स्त्री-विमर्श के नाम पर कृपया साहित्य में प्रदूषण न फैलायें
-सुधा अरोड़ा
-सुधा अरोड़ा
‘हंस’ के जून अंक का सम्पादकीय ‘एक और स्त्री विमर्श पढ़कर एक घटना याद आ गयी।
फतेहपुर सीकरी के राजमहल में गाइड बड़े उत्साह से एक जगह का ब्यौरा देते हैं, जहाँ एक विशालकाय चौपड़ का चार खाने वाला ढाँचा है। उससे कुछ ऊपर राजा-महाराजाओं के बैठने की जगह बनी है, जहाँ से राजा चौपड़ खेलते हुए चाल का पासा फेंकते थे। हरी, पीली, लाल, नीली गोटियों की जगह हरे पीले लाल नीले रंग के वस्त्रों, आभूषणों से सजी कन्याएँ खड़ी रहती थीं और पासे को फेंककर अगर चार नम्बर आया तो उस रंग की गोटी के स्थान पर उस रंग के वस्त्रों से सजी सुसज्जित कन्या पैरों में झांझर पहने झँकारती इठलाती हुई नृत्य के अन्दाज में चार घर चलती थीं। जाहिर है, जिन नर्तकियों या कन्याओं को गोटियों का स्थानापन्न बनाने के लिए बुलाया जाता, वे राजा के महल में प्रवेश पाने को अपना अहोभाग्य समझतीं। ‘हंस’ के पन्नों पर जब भी देहवादी सामग्री परोसी जाती है, मुझे राजा इन्द्र का दरबार सजा दिखाई देता है, जहाँ अप्सराओं(!) को रिझाने लुभाने और उनके करतब देखने के लिए राजा इन्द्र बाकायदा ‘हंस’ की शतरंजी चौपड़ का पासा फेंक रहे हैं। आज बाजार ने तो स्त्री को देह तक रिड्यूस कर ही दिया है। स्त्री की अहमियत क्या है ? महज एक देह! इस देह का करतब हम छोटे-बड़े परदे पर हर वक्त देख रहे हैं। स्त्री की देह, सबसे बड़ी बिकाऊ कमोडिटी बनकर हमारे घर में घुस आयी है और हम उसे रोक नहीं पा रहे। लड़कियाँ यह कहने में शर्मिन्दगी महसूस नहीं करतीं कि आपके पास बुद्धि है, आप पढ़ाकर पैसा कमा रहे हैं, हमारे पास देह है, हम उससे पैसा कमा रही हैं और हमें फर्क नहीं पड़ता तो आप क्यों परेशान हैं ? हम या आप ऐसी औरतों की देह की आजादी में कहाँ आड़े रहे हैं ? देह उनकी, वे जैसे चाहें इस्तेमाल करें। पर छोटे-बड़े परदे पर अर्द्धनग्न औरतों की जमात को सामूहिक रूप से भोंडे प्रदर्शन करते देखना मानसिक चेतना पर लगातार प्रहार करता है। मीडिया और फिल्मों और विज्ञापनों में जिस तरह औरत की देह को परोसा जा रहा है, ‘जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक’ को उस दिखाऊ उघाड़ू प्रवृत्ति के विरोध में खड़ा होना चाहिए। आप जैसे विचारवान सम्पादक का ‘एक और स्त्री विमर्श’ तो मीडिया और बाजार के समर्थन में खड़ा, उसकी पीठ थपथपाता ही नहीं, जीभ लपलपाता दिखाई दे रहा है।
हंस का जून अंक आया और अचानक स्त्री विमर्श पर छायी धुन्ध को लेकर पटना से निकलने वाली ‘साहिती सारिका’ के सम्पादक सलिल सुधाकर और ‘अक्सर’ के वरिष्ठ सम्पादक हेतु भारद्वाज ने स्त्री विमर्श के स्वरूप से चिन्तित होकर परिचर्चाएँ आयोजित करने का निर्णय लिया। स्त्री विमर्श को लेकर न पश्चिम में कहीं कोई धुन्ध है, न भारत में। भारत में इस धुन्ध के प्रणेता आप बन रहे हैं और इस मुगालते में जी रहे हैं कि सदियों से दबी कुचली स्त्री देह को आजाद करेंगे तो एकमात्र आप ही। जो काम फिल्मों में महेश भट्ट, मीडिया में स्त्री के साथ बाजार कर रहा है और जिसे स्त्रियों की एक खास जमात स्वयं सहमति देकर अपने आप को परोस रही है, वही काम साहित्य में एक जिम्मेदार कथा मासिक का सम्पादक कर रहा है- लोलुपता और लम्पटता को बौद्धिक शब्दजाल में लपेटकर सामाजिक मान्यता प्रदान करना।
