शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

मृतात्माओं का जुलूस : शालिनी माथुर

38 टिप्पणियाँ



अनामिका व पवन करण की ब्रेस्ट कैंसर विषयक कविताओं के बहाने हिन्दी कविताओं में पोर्नोग्राफ़ी व यौनिकता की अभिव्यक्तियों पर केन्द्रित शालिनी माथुर के लेख ( व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि ) से प्रारम्भ हुई बहस के क्रम में यहाँ 6 सितंबर को प्रभु जोशी का एक बेहद महत्वपूर्ण लेख (कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं ) प्रकाशित किया था व तत्पश्चात राहुल ब्रजमोहन का "जहाँ शुरू नहीं होती कविता"। उसी क्रम में प्रख्यात कवयित्री कात्यायनी का आलेख " धीरोदात्त नायक की प्रतीक्षा करती और साथ ही उत्तेजक उत्तर-आधुनिकतावादी नारीवादी विमर्श करती पद्मिनी नायिका" भी आपने यहाँ पढ़ा। एक अन्य लेख अनिल पुष्कर कवीन्द्र का देह के भीतर छिपे देह के आख्यान भी यहाँ प्रकाशित किया था।

पाठकों ने इन लेखों को जिस गंभीरता से पढ़ा व अपने विचार व्यक्त किए वह प्रशंसनीय व अविस्मरणीय है। शालिनी माथुर के मूल लेख (व्याधि पर कविता या....) पर छिड़े विमर्श ने विमर्श का पथ छोड़ कब व कैसे व्यक्तिगत आक्षेपों आदि का रूप /रंग ले लिया इसे पाठक 'कथादेश' के अंकों में देख चुके होंगे या देख सकते हैं। 

कविताओं पर लिखे अपने आलोचना लेख से प्रारम्भ हुए हिन्दी की समकालीन काव्यालोचना के इस सबसे ज्वलंत विमर्श के पूरे प्रकरण पर शालिनी माथुर का एक दूसरा लेख अभी अभी 'कथादेश' के फरवरी 2013 अंक में "मृतात्माओं का जुलूसशीर्षक से प्रकाशित हुआ है; जिसे दिल्ली के एक साहित्यिक मित्र ने सौजन्यपूर्वक स्कैन कर भिजवा दिया। उस स्कैन से पाठ तैयार करने में दो तीन दिन का समय लग गया। 

अब उसी लेख का अविकल पाठ सुधि पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत है। आपकी सार्थक प्रतिक्रिया की उत्कंठा से प्रतीक्षा रहेगी। 
- कविता वाचक्नवी

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औरत के नज़रिये से
मृतात्माओं का जुलूस
- शालिनी माथुर
ईसा के दो हज़ार बारहवें वर्ष का अंतिम माह इस विडम्बना के लिए याद रखा जाएगा कि जिस समय देश की राजधानी दिल्ली में हज़ारों आम लोग रेप के विरुद्ध जुलूस में चल रहे थे, उसी समय हिन्दी साहित्य की विद्वत्त्रयी दिल्ली में पोर्न के पक्ष में जुलूस निकाल रही थी। यह समय अंधेरा है। मेरा यह प्रतिरोध एक नारीवादी एक्टिविस्ट का पोर्न के विरूद्ध प्रतिरोध है, जो इसी तरह जारी रहेगा क्यों कि मेरा यकीन है कि “पोर्न इज़ द थियरी, रेप इज़ द प्रैक्टिस ।”  इस अंधेरे समय में मैं अपनी रोशनी के साथ खड़ी हूँ कि अब मैं अकेली नहीं, मेरे साथ हिन्दी का लगभग सारा संसार है। 



हमारे देश की राजधानी नई दिल्ली में 16 दिसम्बर 2012 को 23 वर्ष की एक युवा स्त्री के साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ। यह रेप एक पुरुष द्वारा किया गया केवल वासनामूलक यौन शोषण ही नहीं था, इसमें कई पुरुषों ने मिलकर क्रूरता, बर्बरता और नृशंसता से पूरे स्त्री--रीर को अपमानित किया और विरूपित करके चलती हुई बस के बाहर फेंक दिया। 29 दिसम्बर को क्रूर हिंसा की शिकार युवती की मृत्यु हो गई। प्रसिद्ध पुस्तक ’सिस्टरहुड इज़ पावरफ़ुल’ की लेखिका और मिज़ मैगज़ीन की सम्पादिका अमरीकी नारीवादी चिन्तक रॉबिन मार्गन का कथन है -“पोर्न इज़ द थियरीः रेप इज़ द प्रैक्टिस।” हम सब इस कृत्य में रॉबिन मार्गन के इस कथन का सत्यापन होते देख सकते हैं ! 


कथादेश पत्रिका के जून 2012 अंक में औरत के नज़रिए से स्तम्भ में मेरा एक आलेख प्रकाशित हुआ था- ''व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि।'' वह आलेख हिन्दी साहित्य में स्त्री-शरीर के पोर्नोग्राफ़िक निरूपण के विरुद्ध था। पोर्न साहित्य और पोर्न कला में स्त्री शरीर को बर्बरतापूर्वक विवश, अपमानित, यौनीकृत और विरूपित रूप में निरूपित किया जाता है और रेप में वास्तविक जीवन में वैसा किया जाता है। पोर्न थियरी यानी सिद्धान्त है और रेप प्रैक्टिस यानी क्रियान्वयन। यह दोनों विमानवीकरण की ही प्रक्रियाएँ हैं।


''व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि'' को पाठकों का इतना सुचिन्तित, सुविचारित, प्रतिबद्ध और उत्साह से परिपूर्ण जन समर्थन मिला क्योंकि यह लेख न्याय के पक्ष में था, सदाशयतापूर्ण था और इसमें पाठक अपने विचारों का प्रतिबिम्ब देख सके थे। इतना बड़ा पाठक वर्ग मेरा हमनवा इसीलिए बना क्योंकि लेख ने उनके ही भावों की तर्जुमानी की थी। इस आलेख को 'कथादेश' से लेकर कम से कम पच्चीस इन्टरनेट पत्रिकाओं ने छापा और लगभग इतनी ही अन्य लघु पत्रिकाओं ने। 


पाठकों का आभार व्यक्त करने के लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं। लेख छपने के बाद तीन जून को मेरे पास पहला प्रशांसात्मक फोन आया और आज आठ जनवरी 2013 तक कोई भी दिन ऐसा नहीं हुआ जिसमें मुझे कोई नया फोन या एस0 एम0 एस0 न मिला हो। जो फोन नम्बर मैं बचा सकी उनको एक छोटी डायरी में लिख लिया है। इनकी संख्या 565 है। इंटरनेट पर आई टिप्पणियाँ जोड़ लें तो पाठकों की प्रतिक्रियाओं की संख्या हज़ारों में होगी। पाठकों की कुल संख्या का तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।


मैं स्वंय को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानती हूँ और विद्यार्थी जीवन से ही समाज से जुड़ कर सामाजिक मुद्दों पर काम करती रही हूँ । साहित्य लेखन में मेरा प्रवेश भी मेरे सामाजिक सरोकार का हिस्सा है। मैं हिन्दी भाषी हूँ। आज मुझे अपने हिन्दी भाषी होने पर बहुत गर्व हो रहा है।


ऐसे आलेख वाहवाही बटोरने के लिए नहीं लिखे जाते । पवन करण और अनामिका की उन दो कविताओं को, जिन्हें मैंने पोर्नोग्राफ़ी की शास्त्रीय रचनाएँ कहा है, मैंने बड़ी तकलीफ़ के साथ उद्धृत किया था। पाठकों की संवेदनाओं को कष्ट पहुँचाने का मुझे खेद है। आज यह लेख भी उतनी ही तकलीफ के साथ लिख रही हूँ, कि लिखना बहुत ज़रूरी हो गया है, उन मृतात्माओं के बारे में जिन्होंने एक गम्भीर चर्चा को मखौल में बदलने का प्रयास किया, एक छद्म विपक्ष खड़ा करके उसे बहस में तब्दील करने का प्रयास किया और अहंकार में चूर हो कर खुद ही ने बहस समाप्ति की घोषणा भी कर दी। वह आलेख मेरा था, उस पर चर्चा मैं यूँ ही समाप्त नहीं होने दूँगी।


