बुधवार, 4 मई 2011

स्त्री विमर्श और हिन्दी स्त्री लेखन





स्त्री विमर्श और हिन्दी स्त्री लेखन
श्रीमती धर्मा यादव




                       1857 में संयुक्त राज्य अमेरिका में महिलाओं और पुरुषों के समान वेतन को लेकर हडताल हुई थी। इसी दिन को बाद में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया गया। इसी के साथ विश्व भर में नारी मुक्ति आंदोलनों की शुरुआत हो चुकी थी, किन्तु अमेरिका को इसका केन्द्र माना जाता है। नारी मुक्ति आंदोलन की शुरुआत अमेरिका में हुई उसके बाद 1859 में पीटर्सबर्ग में अगला आंदोलन हुआ। 1908 में ‘वीमेन्स फ्रीडम लीग’ की स्थापना ब्रिटेन में हुई। जापान में इस आंदोलन की शुरुआत 1911 में हुई, 1936 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मैडम क्यूरी सहित तीन महिलाएँ फ्रांस में पहली बार मंत्री बनीं। 


इस प्रकार विश्व के अनेक देशों में इस आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन 1951 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने जब भारी बहुमत से महिलाओं के राजनीतिक अधिकारों का नियम पारित किया, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नारी मुक्ति के आन्दोलन का प्रारम्भ तभी से माना जाता है। 


1975, पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया गया, जिसके परिणामस्वरूप कोपहेगन में पहला अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन, नैरोबी में दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन 1985 में और शंघाई में तीसरा 1995 में सम्पन्न हुआ। 


भारत में इस सम्मेलन की शुरुआत नवजागरण के साथ हुई। राजा राममोहनराय ने 1818 में सती प्रथा का विरोध किया और उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप 1829 में लार्ड विलियम बैण्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। बाल-विवाह, विधवा-विवाह और बहुपत्नी प्रथा के विरुद्ध लडते हुए राजा राममोहनराय स्त्री के पक्षधर नजर आते हैं। स्वामी विवेकानन्द और स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी स्त्री शिक्षा पर जोर दिया। इस प्रकार अमेरिका से शुरू हुआ यह आन्दोलन भारत में स्त्री जाति की चेतना का स्वर बन गया। 


साहित्य में स्त्री विमर्श के अन्तर्गत स्त्री द्वारा लिखा गया और स्त्री के विषय में लिखा गया साहित्य ‘साहित्यिक स्त्री विमर्श’ माना जाता है तथा इसके मूल में अनुभव की प्रामाणिकता का तर्क दिया जाता है। स्त्री विमर्श के सम्बन्ध में यह विवाद का विषय रहा है कि यह स्त्री के लिए सुरक्षित क्षेत्र् है या लेखक होने के नाते पुरुष की भागीदारी की सम्भावना भी वहाँ बनती है। इस मत को लेकर विरोधाभास की स्थिति है। महादेवी वर्मा ने ‘स्त्री प्रश्न’ को पुरुष के लिए नारी चित्र्ण अधिक आदर्श बन सकता है, परन्तु अधिक सत्य नहीं। पुरुष के लिए नारीत्व अनुमान है और नारी के लिए अनुभव, अतः अपने जीवन का जैसा सजीव चित्र् वह हमें दे सकेंगी, वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरान्त भी शायद ही दे सके। 


इण्डिया टुडे की साहित्यिक वार्षिकी (1997) में स्त्री लेखन में स्त्री के एकाधिकार पर काफी बहस हुई यद्यपि उसमें पुरुष रचनाकारों की भागीदारी नहीं थी, फिर भी अधिकांश रचनाकारों ने यह स्वीकारा कि ‘‘लेखन, लेखन होता है, नर-मादा नहीं। उसे बाँटकर देखने वाली दृष्टि पूर्वाग्रह से ग्रस्त है।’’ 


