बुधवार, 4 अगस्त 2010

असावधान भाषा की सांस्कृतिक ठेस

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‘असावधान भाषा की सांस्कृतिक ठेस’
-प्रभु जोशी




सुपरिचित कथाकार और सम्प्रति महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूतिनारायण राय ने ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में ‘समकालीन स्त्री विमर्श’ के केन्द्र में चल रही ‘वैचारिकी' पर बड़ी मारक टिप्पणी करते हुए यह कह डाला कि लेखिकाओं का एक ऐसा वर्ग है, जो अपने आपको बड़ा ‘छिनाल' साबित करने में लगा हुआ है। कदाचित् यह टिप्पणी उन्होंने कुछेक हिन्दी लेखिकाओं द्वारा लिखी गई आत्म कथात्मक पुस्तकों को ध्यान में रख कर ही की होगी। हालांकि इसको लेकर दो तीन दिनों से प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही मीडिया में बड़ा बवण्डर खड़ा हो गया है। लेकिन, हिन्दी भाषा-भाषी समाज में यह वक्तव्य अब चौंकाने वाला नहीं रह गया है। इस शब्दावलि से अब कोई अतिरिक्त ‘सांस्कृतिक-ठेस' नहीं लगनी चाहिए। क्योंकि, ‘कल्चर-शॉक‘ का वह कालखण्ड लगभग अब गुजर चुका है।




उत्तर औपनिवेशिक समय ने हमारी भाषा के ’सांस्कृतिक स्वरूप’ को इतना निर्मम और अराजक होकर तोड़ा है कि ‘सम्पट’ ही नहीं बैठ पा रही है कि कहाँ, कब क्या और कौन-सा शब्द बात को ‘हिट’ बनाने की भूमिका में आ जायेगा। हमारे टेलिविजन चैनलों पर चलने वाले ‘मनोरंजन के कारोबार’ में भाषा की ऐसी ही फूहड़ता की जी-जान से प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है। ‘भीड़ू’, ‘भड़वे’ और ‘कमीने’ शब्द ‘नितान्त’ ‘स्वागत योग्य’ बन गये हैं। ‘इश्क-कमीने’ शीर्षक से फिल्म चलती है और वह सबसे ज्यादा ‘हिट’ सिद्ध होती है। संवादों में गालियाँ संवाद का कारगर हिस्सा बनकर शामिल हो रही हैं। इसलिए ‘छिनाल’ या ‘छिनालें’ शब्द से हिन्दी बोलने वालों के बीच तह-ओ-बाल मच जाये, यह अतार्किक जान पड़ता है। क्योंकि जिस विस्मृति के दौर में ‘भाषा की भद्रता’ को मसखरी में बदला जा रहा है, वहाँ ऐसे शब्दों को लेकर ‘बहस‘ हमें यह याद दिलाती है कि आखिर हम कितने दु-मुँहे और निर्लज्ज हैं कि एक ओर जहाँ हम ‘स्लैंग’ के लिए हमारे जीवन में संस्थागत रूप से जगह बनाने का काम कर रहे हैं, तो वहाँ फिर अचानक इस फूहड़ता पर आपत्तियाँ क्यों आती हैं ?