स्त्री देह को लेकर गालियाँ, अश्लीलता, छिछोरापन कब किस समाज में, किस युग में नहीं रहा ? साहित्य में वह गुलशन नन्दा की सीधी सपाट शब्दावली के दायरे से निकलकर आपके बौद्धिक आतंक का जामा पहनी हुई भाषा में आ गया है। दिक्कत यह है कि रचनात्मक साहित्यकार समाजविज्ञान से सम्बन्धित विषयों पर शोध किये बिना और सामाजिक मनोविज्ञान की बारीकियों को समझे बगैर सामाजिक स्थापनाओं के रूप में अपनी मौलिक उद्भावनाएँ दे रहा है। निजी व्याधि को साहित्यिक रूप से प्रतिष्ठित कर आप उसे समुदाय की व्याधि बनाना चाह रहे हैं।
पश्चिम में पूँजी के आधिक्य से और भारत में पूँजी के अभाव में आजादी और आधुनिकता आयी है। निम्न मध्यवर्गीय लड़कियों की माँगें और महत्वकांक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तो वह देह के बाजार से अपने लिए सुविधाएँ जुटा लेती हैं। शिकागो या न्यू्यॉर्क में चालीस डिग्री के ऊपर गर्मी पड़ती है तो लड़कियाँ ब्रॉ और शॉट्र्स में मॉल में घूमती दिखाई देती हैं। समुद्र या झील के किनारे उनका टॉपलेस में भी नज़र आना हैरानी का बायस नहीं बनता। वहाँ के बाशिन्दों को इसकी आदत हो चुकी है और वहाँ कोई ठिठककर उघड़ी हुई स्त्री देह को देखता तक नहीं। वहाँ की नैतिकता कपड़ों के आवरण से बारह निकल आयी है। भारत के बाशिन्दे अब भी नेक लाइन पर आँखें गड़ा देते हैं और जीन्स से बाहर झाँकती पैंटी के ब्रांड का लेबल पढ़ना नहीं भूलते। नैतिकता का हथियार वहीं वार करता है, जहाँ आज भी स्त्री देह को सौन्दर्य का प्रतीक और सम्मान की चीज़ माना जाता है। उसका भोंडा प्रदर्शन हमें विचलित ही करता है।
स्त्री को ‘अदर दैन बॉडी’ डिस्कवर करने का स्टैमिना ही नहीं रह गया है- न फिल्म निर्माताओं निर्देशकों में, न आप जैसे सम्पादकों में। अफसोस स्नोवावार्नो की कहानी ‘मेरा अज्ञात मुझे पुकारता है’ को छापने के बाद भी आप स्त्री देह के सौन्दर्य को उसकी सम्पूर्णता में न देखकर ‘निचले हिस्से का सच’ जैसी स्थूल शब्दावली में ही देखना चाहते हैं। यह दृष्टि दोष लाइलाज है।
महिला रचनाकारों की इतनी बड़ी जमात लिख रही है अपनी समस्याओं पर। उन्हें अपनी समस्याओं के बारे में खुद बात करने दीजिए। महिलाओं की बेशुमार अन्तहीन सामाजिक समस्याएँ हैं। बेहद प्रतिकूल सामाजिक स्थितियों में, दहेज प्रताड़ना, भ्रूण हत्या और गर्भपात को झेलती, खेती मजदूरी में पसीना बहाती, घर-परिवार की आड़ी तिरछी जिम्मेदारियों को सम्भालनें और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद पति की लम्पटता, उपेक्षा या हिंसा को झेलती औरत (आपसे बेहतर कौन इस स्थिति को समझ सकता है) का एक बहुत बड़ा वर्ग है जहाँ देह की आजादी या देह मुक्ति कोई मायने नहीं