गुरुवार, 26 मार्च 2009

"विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ”

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यह लेखमाला सुश्री सुप्रणीति वरेण्या ने सन २००३ में (अपनी टीनेज़र की अल्पायु में) लिखी थी, जिसे ४३२ पृष्ठों के ग्रन्थ "स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम" (२००४) (प्रधान सम्पादक डॉ.ऋषभ देव शर्मा, सम्पादक डॉ. कविता वाचक्नवीडॉ. गोपाल शर्मा) के लिए महादेवी जी के स्त्री विषयक विचारों पर हिन्दी में अपनी तरह के पहले लेख (`शृंखला की कड़ियाँ ' पर केंदित ) के रूप में प्रकाशित व सम्मिलित किया गया था |  (इस ग्रन्थ में हिन्दी के प्रतिष्ठित ७० लेखकों के आलेख हैं)। 

बाद में सुश्री वरेण्या की यह लेखमाला हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं (यथा, `गवेषणा', केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा आदि ) में भी सम्मिलित हुई व राष्ट्रीय संगोष्ठियों तक में इसके ऐतिहासिक (व इस विषय पर पहली लेखमाला आदि) महत्व का उल्लेख भी हुआ, साथ ही सुश्री सुप्रणीति को ग्रन्थ में सब से कम आयु की लेखक होने का गौरव भी मिला।

भारतीय दृष्टि से एक अत्यन्त संतुलित, सटीक, सही व विवेकपूर्ण स्त्रीविमर्श की दिशा तय करने की दृष्टि से महादेवी जी के इस विमर्श को बारम्बार पढ़े जाने की महती आवश्यकता है। आज उनके जन्मदिवस २६ मार्च को सुश्री वरेण्या द्वारा लिखित इस निबंध को (साहित्यकुंज से साभार) यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। 


यह लेखमाला के तीन भागों में है, जिन्हें यहाँ क्लिक कर पढ़ा जा सकता है -

  1. "शृंखला की कड़िया" : "विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन ....." 
  2. कि अधिक पढ़ी लिखी महिलाओं से विवाह करते उन्हें डर लगता है
  3. "विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ”
- कविता वाचक्नवी
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२६ मार्च ( महादेवी वर्मा के जन्मदिवस ) पर विशेष

"विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ”

- सुप्रणीति वरेण्या


1
स्त्री-पुरुष, दोनों ही समाज के मुख्य अंग हैं। यह आयु आश्चर्य में डाल सकता है कि स्त्री-पुरुष दो ऐसी आत्माएँ हैं जिनमें मात्र शरीर-संरचना में ही अंतर है। परंतु यही शरीर-संरचना उनके मानसिक विकास पर सबसे अधिक प्रभाव डालती है। स्त्री में कोमलता स्वभाववश ही पैदा होती है। इससे ही स्त्री की दशा बेटी दुविधाजनक है, यह कथन पूर्णतया उचित नहीं, परन्तु अनुचित कहना सत्य भी नहीं। समय ने ऐसी विषमता खड़ी कर दी है कि उसने स्त्री की इस स्वभाववश उत्पन्न कोमलता को स्थान-स्थान पर उसकी कायरता, उसकी कमज़ोरी बना दिया है। दुर्भाग्य यह है कि भारतीय नारी ने उसे विधि का विधान मानकर चुपचाप स्वीकार कर लिया है।


भारतीय समाज में स्त्री की महत्ता का अवमूल्यन चिंतनीय है। वह अब भी हर घरेलू काम के लिए विवश है। आज भी उसे सिर ढँकना पड़ता है। आज भी उसे ससुराल की इच्छानुसार धनादि की आपूर्ति न करने पर प्रताड़ना सहनी पड़ती है, मृत्यु तक के लिए विवश होना पड़ता है। आज भी विवाहादि के समय कोई अनिष्ट होने पर मिथ्याओं में विश्वास करने वाले समाज के उलाहने जीवनभर सुनने पड़ते हैं। थोड़े शब्दों में, आज भी स्त्री का महत्व पशु के ऊपर आँका जा रहा है, इतना भी नहीं कहा जा सकता।

