कल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस था।
इस अवसर पर "टाईम्स ऑफ इंडिया" (कोटा प्लस) परिशिष्ट लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित रचनाकार श्री अतुल कनक जी ने एक छोटी-सी बातचीत की थी। उस बातचीत के मुख्य अंश -
1अतुल कनक -पिछले कुछ दशकों में महिलाओं की आर्थिक निर्भरता की स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन अभी भी समाज की मानसिकता संकीर्ण है। क्या कारण मानती हैं आप? महिलाओं को अभी भी कमज़ोर क्यों माना जाता है?कविता वाचक्नवी -महिलाओं की आर्थिक स्थिति/ निर्भरता में सुधार यद्यपि हुआ है और वह इन मायनों में कि स्त्रियाँ अब कमाने लगी हैं, किन्तु इस से उनकी अपनी आर्थिक स्थिति सुधरने का प्रतिशत बहुत कम है क्योंकि वे जो कमाती हैं उस पर उनके अधिकार का प्रतिशत बहुत न्यून है। वे अपने घरों/परिवारों के लिए कमाती हैं और जिन परिवारों का वे अंग होती हैं, उन घरों का स्वामित्व व अधिकार उनके हाथ में लगभग न के बराबर है। समाज में जब तक स्त्री को कर्तव्यों का हिस्सा और पुरुष को अधिकार का हिस्सा मान बंटवारे की मानसिकता बनी रहेगी तब तक यह विभाजन बना रहेगा। स्त्री के भी परिवार में समान अधिकार व समान कर्तव्य हों यह निर्धारित किए/अपनाए बिना कोई भी समाज, अर्थोपार्जन में स्त्री की सक्षमता-मात्र से उसके प्रति अपनी संकीर्णता नहीं त्याग सकता। स्त्री की शारीरिक बनावट में आक्रामकशक्ति पुरुष की तुलना में न के बराबर होना, उसे अशक्त मानने का कारण बन जाता है। तीसरी बात यह, कि महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक निर्णयों में भूमिका हमारे पारम्परिक परिवारों में नहीं होती है और यदि शिक्षित स्त्रियाँ अपनी वैचारिक सहमति असहमति भी व्यक्त करती हैं तो इसे हस्तक्षेप के रूप में समाज ग्रहण करता है, जिसकी समाजस्वीकार्यता न के बराबर है। अतः महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए मात्र उनकी आर्थिक सक्षमता ही पर्याप्त नहीं है, अपितु अन्य भी कई कारक हैं।2अतुल कनक -महिलाओं के प्रति जिम्मेदार लोगों का रवैया भी बहुत पाखण्ड भरा होता है। क्या पुरुष की यह मानसिकता कभी नहीं बदलेगी?कविता वाचक्नवी -प्रथम तो मैं इन शब्दों से सहमत नहीं, कि जो पाखण्डी हैं उन्हें जिम्मेदार नागरिक माना जाए। वे भले राजनीति के उच्च पदों पर हों या महिला संगठनों, शिक्षा संगठनों, कार्यालयों, सुरक्षा, व्यवस्था, बाजार/व्यापार (मार्केटिंग) आदि में कहीं भी नीति निर्धारक हों, वे सबसे पहले 'अपना लाभ सर्वोपरि' की नीति अपनाते हैं और लाभ का एक ही अर्थ समाज में शेष रह गया है, वह है शक्ति और पूँजी (धन)। इसलिए महिलाओं के दोहन का बड़ा मुद्दा यद्यपि पुरुष द्वारा दोहन है परंतु यह दोहन मात्र पुरुष द्वारा ही नहीं अपितु अधिकार व शक्तिसम्पन्न किसी भी ईकाई द्वारा निर्बल का दोहन है। और दुर्भाग्य से स्त्री को समाज ने निर्बल ही बनाए रखा है, उसे सबल बनाने के लिए पारिवारिक व सामाजिक संरचना में जिन बदलावों की जरूरत है, वे जल्दी आते नहीं दीखते, विशेषतः भारत, एशिया व अविकसित देशों के संदर्भ में। असली बात 'माईंड सेट', बनी हुई व चली आ रही मध्ययुगीन धारणाओं तथा मान्यताओं की है। उनसे पीछा छुड़ाए बिना परिवर्तन जल्दी संभव नहीं।