चौंकाता केवल यह है कि एक चर्चित, और गंभीर लेखक अपने वक्तव्य में ऐसी असावधानी का शिकार कैसे हो जाता है ? दरअस्ल, वह कहना यही चाहता था कि आज के लेखन में ‘हेट्रो सेक्चुअल्टी‘ (यौन-संबंधों की बहुलता) स्त्री के साहस का ’अलंकरण’ बन गया है। विवाहेत्तर संबंधों की विपुलता का बढ़-चढ़ कर बखान ‘स्त्री की स्वतंत्रता‘ का प्रमाणीकरण बनने लगा है। यौन संबंधों की बहुलता उसके लिए अपने देह के स्वामित्व को लौटाने का बहुप्रतीक्षित अधिकार बन गई है। हालांकि, इस पर अलग से गंभीरता से बात की जा सकती है। क्योंकि इन दिनों हिन्दी साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों में ‘एकनिष्ठता‘ को स्त्री का शोषण माना और बताया जाने लगा है। खासकर हिन्दी कथा साहित्य में यह हो गया है। कविता में भी है कि ‘उत्तर आधुनिक बेटी’, अपनी माँ को दूसरे प्रेमी के लिए काँच के सामने श्रृंगार करते देखती है तो प्रसन्नता से भर उठती है। उसे माँ के एक ‘अन्य पुरूष’ से होने वाले संबंध पर आपत्ति नहीं है। ऐसी कविता सामाजिक जीवन में एक ‘नई स्त्री की खोज’ बन रही है तो दूसरी तरफ कथा साहित्य में ‘निष्ठा‘ एक घिसा हुआ शब्द हो चुका है। निष्ठा से बंधी स्त्री को ‘मॉरल फोबिया‘ से ग्रस्त स्त्री का दर्जा दे दिया जाता है। याद दिलाना चाहूँगा, हेट्रो सेक्चुअल्टी को शौर्य बनाने की युक्ति का सबसे बड़ा टेलिजेनिक प्रमाण था, कार्यक्रम ‘सच का सामना’। जिसमें मूलतः ‘सेक्स‘ को लेकर सवाल किये जाते थे और जिसमें विवाहेत्तर यौन संबंधों की बहुलता का बखान कर दिया, वह पुरस्कार के प्राप्त करने का सबसे योग्य दावेदार बन जाता था। बहरहाल, इसी तरह के घसड़-फसड़ समय को जाक्स देरिदा ने कहा है, ‘टाइम फ्रैक्चर्ड एण्ड टाइम डिसज्वाइण्टेड’। यानी चीजें ही नहीं, भाषा और समाज टूट कर कहीं से भी जुड़ गया है। भाषा से भूगोल को, भूगोल को भूखे से और भूखे को भगवान से भिड़ा दिया जाता है। इसे ही ‘पेश्टिच‘ कहते हैं। मसलन, अगरबत्ती के पैकेट पर अब अर्द्धनिवर्सन स्त्री, ‘देह के चरम आनंद’  की चेहरे पर अभिव्यक्ति देती हुई बरामद हो जाती है। हो सकता है सिंदूर बेचने की दूकान का दरवाजा देह-व्यापार की इमारत में खुल जाये। पहले मंदिर जाने के बहाने से प्रेमी से मिला जाता था, लेकिन अब मंदिर प्रेम के लिए सर्वथा उपयुक्त और सु रक्षित जगह है। एक नया सांस्कृतिक घसड़-फसड़ चल रहा है, जिसमें बाजार एक ‘महामिक्सर’ की तरह है, जो सबको फेंट कर ‘एकमेक’ कर रहा है। अब शयनकक्ष का एकान्त चौराहे पर है। और बकौल गुलजार के बाजार घर में घुस गया है। समाज में एक नया ‘पारदर्शीपन’ गढ़ा जा रहा है, जिसमें सब कुछ दिखायी दे रहा है और नई पीढ़ी उसकी तरफ अतृप्त प्यास के साथ दौड़ रही है और अधेड़ पीढ़ी ‘सांस्कृतिक अवसाद’ में गूंगी हो गई है। उसकी घिग्घी बँध गयी है। और, शायद सबसे बड़ी घिग्घी ‘भाषा के भदेसपन’ पर बँधी हुई है। अंतरंग को ‘बहिरंग’ बनाती भाषा के चलते ही, लम्पट-मुहावरे अभिव्यक्ति का आधार बन रहे हैं। और इस पर सबसे ज्यादा सांस्कृतिक ठेस हमारी उस भद्र मध्यमवर्गीय चेतना को लग रही है, जो कभी-कभी मीडिया अपने हित में जागृत कर लेता है। अगर मोबाइल पर युवाओं के बीच की बात को लिखित रूप में प्रस्तुत कर दिया जाये तो हम जान सकते हैं कि भाषा खुद अपने कपड़े बदल रही है। उसे कुछ ‘ज्ञान के अत्यधिक मारे लोग’ भाषा की ‘फ्रेश लिग्विंस्टिक लाइफ’ कह रहे हैं। लेकिन, संबंधों को लम्पट भाषा के मुहावरे में व्यक्त किया जा रहा है।




