एकालाप - ५ : मुझे भी बालिग़ होना है ....
''मैं सत्पथ पर रहूँगी ,
या कुपथ पर चलूंगी,
यह जिम्मेदारी भी अपने ही सर पर लेना चाहती हूँ.
मैं बालिग़ हूँ
और
अपना नफ़ा - नुकसान देख सकती हूँ.
आजन्म किसी की रक्षा में नहीं रहना चाहती,
क्योंकि रक्षा का कार्य
पराधीनता के सिवा कुछ नहीं.''
यह क्या बोले जा रही हूँ मैं ?
हाँ, याद आया 'प्रेमचंद' की 'सोफिया'
मिली थी 'रंगभूमि' में.
बस उसी की कही
जबान पर चढ़ गई !
सोफिया का तो पता नहीं
पर मुझे यह क्यों लगता है कि
उन्होंने सारी शिक्षाएँ मेरे लिए ही बनाई हैं,
सारे उपदेश मेरे लिए हैं.
वे शिक्षित करके मुझे भली लड़की बनाना चाहते हैं.
भली लड़की
जो सिर झुकाए उनके पीछे चले,
उनके संरक्षण में रहे .
वे मेरी रक्षा के लिए
प्राण निछावर कर देंगे
अगर मैं उनके पथ को एकमात्र पथ समझूँ....
सत्पथ हो या कुपथ
मैं अब अपने आप चुनूँगी अपना रास्ता
और वे मुझे स्वेच्छाचारिणी घोषित कर देंगे,
मैं दृढ़ता से चलूँगी अपने चुने रास्ते पर
और वे मुझे अपने घर से निकाल देंगे.
चलेंगे चालें
तरह तरह की-
मैं आ जाऊँ वापस उनकी सुरक्षा में,
उनके संरक्षण में,
उनकी ठोकरों में.
पर सोफिया की तरह
मुझे भी समझ आने लगा है
सुरक्षा का अर्थ!
जिसे सुरक्षा की गारंटी दी जा रही है,
उसे स्वतंत्रता की ज़रूरत ही क्या है
चिंता मुक्त हो कर
विवेक खोकर
व्यक्तित्व खोकर
अपना आपा खोकर-
सुरक्षा का सुख लेते रहना है बस!
सौदा तो अच्छा है!
पर बहुत महंगा सौदा है.
ठीक कहती है सोफिया
सही चुनूँ या ग़लत
पर चुनूँ तो सही!
मुझे ख़ुद उठानी है अपनी ज़िम्मेदारी!
हजारों साल हो गए
मैं अभी तक कमसिन हूँ;
मुझे भी बालिग़ होना है,
अपने फैसले ख़ुद करने है,
हानि लाभ की पहचान करनी है.
वे कहते हैं,
तुम लड़की हो!
तुम क्या फैसले लोगी?
तुम क्या पहचान करोगी?
मेरी समझ में नहीं आता :
वे तो जन्म से पुरुष हैं
फिर उन्होंने आज तक तमाम ग़लत फैसले क्यों लिए ?
आज तक अपने पराये तक को नहीं पहचाना?
उन्हीं के फैसलों ने तो
धरती को युद्ध और आतंक से भर छोड़ा है!
विस्फोटों से दहलती हुई ये दुनिया उन्हीं की बनाई है न?
वे न तो अस्पताल को बख्शते हैं
न पाठशाला को ।
वे आज भी जंगली हैं?
औरतों को उनसे आज भी वैसे ही डरना होता है
जैसे भेड़ियों और लक्कड़बग्घों से?
अभी उनका सभ्य होना शेष है.
जब तक वे सभ्य नहीं होते -
युद्ध होते रहेंगे,
आतंक बना रहेगा,
लोग मरते रहेंगे,
बच्चे रोते रहेंगे,
औरतें चीखती रहेंगी !
बस इसीलिए
वे औरतों को बनाये रखते है कमसिन
और करते रहते हैं रक्षा
मेरी नहीं
अपने जंगलीपन की!
हजारों साल हो गए,
वे अभी तक जंगली है;
पर मैं अब बालिग़ हो गई हूँ!!
''मैं सत्पथ पर रहूँगी ,
या कुपथ पर चलूंगी,
यह जिम्मेदारी भी अपने ही सर पर लेना चाहती हूँ.
मैं बालिग़ हूँ
और
अपना नफ़ा - नुकसान देख सकती हूँ.
आजन्म किसी की रक्षा में नहीं रहना चाहती,
क्योंकि रक्षा का कार्य
पराधीनता के सिवा कुछ नहीं.''
यह क्या बोले जा रही हूँ मैं ?
हाँ, याद आया 'प्रेमचंद' की 'सोफिया'
मिली थी 'रंगभूमि' में.