3अतुल कनक-क्या आप अगले जीवन में महिला ही होना पसंद करेंगी?कविता वाचक्नवी -यदि मेरा अगला जन्म मनुष्य के रूप में ही होता है, तो निस्संदेह मैं स्त्री होना ही चुनूँगी /चाहूँगी।4अतुल कनक -कोई ऐसा क्षण या घटना जब आपको इस बात पर गर्व हुआ हो कि आप महिला हैं और कोई इससे ठीक विपरीत अनुभव?कविता वाचक्नवी -ऐसे हजारों क्षण क्या, हजारों घंटे व हजारों अवसर हैं, जब मुझे अपने स्त्री होने पर गर्व हुआ है। जब-जब मैंने पुरुष द्वारा स्त्री के प्रति बरती गई बर्बरता व दूसरों के प्रति फूहड़ता, असभ्यता, अशालीनता, अभद्रता, लोलुपता, भाषिकपतन, सार्वजनिक व्यभिचार के दृश्य, मूर्खतापूर्ण अहं, नशे में गंदगी पर गिरे हुए दृश्य और गलत निर्णयों के लट्ठमार हठ आदि को देखा सुना समझा, तब तब गर्व हुआ कि आह स्त्री रूप में मेरा जन्म लेना कितना सुखद है।रही इसके विपरीत अनुभव की बात, तो गर्व का विपरीत तो लज्जा ही होती है। आप इसे मेरा मनोबल समझ सकते हैं कि मुझे अपने स्त्री होने पर कभी लज्जा नहीं आई। बहुधा भीड़ में या सार्वजनिक स्थलों आदि पर बचपन से लेकर प्रौढ़ होने तक भारतीय परिवेश में महिलाओं को जाने कैसी कैसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है, मैं कोई अपवाद नहीं हूँ; किन्तु ऐसे प्रत्येक भयावह अनुभव के समय भी /बावजूद भी मुझे अपने स्त्री होने के चलते लज्जा कभी नहीं आई या कमतरी का अनुभव नहीं हुआ, सिवाय इस भावना के कि कई बार यह अवश्य लगा कि अमुक अमुक मौके पर मैं स्त्री न होती तो धुन देती अलाने-फलाने को।5अतुल कनक -....और भी कुछ जो इस विषय में महत्वपूर्ण हो सकता है।कविता वाचक्नवी -बहुत कुछ महत्वपूर्ण है, जो करणीय है इस दिशा में। परंतु सबसे महत्वपूर्ण मुझे लगता है कि परिवारों में स्त्री के सम्मान व महत्व के संस्कार विकसित किए जाएँ (भले ही वह माँ है, बेटी है, बहन है, बहू है)। यह तभी संभव होगा जब घर के पुरुष स्त्री का आदर करना स्वयं प्रारम्भ करेंगे, उसकी बातों, निर्णयों, भावनाओं आदि को महत्व देंगे। इस से स्त्रियों के मन की कुंठा भी कम होगी और वे अपनी संतानों को अधिक स्वस्थ वातावरण में पाल सकेंगी और अधिक जिम्मेदार नागरिक बना सकेंगी। परिवार का वातावरण अधिक सौहार्दपूर्ण बनने से व स्वयं परिवार के आचरण द्वारा दिए गए संस्कारों में पले बच्चे अगली पीढ़ी के श्रेष्ठ नागरिक बनेंगे। स्त्री को समान भूमिका में समझे बिना परिवारों में स्वस्थ प्रेम नहीं विकसित हो सकता और प्रेमरहित वातावरण में पलने वाले बच्चे आगे जाकर समाज का कोढ़ ही बनते हैं।