मैंने स्पष्ट रूप से लिखा था कि '' यह टिप्पणी केवल दो रचनाओं पर है, कवि तथा कवयित्री के सम्पूर्ण व्यक्तित्व या कृतित्व पर नहीं।’’ फिर भी अगस्त के कथादेश में जो लेख छपे उनमें से अर्चना वर्मा का लेख " प्रिय शालिनी को सस्नेह’’ और अनामिका का लेख सुश्री ''शालिनी माथुर'' को निवेदित’’ था। तब से अब तक मैंने इस विषय पर एक भी शब्द नहीं लिखा, आज भी न लिखती यदि अर्चना वर्मा ने झूठ, दम्भ, कुत्सा और दुर्भावना से भरे पूरे ग्यारह पृष्ठ उसी कथादेश के दिसम्बर 2012 अंक में न लिखे होते, जिस कथादेश की वे सम्पादन सहयोगी हैं।


जिस आलेख में अर्चना वर्मा का कोई ज़िक्र न था, वह बात उनको बहुत नागवार क्यों गुज़री ? वे इतनी व्यथित, इतनी व्याकुल, इतनी उत्तेजित, इतनी आगबबूला क्यों हैं ? कोई ख़ास बात है क्या? इसका उत्तर इसी आलेख में आगे ढूँढेंगे, पहले उनके झूठ का प्रतिवाद कर दें-


1) अर्चना वर्मा ने लिखा है कि "शालिनी ने आशंका जाहिर की कि कहीं ऐसा तो नही है कि उद्धृत कवियों के विरोधियों का कोई कार्टेल इतर कारणों से मुद्दे को ले उड़ा। ’’ (अगस्त पृष्ठ 8 )

यह झूठ है, मैंने ऐसा नहीं कहा । पाठकों का कोई कार्टेल नहीं हो सकता क्योंकि उनका कोई निहित स्वार्थ नहीं होता। मैंने अपने लेख में कवियों के कार्टेल का जिक्र किया था जो खुद ही एक दूसरे को पुरस्कृत किया करते हैं। इस प्रकरण ने भी यही सिद्ध किया है कि पाठकों द्वारा तिरस्कृत कवि, कार्टेल द्वारा पुरस्कृत हैं।


2) "शालिनी कथादेश की आमन्त्रित और एक वर्ष से नियमित स्तम्भकार है। उनसे मेरा परिचय उनके लेखन के माध्यम से ही है। यह आमन्त्रण अपने आप में उनमें लेखन की तेजस्विता और धार की स्वीकृति है। कथादेश को इस बात का गर्व है कि उसके लिए व्यक्तिगत जान पहचान का नहीं रचना का महत्व है। ’’ (दिसम्बर पृष्ठ 8) अर्चना वर्मा ने यह साबित करने का प्रयास किया हैं मानों मैं उनके आमन्त्रण पर कथादेश में आई हूँ। यह सच नहीं। सच यह है कि मेरी पहली टिप्पणी ' कहेगी तो बेघर हो कर रहेगी ' अगस्त 2007 में और मेरा पहला वैचारिक आलेख "नारीवादी आन्दोलन पर एक नारीवादी का अन्तर्दर्शन" आज से पूरे पाँच वर्ष पूर्व फरवरी 2008 में प्रतिष्ठित नारीवादी रचनाकार सुधा अरोड़ा ने 'कथादेश' के अपने स्तम्भ 'औरत की दुनिया' में छापा था। उस पर छिड़ी लम्बी बहस में मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, प्रभु जोशी, प्रभा खैतान, कात्यायनी, रुनू चक्रवर्ती तथा कुसुम त्रिपाठी ने भाग लिया था। उस समय अर्चना वर्मा 'हंस' में सम्पादन सहयोग कर रही थीं। सितम्बर 2008 में साहित्य के नाम पर पत्रिका 'हंस' में चल रही मठाधीशी और पोर्नोग्राफिक प्रवृत्ति के विरुद्ध 'कथादेश' के औरत की दुनिया में ही मेरा आलेख छपा था "नवरीतिकालीन संपादक और उनके चीयर लीडर्स।", वह लेख भी चर्चित हुआ।


3) स्तम्भकार होने का उलाहना अर्चना वर्मा मुझे न ही देतीं तो बेहतर होता। फ़रवरी 2012 में मेरा लेख ''ओथेलो का नारीवादी पाठ'' पढ़ने के बाद एक वरिष्ठ लेखिका होते हुए स्वयं अर्चना वर्मा ने मुझे फ़ोन ही नहीं किया बल्कि उस लेख की प्रशंसा करते हुए प्रस्ताव रखा कि मैं एक स्तम्भ क्यों न शुरू कर दूँ। मार्च 2012 में 'औरत के नज़रिये से' नामक अपने स्तम्भ में मैंने मातृत्व के व्यवसायीकरण पर एक लेख लिखा। मगर अगले ही माह उस स्तम्भ में अर्चना वर्मा ने अपनी एक विस्तृत टिप्पणी के साथ नीहारिका की कहानी छाप दी और उसके कुछ समय बाद उसी स्तम्भ में विभास वर्मा द्वारा किया गया एक अपठनीय अनुवाद। क्या किसी आमन्त्रित स्तम्भकार के स्तम्भ में कोई सहयोगी सम्पादक ऐसी घुसपैठ करता है ? क्या यही उनकी सम्पादकीय नैतिकता है? मुझे स्तम्भकार कहलाने का कोई शौक नहीं है, न ही साहित्यकार कहलाने का । इस प्रकरण को पाठकों के सामने उठाने का मुझे खेद है।


आइए अब अपने लेख के सम्बन्ध में छपे कुछ आलेखों की पाठाधारित चर्चा कर लें। 


दिसम्बर 2012 के 'कथादेश' में छपा अर्चना वर्मा का आलेख 'पढ़न्त की राजनीति'  पूरे ग्यारह पृष्ठों में विस्तीर्ण है। इसकी पढ़न्त उसकी पढ़न्त, तेरी पढ़न्त मेरी पढ़न्त, ऐसी पढ़न्त वैसी पढ़न्त, लगभग इकहत्तर बार पढ़न्त पढ़न्त लिख कर कदाचित् उन्होंने यह कहने का प्रयास किया है कि एक ही रचना को कई तरह से पढ़ा जा सकता है। अनामिका और पवन करण दोनों ही पन्द्रह बीस वर्ष से लिख रहे होंगे। मैंने तो अपना केवल एक ही पाठ उन पाठकों के आगे प्रस्तुत किया था जिनके शीर्ष पर चढ़ कर वर्षों से ऐसा कविता पाठ चल रहा था। अर्चना वर्मा आखिर कितनी पढ़न्त करेंगी ? क्या मेरे जैसा सामान्य पाठक एक पाठ भी नहीं कर सकता ? यह पढ़न्त की कैसी राजनीति है ?