रखती। आज की औरत को घर के अलावा बाहरी स्पेस से जूझना पड़ रहा है तो सोलहवीं सदी का ‘ओथेलो’ भी पुरुष के भीतर फन फैलाये जिन्दा है। बलात्कार और भ्रूण हत्यायें पहले से कई गुना बढ़ गयी हैं। ताजा रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में लिंग अनुपात एक हजार लड़कों के पीछे तीन सौ लड़कियों का रह गया है (द टेलीग्राफ: लंदन 22 जून 2008 -अमित राय) पर वह ‘हंस’ के सरोकार का मुद्दा नहीं है।
‘स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह-मुक्ति से ही शुरू होगा’ का झंडा लिए आप अरसे से घूम रहे हैं। ऐसा नहीं कि आप इसमें कामयाब नहीं हुए हैं। आजाद देह वाली स्त्रियों की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई है। हर शहर में वे पनप रही हैं। पहले सिर्फ मीडिया और कॉरपोरेट जगत में ये स्त्रियाँ अपनी देह के बूते पर फिल्मों और मॉडलिंग में जगह पाती थीं या कार्यालयों में प्रमोशन पर प्रमोशन पा जाती थीं। ‘हंस’ के स्त्री देह मुक्ति अभियान से आन्दोलित हो वे साहित्य के क्षेत्र में भी देह का तांडव अपनी रचनाओं में दिखा रही हैं और देह को सीढ़ी बनाकर राजेन्द्र यादव जैसे भ्रमित सम्पादकों का भावनात्मक दोहन कर अपनी लोकप्रियता के गुब्बारे आसमान में छोड़ रही हैं। अपने इस अश्वमेघ यज्ञ में आप सहभागी बना रहे हैं- रमणिका गुप्ता और कृष्णा अग्निहोत्री को जिनकी आत्मकथाओं को साहित्य में किन कारणों से तवज्जोह दी गयी, यह किसी शोध का विषय नहीं है। आपके अनुसार योनि शब्द अश्लील और आपत्तिजनक है क्यों ‘योनि अकेली ही किसी एटम बम से कम है’। योनि शब्द से किसी भी स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति को परहेज नहीं हो सकता। परहेज तब होता है जब उसे प्रस्तुत करने के नजरिये में खोट दिखाई देता है। ‘हंस’ के जुलाई अंक में ही फरीदाबाद के डॉ. रामवीर ने इस पर सटीक टिप्पणी कर दी है| कृपया प्रेमचन्द की पत्रिका ‘हंस’ के साथ ‘जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक’ की BI लाइन हटाकर ‘स्त्री देह की आजादी का मुखपत्र’ रख दें। पचास साल बाद राजेन्द्र यादव के साहित्यिक अवदान को कितना याद रखा जायेगा, इसकी गारन्टी कोई नहीं दे सकता, पर ‘स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह मुक्ति से शुरू होगा’ की उद्घोषणा के प्रथम प्रवक्ता और प्रणेता के रूप में ‘हंस’ सम्पादक का नाम अवश्य स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा।” मैं चाहती हूँ कि इस बहाने एक बुनियादी जिरह शुरू हो जिसमें स्त्री को केवल बुर्जुआ समाजशास्त्र और बाजार के देहशास्त्र के बीच रखकर ही न देखा जाए बल्कि उसकी मुक्ति के प्रश्नों को अधिक समग्रता में खाजा जा सके क्योंकि ये प्रश्न अन्ततः हमें उस दिशा की ओर ले जाते हैं कि कौन सा और कैसा समाज गढ़ना चाहते हैं। आज बाजार की सबसे बड़ी शिकार औरत ही हो रही है और वही सबसे ज्यादा दलित है और अपमानित भी। क्या हम बाजार के यूटोपिया से ही संचालित रहेंगे या इसे लाँघ कर आगे भी जाएंगे ?