महिलाओं के लिए दुर्भाग्य का विषय है कि उन्हें ’मानवी’ छोड़, समाज ने बहुत कुछ माना। वे कभी देवी बनकर पूजनीय वस्तु मान ली गईं, कभी नरक का द्वार। परन्तु यह समझने योग्य बात है कि वह पुरुष कितना कमज़ोर होगा जो एक स्त्री के संपर्क मात्र से नरक में ढकेला जा सकता है।

जब समाज में कहीं कुछ ऐसा घटित हो रहा हो, जिसकी उपस्थिति नाशकारी है तो संभवतः समाज के उस भाग को जो इससे अवगत नहीं है, अवगत कराने के लिए स्वतः ही क्रांतिकारी विचारों वाले व्यक्तियों का प्रवेश हो जाता है। स्त्री की इस दुर्दशा का विषय हम सभी से अछूता नहीं रहा है। हम सभी इन परिस्थियों से अवगत हैं और इन विपरीत परिस्थियों के विरुद्ध कई लोग कई प्रयास कर चुके हैं। इन प्रयासों के बारे में बात करते समय महादेवी वर्मा जैसे व्यक्तित्व के बारे में भूल जाना सर्वथा अनुचित होगा।

महादेवी वर्मा की स्त्री के सशक्तीकरण के विषय में बहुत महती भूमिका रही है। ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ उनके इस कार्य का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह पुस्तक उनके विचारों से ओत-प्रोत है और वे निस्संदेह इस विषय को नए आयाम देने और सोच के लिए नए प्रश्न उठाने में अग्रणी व सफल रही हैं।

श्रृंखला की कड़ियाँपाश्चात्य और पूर्वी समाज की कमज़ोरियों, कमियों व नारी की दशा तथा समस्याओं पर प्रकाश डालती है। आरंभ में ’अपनी बात’ को संक्षेप में यह कहकर वे निष्कर्ष देती हैं कि भारतीय नारी की मूल समस्या असंतुलन है। उसमें कहीं असाधारण दीनता है और कहीं असाधारण विद्रोह। ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ का प्रकाशन पुस्तक रूप में १९४२ ई० में हुआ, जबकि इसमें सम्मिलित विविध आलेख १९३१, १९३३, १९३४, १९३५, १९३६ तथा १९३७ में लिखे जा चुके थे और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चा का विषय बन चुके थे।

महिलाओं का स्वभाव अधिक कोमल होता है। प्रेम और घृणा जैसे भाव अधिक स्थायी रूप में उनके हृदय में वास करते हैं। महादेवी इसे स्पष्ट करके कहती हैं कि नारी की इन्हीं विशेषताओं से उनका व्यक्तित्व समाज के उन अभावों की पूर्ति करता है जो पुरुष द्वारा संभव नहीं। दोनों की प्रकृति पूर्णतया विपरीत है। उन विशेषताओं की अनुपस्थिति समाज में ऐसे रिक्त स्थान उत्पन्न कर देगी जो अन्यथा नहीं भरे जा सकते। प्राचीनकाल में समाज का स्त्री के प्रति स्नेह और सम्मान प्रकट करना इसका द्योतक है कि नारी समाज का महत्वपूर्ण और आदरणीय अंग थी। आर्य नारी ने वैदिक काल में कभी सहधर्मिणी के रूप में पति का अंधानुसरण किया हो, ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं। वे कहती हैं, “छाया का कार्य आधार में इस प्रकार अपने आप को मिला देना है, जिससे वह उसी समान जान पड़े और संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण बनना “

स्त्री सहधर्मिणी से अधिक पुरुष की छाया है, यह सोच शायद किसी अशांत वातावरण की देन है, जिसने पुरुष की इस आपत्तिजनक धारणा को भी सिद्धान्त का रूप दे दिया। साथ ही स्त्री ने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को भुला कर अपने विवेकशक्ति खो दी। उसे अपनी सफलता - असफलता पुरुष की संतुष्टि में दीखने लगी, और इसी कारण-वश, जहाँ स्त्री माता या पत्नी के रूप में गौरवान्वित होती थी, वहीं उसे जीवन उदेश्यहीन तथा पिंजड़े- सा लगने लगा। ऐसे समय में उसे लगा कि ऐसी समस्या का निवारण तब होगा जब वह भी पुरुष के समान बने। परिणामस्वरूप उसने व्यक्तित्व में एक टेढ़ेपन को लाने की कोशिश की, जिसके कारण वह पुरुष समान कठोर बन गई। परंतु स्त्री के मधुर व्यक्तित्व का लोप हो गया। इसी से आज की विद्रोहशील नारी अधिक कठोर, निर्मम, स्वाधीन, स्वच्छन्द परंतु अपनी “निर्धारित रेखाओं की संकीर्ण सीमा की बंदिनी” है। लेकिन यह एक स्वाभाविक तथ्य है कि केवल नारी की कोमलता और सहानुभूति ही समाज पर शीतल लेप की भाँति काम कर सकती है।

हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ शीर्षक के अन्तर्गत महादेवी वर्मा आगे लिखती हैं कि अपने पूर्ण से पूर्ण विकसित रूप में होते हुए भी कोई वस्तु दूसरी वस्तु हो ही नहीं सकती। जो वस्तु उससे भिन्न है, उसका अभाव उसमें सदा रहेगा। एक पूर्ण नारी भी इतनी पूर्ण नहीं हो सकती कि पुरुष के स्वभाव को समाहित कर सके। किसी और गुण की पूर्णता स्वयं के अस्तित्व को पूर्ण बना ही नहीं सकती, इसलिए समाज में संतुलन के लिए स्वभावों का आपसी सहयोग ठीक है, परंतु प्रतिद्वन्द्विता ठीक नहीं।

प्रायः पुरुषों का जीवन स्वच्छन्दता में और स्त्रियों का परंपराओं की सीमा के भीतर बीतता है जो उन्हें बाहर के जीवन से अवगत होने का मौका नहीं देता। इसी से महिलाओं में शुष्कता और आक्रोश जैसे भाव अधिक पाए जाने लगे हैं। ऐसे में स्त्रियों के व्यक्तित्व में स्वाभाविक कोमलता के साथ-साथ साहस और विवेक की आवश्यकता है, जिससे वे किसी भी अन्याय के प्रति जवाब देने में जरा भी न चूकें।

शासन आदि व्यवस्थाओं में आधे समाज के प्रतिनिधि के रूप में स्त्रियों का होना आवश्यक है। स्त्रियों की आवश्यकताएँ, हित संबंधी बातें तो स्त्रियाँ ही समझ सकती हैं और यदि वे प्रतिनिधित्व करें तो समाज भी स्त्रियों के हित-अहित से परिचय पा सकता है।

महादेवी वर्मा के अनुसार ’विवाह’ नामक संस्था पवित्र व उच्चकोटि की है, परंतु वर्तमान काल में उसमें कुछ परिवर्तनों की आवश्यकता है क्योंकि इस पवित्र मानी जाने वाली संस्था में कई रूढ़ियों के प्रवेश के कारण लगातार पतन ही दीख रहा है। स्त्रियों की दुर्दशा के निवारण में समर्थ महिलाएँ भी उचित कदम उठाती नहीं दीख रहीं। जो संपन्न महिलाएँ हैं, वे अपनी गृहस्थी और संतान के लिए सेवक नियुक्त करती हैं, परंतु दुर्भाग्यवश अपना धन और ऊर्जा व्यक्तिगत मनोरंजन आदि में खर्च कर देती हैं। यदि वे इनका सदुपयोग आत्मनिरीक्षण कर अपने स्वत्व को पहचान कर इसी ज्ञान से समाज की मदद कर सकें तो अवश्य ही सुधार के लक्षण दीखेंगे। उन्हें अपने देश की अन्य साधारण महिलओं के अधिकारों, उन्नति के साधनों और अवनति के कारणों से परिचित होना चाहिए। महिलाओं को स्वयं को किसी से ऊँचा जताने की आवश्यकता नहीं, न ही किसी को ऊँचा जताने की, बस आवश्यकता उन्हें उस स्वत्व ही की है जिसे पाकर पुनः समाज का उतना ही महत्वपूर्ण अंग बन सकें; ऐसा स्वत्व जो अचानक रूढ़ियों में कस कर दब गया है। मध्यम वर्ग की नारी स्वावलंबन से रहित है। वह जीवन-भर घरेलू क्लेशों में बँधी रहती है। समाज में भी कोई ऐसी व्यवस्था नहीं जो उन्हें ऐसी परिस्थितियों से उबार कर उनमें आत्मविश्वास भर दे। श्रमजीवी वर्ग की महिलाओं की कहानी सबसे दुःखद है। दिन-भर के असह्य शारीरिक श्रम के पश्चात् जब रात्रि में घर लौटती हैं तब भी उन्हें कुछ शांति के क्षण नहीं मिल पाते। सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि समाज-सुधार के कार्यक्रमों में उन्हें भुला दिया जाता है और वे आजीवन अपने द्रारिद्रय में पीड़ा सहती रहती हैं। उनकी सबसे बड़ी आवश्यकता ज्ञान-प्राप्ति है ताकि वे अपने ऊपर होते अत्याचार का विरोध कर सकें।