अनामिका के लेख के विषय में वे कहती हैं, "पढ़ने वालों ने अनुचित ही इसे “शालिनी के जवाब"की तरह पढ़ा और उचित ही असन्तुष्ट हुए कि जवाब नहीं मिला, जवाब दिया ही नहीं गया था।... इसी तरह अर्चना वर्मा का आलेख भी पिछले अंक से जारी लेख का पूरक अंश था।’’(दिसम्बर पृष्ठ 8 ) मतलब यह, कि दोनों विदुषियों ने स्वतन्त्र लेख लिखे हैं, न कि प्रतिवाद । 



अनामिका ने जो लेख बक़ौल अर्चना वर्मा मेरे लेख के जवाब के रूप में नहीं लिखा था उसकी बानगी देखें -"प्रतिवाद- कविता के कंधे -(सुश्री शालिनी माथुर को निवेदित) "प्रिय शालिनी जी, प्रेमचन्द के बड़े भाई साहब वाले भाव से आप से दो बातें कहना चाहूँगी...। हबड़ तबड़ करने वाले हड़बड़िया पाठकों के सामने कविता खुलती नहीं.....। शालिनी बाबू मैं जिस मिथिला की हूँ वहाँ तो अट्ठाइस तीस की उम्र में ही माताएँ सासें ब्लाउज़ धारना बन्द कर देती हैं ... । लड़कियों की जीन में वाई फैक्टर नहीं होता, न अन्जान सिंह की छवि प्रक्षेपित करने की मजबूरी।... स्त्री शरीर कोई पुपुही नहीं होता कि एक ही फूँक में बजने लगे ...उन्नत पहाड़ विशाल भी हों यह ज़रूरी नहीं। ...नैतिकता का ठेका तो आप खैर लें ही मत......इस बन्धन की गाँठे धीरे धीरे खुलती हैं । यत्न करके देखिये। सस्नेह, अनामिका।’’


अनामिका दर्पवती हैं, वे ईसा मसीह नहीं हैं, वे क्षमा नहीं करेंगी, वे पाठ पढ़ाएँगी, - " ईसू, यदि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं तो इन्हें जानना चाहिए, हम दिखाएँगे इन्हें आईना कि इन्हें पता तो चले कि ये क्या कर रहे हैं। ’’(अगस्त पृ 13) पाठक एक कवयित्री की स्नेह भरी भाषा देखें।


'समयांतर' के प्रतिष्ठित स्तम्भकार दरबारी लाल कहते हैं कि  "अनामिका के लेख की विशेषता उनका गुस्सा है। उनके लेख में नोट करने लायक बात यह है कि वे शालिनी को कम से कम दो जगह पुल्लिंग में बदल देती हैं। इस तरह वे ठीक उस पुरुषवादी तौर तरीके का इस्तेमाल करती नज़र आती हैं, जो अपने विरोधी पुरुषों को अपमानित करने के लिए उन्हें स्त्री या स्त्रैण सम्बोधित ही नहीं करते सिद्ध करने की कोशिश भी करते हैं।’’ (समयांतर सितम्बर 2012) मैं इसमें जोड़ना चाहूँगी कि अनामिका के लेख में रौद्र रस ही नहीं अद्भुत रस भी विद्यमान है। पूरा आलेख ही विस्मयपूर्वक लिखा गया है, अनामिका के पद्य में बारह विस्मयादि बोधक चिन्ह थे, अनामिका के गद्य में लगभग छप्पन । प्रभु जोशी ने आशंका व्यक्त की है कि, ''अनामिका के पास यदि भाषा का कोई बघनखा होता तो वे शालिनी की आलोचना का पेट फाड़ कर अंतड़ियाँ बाहर निकाल देतीं। " निश्चिन्त रहें, अनामिका ऐसा कर नहीं सकेंगी। वे बेहद सौभाग्यशाली हैं कि गम्भीर आलोचना की निगाह अब तक उनकी एक ही कविता पर पड़ी है। 


अर्चना वर्मा कहती हैं - "अनामिका शालिनी के विश्लेषण को जल्दबाज़ पठन्त के रूप में सन्देह का लाभ दे कर कविता की भाषा के कारगर सूत्र देती हैं यह अलग बात है कि वे शालिनी के क्रोध को उबाल देने का काम करते हैं।’’ (दिसम्बर पृष्ठ 9 ) मैंने तो अनामिका के प्रतिवाद पर एक भी शब्द नहीं लिखा, उन को किस सिद्धि की सहायता से इल्हाम हो गया कि मुझे क्रोध आया या दुलार ? मुझे इन दोनों करुणामयी स्त्रियों के प्रेम पर पूरा यक़ीन है। वे कहती हैं कि "भैया और बाबू अपने से छोटे के लिए लाड़ के उभयलिंगी सम्बोधन हैं," (दिसम्बर पृ 10 ) तो सच ही होगा। बाबू कह कर मुझे नवजात शिशु मानते हुए अनामिका ने अपने वात्सल्य रस के घड़े मेरे ऊपर ऐसे उलीचे कि उस रस से भीग कर इस शरद ऋतु में मैं थर थर काँप रही हूँ। क्रोध के उबाल का प्रश्न कहाँ ? मैं तो अर्चना वर्मा के स्नेह से सिक्त हूँ और अनामिका के लाड़ से सराबोर । समझ में नहीं आ रहा महान विदुषी अर्चना वर्मा की इस बात पर '' अहो अहो'' कहूँ या '' धिक् धिक्।'' (साभार अर्चना वर्मा )


अनामिका अपनी ओर से इस काव्यशास्त्रीय और स्त्रीवादी चर्चा के बीच एक अति महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती हैं , "अरे भैया शालिनी, कहाँ पैदा हुए हैं अभी वे मर्द जो स्त्री की यौनिकता जगा दें ? "  मेरे पास इस घटिया प्रश्न का तो उत्तर नहीं मगर एक जिज्ञासा ज़रूर है, अनामिका की जिस मिथिला में अट्ठाइस वर्ष की युवा स्त्री ब्लाउज़ पहनना छोड़ चुकी होती है, क्या अनामिका की उसी मिथिला में बच्चों के साथ भी यौनिकता सम्बन्धी चर्चा की जाती है? ऐसी मिथिला कहाँ है? दोनों विदुषियों से निवेदन है कि मेहरबानी करके वे अब न तो हमारी अक़्ल का और इम्तहान लें, न ही हमारे सब्र का।


अर्चना वर्मा पाठकों की "सीमित पठन्त क्षमता", " सीमित भाषिक क्षमता", "सांस्कृतिक पृष्ठभूमि" और "अनिच्छा" पर खेद जताते हुए कहती हैं - अनामिका की  "लिखन्त के तर्क को समझा ही नहीं गया" । विदुषी लेखिका फ़रमाती हैं, "लेकिन अगर किताब के साथ पाठक की खोपड़ी टकराने से खाली घड़ा बजने की आवाज़ आती हो तो क्या ग़लती सिर्फ किताब की होती है?" (दिसम्बर पृ 9 ) पाठक कृपया ध्यान दें , उक्त वचन एक ऐसी महिला के हैं, जिनकी आयु साठ वर्ष से अधिक है, जो तीस वर्ष तक बी0ए0 के विद्यार्थियों को पढ़ाती रही हैं,जो चालीस पैंतालिस वर्ष से हिन्दी में लेखन कार्य कर रही हैं और जो सम्प्रति 'कथादेश' नामक साहित्यिक पत्रिका की सम्पादन सहयोगी हैं।


यहाँ पर एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठ खड़ा होता हैं,कि पाठकों की खोपड़ी खाली क्यों है ? कारण कदाचित् यह है कि जिस समय बुद्धि बंट रही थी उस समय अनामिका सब के शीर्ष पर विराजमान थीं, इसलिए लगभग सारी बुद्धि उन्हें ही मिल गई। बची खुची बुद्धि उनकी अभिभाविका अर्चना वर्मा को प्राप्त हुई। इसमें हम पाठकों का कोई दोष नहीं कि जब तक हमारा नम्बर आया तब तक बुद्धि बची ही नहीं थी। अर्चना वर्मा तो अपार बुद्धिमती हैं ,जब उन्हें मालूम ही है कि खोपड़ियाँ खाली हैं, तो वे अपनी किताब से उन पर प्रहार करती ही क्यों हैं ? सिर में बुद्धि नहीं तो क्या उसमें दर्द तो हो ही सकता है। पाठकों पर कुछ तो रहम करें।


मैं लखनऊ शहर की रहने वाली हूँ। अर्चना वर्मा देश की राजधानी दिल्ली में रहती हैं । उनके शहर में पाठकों के साथ पेश आने की क्या यही तहज़ीब है ? 


