सोमवार, 15 सितंबर 2008

( रसांतर ) बाढ़ में औरत - राजकिशोर

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(रसांतर)


पर मीडिया की दुनिया में क्यों औरतों का राज है। माफ कीजिएगा, सभी औरतों का नहीं, सुंदर और स्वस्थ औरतों का। सुख में भी औरतें और दुख में भी औरतें। बहुत दिनों से मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि वर्तमान व्यासायिक सभ्यता औरतों की पीठ पर ही खड़ी है। स्त्रियां मानती हैं कि उनका समय आ गया है। वास्तव में, यह उनके शोषण के बहुमुखी और बहुआयामी विस्तार का समय है। स्त्रियों का सच्चा समय तब आएगा जब उनके गुणों की पूछ होगी।
--- राजकिशोर



बाढ़ में औरत
- राजकिशोर


उस दिन सबेरे तो मैं रो ही पड़ा था। बस आंसू नहीं निकले, बाकी सब हो गया। एक हिन्दी अखबार में बिहार की बाढ़ की तसवीर छपी थी। कमर तक पानी में डूबी हुई एक औरत बिलख रही थी। जब सब कुछ हाथ से छूट जाए और सामने कोई भविष्य दिखाई न पड़ता हो, तब ऐसी रुलाई फूटती है। दो-तीन बार इस रुलाई से मेरा भी पाला पड़ चुका है। उस समय चारों ओर शून्य ही शून्य और आप निपट अकेले नजर आते हैं। जीने की इच्छा खत्म नहीं होती, पर जीने का कारण या आधार दिखाई नहीं पड़ता। बाढ़ से घिरी यह औरत शायद इसी प्रकार के संकट से गुजर रही थी। उसका घर-बार सब ढह या छूट गया होगा। क्या पता परिजन भी लापता हों। अखबार ने सिर्फ उसकी तसवीर छापी थी, यह नहीं बताया था कि उसके साथ घटित क्या हुआ था। कैमरे से किसी दृश्य का फोटो खींच लेना बहुत आसान है। फोकस किया और क्लिक, काम पूरा। लेकिन तसवीर का इतिहास क्या है, यह जानने के लिए बहुत यत्न करना पड़ता है और समय निकालना पड़ता है। दौड़ते हुए की जानेवाली वर्तमान पत्रकारिता में इसके लिए जगह कहां। वह यह मान कर चलती है कि सभी बाढ़ के प्लावन में फंसे हैं, तो सभी का दुख एक ही होगा। वास्तव में ऐसा है नहीं। अग्निकांड, सूखा, बाढ़ प्रत्येक आदमी और परिवार को अलग-अलग तरह से प्रभावित करते हैं। बाढ़ उतर जाने के बाद, काश, कोई अखबार कम से कम सौ ऐसी कहानियां पूरे ब्यौरे के साथ छापता जो इस खंड प्रलय से पैदा हुई हैं। जब केंद्रीय सरकार के बजट को, जिसका अर्थ समझना एक बहुत ही तकनीकी मामला है, सात-आठ पृष्ठों में छापा जा सकता है, तो बाढ़ से हुई बरबाद हुई जिंदगियों के बारे में विस्तार से बताना उससे ज्यादा महत्वपूर्ण और सार्थक काम हैं। दुख को आंकड़े में बदल देना आधुनिक चेतना के अभिशापों में एक है। इससे दुख को समझने में बाधा की बहुत ऊंची दीवार खड़ी हो जाती है। ये दीवारें आर्थिक और सामाजिक नियोजन की आत्मा को कुचलती रहती हैं।


जब मैंने बाढ़ में फंसी हुई उस बिलखती औरत को देखा और कई मिनटों तक देखता रहा, तो मेरा ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि औरत के रूप में वह कैसी है। वह एक सामान्य देहाती अर्ध-स्वस्थ औरत थी, जिसके परिवार में पैसे या पूंजी का अभाव होगा और जो किसी नीची माने जानेवाली जाति की होगी -- यह विचार मन में तब आया जब मैंने अंग्रेजी के एक लोकप्रिय साप्ताहिक के आवरण पर बाढ़ की शिकार एक और औरत की तसवीर देखी। यह स्वस्थ और सुंदर थी। उसने अपनी नई हवाई चप्पलें दाहिने हाथ में थामी हुई थीं। उसकी साड़ी सस्तीवाली नहीं थी। रंग गोरा था। बाल संवरे हुए थे। उससे डेढ़-दो गज की दूरी पर उसकी सुंदर-सी तंदुरुस्त बिटिया थी, जो अच्छे कपड़े पहने हुए थी। मां और बेटी, दोनों में से किसी के भी चेहरे पर बाढ़ की यातना के हस्ताक्षर नहीं दिखाई पड़ रहे थे। मां के चेहरे पर हलकी-सी उदासी और चिंता जरूर थी, पर ऐसी नहीं जिससे उसका भविष्य धूमिल दिखाई पड़ता हो।


