शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

औरत की दुनिया

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औरत की दुनिया


हिन्दी के समकालीन साहित्य के प्रत्येक पाठक के लिए कथाकार सुधा अरोड़ा का नाम जाना पहचाना है। वे कथाकार होने के साथ साथ स्त्री प्रश्नों पर भी नियमित स्तरीय लेखन से जुड़ी हैं| कथादेश में उनका स्तम्भ ' औरत की दुनिया ' जिन्होंने पढा है वे उनके लेखन की धार से परिचित ही होंगे| इस ब्लॉग स्त्री विमर्श पर राजेन्द्र यादवके नाम उनका एक खुला पत्र भी काफी विचारोत्तेजक बहुप्रशंसित रहा | उनका औपचारिक परिचय सुभाष नीरव जी के सौजन्य से आप यहाँ देख सकते हैं।



सुधा जी के सशक्त लेखन को आगामी दिनों में आप यहाँ नियमित पढ़ सकेंगे।

इस बार उनकी सुगंधि सखुबाई की संघर्ष गाथा का प्रथम आमुख आप पढ़ सकते हैं। उत्तर आमुख अगली किश्त में पढा जा सकेगा। तदनंतर दोनों की आत्मकथाएँ |

आशा करती हूँ कि आपकी प्रतिक्रियाएँ इस लेखमाला की प्रस्तुति को अधिक जीवंत, अधिक सार्थक अधिक समाजोपयोगी प्रमाणित करने में सहयोगी बनेंगी। प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है

- कविता वाचक्नवी






जन्म - ४ अक्टूबर १९४६ को लाहौर (पश्चिमी पाकिस्तान) में

शिक्षा - कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में १९६७ में एम.ए. , बी.ए. (ऑनर्स) दोनों बार प्रथम श्रेणी में प्रथम।

कार्यक्षेत्र - कलकत्ता के जोगमाया देवी कॉलेज तथा श्री शिक्षायतन कॉलेज - दो डिग्री कॉलेजों के हिंदी विभाग में '६९ से '७१ तक अध्यापन। १९९३ से महिला संगठनों के सामाजिक कार्यों से जुड़ाव। कई कार्यशालाओं में भागीदारी।

लेखन - पहली कहानी 'मरी हुई चीज़' सितंबर १९६५ में 'ज्ञानोदय' में प्रकाशित, कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, और पोलिश भाषाओं में अनूदित। डॉ. दागमार मारकोवा द्वारा चेक भाषा में तथा डॉ. कोकी नागा द्वारा जापानी भाषा में कुछ कहानियाँ अनूदित। 'युद्धविराम', 'दहलीज़ पर संवाद' तथा 'इतिहास दोहराता है' पर दूरदर्शन द्वारा लघु फ़िल्में निर्मित, दूरदर्शन के 'समांतर' कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फ़िल्मों का निर्माण फिल्म पटकथाओं, टीवी धारावाहिक और रेडियो नाटकों का लेखन।

प्रकाशन - कहानी संग्रह 'बतौर तराशे हुए' (१९६७) 'युद्धविराम' (१९७७) तथा 'महानगर की मैथिली' (१९८७)। 'युद्धविराम' उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा १९७८ में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।

संपादन - कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की पत्रिका 'प्रक्रिया' का सन १९६६-६७ में संपादन। बंबई से सन १९७७-७८ में हिंदी साहित्य मासिक 'कथायात्रा' के संपादन विभाग में कार्यरत। निम्न मध्यम-वर्गीय महिलाओं के लिए 'अंतरंग संगिनी' के दो महत्वपूर्ण विशेषांकों 'औरत की कहानी : शृंखला एक तथा दो' का संपादन।

स्तंभ लेखन
- कहानियों के साथ-साथ '७७-७८ में पाक्षिक 'सारिका' के लोकप्रिय स्तंभ 'आम आदमी : ज़िंदा सवाल' का लेखन। '९६-९७ में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर 'जनसत्ता' के साप्ताहिक स्तंभ 'वामा' का लगभग एक वर्ष तक लेखन। महिलाओं की समस्याओं पर कई आलेख प्रकाशित। स्त्री विमर्श से संबंधित लेखों का संकलन। दो कहानी संग्रह तथा एक एकांकी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।

संप्रति - भारतीय भाषाओं के प्रकाशन 'वसुंधरा' की मानद निदेशक।




दस बाई दस के कमरों से खेत खलिहानों तक
सुगंधि और सखूबाई की संघर्ष कथा
-- सुधा अरोड़ा





हाल ही में देखी एक फिल्म का दृश्य है - एक छोटे से कमरे में दो दोस्त दाखिल होते हैं । घुसते ही एक कह उठता है - ‘‘ यह कैसा कमरा है भाई , शुरु होते ही खतम ’’


