किसी रूप में पुरूष रहता आया है.कभी कभी सब कुछ गँवाने के बावजूद वह अपने पशुबल में अधिक होने का लाभ लेते हुए सत्तात्मक हुआ रह्ता है. यह सत्तात्मक वृत्ति एक स्थाई चरित्र के रूप में उसके समस्त आचरणों की नियामक बनती है. इस की मात्रा कम अथवा अधिक होना उसके संस्कार, पारिवारिक व सामाजिक जीवन, शिक्षा, रिश्ते, लालन-पालन एवम् निजी व्यक्तित्व में समाहित आत्मपरख की प्रवृत्ति के न्यूनाधिक्य आदि पर निर्भर करती है.

स्त्री की लड़ाई इसी सत्तात्मक पशुता के विरुद्ध है, भले ही यह सत्तात्मक पशुता किसी भी माध्यम या किसी भी रूप में स्त्री का शोषण कर रही हो. जब बार-बार स्त्री निजता की, अस्मिता की अथवा सशक्तीकरण की बात करती है तो कहीं न कहीं मूलत: वह आत्मरक्षा के प्रति अनाश्वस्त होती है. आत्मरक्षा अर्थात् दैहिक, मानसिक, वैचारिक अथवा भावनात्मक निजता की.

जो पुरुष स्त्री के इस सबलीकरण का अक्सर विरोध किया करते हैं या नाक- मुँह चिढा़ते हैं वे जरा सोच लें कि क्या स्त्री की दैहिक,मानसिक, वैचारिक व भावनात्मक निजता का उनके लिए अपने समान ही पूर्ण स्वतन्त्र सम्मानित स्थान है ( व्यक्तिगत जीवन में या पारिवारिक /सामाजिक जीवन में). जब तक इस प्रश्न का उत्तर लेशमात्र भी "न" में आता है तब तक स्त्री की अपनी अस्मिता की लड़ाई सोलह आने जायज है. किसी को अधिकार नहीं कि वह उसका विरोध करे या मखौल बनाए. जब तक एक भी पुरुष पशुबल में अन्धा होकर स्त्री पर आक्रमण करता है (बिस्तर में,सीमा पर, घर में, बाजार में, भीड़ में, अकेले में, अन्धेरे में, उजाले में, परिवार में, समाज में, संसार में, .... या कहीं भी किसी भी रूप में) तब तक स्त्री असुरक्षित ही है, अबला ही है,शोषित ही है, वंचिता ही है. भले ही कितने भी मुलम्मे वह अपनी पाशविकता पर चढा ले, कि अमुक कारण से.... अमुक ...अमुक... अमुक....

जो लोग बहुधा यह कहा करते हैं कि स्त्री का पहरावा पुरुष के पशुबल को उकसाने का कारण बना वे जरा सी अक्ल दौड़ाएँ तो जान जाएँगे कि क्या परदे, बुर्के, घूँघट में दबी, ढकी, छिपी स्त्री के साथ बलात्कार नहीं हुए? सच तो यह है कि इन्हीं के साथ बलात्कार का अनुपात अधिक है. आक्रमण की वृत्ति को जब बडी बड़ी सीमाएँ,मर्यादाएँ, दबाव, अंकुश,दंड व भय न रोक पाए तो एक २-४ किलो का वस्त्र भला क्या चीज है? और आज भी ऐसी कई जातियाँ मानव समाज में हैं जहाँ स्त्री-पुरुष लगभग पूर्ण नग्नावस्था में जीवन यापन करते हैं तब तो वहाँ प्रतिदिन व प्रति क्षण बलात्कार होते होगे ( यदि वस्त्र की मात्रा बलात्कारी का अंकुश है तो).