महिलाओं का सबसे बड़ा गुण यह है कि वे अपने को और बाह्यजीवन को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेती हैं। वे अपने स्वभाव के गुणों को भी छोड़ने में तत्पर हो सकती हैं, दुःख को परीक्षा मान उसका सामना करती हैं और इसलिए उनकी सतर्कता पुरुष से अधिक प्रतीत होती है। स्त्री में त्याग अथवा बलिदान करने की असीम शक्ति है और वह यह प्रमाणित कर चुकी है कि परिस्थितिवश दुर्बलप्रतीत होती नारी में पुरुष से किसी भी दशा में कम शक्ति नहीं है।

युद्ध और नारी के अन्तर्गत महादेवी लिखती हैं कि पुरुष के जीवन में संघर्ष है तो नारी के जीवन में आत्मसमर्पण। इसी से नारी ने पुरुष की दुर्बलता को पहचान लिया, जब उसकी नीरसता को समझा। गृह के संबंध में वह कहती हैं कि गृहों की नींव स्त्री की बुद्धि पर रखी गई है। स्त्री और पुत्र के आगमन से पुरुष को लगा कि उसे किसी सबल पर शासन नहीं करना बल्कि एक नन्हें निर्बल को सबल बनाना है और एक सामंजस्यपूर्ण गृहस्थी बसाने में उसे कोई आपत्ति नहीं थी। स्त्री ने यह स्पष्ट किया कि अपने शिशु को सबल बनाने के लिए उसे पुरुष की आवश्यकता है और तब से गृह रक्षा और भरण-पोषण की जिम्मेदारी स्वयं पर ली। तब से दैनिक आवश्यकताओं के लिए छीना-झपटी के युद्ध का उद्देश्य बदल गया और युद्ध गृह-समूह की रक्षा के लिए होने लगे। परंतु स्त्रियाँ कभी युद्ध से संबंधित हिंसक धारणा नहीं बना पाईं। उनके लिए युद्ध, युद्ध के अलावा और कुछ नहीं था, था तो उनके गृह-जीवन को धमकाता एक कारण, जिससे उन्हें भय था। क्योंकि वही गृहस्थी अब उनका जीवन बन गई थी।


युद्ध के लिए स्त्री मानसिक और शारीरिक, दोनों ही रूप से अनुपयुक्त तो रही ही, साथ ही उसके विकास में भी यह आड़े आया। जहाँ युद्ध का वातावरण हो, वहाँ एक स्त्री अपने गुणों में स्वतः अपूर्ण हो जाती है, क्योंकि अगले दिन मृत्यु की आशंका लिए बैठे पुरुष के पास नारी के सभी गुण आँकने का समय नहीं, उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं। वह एक रूप की पुतली से अधिक सार्थक नहीं हो पाती और ऐसे में उसके सभी गुण विकसित नहीं हो पाते।

