बुधवार, 17 सितंबर 2008

स्विमिंग पूल के किनारे टॉपलेस

रसांतर




स्विमिंग पूल के किनारे टॉपलेस
- राजकिशोर


और मामलों में कोलकाता की चाहे जितनी तारीफ की जाए, वहां की जलवायु के लिए मेरे पास प्रशंसा का कोई शब्द नहीं हैं। यह जलवायु ऐसी है कि आदमी का तेल निकाल लेती है। देह से पसीना बहना लाभदायक है, यह विज्ञान और स्वास्थ्य की किताबों में पढ़ाया जाता है। लाभदायक होगा, लेकिन गरमी के महीनों में सुबह होने के कुछ घंटों बाद ही जब शरीर से पसीने की धार बहने लगे, तो विज्ञान भूल जाता है। चेतना को आक्रांत किए रहता है वह चिपचिपापन जो शरीर के शेष बचे हुए सुखों को संकट में डालने में अद्भुत रूप से कामयाब हो। अगर आप पंखे के नीचे, मेरा मतलब है चलते हुए पंखे के नीचे, बैठे हों, तो गनीमत है। गरमी भले ही लगती रहे, पर पसीना तो सूख ही जाता है।


मैं अपने बचपन के इस पहलू के बारे में लिखना चाहता हूं जब मेरे परिवार में बिजली का पंखा नहीं हुआ करता था। हाथ पंखे से जितना काम चल सकता था, हम लोग काम चलाते थे। उन दिनों कोलकाता में बिजली नहीं जाती थी। बाद में हमने बिजली के पंखे के युग में प्रवेश किया, तो बिजली अकसर जाने लगी। दोनों ही युगों में गरमी और पसीने से निजात पाने के लिए मैं तथा अन्य लड़के और पुरुष कमर से ऊपर के कपड़े खोल देते थे और अर्धनग्न हो जाते थे। इससे गरमी तो क्या खाक कम होती, पसीने की फजीहत से छुट्टी मिल जाती थी। ऐसे मौकों पर घर की स्त्रियों पर बहुत दया आती थी। तापमान जितना भी चढ़ा हुआ हो, मेरी मां, भौजी, बहन, भतीजियां -- सभी को पूरे कपड़े पहने रहना पड़ता था। गरमी और पसीने की तकलीफ से छुटकारा पाने की तुलना में भारतीय संस्कृति के मूल्यों की रक्षा करना ज्यादा जरूरी था। यह एक मौका ऐसा था, जब मुझे स्त्री और पुरुष के बीच भेदभाव का एहसास अनायास ही होता था। भौजी को तो, जब वे घर से बाहर निकलती थीं या मायके से ससुराल आती थीं, तो एक चादर भी ओढ़नी पड़ती थी। खुदा का शुक्र है कि चादर का रिवाज अब खत्म हो चुका है। निश्चय ही, मुसलमान महिलाओं की यातना और ज्यादा थी और है, क्योंकि उनके लिए बुरका अनिवार्य था और है।


ये बाते मुझे यह समाचार पढ़ कर याद आ रही हैं कि डेनमार्क की स्त्रियों ने पिछले हफ्ते स्त्री-पुरुष समानता की दिशा में एक उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। वहां अब स्त्रियों को सार्वजनिक स्विमिंग पूलों में टॉपलेस हो कर तैरने तथा पूल के इर्द-गिर्द टॉपलेस अवस्था में टहलने की स्वतंत्रता मिल गई है। इस स्वतंत्रता के लिए वहां के टॉपलेस फ्रंट द्वारा लगभग एक साल से अभियान चलाया जा रहा था। फ्रंट के नेतृत्व का कहना था कि जब पुरुष टॉपलेस हो कर सार्वजनिक स्विमिंग पूलों में तैर सकते हैं, तैरने के पहले उसी अवस्था में पूल के किनारे टहल सकते हैं, तो स्त्रियों के लिए यह पाबंदी क्यों कि उन्हें अपने को ढक कर रखना होगा। स्विमिंग पूल यानी मानव निर्मित तालाब वह जगह है जहां आप प्रकृति के ज्यादा से ज्यादा नजदीक होना चाहते हैं। पुरुष एक हद तक ऐसा कर सकता है, तो स्त्रियां कम से कम उस हद तक ऐसा क्यों नहीं कर सकतीं? एक अलग किस्म के शरीर के साथ पैदा होने की सजा स्त्री को कब तक मिलती रहेगी? यह किसी के बस की बात नहीं है कि वह पुरुष हो कर पैदा हो या स्त्री हो कर। फिर स्त्रियों पर ऐसे प्रतिबंध क्यों लगाए जाएं जो पुरुषों के लिए आवश्यक नहीं माने जाते? कोपनहेगन संस्कृति तथा फुरसत समिति काफी विचार-विमर्श के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि टॉपलेस फ्रंट की यह मांग सर्वथा जायज है। यह निर्णय सुनने के बाद डेनमार्क की महिलाएं खुशी से नाचने लगीं। अब उन्हें स्विमिंग पूलों के आसपास पुलिस और सुरक्षा कर्मचारियों द्वारा बार-बार यह याद नहीं दिलाया जाएगा कि वे स्त्रियां हैं। डेनमार्क की सोशलिस्ट पीपुल्स पार्टी भी प्रसन्न है, क्योंकि वह इस मांग का समर्थन कर रही थी।