मुंबई में जितनी गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ हैं उतने ही असंख्य ऐसे कमरे झुग्गी - झोपड़ियों और चालों में स्थित हैं जो शुरु होते ही ख़त्म हो जाते हैं । जहाँ दीवारें अधिक दिखती हैं , फर्श कम। जहाँ के दरवाज़ों से टाट के पर्दे हटाकर कमर और कंधे झुकाकर कमरे के अंदर घुसना पड़ता है । इन्हीं दड़बों में से निकली हैं - अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधी रखकर अद्भुत जीवट वाली अनेक महिलाएँ - जिन्होंने इस ‘शुरु होते ही खत्म ’ होनेवाले कमरों के बाशिन्दों की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए जी तोड़ काम किया है ।


सावित्री बाई फुले के महाराष्ट्र में ऐसी जीवट वाली महिलाओं की एक समृद्ध परम्परा रही है । इस परम्परा में एक ओर अहिल्या रांगणेकर , प्रमिला दंडवते , मृणाल गोरे हैं तो दूसरी ओर विभूति पटेल, अरुणा बुरटे, आरिफा खान, सुरेखा दलवी, अरुणा सोनी, संध्या गोखले, चयनिका शाह, जया वेलणकर, शारदा साठे, हसीना खान, गंगा बार्या, ज्योति म्हाप्सेक, मेघा थट्टे, मुक्ता मनोहर, शैला लोहिया, शहनाज़ शेख और फ्लेविया एग्नेस जैसी सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक लम्बी श्रृंखला है । इसी श्रृंखला की एक कड़ी हैं सुगंधि ।


मुंबई के एक उपनगर भांडुप के स्टेशन से कुछ ही दूर मंगतराम पेट्रोल पम्प मशहूर है । पर उससे भी ज्यादा जानी जाती है उसके नज़दीक एक गली में खड़ी लाल कोठी - जो कहने को डॉ . विवेक मॊन्टेरो और सुगंधिका घर है पर जिसका मुख्य दरवाज़ा दूसरे घरों की तरह कभी बंद नहीं होता , हमेशा खुला ही रहता है । उसमें दाखिल होने से पहले दरवाज़े के बाहर पन्द्रह - बीस जोड़ी चप्पलों का जमघट आपको यह अहसास दिला देगा कि वह घर कम और सराय अधिक है ।

लाल कोठी से दो मिनट के फासले पर ‘ संघर्ष ’ का दफ्तर है , जहाँ हर रविवार को सुगंधि और उसकी साथी कार्यकर्ताओं को महिलाओं से घिरे हुए देखा जा सकता है । उस इलाके की किसी औरत को राशन कार्ड बनवाना हो , बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाना हो , पति की दारूबाजी छुड़वानी हो , अपने इलाके के गुंडों से परेशानी हो - हर मर्ज का इलाज है -- सुगंधि , जिसे सभी कार्यकर्ता और मित्र ‘भाभी’ के नाम से जानते हैं , जिन्हें सुबह आठ बजे से रात नौ बजे तक लोकल ट्रेन के महिला डिब्बे से लेकर कामगार दफ्तरों या कोर्ट कचहरी के ट्रायल में देखा जा सकता है ।



आज भांडुप इलाके की मुसीबतज़दा औरतें सुगंधि को दृढ़ता और साहस के प्रतीक के रूप में देखती है । इस सुगन्धि को निस्वार्थ भाव से सँवारने-निखारने और गढ़ने में जिस पुरुष के स्नेह , प्रेम और संवेदना का योगदान है -- वह हैं डॊ. विवेक मॊन्टेरो। सुगंधि से विवाह करके न सिर्फ एक, बल्कि चार ज़िन्दगियों को बचाने और बनाने का श्रेय उन्हें जाता है । आज के पुरुषवर्चस्व बहुल समाज में, अपने विचारों को अपने आचरण में उतारने वाले विवेक जैसे लोगों को देखकर बहुत सा धुंधलका छँटता हुआ- सा लगता है और उम्मीद की एक किरण उभरती दिखाई देती है ।


अधिकांश सामाजिक कार्यकर्ताओं की तरह सुगंधि भी सिर्फ़ अपने काम से मतलब रखती हैं । आत्मविज्ञप्ति या आत्ममुग्धता से कोसों दूर इस कार्यकर्ता से आत्मकथ्य लिखवाना या साक्षात्कार लेना एक टेढ़ी खीर था ।‘ जो बीत गई सो बात गई ’ की तर्ज पर सुगंधि इसे गैर ज़रूरी समझती हैं कि वह अपने बारे में बात करें या कोई उनके बारे में लिखे। उनके ही एक मित्रा और सहयोगी श्री पुरुषोत्तम त्रिपाठी ने अपनी ‘भाभी’सुगंधि को आखिर राजी कर लिया और उसका नतीजा है यह संघर्ष कथा ।


क्रमश:>>>>


अनुवाद - नीरा नाहटा


‘स्पैरो’ ( साउंड एंड पिक्चर आर्काइव्स् फ़ॊर रिसर्च ऒन वीमन ) द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ दहलीज को
लाँघते हुए ’ से साभार प्रस्तुत

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