वे पाठकों से इसलिए नाराज़ है क्योंकि पाठक न अनामिका का पद्य समझ सके न अनामिका का गद्य। वे कहती हैं "अनामिका के आलेख की पढ़न्त कविताओं से कहीं ज्यादा दिक़्क़त तलब साबित हुई दीखती है। "(दिसम्बर पृ10) उन को सहसा वाचिक परम्परा याद हो आई जब श्रोता कवयित्रियों के सामने होता था, (जिसका ज़िक्र कात्यायनी ने तुक्कड़ी कवि सम्मेलन में गा गा कर कविता सुनाने वाली किसी कवयित्री के मंच पर और मंच के पीछे व्यवहार के रूप में किया है)। अर्चना वर्मा कहती हैं, "लेखन की सीमा यह है कि वह पाठक की क्षमताओं और सीमाओं से अपरिचित होता है।" उन्हें पक्का यकीन है कि अनामिका की क्षमता असीमित है और पाठकों की क्षमता अति सीमित। वे आगे कहती हैं कि अनामिका ने ऐसे पाठक की इच्छा की थी जो उनके "लेखन की देह भाषा की हर भंगिमा हर इशारे को समझ लेगा। यह आकांक्षा हताशा के लिए अभिशप्त है।" (दिसम्बर पृ 9) 


हताश क्यों ? हम सब पाठक महान विदुषियों को यकीन दिलाना चाहेंगे कि पाठक भी देहभाषा की हर भंगिमा हर इशारे को समझ लेंगे, बशर्ते देहभाषा की हर भंगिमा, हर इशारा कविता का हो, न कि कवयित्री का। मंच पर चढ़ कर कवि तथा कवयित्री देहभाषा भंगिमा और इशारों से मंच सिद्ध कर सकते हैं, काव्य नहीं। तीन मुहावरे, चार कहावतें, लोकगीतों के पाँच मुखड़े, छः परस्पर विरोधाभासी उपमान, आन्तरिक विसंगतियों से भरे सात वाक्यांश और बारह विस्मयादि बोधक चिन्ह कवयित्री को शीर्ष पर बैठा सकते है, कविता को नहीं।


विदुषी अर्चना वर्मा जिस उत्तर आधुनिकतावाद की दुन्दुभी ज़ोर ज़ोर से बजा रही हैं वह एक दर्शन है जिसकी अपनी एक विचारपद्धति है और अपनी निजी शब्दावली। जिस तरह वेदान्त में ब्रह्म और माया महत्वपूर्ण प्रत्यय (कान्सेप्ट) हैं, सांख्य में प्रकृति और पुरुष, न्याय में अणु तथा प्रमा, प्रमेय और प्रमाण , भर्तृहरि के व्याकरण दर्शन में स्फोट और मार्क्सवाद में बोर्जु़आ और प्रॉलिटेरियट, उसी तरह भाषा की निर्मितियों पर विषेश ध्यान देने वाले उत्तर आधुनिकतावादी दर्शन में टेक्स्ट,रीडिंग और कन्स्ट्रक्ट उनके निजी प्रत्यय हैं। इसे 'रीडर्स रिस्पॉन्स थियरी' के अन्तर्गत समझा गया है, यानि एक ही पठनसामग्री को अलग- अलग दृष्टियों से पढ़ा जा सकता है, आदि।


संस्कृत भाषा तथा दर्शन शास्त्र की अपनी पृष्ठभूमि के कारण शास्त्रों की मर्यादा, भाषाओं की गरिमा और अनुवाद के जिस अनुशासन से मेरा परिचय है उसके अनुसार एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि मूल भाषा तथा संस्कृति में उस प्रत्यय की क्या गरिमा , मर्यादा, स्थान और महत्व है। जैसे कूड़े के ढेर पर घूमते जिस पशु को हम सुअर कहते हैं,सांस्कृतिक धार्मिक संदर्भों के अनुसार अन्यत्र उसे ही वराह कहते हैं । कई बार हम अपनी भाषा का कोई प्रचलित शब्द अपना लेते हैं, जैसे अंग्रेजी के रेल को रेलगाड़ी कहना या केवल गाड़ी कह देना जैसे गाड़ी चल पड़ी, गाड़ी छूट गई आदि।


टेक्स्ट, रीडिंग और कन्स्ट्रक्ट के महत्वपूर्ण उत्तर आधुनिकतावादी प्रत्ययों का अनुवाद लिखन्त, पढ़न्त और गढ़न्त बेहद कुरुचिपूर्ण और कर्णकटु है। ये शब्द हिन्दी भाषा के पूर्व प्रचलित शब्द भी नहीं हैं। कृत्रिम रूप से गढ़े गए ये शब्द दर्शनशास्त्र के महत्वपूर्ण प्रत्ययों को ट्रिवियलाइज़ करते हुए उन्हें मखौल की भाषा में बदल देते हैं, जैसे तोतारटन्त, मनगढ़न्त आदि। ये न किसी दर्शनशास्त्र-गरिमा के अनुकूल हैं, न हिन्दी भाषा की । मैं इन कृत्रिम, कुरुचिपूर्ण और कर्णकटु शब्दों को सिरे से खारिज करती हूँ। इन निरर्थक शब्दों को बार -बार प्रयोग करके करेंसी में लाने के प्रयास गर्हणीय है।


एक ही आलेख में सत्तर से भी अधिक बार पढ़न्त पढ़न्त लिखने वाली अर्चना वर्मा को उसी आलेख में एकाधिक बार पढ़न्त क्षमता पद का प्रयोग करते हुए ज़रा भी संकोच नहीं हुआ। शिक्षा का अधिकार कानून (2009) बनाने में अमर्त्य सेन और मार्था नुस्बॉम द्वारा प्रतिपादित केपेबिलिटी थियरी का आधार लिया गया है जो यह मान कर चलती है कि क्षमता हर एक के भीतर होती है। अब विद्यार्थियों की क्षमता को भी कम ज़्यादा आँकने पर प्रतिबन्ध है और अध्यापकों द्वारा ऐसी भाषा बोला जाना एक दंडनीय अपराध है। उत्तर आधुनिकता भी पाठों की विविधता की बात करती है, क्षमता पद इस दर्शन में सर्वथा अस्वीकार्य है। स्पष्ट है कि अर्चना वर्मा केवल विद्वत्ता प्रदर्शन के लिए उत्तर आधुनिकता की शब्दावली दोहराती हैं। वे न तो उस दर्शन की भावना समझ सकी हैं, न ही उसे आत्मसात कर सकी हैं। 


जो पाठक अर्चना वर्मा का अगस्त वाला पाठ ठीक से समझ नहीं पाए थे उनकी सुविधा के लिए दयालु लेखिका दिसम्बर वाले पाठ में उन्हें विस्तार से भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल समझाने लगीं- "शल्योपचार अभी हुआ नहीं है ,बल्कि होने वाला है, मौत की चुहिया अभी निकली नहीं है, निकाली जानी है।वह भूतकालिक क्रिया पदों में बावजूद भविष्यार्थे अतीत है।" (दिसम्बर पृ 15) मेरी जिज्ञासा है कि यह 'भविष्यार्थे अतीत'  पाणिनि का कौन-सा सूत्र है ? अनामिका की कविता में स्त्री को ख़तरनाक व्याधि हो गई है यह सुनकर वह भूतकाल में हँस चुकी हो, व्याधि इतनी फैल चुकी है कि मृत्यु से उसे बचाने के लिए पूरे अंग काट कर निकालने पड़ेंगे, यह सुनकर वर्तमान काल में वह हँस रही हो या अंग शरीर से काट कर अलग कर देने के बाद जब 'सर्जरी की प्लेट’ में सजा कर स्त्री के सामने पेश किए जाएँगे तब 'कहो कैसी रही' कह कर वह भविष्यकाल में हँसेगी, तीनों ही स्थितियों में कवयित्री द्वारा किया गया वर्णन अमानवीय, क्रूर, नृशंस, बर्बर और हृदयहीन है। शरीर का विमानवीकरण करते हुए स्त्री स्वयं को पोर्नोग्राफर की नज़र से देख रही है। काल चाहे भूत हो, चाहे वर्तमान, चाहे भविष्य उससे अनामिका की कविता की अश्लीलता में कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 