दरअस्ल, विभूतिनारायण राय अपनी अभिव्यक्ति में असावधान भाषा के कारण, भर्त्सना के भागीदार हो गये हैं। क्योंकि, वे निष्ठाहीनता को लम्पटई की शब्दावली के सहारे आक्रामक बनाने का मंसूबा रख रहे थे। शायद, वे साहित्य के भीतर फूहड़ता के प्रतिष्ठानीकरण के विरूद्ध कुछ ‘हिट’  मुहावरे में कुछ कहना चाहते थे। मगर, वे खुद ही गिर पड़े। एक लेखक, जो वाणी का पुजारी होता है, वही वाणी की वजह से वध्य बन गया। याद रखना चाहिए कि बड़े युद्धों के आरंभ और अंत हथियारों से नहीं, वाणी से ही होते हैं। एक लेखक को शब्द की सामर्थ्य को पहचानना चाहिए। ‘सूअर’ के बजाये ‘वराह’ के प्रयोग से शब्द मिथकीय दार्शनिकता में चला जाता है। भाषा की यही तो सांस्कृतिकता है। इसे फलाँगे,  तो औंधे मुँह आप और आपका व्यक्तित्व दोनों ही एक साथ गिरेंगे और लहूलुहान हो जायेंगे। जख्म पर मरहम पट्टी लगाने वालों के बजाय नमक लगाने वालों की तादाद ज्यादा बड़ी होगी।





4, संवाद नगर
इन्दौर






गालियाँ, चरित्रहनन, आत्मस्वीकृतियाँ : कलंक : मानसिकता व भाषा के बहाने स्त्रीविमर्श

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गालियाँ, चरित्रहनन, आत्मस्वीकृतियाँ : कलंक : मानसिकता व भाषा के बहाने स्त्रीविमर्श
-  (डॉ.) कविता वाचक्नवी 





हिन्दी की लेखिकाओं के लिए जिस भाषा-व्यवहार का प्रसंग भारत व हिन्दी साहित्य में अभी चला, वह नवीनतम उदाहरण है ; जो हमें किन्हीं चीजों पर विचार करने और अपने को समझने (+बदलने)  का अवसर देता है | 


इस पूरे प्रकरण में दो बातें परस्पर गुँथी हैं। पहली  है - वर्तमान साहित्य पर टिप्पणी और दूसरी है -  टिप्पणी का महिला- केन्द्रित होना, जेंडर मूलक / आधारित होना | गलती टिप्पणी में नहीं टिप्पणी के लिंग (जेंडर) आधारित होने में हैं | 


क्या यह सच नहीं कि  इधर गत कुछ वर्षों में साहित्य में यथार्थ के नाम पर अथवा सन्स्मरणों के नाम पर या आत्मस्वीकृतियों के नाम पर जो कुछ लिखा जाता रहा है , वह इतना वाहियात, घटिया व  लज्जास्पद है कि उसे साहित्य कहना साहित्य का अपमान है?


