‘असावधान भाषा की सांस्कृतिक ठेस’
-प्रभु जोशी
सुपरिचित कथाकार और सम्प्रति महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूतिनारायण राय ने ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में ‘समकालीन स्त्री विमर्श’ के केन्द्र में चल रही ‘वैचारिकी' पर बड़ी मारक टिप्पणी करते हुए यह कह डाला कि लेखिकाओं का एक ऐसा वर्ग है, जो अपने आपको बड़ा ‘छिनाल' साबित करने में लगा हुआ है। कदाचित् यह टिप्पणी उन्होंने कुछेक हिन्दी लेखिकाओं द्वारा लिखी गई आत्म कथात्मक पुस्तकों को ध्यान में रख कर ही की होगी। हालांकि इसको लेकर दो तीन दिनों से प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही मीडिया में बड़ा बवण्डर खड़ा हो गया है। लेकिन, हिन्दी भाषा-भाषी समाज में यह वक्तव्य अब चौंकाने वाला नहीं रह गया है। इस शब्दावलि से अब कोई अतिरिक्त ‘सांस्कृतिक-ठेस' नहीं लगनी चाहिए। क्योंकि, ‘कल्चर-शॉक‘ का वह कालखण्ड लगभग अब गुजर चुका है।
उत्तर औपनिवेशिक समय ने हमारी भाषा के ’सांस्कृतिक स्वरूप’ को इतना निर्मम और अराजक होकर तोड़ा है कि ‘सम्पट’ ही नहीं बैठ पा रही है कि कहाँ, कब क्या और कौन-सा शब्द बात को ‘हिट’ बनाने की भूमिका में आ जायेगा। हमारे टेलिविजन चैनलों पर चलने वाले ‘मनोरंजन के कारोबार’ में भाषा की ऐसी ही फूहड़ता की जी-जान से प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है। ‘भीड़ू’, ‘भड़वे’ और ‘कमीने’ शब्द ‘नितान्त’ ‘स्वागत योग्य’ बन गये हैं। ‘इश्क-कमीने’ शीर्षक से फिल्म चलती है और वह सबसे ज्यादा ‘हिट’ सिद्ध होती है। संवादों में गालियाँ संवाद का कारगर हिस्सा बनकर शामिल हो रही हैं। इसलिए ‘छिनाल’ या ‘छिनालें’ शब्द से हिन्दी बोलने वालों के बीच तह-ओ-बाल मच जाये, यह अतार्किक जान पड़ता है। क्योंकि जिस विस्मृति के दौर में ‘भाषा की भद्रता’ को मसखरी में बदला जा रहा है, वहाँ ऐसे शब्दों को लेकर ‘बहस‘ हमें यह याद दिलाती है कि आखिर हम कितने दु-मुँहे और निर्लज्ज हैं कि एक ओर जहाँ हम ‘स्लैंग’ के लिए हमारे जीवन में संस्थागत रूप से जगह बनाने का काम कर रहे हैं, तो वहाँ फिर अचानक इस फूहड़ता पर आपत्तियाँ क्यों आती हैं ?
चौंकाता केवल यह है कि एक चर्चित, और गंभीर लेखक अपने वक्तव्य में ऐसी असावधानी का शिकार कैसे हो जाता है ? दरअस्ल, वह कहना यही चाहता था कि आज के लेखन में ‘हेट्रो सेक्चुअल्टी‘ (यौन-संबंधों की बहुलता) स्त्री के साहस का ’अलंकरण’ बन गया है। विवाहेत्तर संबंधों की विपुलता का बढ़-चढ़ कर बखान ‘स्त्री की स्वतंत्रता‘ का प्रमाणीकरण बनने लगा है। यौन संबंधों की बहुलता उसके लिए अपने देह के स्वामित्व को लौटाने का बहुप्रतीक्षित अधिकार बन गई है। हालांकि, इस पर अलग से गंभीरता से बात की जा सकती है। क्योंकि इन दिनों हिन्दी साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों में ‘एकनिष्ठता‘ को स्त्री का शोषण माना और बताया जाने लगा है। खासकर हिन्दी कथा साहित्य में यह हो गया है। कविता में भी है कि ‘उत्तर आधुनिक बेटी’, अपनी माँ को दूसरे प्रेमी के लिए काँच के सामने श्रृंगार करते देखती है तो प्रसन्नता से भर उठती है। उसे माँ के एक ‘अन्य पुरूष’ से होने वाले संबंध पर आपत्ति नहीं है। ऐसी कविता सामाजिक जीवन में एक ‘नई स्त्री की खोज’ बन रही है तो दूसरी तरफ कथा