बुधवार, 20 अगस्त 2008

`एकालाप' : गुड़िया-गाय-गुलाम

`एकालाप'
(६)
गुड़िया-गाय-गुलाम
परसों तुमने मुझे
चीखने वाली गुड़िया समझकर
जमीन पर पटक दिया
और पैरों से रौंद डाला


पर मैंने कोई शिकायत नहीं की।
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कल तुमने मुझे
अपने खूंटे की गाय समझकर
मेरे पैरों में रस्सी बाँध दी
और मेरे थनों को दुह डाला


पर मैंने कोई शिकायत नहीं की.


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आज तुमने मुझे
अपने हुक्म का गुलाम समझ कर
गरम सलाख से मेरी जीभ दाग दी है



और अब भी चाहते हो
मैं कोई शिकायत न करूँ।


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नहीं!



मैं गुड़िया नहीं, मैं गाय नहीं, मैं गुलाम नहीं!!
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-ऋषभ देव शर्मा












चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: स्त्रीविमर्श, एकालाप, Women, कविता,

1 टिप्पणी:

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