विचारणीय यह है कि क्या यह सब मात्र स्त्रियाँ ही लिख रही हैं ?  एक वास्तविक चरित्र को जब ‘हंस’ में द्रौपदी कह कर अपमानित किया जाता है, जब छत्तीसगढ़ की सद्यप्रसवा आदिवासी युवती  को एक शेयर्डकक्ष में आधी रात को कामक्रीडा के लिए खरीद कर बुलाए जाने व स्तनपान के लक्षण दिखाई देने आदि के घिनौने यथार्थ की आत्मस्वीकृतियों के बहाने सस्ती लोकप्रियता बटोरते हुए महान् बनने  की कवायद की जाती है,  तब कहाँ सो जाते हैं साहित्य के पहरुए ? ...  और कहाँ चली जाती हैं महिला के सम्मान के लिए लड़ने वाली स्त्री- पुरुष आवाजें  ?  तब साहित्य को पतनोन्मुख करने ( अपितु साहित्य से अधिक निजी पतनशीलता के प्रमाण देने  में ) कोई पक्ष कमतर नहीं ठहरा |  आज जो लोग साहित्य के पतन के लिए चिंतित हो टहल गए ,  कहाँ सो गए थे तब  वे ? और जो इस टहला टहली से खिन्न रुष्ट हो अपनी इज्जत के लिए लड़ रहे हैं तब वे कहाँ सोए थे ? क्या उन प्रसंगों में तार तार हुई स्त्रियों की इज्जत,  इज्जत नहीं थी ? क्या उन्हीं स्तंभों में स्त्रियाँ भी उसी तर्ज पर नहीं लिखती रहीं ? तो फिर मलाल कैसा ? दोनों तरह वालों को अब सुध आई ? ....  तो आई क्यों ? 


साहित्य का चीर हरण करने वालों की  भीड़  में किसी का भी पक्ष लेना कदापि न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता | स्थिति एक दम वही है, जो द्रौपदी के सम्मान की राजदरबार में हुई थी | चीरहरण और भरे दरबार में अपमानित करने के जितने दोषी कौरव थे, उतने ही वे पांडव भी, जिन्होंने कुलवधू को दाँव पर लगा दिया था | मेरे जैसा व्यक्ति उस पतन पर लज्जित है, साहित्यिक द्रौपदी की पीड़ा और त्रास पर दुखी है, दोनों दलों द्वारा अपने अपने स्वार्थ अथवा मनोरंजन के लिए राजदरबार में प्रयोग की जाती लेखन रूपी पाँचाली के क्रंदन से विचलित है |



अब ज़रा आगे बढ़ें तो इस घटना के बहाने और चीजें साफ़ हुई हों या न हुई हों किन्तु यह बात एकदम साफ़ हुई कि सबसे इज़ी टार्गेट हैं महिलाएँ | एक पक्ष का बस चला और अवसर मिला तो वह दूसरे को छोटा दिखाने के लिए स्त्री को अपमानित करती, व्यभिचारिणी सिद्ध करती  हुई गाली देगा और जब दूसरे को अवसर मिला तब भी गाली स्त्रियों को दी जाएगी, उन्हीं का चरित्र हनन किया जाएगा |



मामला इतना-भर नहीं है; अपितु मजेदार बात तो यह है कि एक पक्ष की गाली के विरोध में उठे स्वर भी दूसरे पक्ष की स्त्री को गाली देते आगे बढ़ते हैं | कुलपति के शब्द प्रयोग पर धिक्कारने व गाली देने के सिलसिले में जहाँ लेखकों व लेखिकाओं तक ने ममता कालिया व श्रीमती नारायण सहित उक्त वि. वि. में किसी भी प्रसंग या कारण से भूमिका निभाने वाली स्त्रियों तक को अपमानित किया व वही सब ठहराने की चेष्टा में आरोप प्रत्यारोप बरते, वे उसी मानसिकता का परिचय देते हैं कि आपसी युद्धों में भारतीय समाज स्त्री को ही कलंकित करता है , स्वयं स्त्रियाँ तक भी | हिन्दी के ब्लॉग जगत् में भी यहाँ तक कह दिया गया कि अमुक अमुक अवसर पर अमुक अमुक ( कोई न कोई ) स्त्री उक्त वि वि में भागीदारी के लिए पहुँच जाएगी, वह वहाँ कैसे पहुँची ..... आदि आदि आदि | जिस प्रकार के शब्द के लिए एक पक्ष को कोसा और आरोपित किया जाता है, उसी तरह का काम दूसरा पक्ष स्वयं कर रहा होता है |