वस्तुत: संस्कारों में निरंकुशता का अंकुर व पशुबल की वृत्ति, अधिकार सम्पन्न होने का दम्भ, अपराधी मानसिकता, आक्रामकता व कुंठा आदि जैसे तत्व मिलकर ही इस घिनौने कृत्य के लिए उकसाते हैं.अब भला उन्हें क्या कहें जो बलात्कार के लिए भी स्त्री को दोष देते हैं कि गाजर भला इतनी रसीली क्यों थी, खुले में क्यों थी, .. कि उनका जी ललचा गया.... वाह रे ...वाह.

इसी पशुबल का नजारा संसार के सबसे आधुनिक, बली, शक्ति व समृद्धि के पर्याय कहाते देश के आधुनिक संसाधनों से लैस सैनिकों ने यों पेश किया -
Photos Show Rape of Iraqi woman
by US Occupation Forces
Please Note: Many of the photographs showing the rape of Iraqi women and the sodomization of Iraqi POW's at the Abu Ghraib prison are now at USA pornographic websites pointing to the possibility of collusion between the depraved US soldiers in the pictures and US based Jewish pornographers. Many of these photographs were also freely disseminated to US occupation forces, perhaps to inflame their nefarious desires and to motivate them to strike out against the Iraqi populace in these perverse ways.)
by
Ernesto Cienfuegos
La Voz de Aztlan

Los Angeles, Alta California - May 2, 2004 - (ACN) The release, by CBS News, of the photographs showing the heinous sexual abuse and torture of Iraqi POW's at the notorious Abu Ghraib prison has opened a Pandora's box for the Bush regime. Apparently, the suspended US commander of the prison where the worst abuses took place, Brigadier General Janis Karpinski, has refused to take the fall by herself and has implicated the CIA, Military Intelligence and private US government contractors in the torturing of POW's and in the raping of Iraqi women detainees as well.
Brigadier General Janis Karpinski said to the Washington Post that Military Intelligence, rather than the Military Police, dictated the treatment of prisoners at Abu Ghraib prison. "The prison, and that particular cellblock where the events took place, were under the control of the Military Intelligence command," Brigadier General Karpinski said to the Washington Post Saturday night in a telephone interview from her home in Hilton Head, South Carolina.
Brigadier General Karpinski, who commanded the 800th Military Police Brigade, described a high-pressure Military Intelligence and CIA command that prized successful interrogations. A month before the alleged abuses and rapes occurred, she said, a team of CIA, Military Intelligence officers and private consultants under the employ of the US government came to Abu Ghraib. "Their main and specific mission was to give the interrogators new techniques to get more information from detainees," she said.

Today, new photographs were sent to La Voz de Aztlan from confidential sources depicting the shocking rapes of two Iraqi women by what are purported to be US Military Intelligence personnel and private US mercenaries in military fatigues. It is now known that hundreds of these photographs had been in circulation among the troops in Iraq. The graphic photos were being swapped between the soldiers like baseball cards.
Speaking on condition of anonymity, one Mexican-American soldier told La Voz de Aztlan, "Maybe the officers didn't know what was going on, but everybody else did. I have seen literally hundreds of these types of pictures." Many of the pictures were destroyed last September when the luggage of soldiers was searched as they left Iraq, he said
An investigation, led by Army Major General Antonio M. Taguba, identified two military intelligence officers and two civilian contractors for the Army as key figures in the abuse cases at the Abu Ghraib prison. In an internal report on his findings, Major General Taguba said he suspected that the four were "either directly or indirectly responsible for the abuses at Abu Ghraib and strongly recommended disciplinary action."
The Taguba report states that "military intelligence interrogators and other U.S. Government Agency interrogators actively requested that Military Police guards set physical and mental conditions for favorable interrogation of witnesses." The report noted that one civilian interrogator, a contractor from a company called CACI International and attached to the 205th Military Intelligence Brigade, "clearly knew his instructions" to the Military Police equated to physical and sexual abuse. It is not known whether these instructions included, or led to, the raping of Iraqi women detainees as well.


Iraqi POW Torture Photographs (Click Here)


A released Iraqi POW has come forward and stated to the internationl media that that he was sodomized at the Abu Ghraib prison while a female US soldier cheered and the entire incident filmed.

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