फतेहपुर सीकरी के राजमहल में गाइड बड़े उत्साह से एक जगह का ब्यौरा देते हैं, जहाँ एक विशालकाय चौपड़ का चार खाने वाला ढाँचा है। उससे कुछ ऊपर राजा-महाराजाओं के बैठने की जगह बनी है, जहाँ से राजा चौपड़ खेलते हुए चाल का पासा फेंकते थे। हरी, पीली, लाल, नीली गोटियों की जगह हरे पीले लाल नीले रंग के वस्त्रों, आभूषणों से सजी कन्याएँ खड़ी रहती थीं और पासे को फेंककर अगर चार नम्बर आया तो उस रंग की गोटी के स्थान पर उस रंग के वस्त्रों से सजी सुसज्जित कन्या पैरों में झांझर पहने झँकारती इठलाती हुई नृत्य के अन्दाज में चार घर चलती थीं। जाहिर है, जिन नर्तकियों या कन्याओं को गोटियों का स्थानापन्न बनाने के लिए बुलाया जाता, वे राजा के महल में प्रवेश पाने को अपना अहोभाग्य समझतीं। ‘हंस’ के पन्नों पर जब भी देहवादी सामग्री परोसी जाती है, मुझे राजा इन्द्र का दरबार सजा दिखाई देता है, जहाँ अप्सराओं(!) को रिझाने लुभाने और उनके करतब देखने के लिए राजा इन्द्र बाकायदा ‘हंस’ की शतरंजी चौपड़ का पासा फेंक रहे हैं। आज बाजार ने तो स्त्री को देह तक रिड्यूस कर ही दिया है। स्त्री की अहमियत क्या है ? महज एक देह! इस देह का करतब हम छोटे-बड़े परदे पर हर वक्त देख रहे हैं। स्त्री की देह, सबसे बड़ी बिकाऊ कमोडिटी बनकर हमारे घर में घुस आयी है और हम उसे रोक नहीं पा रहे। लड़कियाँ यह कहने में शर्मिन्दगी महसूस नहीं करतीं कि आपके पास बुद्धि है, आप पढ़ाकर पैसा कमा रहे हैं, हमारे पास देह है, हम उससे पैसा कमा रही हैं और हमें फर्क नहीं पड़ता तो आप क्यों परेशान हैं ? हम या आप ऐसी औरतों की देह की आजादी में कहाँ आड़े रहे हैं ? देह उनकी, वे जैसे चाहें इस्तेमाल करें। पर छोटे-बड़े परदे पर अर्द्धनग्न औरतों की जमात को सामूहिक रूप से भोंडे प्रदर्शन करते देखना मानसिक चेतना पर लगातार प्रहार करता है। मीडिया और फिल्मों और विज्ञापनों में जिस तरह औरत की देह को परोसा जा रहा है, ‘जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक’ को उस दिखाऊ उघाड़ू प्रवृत्ति के विरोध में खड़ा होना चाहिए। आप जैसे विचारवान सम्पादक का ‘एक और स्त्री विमर्श’ तो मीडिया और बाजार के समर्थन में खड़ा, उसकी पीठ थपथपाता ही नहीं, जीभ लपलपाता दिखाई दे रहा है।
हंस का जून अंक आया और अचानक स्त्री विमर्श पर छायी धुन्ध को लेकर पटना से निकलने वाली ‘साहिती सारिका’ के सम्पादक सलिल सुधाकर और ‘अक्सर’ के वरिष्ठ सम्पादक हेतु भारद्वाज ने स्त्री विमर्श के स्वरूप से चिन्तित होकर परिचर्चाएँ आयोजित करने का निर्णय लिया। स्त्री विमर्श को लेकर न पश्चिम में कहीं कोई धुन्ध है, न भारत में। भारत में इस धुन्ध के प्रणेता आप बन रहे हैं और इस मुगालते में जी रहे हैं कि सदियों से दबी कुचली स्त्री देह को आजाद करेंगे तो एकमात्र आप ही। जो काम फिल्मों में महेश भट्ट, मीडिया में स्त्री के साथ बाजार कर रहा है और जिसे स्त्रियों की एक खास जमात स्वयं सहमति देकर अपने आप को परोस रही है, वही काम साहित्य में एक जिम्मेदार कथा मासिक का सम्पादक कर रहा है- लोलुपता और लम्पटता को बौद्धिक शब्दजाल में लपेटकर सामाजिक मान्यता प्रदान करना।