डेनमार्क के इस निर्णय से स्वीडन में टॉपलेस का आंदोलन जोर पकड़ेगा। वहां भी यह अभियान चल रहा है कि सार्वजनिक स्विमिंग पूलों में स्त्रियों के साथ वैसा ही सलूक किया जाए जैसा पुरुषों के साथ किया जाता है। कई स्विमिंग पूलों के मालिकों ने तो घोषणा कर दी है कि वे अपने यहां स्त्रियों को टॉपलेस होने की सुविधा प्रदान करेंगे। लेकिन कुछ आंदोलनकारी महिलाओं ने टॉपलेस हो कर स्विमिंग पूलों में तैरना शुरू कर दिया, तो सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें वापस बुला लिया। मजे की बात यह है कि यूरोप के बहुत-से हिस्सों में स्त्रियों को टॉपलेस अवस्था में समुद्र में स्नान करने या समुद्र किनारे धूप सेंकने का रिवाज है। वहां कोई इसका बुरा नहीं मानता। अब डेनमार्क में सार्वजनिक स्विमिंग पूलों को इस स्वतंत्रता और समानता के दायरे में ले आया गया है, तो स्वीडन में भी सफलता मिलना निश्चित है। धीरे-धीरे गोरी सभ्यता के दूसरे प्रगतिशील केंद्र भी पुरुष-स्त्री के बीच के भेदभाव को कम करने को कम करेंगे।


इला अरुण का गया हुआ यह फिल्मी गीत आज भी सुनाई दे जाता है -- चोली के पीछे क्या है। डेनमार्क की महिलाओं ने इसका जवाब बता दिया है। वहां के नाारीवादी आंदोलन की नेताओं का कहना है कि इस मांग के माध्यम से हम स्त्री के स्तनों का वियौनीकरण (डी-सेक्सुअलाइजेशन) करना चाहते हैं। सोशलिस्ट पीपुल्स पार्टी के नेता फ्रैंक हेडेगार्ड का कहना है, 'मेरी समझ में नहीं आता कि स्त्रियों के स्तनों के ले कर लोग इतने आक्रामक क्यों हो जाते हैं। यह फैसला इस आइडिया को रोकने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि स्त्रियों की देह केवल यौन वस्तु नहीं है।' एक नारीवादी महिला ने घोषणा की कि यह हम तय करेंगे कि हमारे स्तन कब यौनिकता का वहन करेंगे और कब नहीं। स्वीडन के एक ऐसे ही ग्रुप की प्रवक्ता मारिया हेग का बयान है कि औरतों को सेक्स सिंबल बनाए जाने से हम ऊब चुके हैं -- उन्हें यह इजाजत नहीं है कि उनकी बांहों या पैरों में बाल उगे हुए हों।