वैसे अनामिका द्वारा 'ग्रेस निकोलस' की कविता की नग्नतावादी पंक्तियों को उद्धृत करने का क्या प्रयोजन रहा होगा? क्या अपनी कविता को उससे कम अश्लील साबित करना? ग्रेस निकोलस की कविता रंगभेद के विरुद्ध लिखी गई विद्रोह की कविता है, उसमें न आत्ममुग्ध नायिका है, न ही व्याधि का हृदयहीन निरूपण। यह उद्धरण अप्रासंगिक है। व्याधि का रूपक लेकर लिखी गई कविताओं पर हो रही चर्चा के बीच यौनिकता जगाने, पुपुही बजाने, और पहाड़ों की ऊँचाई और विशालता का विवरण देने का प्रयास कवयित्री की मानसिकता प्रदर्शित करता है। पाठकों ने देख ही लिया होगा कि अनामिका का गद्य अनामिका के पद्य से भी ज़्यादा अश्लील है।


मेरे आलेख को इन्टरनेट पर पहुँचाने का श्रेय आशुतोष कुमार को जाता है। "स्त्रीविमर्श"  ब्लाग की सम्पादिका डा0 कविता वाचक्नवी ने 15 जून 2012 को लिखा ''आशुतोष कुमार जी द्वारा यह लिखने पर कि 'कथादेश के जून अंक में शालिनी माथुर ने ग़ज़ब का लेख लिखा है, कविता की व्याधि पर। निवेदन है कि इसे दूसरे दस काम छोड़ कर पढ़ा जाए। पवन करण और अनामिका अपनी स़्त्रीवादी चेतना के लिए चर्चित रहे हैं लेकिन माथुर तर्क करती हैं कि उनकी कविताएँ न सिर्फ स्त्री विरोधी हैं,बल्कि सबसे आपराधिक अर्थों में पोर्नोग्राफिक हैं। किसी भी रूप में उनकी बहस नैतिकतावादी या अंध-अस्मितावादी नहीं है , न कविता के प्रति बेवजह कठोर। इस लेख पर चर्चाओं का तूफ़ान उठना चाहिए।’ इस लेख को पढ़ने की उत्कंठा थी। वैचारिक लेखन, स्त्रीविमर्श और कविता तथा आलोचना में रुचि रखने वालों के लिए उक्त आलेख को कल यूनिकोडित किया है।’’( डा0 कविता वाचक्नवी, लंदन )


जून 2012 के प्रथम सप्ताह में फेसबुक पर इसे ग़ज़ब का लेख बताने वाले आशुतोष कुमार ने अगस्त 2012 के प्रथम सप्ताह में 'कथादेश' में अर्चना वर्मा, अनामिका और मदन कश्यप के एक साथ मिलकर आए आक्रमण में शामिल होकर एक ऐसा लेख लिखा, जिसमें इस 'ग़ज़ब के लेख’ की हर एक निष्पत्ति से असहमति जताई गई थी। (अगस्त पृ 82) बात यहीं तक सीमित नहीं है। तब से लेकर अब तक वे फेसबुक पर मेरे आलेख के विरुद्ध एक लम्बा अभियान चला रहे हैं, जिसमें नवम्बर के कथादेश में छपे कात्यायनी के आलेख का विरोध भी शामिल है। (मैं फेसबुक की सदस्य नहीं हूँ।)


व्याधि पर कविता में मैंने कहा था कि मन, बुद्धि, और आत्मा से रहित स्त्रीशरीर का विमानवीकृत निरुपण पोर्नोग्राफी कहलाता है। लेख में मैंने यौनीकृत, उपभोक्ता वस्तु के रूप में निरूपित, विवश, अपमानित, पुरुष के अधीन, हृदयहीन जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग कम से कम एक सौ तीन बार किया था। आशुतोष कुमार ने 'कथादेश' में लिखा है, "विवशता के उल्लेख-मात्र से कविताएँ पोर्नोग्राफिक कैसे हो गईं ? अगर कविता का पाठ इस तरह किया जाएगा तो 'कस विधि रची नारि जग माहीं,पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं’ और 'मैं नीर भरी दुख की बदली' जैसी पंक्तियाँ भी पोर्नोग्राफिक कहलाएँगी।" (अगस्त पृ. 83) क्या कोई भी पाठक इस बात से सहमत हो सकता है ? उक्त पंक्तियाँ लिखने वाला व्यक्ति अध्यापक है। जो अध्यापक उसी बात को एक सौ तीन बार पढ़ने के बाद भी इतना ही समझ सका, उसकी बुद्धि पर तरस खाने से ज़्यादा तरस उन विद्यार्थियों के भाग्य पर खाया जाना चाहिए जो ऐसे अध्यापक से पढ़ने के लिए अभिशप्त हैं। 


यह एक बेहद घटिया खेल है, आशुतोष कुमार जिसमें शामिल हो कर पवन करण और अनामिका को गोस्वामी तुलसीदास और महादेवी वर्मा, के समकक्ष बता रहे हैं और मदन कश्यप इन्हें पाब्लो नेरुदा, निराला और मुक्तिबोध के समकक्ष । पाठक को कविता समझने में अक्षम साबित करने का प्रयास करते हुए 'कविता समझने की मुश्किल' शीर्षक से 'कथादेश' में बहुत प्रतिष्ठापूर्वक बॉक्स में छापी गई धूर्त टिप्पणी में मदन कश्यप ने विनम्रता का झूठा प्रदर्शन करते हुए अपनी सहयोगी विदुषियों के समान ही मुझसे व्यक्तिगत निवेदन किया है। मेरा उत्तर है कि पवन करण और अनामिका की आलोच्य रचनाएँ यदि छद्मपूर्वक महीयसी महादेवी वर्मा और महाप्राण निराला के नाम से भी प्रकाशित कर दी जातीं तब भी मैं इन्हें पोर्न ही कहती क्यों कि ये पोर्न ही हैं। मेरी धारणा है कि समीक्षा रचना की होती है, रचनाकार की नहीं । मुझे बड़े-बड़े नामों की 'नेम ड्रापिंग' से बिल्कुल डर नहीं लगता। उम्मीद है कि मदन कश्यप को अपने सवाल का जवाब मिल गया होगा। 


मेरे लेख में जो प्रश्न दो रचनाओं पर थे उन पर विद्वतचतुष्टय ने दुर्भावनापूर्ण व्यक्तिगत उत्तर लिखे, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। विचारणीय है कि आशुतोषकुमार के लिए जून में फेसबुक पर जो ग़ज़ब का लेख अन्ध अस्मितावादी नहीं था, अगस्त में वही लेख अन्ध अस्मितावादी (कथादेश पृ 86) हो गया ? कैसे ? कोई ख़ास बात है क्या ?


ख़ास तो दिसम्बर 2012 में 'कथादेश' में छपा मैत्रेयी पुष्पा का पत्र भी है। वे एक वरिष्ठ लेखिका हैं जो हमेशा किसी न किसी कारण से चर्चा में बनी रहती हैं। उन्होंने स्वयं मुझको तीन बार फोन करके इस आलेख की प्रशंसा करते हुए कहा कि तुम्हारा यह लेख नहीं, शिलालेख है, जिससे उन्होंने बहुत कुछ सीखा । फिर उन्होंने स्वयं अपनी पुस्तक ''तब्दील निगाहें'' मेरे पास भेजी कि मैं उसकी समीक्षा कर दूँ और यदि समीक्षा न भी करूँ तो अपनी राय ज़रूर बताऊँ क्योंकि वे मेरी स्त्रीवादी दृष्टि की कायल हैं। दिसम्बर में उन्होंने उसी लेख के विरुद्ध सम्पादक ने नाम पत्र लिखना ज़रूरी समझा जो लेख कल तक शिलालेख था। शिलालेख के ऊपर उत्कीर्ण इबारत इतनी जल्दी मिट गई ? कैसे?