स्त्री देह को लेकर गालियाँ, अश्लीलता, छिछोरापन कब किस समाज में, किस युग में नहीं रहा ? साहित्य में वह गुलशन नन्दा की सीधी सपाट शब्दावली के दायरे से निकलकर आपके बौद्धिक आतंक का जामा पहनी हुई भाषा में आ गया है। दिक्कत यह है कि रचनात्मक साहित्यकार समाजविज्ञान से सम्बन्धित विषयों पर शोध किये बिना और सामाजिक मनोविज्ञान की बारीकियों को समझे बगैर सामाजिक स्थापनाओं के रूप में अपनी मौलिक उद्भावनाएँ दे रहा है। निजी व्याधि को साहित्यिक रूप से प्रतिष्ठित कर आप उसे समुदाय की व्याधि बनाना चाह रहे हैं।
पश्चिम में पूँजी के आधिक्य से और भारत में पूँजी के अभाव में आजादी और आधुनिकता आयी है। निम्न मध्यवर्गीय लड़कियों की माँगें और महत्वकांक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तो वह देह के बाजार से अपने लिए सुविधाएँ जुटा लेती हैं। शिकागो या न्यू्यॉर्क में चालीस डिग्री के ऊपर गर्मी पड़ती है तो लड़कियाँ ब्रॉ और शॉट्र्स में मॉल में घूमती दिखाई देती हैं। समुद्र या झील के किनारे उनका टॉपलेस में भी नज़र आना हैरानी का बायस नहीं बनता। वहाँ के बाशिन्दों को इसकी आदत हो चुकी है और वहाँ कोई ठिठककर उघड़ी हुई स्त्री देह को देखता तक नहीं। वहाँ की नैतिकता कपड़ों के आवरण से बारह निकल आयी है। भारत के बाशिन्दे अब भी नेक लाइन पर आँखें गड़ा देते हैं और जीन्स से बाहर झाँकती पैंटी के ब्रांड का लेबल पढ़ना नहीं भूलते। नैतिकता का हथियार वहीं वार करता है, जहाँ आज भी स्त्री देह को सौन्दर्य का प्रतीक और सम्मान की चीज़ माना जाता है। उसका भोंडा प्रदर्शन हमें विचलित ही करता है।
स्त्री को ‘अदर दैन बॉडी’ डिस्कवर करने का स्टैमिना ही नहीं रह गया है- न फिल्म निर्माताओं निर्देशकों में, न आप जैसे सम्पादकों में। अफसोस स्नोवावार्नो की कहानी ‘मेरा अज्ञात मुझे पुकारता है’ को छापने के बाद भी आप स्त्री देह के सौन्दर्य को उसकी सम्पूर्णता में न देखकर ‘निचले हिस्से का सच’ जैसी स्थूल शब्दावली में ही देखना चाहते हैं। यह दृष्टि दोष लाइलाज है।
महिला रचनाकारों की इतनी बड़ी जमात लिख रही है अपनी समस्याओं पर। उन्हें अपनी समस्याओं के बारे में खुद बात करने दीजिए। महिलाओं की बेशुमार अन्तहीन सामाजिक समस्याएँ हैं। बेहद प्रतिकूल सामाजिक स्थितियों में, दहेज प्रताड़ना, भ्रूण हत्या और गर्भपात को झेलती, खेती मजदूरी में पसीना बहाती, घर-परिवार की आड़ी तिरछी जिम्मेदारियों को सम्भालनें और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बावजूद पति की लम्पटता, उपेक्षा या हिंसा को झेलती औरत (आपसे बेहतर कौन इस स्थिति को समझ सकता है) का एक बहुत बड़ा वर्ग है जहाँ देह की आजादी या देह मुक्ति कोई मायने नहीं रखती। आज की औरत को घर