निश्चय ही मामला उतना सीधा नहीं है जितना डेनमार्क या स्वीडन की कुछ मुक्त या मुक्तिवादी स्त्रियां समझ रही हैं। इस अर्धनग्नता से इन देशों में कोई बड़ी जटिलता नहीं खड़ी होगी, क्योंकि वहां का समाज सेक्स से जितना अभिभूत है उतना ही मुक्त भी है। यह स्थिति कोई एक दिन, वर्ष, दशक या शताब्दी में नहीं पैदा हुई है। इसके पीछे कई सौ वर्षों का इतिहास है। दूसरे देशों में शरीर के प्रति ऐसी निर्विकारता आने में पता नहीं कितना समय लगेगा। लेकिन एक बात निश्चित है। आधुनिक सभ्यता आदिवासी संस्कृति के एक समृद्ध संस्करण की ओर बढ़ रही है। मेरा अपना अनुमान है कि इसके नतीजे सकारात्मक ही होने चाहिए। इस सिलसिले में गांधी जी की याद आती है। जब उनसे पूछा गया कि चर्चिल आपको अधनंगा फकीर कहते हैं, इस पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है। महात्मा का जवाब था -- 'काश, मैं इससे और ज्यादा नग्न हो सकता।'


(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर और साहस पूर्ण आलेख विशेष रुप से भारतीय परिस्थितियों में और हिन्दी में। आप को बधाई।

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  2. भारत में जहां पर भी स्त्रियों को टॉपलेस होने की आजादी है वहां पर भी विदेशी युवतियां ही बहुतायत में होती हैं। क्‍या भारत में ऐसा हो पाएगा - मुझे संदेह है।

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  4. हंस के सितम्बर २००८ अंक के ‘निरुत्तर स्तम्भ से : वाकया उन दिनों का है जब मेहरुन्निसा परवेज़ के पति बस्तर में पोस्टेड थे। एक आदिवासी युवती उनके बंगले पर आई और उसने उनसे नौकरी की याचना की। जैसी कि उसकी परम्परा थी, युवती का वक्ष अनावृत था। मेहरुन्निसा ने उसे देखा फिर सहम कर आसपास देखा कि कोई देख तो नहीं रहा है। उन्होंने उस आदिवासी युवती से कहा, ‘नौकरी तो उम्हें मिलेगी, लेकिन एक शर्त है।’‘क्या?’उन्होंने उंगली से इशारा किया।‘लेकिन कैसे’‘जैसे मैं हूं। अंदर जाकर ब्लाउज़ पहनकर आओ।’युवती अंदर तो गई लेकिन काफी दे तक बाहर नहीं निकली। मेहरुन्निसा ने टोह ली, ‘क्या हुआ ब्लाउज़ पहना नहीं?’‘पहना।’‘फिर बाहर क्यों नहीं आती?’‘हमें लाज लगता मेमसाब, भला कपडॆ पहनकर हम सबके सामने कैसे आ सकते हैं!’ प्रस्तुति: राजेन्द्र यादव

    __._,_.___

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  5. अब सोच रहा हूँ कि लिखू तो क्या लिखूं? इतना
    कुछ था इस ब्लॉग में....कि बस....यहाँ तक आते-आते मेरे शब्द ही चूक गए...बस इतना ही कहूंगा..कि अच्छा लगा...बहुत अच्छा लगा...सच्ची-मुच्ची...!!

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  6. ज़रूरी चीज़ है चेतना और स्वायत्ता ... उसके बिना ऐसी बातें पुरुषों के लिए ज्यादा मुफीद हैं.. खासकर राजेंद्र जी जैसे

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  7. aaap stree vimarsh ko 10 kadam aage le gaye .. shukriya aapki kitaab stree purush punrvichaar kal hi le aaye

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  8. npershad ji ne accha udahran diya hai,..

    hume us aadim yug se nikalna hi nahi chahiye tha .



    jab rahne ke liye parivesh ki baat ho to AC or luxry cars ke bina nahi rah sakte aisi mansikta vale log .inhen sab kuch chahiye well social class .

    or doosri taraf Topless rahne ki aazadi ....aadim manav ki tarah . tab jungal m nature ke sath taalmel bitha ke rahne m inki saat pusten yaad aa jati hai .

    jis aazadi ki baat karte ho us riste ko nature ke sath
    bhi nibhaoo ...nange to pashu bhi rahte hai .