बस उसी की कही
जबान पर चढ़ गई !
सोफिया का तो पता नहीं
पर मुझे यह क्यों लगता है कि
उन्होंने सारी शिक्षाएँ मेरे लिए ही बनाई हैं,
सारे उपदेश मेरे लिए हैं.
वे शिक्षित करके मुझे भली लड़की बनाना चाहते हैं.
भली लड़की
जो सिर झुकाए उनके पीछे चले,
उनके संरक्षण में रहे .
वे मेरी रक्षा के लिए
प्राण निछावर कर देंगे
अगर मैं उनके पथ को एकमात्र पथ समझूँ....
सत्पथ हो या कुपथ
मैं अब अपने आप चुनूँगी अपना रास्ता
और वे मुझे स्वेच्छाचारिणी घोषित कर देंगे,
मैं दृढ़ता से चलूँगी अपने चुने रास्ते पर
और वे मुझे अपने घर से निकाल देंगे.
चलेंगे चालें
तरह तरह की-
मैं आ जाऊँ वापस उनकी सुरक्षा में,
उनके संरक्षण में,
उनकी ठोकरों में.
पर सोफिया की तरह
मुझे भी समझ आने लगा है
सुरक्षा का अर्थ!
जिसे सुरक्षा की गारंटी दी जा रही है,
उसे स्वतंत्रता की ज़रूरत ही क्या है
चिंता मुक्त हो कर
विवेक खोकर
व्यक्तित्व खोकर
अपना आपा खोकर-
सुरक्षा का सुख लेते रहना है बस!
सौदा तो अच्छा है!
पर बहुत महंगा सौदा है.
ठीक कहती है सोफिया
सही चुनूँ या ग़लत
पर चुनूँ तो सही!
मुझे ख़ुद उठानी है अपनी ज़िम्मेदारी!
हजारों साल हो गए
मैं अभी तक कमसिन हूँ;
मुझे भी बालिग़ होना है,
अपने फैसले ख़ुद करने है,
हानि लाभ की पहचान करनी है.
वे कहते हैं,
तुम लड़की हो!
तुम क्या फैसले लोगी?
तुम क्या पहचान करोगी?
मेरी समझ में नहीं आता :
वे तो जन्म से पुरुष हैं
फिर उन्होंने आज तक तमाम ग़लत फैसले क्यों लिए ?
आज तक अपने पराये तक को नहीं पहचाना?
उन्हीं के फैसलों ने तो
धरती को युद्ध और आतंक से भर छोड़ा है!
विस्फोटों से दहलती हुई ये दुनिया उन्हीं की बनाई है न?
वे न तो अस्पताल को बख्शते हैं
न पाठशाला को ।
वे आज भी जंगली हैं?
औरतों को उनसे आज भी वैसे ही डरना होता है
जैसे भेड़ियों और लक्कड़बग्घों से?
अभी उनका सभ्य होना शेष है.
जब तक वे सभ्य नहीं होते -
युद्ध होते रहेंगे,
आतंक बना रहेगा,
लोग मरते रहेंगे,
बच्चे रोते रहेंगे,
औरतें चीखती रहेंगी !
बस इसीलिए
वे औरतों को बनाये रखते है कमसिन
और करते रहते हैं रक्षा
मेरी नहीं
अपने जंगलीपन की!
हजारों साल हो गए,
वे अभी तक जंगली है;
पर मैं अब बालिग़ हो गई हूँ!!
-ऋषभ देव शर्मा.
सटीक, बहूत कुछ सोचने/करने के लिये मार्ग खोलती हूई रचना।
जवाब देंहटाएंजीवन के कटु सत्यों को फंतासी के सहारे आपने बडी कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है। यह कविता किसी भी व्यक्ति को झकझोरने का माददा रखती है।
जवाब देंहटाएंवाकई, हर किसी को झकझोर देने वाली कविता है यह.
जवाब देंहटाएंउम्दा कृति
जवाब देंहटाएंexcellent
जवाब देंहटाएंआप सभी की सदाशयता के प्रति आभारी हूँ.
जवाब देंहटाएंरचना में व्यक्त सोच को स्वीकार करना,आत्मसात करना व सामाजिक रूप में उसे अपनाना आज की महती आवश्यकता है, बड़ा व दर्पण दिखाने वाला सच तो है ही.
आप सभी ने स्नेह से प्रोत्साहन दिया तदर्थ आभारी हूँ. इसा एकालाप स्तम्भ में प्रति माह १ व १६ को नई कड़ी की रचना डाली जाती है. लेखक को भी प्रोत्साहन से अपने विचार की सामाजिक स्वीकृति का अनुभव होता ही है.