मरेंगी या मारेंगी ये बागी लड़कियाँ
चर्चा हमारा/ मैत्रेयी पुष्पा
जिन घटनाओं को हम दुर्घटना या कभी-कभी के हादसे मान लेते थे, अब रोज़मर्रा के वाकयात बन गए हैं। अख़बार में, टीवी पर दिन भर हमारे सामने कत्ल, ख़ून के दृश्य होते हैं। यह विचार आता है कि दहशत भरे इस विकृत नज़ारे को किसने सरंजाम दिया? बमकाँड, चोरी-डकैती और हत्या की वारदातों से भी भयानक हैं ये घटित नज़ारे, क्योंकि ये दृश्य हमारी औलादों ने पैदा किए हैं।
औलाद, संतान हमारी आँखों के तारे, जिनको माता-पिता ने अपने ख़ून-पसीने से सींचकर पाल-पोसा है। इन दुलारों में दुर्व्यवहार की भावना आज आम है। बेटे माता-पिता को कहीं नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, तो कहीं अपमानित और माँ-बाप बराबर उनमें श्रवण कुमार की छवि देखने को तरस रहे हैं, जबकि अब श्रवण कुमार की भूमिका में बेटियाँ हैं। बेटियाँ बिना संपत्ति में अधिकार लिए भी माता-पिता की हमदर्द हैं, इसकेसबूत अधिकांश परिवारों में मौजूद हैं।
मगर कुछ उदाहरणों ने बेटियों की सद्भावना से जुड़ी छवि को क्षतविक्षत कर डाला। इन दिनों जब मिस मेरठ प्रियंका या दिल्ली की साक्षी द्वारा माँ-बाप या माँ का कत्ल सामने आया, ख़बरों को पढ़ते हए लोगों की आँखों के सामने अँधेरा छा गया।
माँ की सबसे नज़दीकी मानी जाने वाली बेटियाँ क्यों करने लगीं माँ का कत्ल? इस "क्यों" शब्द ने तमाम गुत्थियाँ खोलनी शुरू कर दीं। सबसे पहले तो यही कि; ये लड़कियाँ इतनी छोटी नहीं थीं, जिनको बच्चे कहा जाए। साक्षी 26 साल की है और हम जानते हैं कि 26 साल की लड़की बच्ची नहीं, स्त्री हुआ करती है। अत: मैंने माना कि स्त्री ने स्त्री का कत्ल किया (अगर उसी ने किया है तो)। इस उम्र में माँ-बेटी का रिश्ता कहने भर का होता है, होती तो वे आपस में सखी-सहेली जैसी ही हैं।
लेकिन सखी के पायदान पर खड़े होना माँ के सिंहासन की तौहीन है। इसे मर्यादा से जोड़कर अधिकाँश माएँ मानेंगी। जब तक मर्यादा का पालन यथावत् कराया जाता है, तब तक घर और समाज में सुख-शांति बनी रहती है। मधुर संबंधों के चलते माँ-बेटी अपने सुख-दुख कहा करती हैं। मगर बेटी ने, वह भी कुँआरी 26 साला बेटी ने कहा, मैं भी स्त्री हूँ, मुझे भी साथी की ज़रूरत है, शारीरिक सुख मेरा भी हक़ है। क्या लड़की जैसी आज्ञाकारी मानी जाने वाली बंधुआ के मुँह में आया यह वाक्य़ विद्रोह की घोषणा नहीं है? यहीं से शुरू होती है उसकी अपनी आज़ादी की ख़तरनाक शुरूआत।
हम शादी को औरत के लिए हर ज़रूरत का विकल्प मानते हैं, इसलिए ही शादी के लिए हर स्तर पर शोषण के शिकार भी होते हैं। साक्षी की शादी नहीं हो सकी, कितनी ही साक्षियाँ हैं, जिनकी शादियाँ नहीं हो पातीं। लेकिन आज शादी अनिवार्य है। सहजीवन ने समाज के बंद द्वारों पर दस्तक दी है। कोई भी माँ समझ सकती है अपनी बेटी की त्रासदी को। त्रासदी को समझना किसी भी सत्संग या कीर्तन से बड़ा सत्कर्म है। इस मुकाम पर दमन होता है, तो निश्चित ही खुली मुठभेड़ें शुरू होने के आसार बढ़ जाते हैं और इस मुठभेड़ को स्थगित करने की कोशिश में घर ख़ूनी चौपड़ हो जाता है।
बात यह भी है कि जब बेटा जवान हो जाता है, माँ उससे सँभलकर यानी खुद को बचाकर व्यक्त करती है। युवा होते लड़के पर हाथ उठाना या गाली-गलौच करना बाप के बस का भी नहीं रहता, भले वह मर्यादा तोड़े। क्या ऐसा जवान लड़की के साथ भी होता है? उसके निजी फैसले को कुचलना माँ-बाप अपना परम धर्म समझते हैं। ऐसा न होता तो लड़कियाँ घर से नहीं भागा करतीं। अब लड़की भी अंत तक यह स्वीकार नहीं कर पाती कि उसकी शारीरिक या मानसिक ज़रूरतें कुचल दी जाएँ। क्यों माने, वह आत्मनिर्भर है, इसलिए स्वतंत्र है।
इस उम्र में माँ भी क्यों निरंकुश हो जाती हैं। पत्नी के रूप में दबी-कुचली माँ का अमानवीय रूप बेटी पर टूटता है, क्योंकि घर में उसकी ही सबसे कमज़ोर स्थिति होती है। मगर नई बेटियों को वे कड़े नियम मान्य नहीं हैं, और न मनवानेवालों के प्रति सम्मान, क्योंकि इन आत्मनिर्भर लड़कियों का उदय तो पुरानी मान्यताओं को तोड़कर ही हुआ है। अब इनकी निजी इच्छाएँ ही ऐसी सनक हैं, जो कहीं से गुज़र जाने के लिए तैयार हैं। माँ इस बात को कैसे बर्दाश्त करे, जो कल से आज तक सिवाय भजन-कीर्तन के कहीं निकल नहीं पाती थीं। गुस्ताख़ लड़कियाँ या तो मारी जाएँगी या मारने पर उतारू हैं। माँ और बेटी को इस खूनखराबे की स्थिति से बाहर आना ही होगी अपनी-अपनी समझदारियों के साथ। माँ के लिए बेटी के बॉयफ्रेंड की परिभाषा बलात्कारी की नहीं होती, एक दोस्त की भी होती है और बेटी के लिए माँ का चेतावनी देना उसके भविष्य के लिए शुभ संकेत के रूप में है।
(देशकाल से)