के अलावा बाहरी स्पेस से जूझना पड़ रहा है तो सोलहवीं सदी का ‘ओथेलो’ भी पुरुष के भीतर फन फैलाये जिन्दा है। बलात्कार और भ्रूण हत्यायें पहले से कई गुना बढ़ गयी हैं। ताजा रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में लिंग अनुपात एक हजार लड़कों के पीछे तीन सौ लड़कियों का रह गया है (द टेलीग्राफ: लंदन 22 जून 2008 -अमित राय) पर वह ‘हंस’ के सरोकार का मुद्दा नहीं है।
‘स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह-मुक्ति से ही शुरू होगा’ का झंडा लिए आप अरसे से घूम रहे हैं। ऐसा नहीं कि आप इसमें कामयाब नहीं हुए हैं। आजाद देह वाली स्त्रियों की तादाद में खासी बढ़ोत्तरी हुई है। हर शहर में वे पनप रही हैं। पहले सिर्फ मीडिया और कॉरपोरेट जगत में ये स्त्रियाँ अपनी देह के बूते पर फिल्मों और मॉडलिंग में जगह पाती थीं या कार्यालयों में प्रमोशन पर प्रमोशन पा जाती थीं। ‘हंस’ के स्त्री देह मुक्ति अभियान से आन्दोलित हो वे साहित्य के क्षेत्र में भी देह का तांडव अपनी रचनाओं में दिखा रही हैं और देह को सीढ़ी बनाकर राजेन्द्र यादव जैसे भ्रमित सम्पादकों का भावनात्मक दोहन कर अपनी लोकप्रियता के गुब्बारे आसमान में छोड़ रही हैं। अपने इस अश्वमेघ यज्ञ में आप सहभागी बना रहे हैं- रमणिका गुप्ता और कृष्णा अग्निहोत्री को जिनकी आत्मकथाओं को साहित्य में किन कारणों से तवज्जोह दी गयी, यह किसी शोध का विषय नहीं है। आपके अनुसार योनि शब्द अश्लील और आपत्तिजनक है क्यों ‘योनि अकेली ही किसी एटम बम से कम है’। योनि शब्द से किसी भी स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति को परहेज नहीं हो सकता। परहेज तब होता है जब उसे प्रस्तुत करने के नजरिये में खोट दिखाई देता है। ‘हंस’ के जुलाई अंक में ही फरीदाबाद के डॉ. रामवीर ने इस पर सटीक टिप्पणी कर दी है| कृपया प्रेमचन्द की पत्रिका ‘हंस’ के साथ ‘जनचेतना के प्रगतिशील कथा मासिक’ की BI लाइन हटाकर ‘स्त्री देह की आजादी का मुखपत्र’ रख दें। पचास साल बाद राजेन्द्र यादव के साहित्यिक अवदान को कितना याद रखा जायेगा, इसकी गारन्टी कोई नहीं दे सकता, पर ‘स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह मुक्ति से शुरू होगा’ की उद्घोषणा के प्रथम प्रवक्ता और प्रणेता के रूप में ‘हंस’ सम्पादक का नाम अवश्य स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा।” मैं चाहती हूँ कि इस बहाने एक बुनियादी जिरह शुरू हो जिसमें स्त्री को केवल बुर्जुआ समाजशास्त्र और बाजार के देहशास्त्र के बीच रखकर ही न देखा जाए बल्कि उसकी मुक्ति के प्रश्नों को अधिक समग्रता में खाजा जा सके क्योंकि ये प्रश्न अन्ततः हमें उस दिशा की ओर ले जाते हैं कि कौन सा और कैसा समाज गढ़ना चाहते हैं। आज बाजार की सबसे बड़ी शिकार औरत ही हो रही है और वही सबसे ज्यादा दलित है और अपमानित भी। क्या हम बाजार के यूटोपिया से ही संचालित रहेंगे या इसे लाँघ कर आगे भी जाएंगे ?
