लेकिन उनके दिल से निकला तो यह क्रूर और हताश वाक्य - माताजी, मैं अब विधवा कब हूँगी? इस वाक्य की थोड़ी चीरफाड़ की जाए, तो रहस्य का एक सिरा हाथ लगता है। हिन्दू स्त्री जानती है कि मृत्यु के पहले उसकी मुक्ति नहीं है। बेशक इस विवाह में अब तलाक की व्यवस्था है, लेकिन तलाक पाना आसान नहीं है। आसान हो, तब भी तलाक के नतीजे, खासकर जब बच्चे हो गए हों, इतने भयावह हैं कि तलाक किसी समाधान की तरह दिखाई नहीं देता।
विवाह की ट्रेजेडी का आख्यान
- राजकिशोर
दिल्ली में और दिल्ली के बाहर ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जिनका दावा है कि वे 'इदन्नम', 'चाक' और 'अल्मा कबूतरी' जैसे उपन्यासों की लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के बारे में सब कुछ जानते हैं। उनमें से शायद ही किसी को इस बात की जानकारी हो कि मैत्रेयी का एक उपन्यास दांपत्य जीवन की कटुता यानी पति के गुस्से का शिकार हो गया था और पूरा उपन्यास लेखिका को दुबारा लिखना पड़ा था। उस प्रसंग को याद करते हुए मैत्रेयी अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग 'गुड़िया भीतर गुड़िया' में लिखती हैं : 'डॉक्टर साहब की नाराजगी मेरे उपन्यास की पांडुलिपि ले डूबी। चिंदी-चिंदी घर में उड़ रही थी और मैं बिलख-बिलख कर रो रही थी। ऐसे में माँ ही होती है जो व्यथा सुन सकती है। मगर वे नहीं आईं, उन्होंने पत्र लिखा।
माँ ने अपने पत्र में दो मूल बातें कही थीं। एक, 'तू कुछ न बनी, बस कवि बन गई। इससे किसका भला होगा? तू कुछ कमाती तो पति तेरा वैल्यू समझता। आदमी को रुपया-पैसा औरत से भी ज्यादा प्यारा होता है।' यह बात शायद ठीक से कही नहीं गई थी। पुरुष कमाऊ पत्नी को पसंद करते हैं, लेकिन अपने ही घर में लेखिका की अवहेलना इसलिए नहीं हो रही थी। यह इसलिए हो रही थी, क्योंकि तब लेखिका के पास आय के स्रोत नहीं थे। वे अपने गुजारे के लिए पति पर निर्भर थीं। इसीलिए पति को यह साहस हो सका कि वे अपनी पत्नी की जब-तक ठुकाई करते रहें। दो, 'मैंने तो पहले ही कहा था ब्याह मत करे, तेरे लक्षण ब्याहवाली लड़कियों से अलग हैं।' इसके बाद मैत्रेयी पुष्पा के हृदय से जो उद्गार निकला, वह मनन करने योग्य है --'माताजी की चिट्ठियाँ या मेरी पांडुलिपि की चिंदियाँ… … मेरा कलेजा तार-तार हो गया और दिल से बस यही निकला -- माताजी, मैं अब विधवा कब हूँगी?'
माँ ने अपने पत्र में दो मूल बातें कही थीं। एक, 'तू कुछ न बनी, बस कवि बन गई। इससे किसका भला होगा? तू कुछ कमाती तो पति तेरा वैल्यू समझता। आदमी को रुपया-पैसा औरत से भी ज्यादा प्यारा होता है।' यह बात शायद ठीक से कही नहीं गई थी। पुरुष कमाऊ पत्नी को पसंद करते हैं, लेकिन अपने ही घर में लेखिका की अवहेलना इसलिए नहीं हो रही थी। यह इसलिए हो रही थी, क्योंकि तब लेखिका के पास आय के स्रोत नहीं थे। वे अपने गुजारे के लिए पति पर निर्भर थीं। इसीलिए पति को यह साहस हो सका कि वे अपनी पत्नी की जब-तक ठुकाई करते रहें। दो, 'मैंने तो पहले ही कहा था ब्याह मत करे, तेरे लक्षण ब्याहवाली लड़कियों से अलग हैं।' इसके बाद मैत्रेयी पुष्पा के हृदय से जो उद्गार निकला, वह मनन करने योग्य है --'माताजी की चिट्ठियाँ या मेरी पांडुलिपि की चिंदियाँ… … मेरा कलेजा तार-तार हो गया और दिल से बस यही निकला -- माताजी, मैं अब विधवा कब हूँगी?'