क्यों जी, यह कहाँ का न्याय है कि दोष किसी का भी हो, किन्तु कलंकित की जाएगी स्त्री ही , चरित्रहनन होगा स्त्री का, गाली मिलेगी स्त्री को ?


समाज में सदा से यही होता आया है | युद्ध करेगा पुरुष; कभी मद में, कभी उन्मत्त हो कर, कभी क्रोध में, कभी लोभ में, कभी शौकिया या आदतन किन्तु भोगी जाएँगी स्त्रियाँ, या भेंट में दी जाएँगी | आधुनिक युद्धों में भी यही स्थिति है , भले ही वे साम्प्रदायिक हों अथवा इतर |


क्या ऐसा इसीलिए कि स्त्री ही सबसे कमजोर प्राणी है समाज का ?  या इसलिए कि स्त्री की समाज में स्थिति सबसे बुरी है, सबसे घटिया | 


निस्संदेह कभी न कभी अपने आसपास के लोगों की निकृष्टता देख उन्हें गालियाँ देने का मन सब का  होता है किन्तु क्या यह विचार का विषय नहीं है कि गालियाँ स्त्री-केन्द्रित ही क्यों हों,  लैंगिक ही क्यों हों ?  संस्कृत में कभी कोई गाली लैंगिक नहीं रही | न ही मात्र स्त्री केन्द्रित | अपितु सीधे सीधे उसे दोषी या आरोपित करने वाली गाली होती रही हैं, जो सीधे स्वयं उत्तरदायी है या कह लें जिसे गाली दी जा रही है | यही स्थिति आज भी पूर्वोत्तर भारत की बोलियों में है.



हम लोग जब गुरुकुल में पढ़ा करते थे तो ऐसी ऐसी गालियाँ प्रयोग करते थे कि आज भी उनकी संरचना व सृजनात्मकता को लेकर मन से वाह निकलती है; किन्तु कभी कोई गाली लैंगिक शब्दावली की नहीं थी. लैंगिक शब्दावली कि गालियों का निहितार्थ ही यह है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष की स्त्रियों के प्रति कुत्साभाव से ग्रस्त है व सब से `ईज़ी टार्गेट'  (अर्थात् स्त्री) को निशाना बनाकर, अपमानित कर के अपने क्रोध को शांत करना चाहते हैं |


साहस हो तो यह हो कि कोई भी पक्ष बिना किसी भी पक्ष की स्त्री के प्रति कुत्सा लिए स्वयं आपस में निपटे | सीधे सीधे दोषी या दुष्ट को धिक्कारें, न कि एक दूसरे पक्ष की स्त्री को व्यभिचारिणी सिद्ध करें या अश्लील भाषा से कलंकित करें |


इस गाली पुराण का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दी- समाज में सारी की सारी गालियाँ स्त्री को लगती हैं ( उन पर केन्द्रित होती हैं) चाहे दी भले वे पुरुष को जा रही हों ;  और सारे के सारे आशीर्वाद पुरुष को लगते है ( उसके लिए सुरक्षित होते हैं ) भले ही दिए वे चाहे स्त्री को जा रहे हों |


उस समाज पर आप क्या कहिएगा जिसकी सारी गालियाँ स्त्री के लिए सुरक्षित हैं व सारी आशीर्वाद पुरुष के लिए |

मुझे चिंता इस समाज की है; न कि इस पक्ष या उस पक्ष की | 

आपकी चिंता का विषय कौन व क्या है ?     ......  बताइयेगा ?





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