मैं इस पत्र से सहमत नहीं हूँ.....वजह यह है कि, सुधाजी ने राजेन्द्र यादव को एक सीमित दायरे मे देखने की कोशिश की है....जहाँ तक मैने उन्हें पढा है और उनके विचार जाने है वह कुछ हद तक स्त्री और दलित की ओर ज्यादा झुके जान पडते हैं.....और कहीं-कही तो उनको लोग खुलकर स्त्रीयों और दलितों का पक्षधर मानते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो यह कहना नहीं भूलते की राजेंन्द्र यादव केवल स्त्री और दलित के नाम ले लेकर अपना बौद्धिक व्यापार चलाते है.....वैसे कहने वाले बहुत कुछ कह जाते हैं...मैं भी उनके कई विचारों से सहमत नही हूं जैसे कि अक्सर वो पश्चिमी बौध्दिकता की बडाई कहीं ज्यादा कर देते हैं और भारत की बौध्दिकता को ठूंठ मानने लगते हैं....खैर वो तो अलग बात है, लेकिन मैं आपके ईस विचार से सहमत नहीं हूँ कि राजेन्द्र यादव केवल स्त्री विमर्श के नाम पर प्रदूषण फैला रहे हैं।
जवाब देंहटाएंवैसे कविताजी, इस तरह के विचार विमर्श ब्लॉग पर आते रहते हैं तो काफी अच्छा लगता है। इस बात के लिये मेरी ओर से धन्यवाद स्वीकार करें।
शाबास कविता वाचक्नवी जी, इन मुखौटों को इसी तरह चिथड़े-चिथड़े करना बहुत जरूरी है. आपसे साग्रह अनुमित चाहता हूं कि इस अभिव्यक्ति को अविकल अपने साप्ताहिक समाचार पत्र में प्रकाशित करूं.उम्मीद है, आप अनुमति से परहेज नहीं करेंगी, यादव जी मूलतः आगरे के हैं, और हमारी साप्ताहिक मैग्जीन भी आगरे से पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेस में प्रसारित होती है. एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग आपकी प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद जान सकेगा कि हंस के राजहंस वाकई स्त्री-विमर्श के बहाने किस तरहे के विमर्श में अस्त-व्यस्त हैं. इसे कहते हैं साठोत्तरी कहानियों नहीं, कहानिकारों का सठियाना, अकबकाना. उफ् जाने कैसे-कैसे दिन देखने बाकी हैं.
जवाब देंहटाएंपुनश्च,
आपको अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए बधाई.
सन्दर्भ : स्त्री-विमर्श के नाम पर कृपया साहित्य में प्रदूषण न फैलायें
जवाब देंहटाएंसामयिक !
विचारोत्तेजक !!
यहाँ 'हंस' के सम्पादक के देहवादी स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में प्रभा खेतान के विचार उद्धृत करना भी प्रासंगिक होगा जो इस प्रकार हैं :
''राजेन्द्र जी के चिंतन-जगत को दो हिस्सों में बांटकर समझा जा सकता है :
एक तरफ़ वह हिस्सा है जो शायद अपनी समकालीनता में अनूठा है अर्थात इस हिस्से में राजेन्द्र यादव ही 'औरतों के पचडे' पर चिंतित नजर आते हैं, नारी-लेखन को प्रोत्साहन देते हैं और नारी-मुक्ति के विमर्श को साहित्य-संस्कृति की दुनिया के केन्द्र में लाने में लगे हुए हैं. इस हिस्से के राजेन्द्र यादव अपने उन आलोचकों से कहीं आगे हैं जो इस प्रकरण में उन्हें आड़े हाथों लेने में लगे हुए हैं. स्त्री-मुक्ति के प्रसंग में इन आलोचकों ने न तो कभी कुछ लिखा और न ही कुछ कहने की ज़रूरत समझी.
दूसरी तरफ़ राजेन्द्र यादव का वह हिस्सा है जो उनके चिंतन को स्त्री के दैहिक अस्तित्व से आगे नहीं जाने देता और उनसे ऐसा लेख लिखवाता है जिसकी भाषा-शैली के वे स्वयं एक अंग बन जाते हैं. उनके लेखकीय कौशल की स्पष्ट सीमायें उन्हें महान लेखकों की भांति अपनी रचना से असम्पृक्त कर पानें में असफल रहती हैं."
(प्रभा खेतान,
सामाजिक सरोकार उर्फ़ आक्रामकता की खोज).
कौन ग़लत करता और किसलिए किसे पता, सब अपना नज़रिया है।
जवाब देंहटाएंसुधा आरोड़ा का यह पत्र राजेन्द्र यादव के स्वकल्पित चक्रव्यूह पर सशक्त प्रहार करता है. दैहिक आस्वादन से लिप्त राजेन्द्र यादव का जीवन, लेखकीय दायित्व की यही सीमाएं उनके लिए निर्धारित कर सकता है. प्रगतिशीलता का इससे अच्छा मजाक और क्या हो सकता है.
जवाब देंहटाएंआपसे सहमत हूँ....कम से कम स्त्री विमर्श पर उन पर संदेह लाजिमी है...
जवाब देंहटाएंसतीश जी,मुँहफटजी,ऋषभजी.विनयजी.युगविमर्शजी व अनुराग जी!
