बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

तुलसी की स्त्रीनिंदा (?) और स्त्रीविमर्श का ध्येय

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तुलसी की स्त्रीनिंदा (?) और स्त्रीविमर्श का ध्येय 

- (डॉ.)कविता वाचक्नवी






कवि तुलसीदास के प्रसंग में उनके स्त्री विषयक कुछ कथनों पर आपत्ति / या प्रश्न-प्रसंग बार बार कई लोग उठाते हैं। आज एक लेख पर प्रतिक्रिया करते हुए किसी ने पुनः यह विषय उठाया तो मैं स्वयं को रोक नहीं पाई। 


ऐसे प्रसंगों में एक बात यह भी ध्यान रखने की है कि भक्तिकाल अथवा सन्यासी आदि की नीति इन प्रसंगों में भिन्न होनी स्वाभाविक है। वह सामान्य व्यक्ति की स्त्री विषयक अवधारणा या दृष्टिकोण का पता नहीं देती अपितु एक संस्कार- विशेष अथवा नीति-विशेष वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण का पता देती है । 



दूसरी बात, मेरी जानकारी के अनुसार किसी भी लेखक के लेखन में पात्र भिन्न भिन्न होते हैं, जो खल/दुर्जन और सज्जन इत्यादि विविध सामाजिक कोटियों के ही होते हैं। अब यदि किसी खल पात्र की भूमिका को लेखक लिखेगा तो क्या लिखेगा ? जैसे रावण के संवाद लिखेगा तो लेखक ही; और सज्जन के भी लिखेगा तो लेखक ही। इन सज्जन और दुर्जन पात्रों के संवादो या कथनों को लेखक के निजी विचार मानना कितना न्याय संगत है? 



इसलिए आवश्यक होता है कि किसी भी कथन के प्रसंग, परिप्रेक्ष्य, संदर्भ, समय, तत्कालीनता, अवसर, इत्यादि ढेरों चीजों के साथ जोड़ कर देखना। तभी हम लेखक के साथ न्याय कर सकते हैं। यह भी ध्यान रखना होगा कि जो कथन किसी व्यक्तिविशेष के लिए कहा गया हो, वही समस्त वर्ग के लिए सही नहीं हो सकता। जैसे शूर्पनखा के व्यवहार से स्त्री की जो छवि बनती है उस पर टिप्पणी करते हुए कही गई बातें समस्त स्त्री जगत पर लागू नहीं हो सकतीं। 



अच्छे व बुरे सदा व हर स्थान, हर वर्ग/समुदाय में होते है। जैसे, ऐसा नहीं है कि स्त्री सदा गलत/बुरी व पुरुष सदा सही/अच्छा हो और स्त्री सदा सही/अच्छी व पुरुष सदा गलत/ बुरा हो। ऐसा भी होता है कि एक ही व्यक्ति अलग अलग भूमिका में अलग अलग प्रकार का हो जाता है। जैसे पिता या पुत्र या भाई के रूप में अच्छा व्यक्ति आवश्यक नहीं कि अच्छा पति भी हो; अथवा ठीक इस से उलटा कि कि माँ, बहन और बेटी के रूप में स्त्री बहुत अच्छी हो किन्तु सास के रूप में कर्कश। 



मानव-निर्माण की यह प्रक्रिया संस्कार, परिवेश, समय और परिस्थिति और प्रसंग सापेक्ष होती है। अतः लड़ाई किसी व्यक्ति-विशेष अथवा वर्ग - विशेष के विरुद्ध होने की अपेक्षा प्रवृत्ति के विरुद्ध होनी चाहिए। पुरुष के विरुद्ध होने की अपेक्षा उसकी सामंतवादी और सत्तात्मकता के विरुद्ध होनी चाहिए। यह सत्तात्मकता यदि वंचित व्यक्ति द्वारा सत्ता पा जाने के पश्चात् उसमें भी आई तो उसके विरुद्ध भी। क्योंकि बहुधा ऐसा ही होता है। ऐसा करके हम समाज के वंचित और शोषित वर्गों का (भले ही वह स्त्री हो अथवा दलित) का अधिक भला कर सकेंगे और समाज के अधिक बड़े वर्ग को साथ जोड़ सकेंगे। 



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