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  10. क्षमा करे मै इस लेख से सहमत नहीं हूँ .प्रकृति ने नर और नारी को अलग अलग कार्यो एवं प्रयोजनों को ध्यान में रख कर अलग अलग बनाया है ."अति सर्वत्र वर्जयेत " आखिरकार किसी न किसी बिंदु पे जाकर तो सभी को मानना ही पड़ेगा की कुछ विशिस्ट परिपेक्ष्यो में हमें स्त्री पुरुष समानता को मर्यादित करना ही पड़ेगा .क्या इस तर्क की अति ना होगी जब स्त्रिया खुले में मूत्र विसर्जन की भी मांग करे या पुरुषो के साथ बलात्कार का भी अधिकार मांगे क्योकि पुरुष ऐसा करते है .असभ्यता के लिए क्षमा लेकिन क्या पुरुषो को भी मजबूरन रजोदर्शन करना अनिवार्य कर दिया जाएगा यदि ऐसे ही समानता के समर्थक शासन में आ जाये .पुरुष के कटी उर्ध्व [above belt ] एरिया आकर्षक तो होता है विपरितलिंगी के लिए किन्तु उतेजक या अन्दोलनीय [agressive ] नहीं होता जबकि स्त्रियों में ऐसा होता है जो की पूर्णतः प्राक्रतिक है [शास्त्रीय मात्र नहीं ].ऐसे में यदि आप चाहते है की पुरुष इस प्रकार के वातावरण मै जहा परस्त्रिया उर्ध्व्नाग्न [topless] है अपने शरीर के प्राकृतिक तीव्र आवेगों को नियंत्रित करे एवं यदि ना कर पाए तो मात्र दृष्टिपात की गलती पर भी अपराध का आरोप ग्रहण करे और किसी ऐसी ही संस्था द्वारा निर्मित क़ानून के अंतर्गत दंडनीय भी हो .खैर कोई मेरे बारे मै मुझ से ज्यादा जानकारी आरोपित करे मै ये स्पस्ट कर दू की मै स्त्री समानता का विरोधी हूँ पर पुरुष स्त्री संतुलन एवं समन्वयन का प्रबल समर्थक हूँ.

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  11. क्षमा करे मै इस लेख से सहमत नहीं हूँ .प्रकृति ने नर और नारी को अलग अलग कार्यो एवं प्रयोजनों को ध्यान में रख कर अलग अलग बनाया है ."अति सर्वत्र वर्जयेत " आखिरकार किसी न किसी बिंदु पे जाकर तो सभी को मानना ही पड़ेगा की कुछ विशिस्ट परिपेक्ष्यो में हमें स्त्री पुरुष समानता को मर्यादित करना ही पड़ेगा .क्या इस तर्क की अति ना होगी जब स्त्रिया खुले में मूत्र विसर्जन की भी मांग करे या पुरुषो के साथ बलात्कार का भी अधिकार मांगे क्योकि पुरुष ऐसा करते है .असभ्यता के लिए क्षमा लेकिन क्या पुरुषो को भी मजबूरन रजोदर्शन करना अनिवार्य कर दिया जाएगा यदि ऐसे ही समानता के समर्थक शासन में आ जाये .पुरुष के कटी उर्ध्व [above belt ] एरिया आकर्षक तो होता है विपरितलिंगी के लिए किन्तु उतेजक या अन्दोलनीय [agressive ] नहीं होता जबकि स्त्रियों में ऐसा होता है जो की पूर्णतः प्राक्रतिक है [शास्त्रीय मात्र नहीं ].ऐसे में यदि आप चाहते है की पुरुष इस प्रकार के वातावरण मै जहा परस्त्रिया उर्ध्व्नाग्न [topless] है अपने शरीर के प्राकृतिक तीव्र आवेगों को नियंत्रित करे एवं यदि ना कर पाए तो मात्र दृष्टिपात की गलती पर भी अपराध का आरोप ग्रहण करे और किसी ऐसी ही संस्था द्वारा निर्मित क़ानून के अंतर्गत दंडनीय भी हो .खैर कोई मेरे बारे मै मुझ से ज्यादा जानकारी आरोपित करे मै ये स्पस्ट कर दू की मै स्त्री समानता का विरोधी हूँ पर पुरुष स्त्री संतुलन एवं समन्वयन का प्रबल समर्थक हूँ.

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