बाढ़, सूखा और भूकंप सभी को एक जैसा प्रभावित नहीं करते। यह वह जाल है, जिसमें से बड़ी मछलियां आसानी से निकल आती हैं और जिसमें फंस कर छोटी मछलियां जान गंवा देती हैं। अखबारों की खबरों से ही पता चला कि जिनके कई मंजिला पक्के मकान हैं, वे बाढ़ से सबसे कम प्रभावित हुए हैं। कच्चे घर पानी में डूब गए और अब तक तो घुल भी गए होंगे। इस तरह हर विपदा का एक वर्ग चरित्र होता है। पत्र-पत्रिकाओं का एक प्रमुख काम इस वर्ग चरित्र को समझना और समझाना है। लेकिन दुर्भाग्य से उनका भी अपना एक वर्ग चरित्र बन गया है। इससे उनका संपादकीय विवेक भी निर्धारित होता है। जिस अखबार ने बिलखती हुई औरत की तसवीर छापी, वह यह दिखाना चाह रहा था कि बाढ़ ने उत्तर विहार के सामान्य लोगों को किस प्रकार प्रभावित किया है। लेकिन अंग्रेजी के जिस रंगीन साप्ताहिक की बात की जा रही है, उसे अपने आवरण पृष्ठ पर ग्लैमर चाहिए। इसलिए बाढ़ में फंसी उसकी औरत भी जरा ऊंचे दरजे की हैं। सुंदर स्त्रियां सुंदर आवरण पृष्ठ बनाती हैं।


अब हम समझ सकते हैं कि जीवन व्यवस्था में तो औरतों की हालत पतली है, पर मीडिया की दुनिया में क्यों औरतों का राज है। माफ कीजिएगा, सभी औरतों का नहीं, सुंदर और स्वस्थ औरतों का। सुख में भी औरतें और दुख में भी औरतें। बहुत दिनों से मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि वर्तमान व्यासायिक सभ्यता औरतों की पीठ पर ही खड़ी है। स्त्रियां मानती हैं कि उनका समय आ गया है। वास्तव में, यह उनके शोषण के बहुमुखी और बहुआयामी विस्तार का समय है। स्त्रियों का सच्चा समय तब आएगा जब उनके गुणों की पूछ होगी। अभी पूछ उनकी शारीरिक बनावट और चेहरे की सुंदरता का है। टीवी की दुनिया के मेरे एक मित्र ने बताया कि उनके चैनल में एंकरों की भरती के लिए सुंदरियों की खोज चल रही है। साधारण नहीं, असाधारण सुंदरियों की। यह कुछ ऐसी घटना है जैसे सफल फिल्म निर्देशक और निर्माता जिस शहर में भी जाते हैं, उनकी नजरें ऐसी लड़कियों की खोज में लगी रहती हैं जिन्हें वे अपनी अगली फिल्म में नायिका बना कर उतार सकें। वहीदा रहमान का आविष्कार इसी तरह किया गया था। टेलीविजन एक तरह से फिल्म माध्यम का ही विस्तार है। आज की रंगीन पत्रिकाओं को इसी बाजार में प्रतिद्वंद्विता करनी है। इसलिए आदमी और औरत का अर्थ उनके लिए वह नहीं है जो हमारे-आपके लिए हैं। सुनामी से प्रभावित इलाकों में भी उन्हें मरी हुई सुंदर आकृतियों की तलाश रहती है। जिस साप्ताहिक की यहां चर्चा हो रही है, उसने भीतर के पृष्ठों पर तबाही और दैन्य की तसवीरें छापी हैं। इसके बिना यथार्थवादी होने का दम नहीं भरा जा सकता। लेकिन आवरण पृष्ठ पर वह तसवीर कैसे छापी जा सकती है, जिसमें दीन-हीन स्त्रियां और बच्चे पत्तल की थाली में थोड़ा-सा भात ले कर बैठे हैं? पत्रकारिता का काम बताने से ज्यादा लुभाना हो गया है। इसीलिए किसी हसीना ने अगर एक बार में दस खून किए हैं, तो आवरण पर उन मरे हुए आदमियों और औरतों की लाशों की नहीं, उनके बिलख रहे परिजनों की भी नहीं, बल्कि उस हसीना की ही तसवीर छापी जाएगी। हमारे संविधान में कहा गया है कि राज्य के सामने हर आदमी की हैसियत एक जैसी होगी। यह नहीं कहा गया है कि समाज में हर आदमी की हैसियत बराबर होगी। या, जन संचार माध्यमों का लोकतंत्रीकरण किया जाएगा ताकि वे मानव छवियों का व्यापार न कर सकें।


-(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज,नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)


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