अपनी पुस्तक ''चाक'' पर सात साल से चल रही चर्चा से तो मैत्रेयी पुष्पा को ऊब नहीं हुई, पर मेरे एक गम्भीर लेख पर हो रही चर्चा से वे सात महीने में ही ऊब गईं, उन्होने लिखा, ''देखते पढ़ते और समझते महीनों बीत गए - बहरहाल अब इस पोर्नोग्राफी की चर्चा चकल्लस पर विराम लगा देना चाहिए।'' ( दिसम्बर पृ 5) मैत्रेयी पुष्पा की भेजी हुई पुस्तक मेरे पास है और एस एम एस भी। उनकी ''तब्दील निगाहें '' की समीक्षा तो मैंने नहीं लिखी मगर खुद मैत्रेयी पुष्पा की निगाहें क्यों तब्दील हुईं, यह वे ही बेहतर जानती होंगी।


अर्चना वर्मा ने और कुछ ठीक लिखा हो या नहीं यह तो ठीक लिखा है कि  ''शालिनी माथुर स्वयं को हिन्दी साहित्य जगत् की अन्तेवासी नहीं मानतीं, और वैचारिक दलबन्दियों, सुविधाजनक गुटबाजियों, व्यक्तिगत ईर्ष्याओं, अवसरवादिताओं की भीतरी राजनीतियों से भी अपरिचित हैं।’’ (अगस्त पृ 8) । ख़ुदा का शुक्र है, मैं हिन्दी के इस अन्तःपुर में नहीं रहती, इसके भीतर बहुत अंधेरा है। 


विद्वत्त्रयी के आलेखों के पक्ष में संजीव चन्दन ने अविनाश के ब्लॉग पर लिखा "मुज़फ़्फरपुर में साहित्यकारों ने अनामिका और पवन करण की कविताओं पर एक विचार गोष्ठी आयोजित की। इसमें शिरकत के लिए मैंने भी अनामिका और पवन करण की कविता, उसके पाठ तथा स्त्रीवादी आलोचना के सन्दर्भ पर विचार किया। पवन करण की कविता पोर्न तो कतई नहीं है, इसे बड़ी तफसील से अर्चना वर्मा ने स्पष्ट किया है। .....शालिनी संस्कृत साहित्य की प्रकांड विदुषी बताई जाती हैं। पता नहीं क्यों वे कविताओं को कविता की तरह नहीं पढ़ रही हैं। मुज़फ़्फरपुर में लोग 'कथादेश' के पन्नों की फ़ोटो कॉपी के माध्यम से इन लेखों का प्रसार कर रहे हैं।’’ संजीव चन्दन पाठकों से अपील करते हैं कि “शालिनी जी के आलेख को अकेले न पढ़कर अर्चना वर्मा, आशुतोष कुमार और अनामिका जी के लेखों के साथ पढ़ा जाए।’’ (मोहल्ला लाइव 24 अगस्त 2012) पाठकों ने देख लिया होगा कि विचार का यह मगध दिल्ली में ही सीमित नहीं है इसकी जड़ें मुज़फ़्फरपुर तक फैली है। इसने मेरे आलेख को एक नए विचार के रूप में नहीं, मगध पर हुए हमले की तरह देखा और किलेबंदी का प्रयास किया जो सफल न हो सका।


अनामिका बड़े गर्व से स्वयं को वाइ फैक्टर से रहित बताती हैं । संजीव चन्दन कहते हैं कि अनामिका की पूरी विचारप्रक्रिया ऐसी स्त्रीवादी विचारप्रक्रिया है जो स्त्री को प्रकृति से ही श्रेष्ठ मानती है। मैं भी एक माँ की ही बेटी हूँ  और एक बेटी की माँ भी। एक्स या वाइ क्रोमोज़ोम प्रकृति प्रदत्त होते हैं उन पर क्या इतराना ? केवल अपने क्रोमोज़ोम के आधार पर साहित्य में जगह बनाने की कोशिश करने वाली कुछ महिलाओं के कारण स्त्री का दर्जा साहित्य में भी गिरा है और समाज में भी।


मैं तो यह बात मान गई कि मैं बाबू अर्थात शिशु हूँ, मेरी जिज्ञासा है कि अनामिका जिन्होंने अर्चना वर्मा के "आग्रह की रक्षा करते हुए व्यस्तता के बावजूद लिखना स्वीकार किया" (दिसम्बरपृ08) स्वयं पद्मिनी नायिका हैं या वे भी शिशु ही हैं। कविताएँ तो वे केवल वयस्कों के लिए लिखती हैं, मगर वयस्क पाठकों के प्रश्नों से 'कीलित’ होते ही वे शिशु बन गईं और अर्चना वर्मा उनकी अभिभाविका बन कर उठ खड़ी हुईं। चाइल्डवुमन पोर्नोग्राफ़र का सब से हसीन ख़्वाब होती है, जिसका “शरीर वयस्क हो और चेहरा शिशुवत्, पलकें झपकाती, इठलाती, तुतलाती। स्वयं को वामपंथी कहने वालों को पता होना चाहिए कि कम्युनिस्ट रूस ने अपने देश में बार्बी डॉल्स पर इसीलिए प्रतिबन्ध लगा दिया है कि उसका चेहरा शिशु तुल्य है और शरीर वयस्क, जिसे बच्चों के दिमाग़ के स्वाभाविक विकास के लिए हानिकारक माना गया।


अर्चना वर्मा अपने आमन्त्रणों, आग्रहों, गोवा और कर्नाटक वालों से हुई फोन वार्ताओं और मुजफ़्फ़रपुर में हुई कार्यशाला, वहाँ बाँटी गई फ़ोटोकॉपियों और जारी की गई अपील के बावजूद पोर्न कविताओं के समर्थन में जितने समर्थक जुटा सकीं उनकी संख्या दस से भी कम है, इनमें इन्टरनेट पर आई टिप्पणियाँ भी 'शामिल हैं। मामला 'कथादेश' तक सीमित नहीं, जिसे वे "कुल मिला कर तीन बनाम ग्यारह " (दिसम्बर पृ. 7) बता रही हैं। पोर्न के इस प्रायोजित अनुष्ठान में आमंत्रित सदस्यों के अतिरिक्त कोई भी शरीक नहीं। मामला तीन बनाम ग्यारह नहीं, दस बनाम हज़ारों लाखों है।


अर्चना वर्मा केवल उद्भ्रान्त, उर्मिला जैन, अनिता गोपेश, प्रभु जोशी, सुनील सिंह, राहुल ब्रजमोहन, उदयभानु पांडे, विद्या लाल और कात्यायनी के लेखों और पाठकों के छपे पत्रों से ही क्षुब्ध नहीं है। उनका कोप इंटरनेट पर हज़ारों की संख्या में आ रही पाठकीय टिप्पणियों को लेकर भी है और उन अनेक आलेखों को लेकर भी जो 'कथादेश' में नहीं छापे जा सके, मगर जो अन्यत्र प्रतिष्ठा से छपे। उद्भ्रान्त का 15 जून 2012 को लिखा पूरा लेख ’दुनिया इन दिनों’ में विस्तार से छपा। लेख में भविष्यवाणी की गई थी कि "उनका कार्टेल क्या ख़ामोश बैठा रह जाएगा? वह बाँस की खपच्चियों की मदद से उन्हें पुनः त्रिशंकु की तरह ‘शीर्ष ’के स्वर्ग की ओर धकेलने का प्रयास तो अवश्य करेगा।" अर्चना वर्मा ने उद्भ्रान्त पर आ रहे गुस्से को उदयभानु पांडे पर उतारते हुए दिसम्बर में प्रोफेसर पांडे को 'मानसिक आलस्य' और 'बौद्धिक जड़ता' का ताना दे कर डपट दिया।