स्त्री होने के नाते स्त्री ही स्वानुभूति पर आधारित प्रामाणिक व विश्वसनीय साहित्य की रचना कर सकती है। पुरुष लेखक संवेदना के स्तर पर, समानानुभूति के आधार पर स्त्री पीडा को व्यक्त करने में सक्षम रहे हों, लेकिन स्त्री-पीडा का यथार्थ चित्र्ण उतनी ईमानदारी से नहीं कर सके हैं। यह बार-बार कहा गया है, किन्तु साहित्य के क्षेत्र् में लैंगिक आधार पर स्वानुभूति व समानानुभूति के आधार पर हम स्त्री विमर्श को केवल लेखिकाओं के एकाधिकार का क्षेत्र् नहीं मान सकते। 


बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की हिन्दी लेखिकाएँ स्त्री विमर्श के नाम पर जहाँ पुरुष समाज के विरुद्ध खडी नजर आती हैं, वहीं स्वयं भी पुरुषवादी मानसिकता की शिकार होती जा रही हैं, जो स्त्री विमर्श का विषय नहीं है। व्यापक अर्थ में स्त्री विमर्श स्त्री जीवन के अनछुए अनजाने पीडा जगत् को व्यक्त करने का अवसर देता है, परन्तु उसका उद्देश्य, स्थिति पर आँसू बहाना और यथास्थिति स्वीकार करना नहीं है, बल्कि इनके जिम्मेदार तथ्यों की खोज करना भी है। 


स्त्री मुक्ति का अर्थ पुरुष हो जाना नहीं है। स्त्री की अपनी प्राकृतिक विशेषताएँ हैं, उनके साथ ही समाज द्वारा बनाये गये स्त्रीत्व के बंधनों से मुक्ति के साथ, मनुष्यत्व की दिशा में कदम बढाना, सही अर्थों में स्वतंत्र्ता है। स्त्री को अपनी धारणाओं को बदलते हुए, जो भी घटित हुआ, उसे नियति मानने की मानसिकता से उबरने की आवश्यकता है, लेकिन साथ ही पुरुष वर्ग को ही दोषी मानकर कठघरे में खडे करने वाली मनोवृत्ति बदलनी होगी। स्त्र्यिों के अधिकारों के लिए लडने वाले तथा अपने लेखन व प्रकाशन के द्वारा स्त्री हित विचारने वाले पुरुषों के अमूल्य योगदान को हम विस्मृत नहीं कर सकते। हिन्दी में पहला स्त्री काव्य संकलन ‘मृदुवाणी’ (1905) शीर्षक से मुंशी देवी प्रसाद ने प्रकाशित करवाया। इसमें 35 कवयित्र्यिों की कविताएँ शामिल थीं। इसके बाद गिरिजादत्त शुक्ल और ब्रजभूषण शुक्ल ने ‘हिन्दी काव्य कोकिलाएँ’ (1933) कृति सम्पादित कर प्रकाशित की। ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ के प्रकाशन में ‘स्त्री कवि संग्रह’ (1938) प्रकाशित हुआ। यह संभवतः ‘स्त्री साहित्य’ पाठ्यक्रम के लिए तैयार किया गया था। इनके अतिरिक्त नामवर सिंह के प्रधान सम्पादकत्व में ‘हिन्दी कथा लेखिकाओं की प्रतिनिधि कहानियाँ’ (1984) एवं रमणिका गुप्ता संपादित ‘आधुनिक महिला लेखन’ (1985) महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। स्त्री चेतना में पत्र्-पत्र्किाओं का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। पहली पत्र्किा 1874 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा प्रकाशित ‘बाल बोधिनी’ थी। इसके अतिरिक्त ‘अर्पणा’, ‘आम आदमी’, ‘हंस’, ‘मानुषी’, ‘निमित्त’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘उद्भावना’, ‘साक्षात्कार’ आदि पत्र्किाओं में स्त्री अंक प्रकाशित हुए। 


महिला लेखन की शुरुआत कविता से हुई, जो अधिकतर राष्ट्रीय भावना से युक्त थीं। इन्होंने कविता की भाषा को भावाभिव्यक्ति का सरल माध्यम माना। कविता के माध्यम से स्त्री समाज को कवयित्री सम्बोधित करते हुए संदेश देती है - 

‘देवियो, क्या पतन अपना देखकर 
नेत्र् से आँसू निकलते हैं नहीं ?’ 


