एकालाप
स्वेच्छाचार
हाँ, मैं स्वेच्छाचारी हूँ.
उन्होंने मुझे हल में जोतना चाहा
मैंने जुआ गिरा दिया,
उन्होंने मुझपर सवारी गाँठनी चाही
मैंने हौदा ही उलट दिया,
उन्होंने मेरा मस्तक रौंदना चाहा
मैंने उन्हें कुंडली लपेटकर पटक दिया,
उन्होंने मुझे जंजीरों में बाँधना चाहा
मैं पग घुँघरू बाँध सड़क पर आ गई!
अब वे मुझसे घृणा करते हैं
माया महाठगनी कहते हैं
मेरी छाया से भी दूर रहते हैं.
बेचारे परछाई से ही अंधे हो गए
हिरण्मय आलोक कैसे झेल पाते!
हाँ, मैं हूँ स्वेच्छाचारी!
मैंने अपने गिरिधर को चाहा
उसी का वरण किया
गली गली घोषणा की -
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई!
मेरे पति की सेज सूली के ऊपर है,री!
मुझे बहुत भाती है,
मैंने खुद जो चुनी है!!
> ऋषभदेव शर्मा
आभार इस उम्दा रचना को पढ़वाने का.
जवाब देंहटाएंएक महत्वपूर्ण कविता के लिए शर्मा जी को बधाई!
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंइतनी अच्छी कविता पढ़वाने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंwow achi rachan he
जवाब देंहटाएंaap ko badhai
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
बहुत अच्छी कविता है. एकदम कड़वा सच.
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