पुरुष के स्वार्थों का दायरा धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसे अधिकारों की सीमा का विस्तार करने की चाह परेशान करने लगी। उसके लिए यह असह्य हो गया कि स्त्री अधिकारों की कामना में रुकावट बने। यदि स्त्री सलाह दे तो अहम् पर चोट पड़ती और यदि उसकी हर बात दुःखी मन से चुपचाप स्वीकार ले तो उसके साहस का उपहास होता। अतः बीच का मार्ग अंततः उसने निकाल ही लिया। उसने नारी के सम्मुख यह तर्क रखा कि युद्ध के प्रति उसकी विमुखता उसकी कायरता है, मूल रूप से दुर्बल होने पर उसकी भावुकता का आवरण काम आता है। बस, फिर स्त्री में चुनौती का उत्तर देने की ललक जाग उठी और वह यह कामना करने लगी कि वह पुरुष की बराबरी में खड़ी हो जाए और जो निष्ठुरता उसकी प्रकृति के विरुद्ध थी, वही निष्ठुरता उसके स्वभाव में बसने लगी। पुरुष को भी अपना मार्ग विस्तृत प्रतीत हुआ। फलस्वरूप आज सामान्यतः युद्ध-प्रिय आधुनिक देशों की नारियों को लगता है कि यदि उनमें दया, करुणा, प्रेम जैसे स्वाभाविक गुण हैं, तो वे जीने योग्य नहीं। पुरुष-सा पाशविक बल और संहार करने की लालसा उनके मन में प्रतिदिन बढ़ रही है।

नारी की कोमलता में उसकी दुर्बलता ने शरण ले ली है।नारीत्व का अभिशापकी चर्चा करते हुए महादेवी कहती हैं कि मानसिकता और शारीरिक बल का समन्वय अत्यन्त आवश्यक है, परंतु प्रायः एक बल की कमी दूसरे की अधिकता से भर जाती है। अतः उसके पशुबल की न्यूनता को आत्मबल से भरना बहुत ही स्वाभाविक है। अपने युद्ध-कौशल में भी प्रतिद्वंद्वियों को चकित करने वाली स्त्री निहत्थी होकर भी, बलवान विपक्षियों से घिरी रह कर भी, अपने आत्मसम्मान की रक्षा कर चुकी है।

समाज को अपनी शक्ति से अधिक देकर, त्याग कर आज की नारी संज्ञाहीन हो गई है, इतनी कि कठोर से कठोर दिल दहला देने वाली यंत्रणाएँ भी वह मूकभाव से सह लेती है। समाज और घर, दोनों ही ओर स्त्री की दशा दयनीय है। विवाह से पूर्व वह पराया धन है, जहाँ उसे सदा ’अपने’ घर जाने की शिक्षा मिलती है। विवाह के समय मानो उसका मोल-भाव होता है और उसी का घर विवाहोपरांत इतना पराया हो जाता है कि दुःख के क्षणों में उसे आत्मीयता और संबल नहीं मिलता, विपत्ति में अन्न के दाने तक नहीं। पतिगृह भी उपेक्षा के अलावा और कुछ देने में असमर्थ ही लगता है। यदि वह अपने पति की अपेक्षा के अनुकूल न हो या उसे वह देने में समर्थ न हो जो पति की इच्छा हो तो उसका शेष जीवन अंधकार में ही बीत जाता है। स्त्री एक बंदिनी के समान है, चाहे सोने का पिंजरा हो या लोहे का, वह स्वतंत्रता की अधिकारिणी नहीं है। वह जिस व्यक्ति की बंदिनी है, वह उसके साथ कैसा भी व्यवहार करे, उसे अवश्य साधुवाद मिल जाएगा। महादेवी स्पष्ट करती हैं – “उनके विचारों में नारी मानवी नहीं, देवी है और देवताओं को मनुष्य के लिए आवश्यक सुविधाओं का करना ही क्या है! नारी के देवत्व की कैसी विडंबना है!”

यदि दुर्भाग्य से वह विधवा हो जाए तो अपने बालक के भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी उसी पर आ पड़ती है। रूढ़ियों से बँधे समाज में शास्त्रों के नियमों को पालने की इतनी ललक अचानक पैदा हो जाती है कि वह इसके लिए एक निरपराध स्त्री को मृत्यु से भी भयंकर दुःखों में ढकेलने के उपरांत भी नहीं हिचकिचाता।