जवाब देंहटाएंआप सभी के प्रति आभारी हूँ कि आपने अपने वैचारिक मन्तव्यों द्वारा विषय की मीमांसा की।
पधारने के लिए धन्यवाद।
मुँहफट जी! यह आलेख(पत्रात्मक)सुश्री सुधा अरोड़ा जी का है, आप लेखक के रूप में उनका नाम देते हुए,यहाँ के(ब्लॊग के) सन्दर्भ सहित अपने पत्र में सहर्ष प्रकाशित कर सकते हैं।
Sudha Ji aapney bilkul sahi likha hay. Main bhi Yadav Ji say yeh baat keh chuka hoon ki ab Hans adult ho gai hay. Aut ek baat Sudha Ji aap see kehna chahta hoon. Rajender Yadav ke chotte bhai, Agra main rehte hain aur mere Pita ke atrang mittr hain, unko pichle 10 saal se dikhai nahi deta hay. Unki Umar 76 saal ki hay. Unohne shaadi nahi ki hay. Ek Bhopal ki vidhva UMA jiska ek beta bhi hay aur voh 7 vi klass main parta hay, saath main rehti aur seva karti hay. Parantu hairangi ki baat yeh hay ki bare bhai Rajender Yadav ji ke paas itna paisa hote hue bhi apne chchote bhai ki kabhi madad nahi ki.
जवाब देंहटाएंSurjit. Agra. e-mail: nagpalss@gmail.com
सुधा अरोड़ा तो विवेकशील विवेचना करती हैं जो एक् देहवादी के ऊपर से निकल जाती हैं, उसने विवेक तो पहले ही बेच दिया है।
जवाब देंहटाएंप्रभा खेतान राजेन्द्र यादव की समकालीन् होने की प्रशंसा करती हैं किन्तु वे भूल जाती हैं कि वह समकालीनता का उपयोग अपनी दूकान की बिक्री बढ़ाने के लिये ही करता है, न कि समकालीन मुद्दों पर विवेकशील विवेचन करने के लिये ।
हम सब जो राजेन्द्र यादव की समालोचना कर रहे हैं इससे भी उसका बाजार मूल्य बढ़ता है।
क्या हम उसके हंस को जो दूध में से पानी निकालकर ही परोसता है,पढ़ना बन्द नहीं कर सकते !!
आज के राक्षसी देहवादी बाजार को पहले तो नजर अंदाज़ ही करें और फ़िर् मानवीय विवेक्शील जगत को ही बढ़ावा दें।
AAPKI BAATON SE SAHAMAT HONE KE BAAD BHI ITANAA ZARUR KAHOONGI HANS AUR RAJENDRA JI KE STREE VIMARSH KE BAHANE KAM SE KAM STREE DEH PAR KHULE AAM BAAT TO HONE LAGI HAI !
जवाब देंहटाएंek vicharottejak lekh..bebaki se kahi baat ki jitni prashansa ki jaaye kam hai.
जवाब देंहटाएंइतना पैना, प्रखर और स्पष्ट है सुधाजी का आलेख - ये न केवल यह बतलाता है की अथोरिटी मिल जाने पर तथाकथित प्रगतिशील लोग ( साहित्यकार ) भी अपनी कमजोरियों पर साहित्य और सामाजिकता का मुलम्मा चढाने में संकोच नहीं करते. खुशवंत सिंह इस मामले में ज्यादा इमानदार हैं - लेकिन प्रेमचंद की हंस को प्रदूषित करने के कृत्या को क्या कहेंगे. यादवजी के सोच की कुंठा और उहापोह उनकी कृतियों में झलक देती है लेकिन एक स्थापित लेखक के लेखन में झीने परदे को हटाकर देख पाना सोच पाना सामान्य पाठक के लिए संभव नहीं हो पाता. सुधाजी का साधुवाद ! बार बार !! समाज कैसा गढ़ना चाहिए ये हमें जरुर सोचना चाहिए. अगर नहीं सोच पाने की सीमायें हैं तो अपने मन का कूड़ा कचरा अपने मन में ही रखना चाहिए.
जवाब देंहटाएंI was very encouraged to find this site. I wanted to thank you for this special read. I definitely savored every little bit of it and I have bookmarked you to check out new stuff you post.
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र यादव प्रदुषण नही जागरुकता फैलाते है.राजेन्द्र यादव इस सदी के
जवाब देंहटाएंमहान लेखक है.