साहित्य में ‘निष्ठा‘ एक घिसा हुआ शब्द हो चुका है। निष्ठा से बंधी स्त्री को ‘मॉरल फोबिया‘ से ग्रस्त स्त्री का दर्जा दे दिया जाता है। याद दिलाना चाहूँगा, हेट्रो सेक्चुअल्टी को शौर्य बनाने की युक्ति का सबसे बड़ा टेलिजेनिक प्रमाण था, कार्यक्रम ‘सच का सामना’। जिसमें मूलतः ‘सेक्स‘ को लेकर सवाल किये जाते थे और जिसमें विवाहेत्तर यौन संबंधों की बहुलता का बखान कर दिया, वह पुरस्कार के प्राप्त करने का सबसे योग्य दावेदार बन जाता था। बहरहाल, इसी तरह के घसड़-फसड़ समय को जाक्स देरिदा ने कहा है, ‘टाइम फ्रैक्चर्ड एण्ड टाइम डिसज्वाइण्टेड’। यानी चीजें ही नहीं, भाषा और समाज टूट कर कहीं से भी जुड़ गया है। भाषा से भूगोल को, भूगोल को भूखे से और भूखे को भगवान से भिड़ा दिया जाता है। इसे ही ‘पेश्टिच‘ कहते हैं। मसलन, अगरबत्ती के पैकेट पर अब अर्द्धनिवर्सन स्त्री, ‘देह के चरम आनंद’ की चेहरे पर अभिव्यक्ति देती हुई बरामद हो जाती है। हो सकता है सिंदूर बेचने की दूकान का दरवाजा देह-व्यापार की इमारत में खुल जाये। पहले मंदिर जाने के बहाने से प्रेमी से मिला जाता था, लेकिन अब मंदिर प्रेम के लिए सर्वथा उपयुक्त और सु रक्षित जगह है। एक नया सांस्कृतिक घसड़-फसड़ चल रहा है, जिसमें बाजार एक ‘महामिक्सर’ की तरह है, जो सबको फेंट कर ‘एकमेक’ कर रहा है। अब शयनकक्ष का एकान्त चौराहे पर है। और बकौल गुलजार के बाजार घर में घुस गया है। समाज में एक नया ‘पारदर्शीपन’ गढ़ा जा रहा है, जिसमें सब कुछ दिखायी दे रहा है और नई पीढ़ी उसकी तरफ अतृप्त प्यास के साथ दौड़ रही है और अधेड़ पीढ़ी ‘सांस्कृतिक अवसाद’ में गूंगी हो गई है। उसकी घिग्घी बँध गयी है। और, शायद सबसे बड़ी घिग्घी ‘भाषा के भदेसपन’ पर बँधी हुई है। अंतरंग को ‘बहिरंग’ बनाती भाषा के चलते ही, लम्पट-मुहावरे अभिव्यक्ति का आधार बन रहे हैं। और इस पर सबसे ज्यादा सांस्कृतिक ठेस हमारी उस भद्र मध्यमवर्गीय चेतना को लग रही है, जो कभी-कभी मीडिया अपने हित में जागृत कर लेता है। अगर मोबाइल पर युवाओं के बीच की बात को लिखित रूप में प्रस्तुत कर दिया जाये तो हम जान सकते हैं कि भाषा खुद अपने कपड़े बदल रही है। उसे कुछ ‘ज्ञान के अत्यधिक मारे लोग’ भाषा की ‘फ्रेश लिग्विंस्टिक लाइफ’ कह रहे हैं। लेकिन, संबंधों को लम्पट भाषा के मुहावरे में व्यक्त किया जा रहा है।
दरअस्ल, विभूतिनारायण राय अपनी अभिव्यक्ति में असावधान भाषा के कारण, भर्त्सना के भागीदार हो गये हैं। क्योंकि, वे निष्ठाहीनता को लम्पटई की शब्दावली के सहारे आक्रामक बनाने का मंसूबा रख रहे थे। शायद, वे साहित्य के भीतर फूहड़ता के प्रतिष्ठानीकरण के विरूद्ध कुछ ‘हिट’ मुहावरे में कुछ कहना चाहते थे। मगर, वे खुद ही गिर पड़े। एक लेखक, जो वाणी का पुजारी होता है, वही वाणी की वजह से वध्य बन गया। याद रखना चाहिए कि बड़े युद्धों के आरंभ और अंत हथियारों से नहीं, वाणी से ही होते हैं। एक लेखक को शब्द की सामर्थ्य को पहचानना चाहिए। ‘सूअर’ के बजाये ‘वराह’ के प्रयोग से शब्द मिथकीय दार्शनिकता में चला जाता है। भाषा की यही तो सांस्कृतिकता है। इसे फलाँगे, तो औंधे मुँह आप और आपका व्यक्तित्व दोनों ही एक साथ गिरेंगे और लहूलुहान हो जायेंगे। जख्म पर मरहम पट्टी लगाने वालों के बजाय नमक लगाने वालों की तादाद ज्यादा बड़ी होगी।
4, संवाद नगर
इन्दौर