समाज में स्त्री का मूल्य आज जरा भी नहीं। यह तो इसी से स्पष्ट होता है कि स्त्री के अपहरण जैसी कुरीति आज समाज में निरंतर फैल रही है। स्त्री स्वयं भी आज अपने दुःखी जीवन से इतनी परेशान है कि वह इससे छुटकारा पाने के लिए कोई भी मूल्य देने को तैयार है। नारी-अपहरण जैसी समस्या जहाँ मुँह-बाए खड़ी है वहाँ हमारे युवकों का लम्बी तान कर सोना एक आश्चर्य है।

सबसे मूर्खतापूर्ण स्थिति तो तब प्रकट होती है,जब कुछ तर्कशील पुरुष यह तर्क देते हैं कि स्त्रियों को आत्मरक्षा करने से कौन रोकता है? यदि प्रत्येक मानव आत्मरक्षा में इतना ही समर्थ होता तो मनुष्य जाति को कभी सैनिकों और हथियारों की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज आत्मनिर्भरता, अपनी गरिमा, अपने अस्तित्व तक को भुला चुकी महिला से यदि अपने आत्मसम्मान और गरिमा की रक्षा की बात की जाए तो वह अवश्य ही एक निरर्थक प्रयास है।

यदि इसके विरुद्ध एक ऐसा देशव्यापी आंदोलन स्थान ले जिससे लोगों का हृदय नारी वेदना के प्रति संवेदनशील बने और नारी स्वयं भी अपने अस्तित्व और गरिमा को पहचाने तो परिस्थितियों में सुधार की संभावना है “....... अन्यथा नारी के लिए नारीत्व अभिशाप तो है ही.....।“

आधनिक स्त्री परंपरागत रूढ़ियों से जकड़ी स्त्री से अधिक सतर्क लगती है। जब स्त्री को लगा कि उसकी कोमलता पुरुष के सामने उसकी कमजोरी है तो उसने उसे समूल नष्ट कर दिया। अपनी भावुकता और बाह्य संघर्ष के लिए पुरुष पर निर्भर होने की इस प्रकृति को उसने जड़ से उखाड़ फेंका। परंतु वह इस तथ्य से अपरिचित नहीं थी कि कोमलता उसका प्राकृतिक गुण है। अपने इस प्राकृतिक गुण पर नियंत्रण पाकर वह चाहे बाहरी परिस्थितियों का सामना कर लेती हो, परंतु वह अंदर सुखी नहीं।


पाश्चात्य जीवन शैली की नारी भारतीय नारी की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र प्रतीत होती है – साधारणतः आर्थिक आदि दृष्टि से, परंतु महादेवी के अनुसार सामाजिक बंधनों से वह आज भी (चाहे अनभिज्ञ होकर ही) बँधी हुई है। पाश्चात्य नारी की स्वतंत्रता उसे पुरुष के मनोविनोद की वस्तु बने रहने के जंजाल से छूटने का अवकाश देती है, परंतु उसका श्रृंगार के प्रति लगाव, रूप को स्थिर रखने का आकर्षण, साधन और उपकरणों का प्रयोग उसकी दुर्बलता दिखाता है कि उसकी रमणीत्व की इच्छा नहीं नष्ट हुई, उसे गरिमा प्रदान करने वाले गुण अवश्य खो गए। जहाँ उसने पुरुष को नीचा दिखाने के लिए कठिन परिश्रम किया, वहीं वह पुरुष की अपने प्रति जिज्ञासा को जगाने के लिए सौंदर्य को प्रधानता देने लगी। उसका मन सौंदर्य आकर्षण में इतना उलझा है कि उसे स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता।

जिस तरह इंद्र धनुष के रंग हमें विस्मित तो कर देते हैं, पर इससे अधिक उनकी सार्थकता नहीं बन पाती, एक आकर्षक नारी की पुरुष के सामने महत्ता भी वैसी ही रह जाती है। आधुनिक नारी अपने नारीत्व की उपेक्षा भी नहीं सह सकती और इसलिए ऐसा मार्ग अपनाती है। परंतु इस आकर्षित करने वाले मार्ग में भी निरर्थकता है क्योंकि उसका अस्तित्व पुरुष के लिए अधिक मायने नहीं रखता। अतः दोनों ही स्थितियाँ महिलाओं के लिए दुष्कर हैं और आधुनिक पश्चिमी (और भारतीय भी) नारियाँ इन्हीं में जकड़ कर रह गई हैं।

आगे - (भाग-२)
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