हिन्दी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में भी कविता में स्त्री चेतना तथा नारी के संघर्ष का जोशपूर्ण स्वर सुनाई देता है। कविता में व्यक्त संवेदना की अपेक्षा स्त्री चेतना की कथा साहित्य में व्यापकता मिलती है, यद्यपि कथा लेखन की शुरुआत देर से हुई, किन्तु शुरू होने के बाद स्त्री चर्चा के केन्द्र में निरन्तर रही। 




1930 के आसपास महिला रचनाकारों की एक पीढी पूरे उत्साह के साथ रचनाकर्म में जुटी, साथ ही साहित्यिक संगोष्ठियों में सहभागिता, पत्र्किाओं का संपादन, महिला और राजनीतिक संगठनों से जुडकर सक्रिय रहीं। इन लेखिकाओं की एक विशेषता थी, ‘कथनी और करनी में समानता।’ 


स्वतंत्र प्राप्ति के बाद नये नाम और जुडे, जिनमें दुर्गेश नन्दिनी, सुमित्र कुमारी सिन्हा, रजनी पणिकर, कंचनलता सब्बरवाल के नाम प्रमुख हैं। आधुनिक काल के स्त्री लेखन में गृहस्थी व परिवार से जुडी लेखिकाओं के साथ-साथ नौकरीपेशा महिलाएँ भी शामिल होती गईं। इनमें मन्नू भण्डारी, कृष्णा सोबती, ऊषा प्रियंवदा, शिवानी, ममता कालिया, सूर्यबाला, नमिता सेठ, मंजुला भगत, शशिप्रभा, कृष्णा अग्निहोत्री, मणिका मोहिनी, दीप्ति खण्डेलवाल, सुनीता जैन, मृणाल पाण्डे, नासिरा शर्मा, मेहरून्निसा परवेज, सोमावीरा आदि हैं। 


सभी ने अलग-अलग समस्याओं को लेकर लिखा, स्त्री जीवन के विविध पक्षों पर लेखनी चलाई। नारी मुक्ति के अतिरिक्त देश व समाज की समस्याओं को केन्द्र में रखकर लेखन कार्य करने वाली लेखिकाओं में चित्र मुद्गल का विशेष स्थान है। इनके अतिरिक्त आधुनिक लेखिकाओं में अलका सरावगी, प्रभा खेतान, जया जादवानी, नीलाक्षी सिंह का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। 


आधुनिक स्त्री लेखन निरन्तर चर्चा का विषय रहा है। महिला कथाकारों की सामाजिक जीवन व व्यक्तिगत जीवन से जुडे प्रश्नों के साथ, साहसिक अभिव्यक्ति जहाँ समाज में स्त्री की स्थिति को स्पष्ट करती है, वहीं आने वाली पीढी का मार्ग प्रशस्त करती नजर आती हैं। 


कविता और कथा साहित्य में विशेष पहचान बनाने के बाद वर्तमान में आत्मकथा लेखन में महिलाएँ अपनी साहसिक अभिव्यक्ति के लिए चर्चा में हैं। यूँ तो आत्मकथा लेखन की शुरुआत भी पहले हो चुकी थी, किन्तु प्रकाश में नहीं आयी। ‘सरलाः एक विधवा की आत्म जीवनी’ (2009) में प्रकाशित हुई। धारावाहिक रूप में 1915 में ही स्त्री दर्पण में प्रकाशित हो चुकी थी। उसमें लेखिका की जगह एक दुखिनी बाला का नाम छपता था। 


