बुधवार, 4 मार्च 2009

क्या यह व्यक्तिगत महिलास्वतंत्रता का मामला नहीं है?

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(चित्र : The Telegraph से साभार)



क्या यह व्यक्तिगत महिलास्वतंत्रता का मामला नहीं है?


महिलाओं की हीन स्थिति के बारे में एक मूलभुत तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। सब जानते हैं कि राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानन्द, ईश्वरचंद विद्यासागर, रानाडे, गांधी,प्रभृति महापुरुषों द्वारा जो सामाजिक नवजागरण की बहुमुखी प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसका मुख्य उद्देश्य समाजिक कुरीतियों को दूर करना और महिलाओं की उन्नति करना था। पर स्वतंत्रता के बाद और संविधान के लागू होने के उपरान्त हमने मान लिया कि संवैधानिक घोषण हो गई, महिलाओं को बराबरी के हक मिल गए, सब भेदभाव समाप्त हो गए। जो संस्थाएँ समाजसुधार के क्षेत्र में काम कर रही थी, वे शिथिल पड़ती गईं। समाज सुधार के कार्य गौण हो गए और राजनीति से प्रेरित पक्षों पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा, जो संविधान की अपेक्षा और आकांक्षा थी, उसको हम सत्य और तथ्य मानकर निश्चिंत हो गए। नवजागरण का पहिया उल्टा घूमने लगा, चाहे महिलाओं के अत्याचार को लें अथवा जातिवाद के समाप्त करने का? क्य़ा एक दूसरे सामाजिक नवजागरण की आवश्यकता नहीं है?


इस प्रसंग में हम श्रीमती लोतिका सरकार के मामले की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे। ८६ वर्षीय लोतिका सरकार कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से सम्भवतः पहली भारतीय महिला थीं, जिन्होंने डॊक्टरेट हासिल की थी। दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून विभाग की अध्यक्ष थीं। न जाने कितने उनके विद्यार्थी उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बने और कितने कानून के प्रोफेसर। अपने समय में वह प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता रही हैं, पिछडे़ और प्रताडि़त वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर रही हैं और महिलाओं के बराबरी के अधिकार माँगने में अग्रणी रही हैं। उनके पति श्री चंचल सरकार एक प्रख्यात पत्रकार, दिल्ली के एक अंगरेज़ी दैनिक के सम्पादक, प्रेस इंस्टिट्यूट के निदेशक रहे। कुछ वर्ष पूर्व उनका देहांत हो गया।


श्रीमती लोतिका का चित्र एक अखबार में छपने के उपरांत उनकी आज की निरीहता का अहसास हुआ, क्योंकि वर्षों से उनको देखा नहीं था। दिल्ली अंग्रेज़ी के एक दैनिक में खबर प्रकाशित हुई कि उनकी देखभाल करनेवाली नौकरानी का दावा है कि उसको श्रीमती सरकार ने अपना घर कानूनी तौर पर दे दिया है, पर एक बिहार के आई.पी.एस। अधिकारी ने दिल्ली पुलीस की मदद से उसको भगा दिया और उस आई. पी.एस. अधिकारी का कहना है कि एल.-१/१०, हौज़खास एन्क्लेव का मकान उनकी पत्नी को लोतिकाजी ने गिफ्ट कर दिया था और उसकी रजिस्ट्री सन २००७ में हो गई थी। अखबारों में यह भी छपा है कि लोतिका सरकार ने पुलिस में रिपोर्ट की है और उपायुक्त पुलिस अधिकारी को भी लिखा है कि वह उसका मकान खाली कर लौटा दे। अधिक विवरण देने की आवश्यकता नहीं है। दाल में कुछ काला है, असहाय वृद्ध विधवा की जायदाद हड़पने की चाल कोई-न-कोई अवश्य कर रहा है। केवल जायदाद ही नहीं, लोतिका सरकार की सुरक्षा का भी प्रश्न है।


ताज्जुब इस बात का है कि इस मामले को अभी तक न दिल्ली उच्च न्यायालय, न सर्वोच्च न्यायालय, न दिल्ली के मानवाधिकार कमिशन और न भारत के मानवाधिकार आयोग ने स्वयमेव संज्ञान में लिया है। महिलाओं के संगठनों ने भी अपनी आवाज़ नहीं उठाई। एक दो दैनिक पत्रों में थोडा बहुत छपा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकारी और चंचल सरकार के सहयोगी पत्रकार सभी चुप से बैठे नज़र आते हैं। दिल्ली सरकार यह कहकर पल्ला छुडा़ना चाहेगी कि यह नागरिकों की जायदाद का मामला है। पर क्या यह मानवाधिकार मामला नहीं है, क्या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला नहीं है और एक महिला का? क्या ऐसे मामलों में लाल चड्डी और लाल साडी़ के विवाद को छोड़कर हमारी क्षमता का उपयोग नहीं होना चाहिए???

साहित्य अमृत
सम्पादकीय
[मार्च २००९]
सं.- त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी










The Telegraph

If a picture speaks a thousand words

Back in the year 1991, Malavika Karlekar came across a series of ancient, very powerful, black and white photographs of Indian women, most of whom had led lives of seclusion. The author was then working on her book, Voices from Within: Early Personal Narratives of Bengali Women (Oxford University Press). She was looking for illustrations for her work, she recalls, and her search had taken her to different photo archives throughout the country, where she sat for days sifting through material. ?It became evident to me while I did
this,? she says, ?that the photographs had another story to tell ? or maybe many women?s stories to narrate?.
Karlekar decided to let the photographs speak for themselves. This is how the idea to ?weave together a visual documentary on Indian women? was born.
And is now visiting Calcutta. Put together by Karlekar and her colleagues at the Centre for Women?s Development Studies (CWDS), and titled, ?Re-presenting Indian Women 1873 to 1947: A Visual Documentary?, the exhibition will be held at the Seagull Arts and Media Resource Centre from February 19 to March 12.
The photographs were collected, according to Karlekar, mainly through personal contacts, as well as institutions. ?We were quite clear that we were not interested in only the known names and faces,? she says, ?so wherever we went, we asked ?Do you have photos of mothers, grandmothers, aunts, etc.??
Invariably the answer was a ?yes? and out would come something ? often faded, torn, but yet appealing in what it said. A niece-in-law of mine, for instance, gave me the picture of her grandmother, Urmila Devi Shastri, and with it came a little printed booklet of her life as a satyagrahi.?
Karlekar explains, ?We decided that the exhibition should span from the earliest photograph we had in our collection ? 1873 ? to the time of the freedom struggle, ending in Independence.?
It took them about a year to put together the first exhibition, of more than 200 photographs, which was held at the India International Centre, Delhi, in 2001 and then another six months for the next one, held in 2004.
The exhibitions have generated a demand for more such events in other parts of the country, Calcutta being one of them.
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