दीप्ति गुप्ता का आलेख भी रचना समय सहित अनेक ब्लॉग्स में छप कर बहुत चर्चित हुआ। उत्तेजना के ज्वार में अर्चना वर्मा ने दीप्ति गुप्ता के नाम से पृष्ठ 13 पर जो आवेशमय टिप्पणी उद्धृत की है वह दीप्ति गुप्ता ने नहीं लिखी थी। डा0 दीप्ति गुप्ता हिन्दी और अंग्रेजी की वरिष्ठ लेखिका हैं और डा0 अर्चना वर्मा की ही तरह विश्वविद्यालय की प्राध्यापिका भी। अर्चना वर्मा ने अपने क्रोध की गागर मेरे साथ उन पर भी उलीच दी ,"ये कविताएँ दीप्ति गुप्ता और शालिनी जैसों के लिए नहीं हैं। उनकी सीमाएँ समझी जा सकती हैं।" (दिसम्बर पृ 12) 'कथादेश' की सम्पादन सहयोगी ने यदि जानबूझ कर उनकी टिप्पणी ग़लत उद्धृत की है तो उन्हें अपनी दुर्भावना पर ग्लानि होनी चाहिए, यदि भूलवश ऐसा हुआ है तो उन्हें क्षमा माँगनी चाहिए।


दिसम्बर 2012 में लिखे आलेख में अर्चना वर्मा ने सारे टिप्पणीकारों, पत्रलेखकों और पाठकों को नाम ले लेकर कोसा है। कोसने के इस क्रम में उन्होंने मुझ नाचीज़ का नाम चालीस से भी अधिक बार लिया है। वैसे चालीसा के बारे में कहा गया है कि यदि कोई भक्त इतनी बार प्रेमपूर्वक प्रभु का नाम लेता है तो प्रभु स्वयं धरती पर उतर कर उसके संकट हर लेते हैं।


इस पूरे प्रकरण में अर्चना वर्मा की भूमिका क्या है? न चर्चित लेख उनका था, न आलोच्य कविताएँ उनकी। वे स्पष्ट कहती हैं कि उनकी "शालिनी की पढ़न्त से घनघोर असहमति" है (दिसम्बर पृ. 8)। अनामिका और पवन करण के पद्य के पक्ष में उन्होंने छह पृष्ठ लिखे, और अनामिका के गद्य के पक्ष में ग्यारह पृष्ठ । ज़ाहिर है, वे एक पक्षकार हैं। उन्होंने एक गम्भीर चर्चा को छद्मपूर्वक एक घटिया खेल में तब्दील करने का प्रयास किया और स्वयं एक ऐसी रेफरी की भूमिका में आ गईं, जो सरेआम पक्षपात करते हुए अपनी टीम को पूरे अंक देता है और विपक्षी टीम को केवल फ़ाउल ।


अर्चना वर्मा इतनी व्याकुल इतनी उद्वेलित, इतनी उत्तेजित और क्रोधित यूँ ही नहीं है, बात बहुत ख़ास है। वह ख़ास बात यह है कि इन वरिष्ठ विश्वविद्यालयीय विदुषी के पास हिन्दी के समकालीन साहित्य के लिए एक बहुत बड़ी परियोजना थी, जिसमें कदाचित् मेरे इस छोटे आलेख से बड़ा व्यवधान पड़ गया। अर्चना वर्मा की इस महती परियोजना का प्रस्ताव हम स्पष्ट देख सकते है, वे लिखती हैं-  "एक समाज का पोर्न किसी दूसरे समाज का रसराज शृंगार हो सकता है।" (कथादेश अगस्त पृ0 8) पोर्न को "नैतिक सदमा" बताने वाली इस अति बुद्धिमती विदुषी की इस निष्पत्ति का मैं कड़ा विरोध करती हूँ। 


विश्व की किसी भी सभ्यता संस्कृति के पूरे इतिहास के किसी भी कालखंड में पोर्न का कोई साहित्यिक मूल्य नहीं रहा। अर्चना वर्मा कहती हैं कि वह एक ही रस है, उसे कहीं पोर्न कहते हैं, कहीं रसराज श्रृंगार । उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि पोर्न शृंगार का विलोम है। ग्रीक साहित्यालोचन में भी दो विपरीत ऊर्जाएँ मानी गई है - ईरॉस और थानाटॉस। शृंगार की ऊर्जा है - ईरॉस, पोर्न की ऊर्जा है - थानाटॉस, एक प्रेम है दूसरी मृत्यु। पोर्न दरअसल सारे रसों का विपर्यय है। 


आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व भारत में भरत के नाट्यशास्त्र की रचना हुई थी, जिसमें आठ रस वर्णित थे। लोक स्मृति के आधार पर प्रस्तुत कर रही हूँ - 

शृंगारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानकाः।
वीभत्साद्भुतौ संज्ञौ चेत् अष्टौनाट्ये रसाः स्मृताः।।

उसके लगभग एक हज़ार वर्ष बाद हमारे आचार्य अभिनवगुप्त ने 'नाट्यशास्त्र' पर टीका लिखी 'अभिनव भारती', जिसमें नवाँ रस शामिल किया गया- शांतरस, जिसका स्थाई भाव है शम, अर्थात् आठों रसों की सामरस्य पूर्ण उपस्थिति। आज, ईसा के लगभग दो हजार साल बाद, दिल्ली की विदुषी अर्चना वर्मा दशम् रस 'पोर्न' को प्रतिष्ठित करने का प्रस्ताव लाई हैं। इसका स्थाईभाव क्या होगा, विमानवीकरण, विरूपीकरण, और अगर उर्दू से परहेज़ न हो तो ''ग़लाज़त ?'' 



खेल सामने आ चुका है, मामला दो कविताओं की अस्मिता का नहीं, हिन्दी के समकालीन साहित्य में पोर्न की प्रतिष्ठा का है। प्रस्ताव अर्चना वर्मा का है और समर्थन वामपंथी आलोचक आशुतोष कुमार का-   “शालिनी माथुर के चर्चित आलेख में कहा गया है कि वह नग्नता के खिलाफ़ नहीं है सिर्फ स्त्री शरीर के पोर्नोग्राफ़िक निरूपण के खिलाफ हैं, तब भी वह उन तमाम स्त्रियों के खिलाफ़ तो है ही जो अपनी सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए पोर्न कलाकार बनती हैं।...आखिर पोर्न कलाकार बनने का फैसला स्त्री के लिए अपमानजनक क्यों होना चाहिए।........पोर्नोग्राफी हर हाल में स्त्री के लिए अपमानजनक ही होती है यह कोई सर्वस्वीकार्य धारणा नहीं है।" ( अगस्त पृ0 85 ) पोर्नस्टार की जीविका के अधिकार का प्रश्न उठाते हुए वामाचार के पक्ष में खड़े आशुतोष कुमार अपने नाम से पूर्व बेहयाई से वामपंथी लिखते हैं, इससे ज़्यादा लज्जास्पद बात और क्या हो सकती है ?