आज लेखिकाएँ अपने जीवन का समग्र चित्र्ण बेबाकी से अपनी आत्मकथाओं में कर रही हैं। दिनेश नन्दिनी डालमिया की आत्मकथा चार भागों में है, जिसमें मारवाडी परिवार के अंतःपुर का चित्रण  है। प्रसिद्ध पत्र्कार शीला झुनझुनवाला ने सात दशकों की जीवन गाथा ‘कुछ कही कुछ अनकही’ के रूप में लिखी है। मैत्रेयी  पुष्पा ने अपनी जीवन कथा को उपन्यास के रूप में लिखा है। ‘कस्तूरी कुण्डल बसे’ में जीवन के यथार्थ को नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया है। अनामिका होलडोला ‘पहिए उर्फ एक औरत का जर्नल’ में इसी प्रकार का प्रयास किया है। कुसुम अंसल की आत्मकथा ‘जो कहा नहीं गया’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है। वे लिखती हैं, ‘‘आत्मकथा लिखने के इस सफर में ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कि मेरी शल्य चिकित्सा है।’’ अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’, अजीत कौर की ‘खानाबदोश’ बहुत चर्चित आत्मकथा रही। मन्नू भण्डारी की आत्मकथा ‘एक कहानी’ भी चर्चित कृति है। ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का दूसरा भाग है। इनके साथ अन्य भाषा से अनूदित महिला आत्मकथाएँ भी अपनी साहसिक अभिव्यक्ति के कारण निरन्तर चर्चा में रही हैं। 


स्पष्ट है कि आधुनिक साहित्य में स्त्री विमर्श सर्वाधिक चर्चित विषय रहा है। सीमोन द बोउवार की ‘द सेकण्ड सेक्स’ का हिन्दी अनुवाद कर प्रभा खेतान ने स्त्री विमर्श की नींव तैयार की और इससे पहले सीमन्तनी उपदेश ने इसका आधार बनाया और इन्हीं से प्रेरित होकर आधुनिक लेखिकाएँ स्त्री के प्रति समाज की मानसिकता व रूढयों पर आधारित पारिवारिक बंधनों से मुक्ति की आकांक्षा में प्रयत्नशील नजर आती हैं। 


विमर्शात्मक स्त्री लेखन उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही चला आ रहा है, किन्तु उसमें आया बदलाव सराहनीय है। ‘सरला : एक विधवा की आत्मजीवनी’ 1915 में ‘एक दुखिनी बाला’ के नाम से एक पत्रिका में प्रकाशित होती थी, किन्तु 2007 में प्रकाशित प्रभा खेतान की आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ आज का स्त्री लेखन है जो एक विवाहित पुरुष से अपने संबंधों को साहस के साथ स्वीकारती है, यही नहीं उन्होंने इनसेस्टर जैसे नाजुक विषय पर भी लिखा। 


लेखिकाओं की प्रारम्भिक पुरुष विरोधी मानसिकता में परिवर्तन आया है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध व बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के महिला लेखन के स्त्री का विषय पुरुष न होकर सामाजिक रूढयाँ रहीं, पितृ सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में मुक्ति की आकांक्षा को लेखिकाओं ने अपना विषय बनाया जो कि सराहनीय प्रयास है।







6 टिप्‍पणियां:

  1. स्त्री सशक्तीकरण के लिए अभी लम्बा सफर तय करना है । चिंतनपरक लेख के लिए आभार॥

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  2. सेकेण्ड सेक्स .............
    एक फैशनबुल पुस्तक है जिसको सो काल्ड नारीवादिय लिपस्टिक की तरह चिपका कर खी खी करती है

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  3. स्त्री विमर्श और हिन्दी स्त्री लेखन के बारे में रोचक और ज्ञानवर्दक जानकारी प्रदान करने के लिए धन्यवाद. शोधार्थियों और शोध निर्देशकों के लिए भी यह जानकारी महत्वपूर्ण है.