बुरी से बुरी स्थिति में भी कोई स्त्री विधवा होना नहीं चाहती। मैत्रेयी भी नहीं चाहती होंगी कि उनके पति का अचानक देहांत हो जाए और वे पुन: मुक्त स्त्री हो जाएँ वे सिर्फ विवाह के संताप से मुक्त होना चाहती थीं, लेकिन उनके दिल से निकला तो यह क्रूर और हताश वाक्य - माताजी, मैं अब विधवा कब हूँगी? इस वाक्य की थोड़ी चीरफाड़ की जाए, तो रहस्य का एक सिरा हाथ लगता है। हिन्दू स्त्री जानती है कि मृत्यु के पहले उसकी मुक्ति नहीं है। बेशक इस विवाह में अब तलाक की व्यवस्था है, लेकिन तलाक पाना आसान नहीं है। आसान हो, तब भी तलाक के नतीजे, खासकर जब बच्चे हो गए हों, इतने भयावह हैं कि तलाक किसी समाधान की तरह दिखाई नहीं देता। खासकर उन स्त्रियों के लिए जो मैत्रेयी पुष्पा की तरह गाँव की पृष्ठभूमि से शहर में आई हैं -- वे भीतर से तो मुक्त और साहसी होती हैं, पर शहर की दुनिया का मुकाबला कैसे करें, यह नहीं जानतीं। अतएव वे तमाम तकलीफें सहते हुए भी विवाह को तोड़ने का जोखिम लेना नहीं चाहतीं। हालाँकि इस आत्मकथा के शुरू में ही इल्माना नाम की एक तेजस्वी स्त्री का जिक्र आया है, जिसने विवाह के भीतर घुटते रहने से तलाक लेना बेहतर समझा, लेकिन लेखिका में जद्दो-जहद करने की क्षमता चाहे जितनी हो, उसकी मानसिक पृष्ठभूमि इस तरह की नहीं है कि वह अपने वैवाहिक संबंध को लात मार कर स्वतंत्र जीवन जीने की शुरुआत कर सके। वह स्त्री पहले है, लेखक बाद में। लेकिन वह स्त्रीत्व का क्या करे, जो उसके रचनात्मक विकास में बाधक हो रहा हो? इसीलिए उसके अंतस से यह करुण आवाज उठती है कि अब मेरे स्वतंत्र होने का रास्ता क्या है? जाहिर है, वह अपनी कुमारी अवस्था में लौट जाना चाहती है, जब उस पर किसी प्रकार के बंधन नहीं थे और वह अपना मनचाहा जीवन जी सकती थी। माताजी, मैं अब विधवा कब हूँगी -- के पीछे स्वतंत्रता का यही आर्तनाद है, किसी की मृत्यु की कामना नहीं। वैधव्य का अर्थ कुँवारापन है, वैवाहिक स्थिति के अवसान की कामना है। अन्यथा विधवा होने का चाव किसे हो सकता है?
दरअसल, यह पूरी आत्मकथा विवाह संस्था के विरुद्ध एक लंबी एफआईआर है। विवाहित स्त्री का जीवन कितना दयनीय हो जाता है, यह बात कही तो बार-बार जाती है, पर आत्मकथा के स्तर पर इसके साक्ष्य बहुत ज्यादा उपलब्ध नहीं हैं। बहुत पहले मैंने नयनतारा सहगल की एक किताब पढ़ी थी -- रिलेशनशिप, जिसमें उन्होंने विस्तार से बताया था कि विवाह के बाद उनकी स्थिति क्या हो गई थी। उन्हें न केवल कैद कर दिया जाता था, बल्कि उन पर हाथ भी उठाया जाता था। इस तरह के छिटपुट वृत्तांत मिल जाते हैं, लेकिन हिन्दी में यह शायद पहली मुकम्मिल किताब है जिसमें वैवाहिक जीवन की घुटन का सिलसिलेवार और विश्वसनीय वर्णन सामने आया है। कहा जा सकता है कि डॉ. रमेशचंद्र शर्मा से उनका संबंध एक बेमेल विवाह था, जिसमें पति की अपेक्षाओं का पत्नी की विकास यात्रा से कोई तारतम्य नहीं था था। इसलिए इस संबंध में अपने-अपने स्तर पर दोनों कसमसा रहे थे। लेकिन सभी नहीं तो अधिकांश विवाह क्या बेमेल विवाह ही नहीं होते? जब राम और सीता का विवाह अंत में बेमेल विवाह ही साबित हुआ, तो साधारण विवाहों की क्या बिसात! मैं तो यह भी कहने के लिए तैयार हूँ कि अगर कोई विवाह शुरू में बेमेल नहीं होता, तो विवाह से पैदा होनेवाली स्थितियाँ ही उसे बेमेल बना देती हैं। दरअसल, यह ऐसा संबंध है, जिसमें प्रेम के बंधन और स्वतंत्रता की माँग के बीच संतुलन बिंदु बना पाना महात्माओं के लिए ही संभव है।विवाह संस्था पर दुनिया भर में विचार-पुनर्विचार चल रहा है। पश्चिमी समाजों में तो विवाह एक खामोश मौत मर रहा है। वहाँ एकल माताओं और एकल पिताओं की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि भविष्य के बारे में सोच कर डर लगता है। फिर भी विवाह हो रहे हैं और समाज व्यवस्था के स्तर पर विवाह की विदाई का कोई प्रस्ताव उभरता हुआ दिखाई नहीं देता। इसके कारण हैं और ठोस कारण हैं। विवाह के अभ्युदय के पहले मानव समाज लाखों-करोड़ों साल तक उन्मुक्त जीवन बिता चुका था, जैसा कि पशु जगत में अब भी देखा जाता है। पशु जगत में पेयरिंग अब भी होती है, पर पाणिग्रहण का कोई विधान नहीं है। जब से विवाह आया, तभी से स्त्री पराधीन हुई। विवाह का इतिहास वस्तुत: स्त्री की पराधीनता का इतिहास है। कुछ हद तक पुरुष की पराधीनता का भी। अब जबकि स्त्री एक आत्मनिर्भर इकाई हो रही है, वह अपनी खोई हुई आजादी की माँग कर रही है। लेकिन मौजूदा व्यवस्था में विवाह संस्था का अवसान उससे अधिक समस्याएँ पैदा करेगा जितनी समस्याओं का वह समाधान करेगा। जब विवाह नहीं था, तब सामुदायिकता थी। अब जब दूसरी बार विवाह नहीं होगा, उसके पहले एक सामुदायिक व्यवस्था की खोज करना आवश्यक होगा। इसे ही समाजवाद कहते हैं। निजी पूँजी और बाजारवाद के रहते हुए विवाहहीनता विवाह से ज्यादा भारी ट्रेजेडी होगी।