जिस तरह हम सब को मालूम है, उसी तरह आशुतोष कुमार को ज़रूर मालूम होगा कि पोर्न एक इंडस्ट्री (व्यवसाय) है और पोर्नस्टार उसका प्रोडक्ट (उत्पाद)। पोर्न इंडस्ट्री उत्पाद को अपमानित, विवश, विरूपित, यौन-उपभोक्ता सामग्री के रूप में पोर्न के उपभोक्ताओं को बेचती है। पोर्न इंडस्ट्री में स्त्री पण्यवस्तु है, उसे बेचा ख़रीदा जाता है। आशुतोष कुमार ने सोच समझ कर ही अर्चना वर्मा की प्रस्तावित पोर्न प्रतिष्ठा का समर्थन किया होगा । यह वामपंथ है, यह जनवाद और जनसंस्कृति है, यह प्रगतिशीलता है, तो अवनति शीलता कैसी होती होगी ? यह समय बहुत अंधेरा है। 


मानिनी विदुषी अर्चना वर्मा ने पवन करण की शहद के छत्तों और दशहरी आमों वाली कविता में संस्कृत के व्याकरण दर्शन के आचार्य भर्तृहरि के शब्दब्रह्म स्फोट का संधान किया है ( अगस्त पृ. 9 ) और अभिमानिनी विदुषी अनामिका ने अपनी उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं वाली कविता को "कालिदास की पंक्तियों से अन्तर्पाठीय संवाद करती" ( अगस्त पृष्ठ 14 ) ब्रह्मगाँठ बताया है जिसे खोल पाना मेरे जैसे सामान्य पाठक के लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।


अर्चना वर्मा, संजीव चंदन और मदन कश्यप ने कहा है कि मैं कविता समझने योग्य नहीं हूँ और अनामिका मुझसे सस्नेह निवेदन कर चुकी हैं कि, ''नए पाठक को कविता के योग्य बनना पड़ता है! समझने की योग्यता विकसित करनी पड़ती है ! यत्न करके देखिये !" ( अगस्त पृ. 14 )


योग्यता वाली बात पर बचपन में पढ़ी हुई एक कहानी याद आ गई, जिसमें सम्राट के कपड़े उसी को दिखाई देते थे जो इस योग्य होता था। नए वर्ष में आइए वह पुरानी कहानी सुनें ।


बहुत दिन पहले एक राजा था। उस मूर्ख और घमंडी राजा को कपड़ों के साथ नए नए प्रयोग करने का बहुत शौक था और वह हमेशा चापलूसों से घिरा रहता था। एक बार उस दम्भी सम्राट के दरबार में दो धूर्त ठग आए और बोले कि वे उसके लिए एक ऐसे कपड़े की पोशाक तैयार करके देंगे जो उसको दिखाई नहीं देगी जो नादान होगा या जो अपने पद के योग्य नहीं होगा।


वे धूर्त ठग हथकरघे पर बिना धागे के ताना-बाना बुनने लगे, वे हवा में सुई में धागा पिरोने का अभिनय करने लगे, फिर वे ऐसी सुई से उस कपड़े पर बारीक बेलबूटे काढ़ने का अभिनय करने लगे जो बुना ही नहीं गया था। वे सोने चाँदी और रेशम के तार मँगवाते और पुरस्कार स्वरूप अपने थैलों में भर लेते। ऐसा बहुत दिनों तक चलता रहा। राजा ने दरबारियों को भेजा। कपड़ा उन्हें दिखाई तो नहीं दिया,पर स्वयं को योग्य सिद्ध करने के लिए उन्होंने सम्राट से कपडे़ की प्रशंसा की, उसकी नर्मी, बुनावट और उस पर कढ़े बारीक बेलबूटों की भी। सम्राट स्वयं जा पहुँचा, कपड़ा उसे भी दिखाई नहीं दिया पर वह नादान नहीं, योग्य था। 


धूर्त ठगों ने हवा में कैंची चलाते हुए कपड़ा काटा और हवा में सुई धागा चला कर पोशाक सीकर सम्राट को पहनाने का अभिनय किया। आत्ममुग्ध सम्राट अदृश्य पोशाक पहनकर चाटुकार दरबारियों के जुलूस का नेतृत्व करता हुआ शहर के बीच चल पड़ा। भीड़ उमड़ पड़ी। भीड़ ने देखा पर चुप रही। इसी बीच भीड़ में खड़ा एक बच्चा ( मिथिला का बाबू) चिल्लाया - "राजा ने तो कुछ भी नहीं पहन रखा।" "नादान बच्चे की आवाज सुनो", एक बुजुर्ग बोला, और फिर यह आवाज़ फुसफुसाहटों में बदलकर एक कान से दूसरे कान तक होती हुई एक शोर में बदल गई- "देखो राजा के तन पर तो वस्त्र ही नहीं।"


हांस क्रिस्चन एंडरसन की यह कहानी भले ही फेयरीटेल के रूप में संकलित हो, यह कहानी बच्चों की नहीं है। दरबार की हिप्पोक्रेसी और बौद्धिकता के झूठे दम्भ के खिलाफ लिखी कहानी यहीं समाप्त नही होती। कहानी आगे चलती हैं- आवाज़ को सुनकर राजा समझ गया कि सब लोग जान चुके हैं कि वह निर्वस्त्र है, मगर उसने निर्णय किया कि वह उसी प्रकार दरबारियों के जलूस का नेतृत्व करता रहेगा। प्रजा शोर मचाती रही, दरबारी निर्वस्त्र सम्राट के नेतृत्व में चलते रहे और यह दिखावा करने के लिए और भी अधिक श्रम करने लगे कि वे एक बेहद शानदार, बेशकीमती, बेहतरीन पोशाक के दूर तक फैले दामन की झालर को सावधानी से संवार और संभाल कर चल रहे है। 


निर्वसन सम्राट और योग्य दरबारियों का जुलूस
निर्वसनों के वसनों की प्रशंसा में अनेक बौद्धिक लेख लिखे जा चुके हैं। प्रगतिशील तथा अवनतिशील कवि तथा विद्वत्जन निर्लज्जता से निर्वसन के नेतृत्व वाले जलूस में चल रहे हैं। उन सब ने नादान बच्चे की आवाज सुन ली है, और उन सब की भी जिन्हें वे आम पाठक और सामान्य पाठक कह कर अपमानित और तिरस्कृत करते रहे हैं । छद्म खुल चुका है, फिर भी मृतात्माओं का जुलूस चल रहा है। खूबी यह है कि इस जुलूस में इस बार स्त्रियां भी शामिल हैं। 


अर्चना वर्मा ने अपनी आठों सिद्धियों के द्वारा प्राप्त अलौकिक ज्ञान के आधार पर मेरे संस्कारों को कोसा है और मेरे जेहादी नारीवादी एक्टिविज़्म को भी। मुझे अपने बहुत पढ़े लिखे सुसंस्कृत माता पिता से मिले संस्कारों पर नाज़ है, जिनके कारण मैं सामाजिक एक्टिविस्ट बनी। 


ईसा के दो हज़ार बारहवें वर्ष का अंतिम माह इस विडम्बना के लिए याद रखा जाएगा कि जिस समय देश की राजधानी दिल्ली में हज़ारों आम लोग रेप के विरुद्ध जुलूस में चल रहे थे, उसी समय हिन्दी साहित्य की विद्वत्त्रयी दिल्ली में पोर्न के पक्ष में जुलूस निकाल रही थी। यह समय अंधेरा है। मेरा यह प्रतिरोध एक नारीवादी एक्टिविस्ट का पोर्न के विरूद्ध प्रतिरोध है, जो इसी तरह जारी रहेगा क्यों कि मेरा यकीन है कि “पोर्न इज़ द थियरी, रेप इज़ द प्रैक्टिस ।”  इस अंधेरे समय में मैं अपनी रोशनी के साथ खड़ी हूँ कि अब मैं अकेली नहीं, मेरे साथ हिन्दी का लगभग सारा संसार है। 


मैं इस तरह से खेल समाप्ति की घोषणा नहीं होने दूँगी क्योंकि मेरे लिए यह कोई खेल नहीं, एक गम्भीर चर्चा है। यह चर्चा अभी समाप्त नहीं हुई है।

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 कथादेश (फ़रवरी 2013)

8 जनवरी 2013
  - शालिनी माथुर ,                            
ए 5/6 कारपोरेशन फ़्लैट्स, 
निराला नगर, 
लखनऊ 
फोन 9839014660


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