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  4. अत्यंत उपयोगी और सूचनाप्रद आलेख के लिए साधुवाद.

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  5. फ्रांसीसी क्रांति 1789 मे तीन नारा दिया गया था स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व।इसी समानता से स्त्री विमर्श की शुरूआत हुई,यहाँ समानता से तात्पर्य समाज के विभिन्न वर्गों के साथ साथ स्त्री पुरुष समानता भी था । स्त्रियों को समान काम के लिए समान बेतन के साथ अवसर की समानता की भी माँग की गयी थी उसके बाद पश्चिम से ही धीरे धीरे आगे बढ़ा और विभिन्न आन्दोलनो संगठनों व्यक्तियों के प्रयास से आधुनिक स्वरूप को प्राप्त हुआ ।भारत मे इस क्षेत्र मे सर्वप्रथम योगदान देने वाली महिला पंडितता रमा बाई थी जिन्होंने "एक हिन्दू स्त्री का जीवन"नामक वैचारिक पुस्तक लिखी और जो विदेश से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली प्रथम भारतीय महिला थीं ।इसके बाद एक अज्ञात लेखिका जिन्होंने "सीमंतनी उपदेश" की रचना की थी इनका स्त्री विमर्श संबंधी लेखन मे महादेवी वर्मा की तरह उच्च स्थान हैं ।
    स्त्री विमर्श भी स्वानुभूति और सहानुभूति के बीच विविद का विषय बन गया वैसे ही जैसे दलित विमर्श ।लेकिन हम सबको इससे ऊपर ऊठने की आवश्यकता है ।अगर केवल स्वानुभूति या यथार्थ को साहित्य मे सम्मिलित किया जायेगा तो बहुत सारे महान कवियों /कवयित्रियो की रचनाओं को साहित्य से निकाल देना पड़ेगा ।जैसे छायावाद के अधिकांश कवि केवल अनुभव करके या कल्पना करके प्रकृति का ऐसा चित्रण करते थे कि मन रम जाता था ।एक उदाहरण और देखें छायावाद के प्रसिद्ध कवि निराला जी ने एक कविता लिखा "तोडती पत्थ "इसमें समाज की विषमता और एक निम्न वर्ग की महिला स्थिति को दर्शाया गया है अब दलित लेखक कहेंगे कि दलित विमर्श का लेखक दलित ही हो सकता है जबकि इस कविता मे दलित लेखक से कही अधिक बिचार व्यक्त किया गया है ।ध्यान दे कि जो उदाहरण दिया गया है वह अपवादस्वरूप नही है आदि से वर्तमान तक ऐसे अनेक उदाहरण भरे है।
    कहने का मतलब यह कि किसी विमर्श को वर्गों मे बाँटना ठीक नही विमर्श एक बिचारधारा का नेतृत्व करता है जो किसी भी मनुष्य की हो सकती है बस उसमें तटस्थता होनी चाहिए ।वैसे भी आज का लेखन विसंगतियों से भरा है और पक्षपात अधिक नजर आता है स्त्री विमर्श मे महिला लेखिका पितृसत्ता के नाम पर केवल पुरुषों का विरोध कर रही है और स्त्री स्वतंत्रता का अर्थ महिलाओं का पुरूष हो जाना लगा रही है और पुरुष लेखक महिला लेखन की आड़ मे क्या लिख रहे है वह वै ही जाने।यही हाल दलित विमर्श मे है दलित लेखक का एकमात्र उद्देश्य सवर्ण का विरोध और स्वयं को सवर्ण घोषित करना है ।हमें इन सब सेआगे बढ़ना होगा ।
    धन्यवाद

    आपका लेख बहुत सुंदर है मेरा उद्देश्य अपनी विद्वता दिखाना नही बस कुछ बातें मन मे थी कह दी
    आपको धन्यवाद
    जितेन्द्र कुमार गिरी
    इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद

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