रविवार, 16 सितंबर 2012

देह के भीतर छिपे देह के आख्यान


अनामिका पवन करण की ब्रेस्ट कैंसर विषयक कविताओं के बहाने हिन्दी कविताओं में पोर्नोग्राफ़ी व यौनिकता की अभिव्यक्तियों पर केन्द्रित शालिनी माथुर के लेख ( व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि ) से प्रारम्भ हुई बहस के क्रम में यहाँ 6 सितंबर को प्रभु जोशी का एक बेहद महत्वपूर्ण लेख (कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं ) प्रकाशित किया था व तत्पश्चात राहुल ब्रजमोहन का "जहाँ शुरू नहीं होती कविता"।  
उसी बहस के क्रम में आज पढ़ें -


देह के भीतर छिपे देह के आख्यान
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अनिल पुष्कर कवीन्द्र 
प्रधान संपादक 
अरगला


दुनिया के किसी भी रचनाकार के पास रचनाकर्म ही एकमात्र ऐसा जरिया है जिससे वो दुनियाभर में हो रही बर्बरता और पीड़ा की अनुभूति को अभिव्यक्त कर सकता है। इस अभिव्यक्ति के लिए उसके पास कुछ विचार पहले-पहल मस्तिष्क में आते हैं फिर कुछ मुद्दों के साथ वह उस विचार को कुछ दूर ले जाता है, जहाँ उसके भीतर उठ रही कल्पनाएँ नई दृष्टि विकसित करती हैं और फिर वह इन सबको एक खास तरह की संवेदना के साथ अंतरंग होकर मथता है।  उसे पुष्ट करने के लिए किसी एक विचारधारा, दर्शन, को रचना का आधार बनाता है। एक सुलझा हुआ किरदार चुनता है। एक ऐसा किरदार जो उसकी मनोदशा को समझता हो, उससे सहमत हो, और उसके मनोजगत में हो रही हलचलों को शिद्दत से महसूस करता हो, जो उसके भीतर पूरी तरह से उतर चुका हो।  और वह सारी कल्पनाएँ जिसका जुड़ाव अब रचनाकार से है उसे कह पाने में समर्थ हो। यहाँ तक कि रचनाकार के मन के संशय और वहम को भी किरदार अपने भीतर ढालने की कारीगरी में माहिर हो। रचनाकार जिस किरदार को चुनता है उससे साफ़ जाहिर हो जाता है कि वह किस विचार के तहत जीवन जीने की लालसा से भरा है, किस तरह की गतिविधियों में शरीक होकर रचना-उत्सव मनाना चाहता है याकि न्यायिक परिणति में ढालना चाहता है।  उसकी विचारधारा और दृष्टि का दर्शन बताता है कि वह कौन-सी दुनिया रचने के लिए फिक्रमंद है। किस यथार्थ में वो सुकून से जीने की ख्वाईश रखता है, एक दुनिया जो नजर के सामने है जिससे वह या तो तल्ख़ तेवरों के साथ पेश आता है या रागात्मक याकि लचीला व्यवहार करता है। बनिस्बत उसके, किरदार की बानगी यह बताती है कि वह किस दुनिया का पक्षधर है ! 


दो दुनियाएँ उसके आमने-सामने हमेशा ही मौजूद रहती हैं। एक, जिसमें वह जीता है। दूसरी, जिसमें वह किसी खास मकसद से महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की बुनियाद रखता है। जिसके लिए वह एक गढ़े हुए मनचाहे किरदार के साथ जीना चाहता है। रचना जब अपने अन्तिम शिखर पर पहुँच चुकी होती है तब उसका फैसला पाठक या आलोचक को करना होता है कि रचना में जिया हुआ जीवन-जगत भोगे हुए यथार्थ से किस माने में कमतर या बेहतर है। किरदार के भीतर रहकर वो उसकी विकृतियों को अपनाने में दिलचस्पी लेता है। याकि किरदार के भीतर जीते हुए यथार्थ का चिंतन करता है जिसमें रचना के भीतर का जीवन जगत का फलसफा बेहद विस्तृत है। वहाँ जो कुछ भी ले जाकर तरतीबवार संजोकर रखा गया है वो किन मायनों में दो दुनियाओं के बीच एक-दूसरे से भिन्न है?

इन्हीं सवालों को हर रचनाकार जब-तब अपने-अपने रचना संसार में निहित निष्कर्षों तक  ले जाकर सहमति-असहमति की गुंजाइश पैदा करता है। ऐसे ही तमाम सवालों को लेकर अनामिका की रचना और पवन करण की रचना का पाठ एक बार फिर कुछ नए सन्दर्भों और नई दृष्टि के साथ प्रस्तुत है। तमाम बार ऐसा हुआ है कि किसी एक रचना का पुनर्पाठ उसके भीतर दबी साँसों के स्पंदन से पुनः जीवन की बची हुई स्मृतियों से हमारी चेतना को भर देता है और कई बार हमें आहत कर देता है।  हमारे इस पुनर्पाठ से आपकी संवेदना अगर कहीं आहत होगी तो इसके लिए क्षमा....देह के भीतर छिपे देह के आख्यान के साथ पाठ को वापस नए नजरिये से तर्क और विचार के बीच संगत करते हुए अनामिका की कविता “ब्रेस्ट कैंसर” पर एक जरूरी बहस.....


मनुष्य कुंठाग्रस्त मानसिकताओं का एक बड़ा पुंज है. जब-जब कुंठाएँ उफनाती हैं रोग उफनाकर निकलने को उतावले होकर बाहर आने को आतुर होते हैं. ऐसे में तमाम तरह की व्याधियाँ उत्पन्न हो ही जाती हैं याकि उत्पन्न होने का खतरा बढ़ जाता है. ये व्याधियाँ अपने भीतर उद्दाम क्षमता और निर्बाध-आवेग लिए आती हैं. तमाम मनुष्य जो उसके संपर्क में आते चले जाते हैं वे उन्हें किसी न किसी रूप में प्रभावित कर ही लेती है. जो उससे प्रभाव में नहीं आ पाते वे उन्हें लगातार अतिक्रमण के जरिये अपने अस्तित्त्व पर हावी नहीं होने देतीं. इस तरह उसके अस्तित्व और अन्य के प्रभाव के सम्पुट के बीच मनुष्य के रोगी न होने की तमाम स्मृतियाँ उसके अपने मस्तिष्क के भीतर एकत्रित की गयी तमाम तरह की सकारात्मक और नकारात्मक विशेषताओं से भरी होती हैं और मनुष्य उन्हें नजरंदाज नहीं कर पाता. इस स्थति में वो आत्मतुष्टि के लिए तर्क और विचार से उठाने और दबाने के लिए नए-नए तरीके ढूँढ़ ही लेता है. इन स्मृतियों में आदमी के अतीत और भविष्य का अंश छिपा होता है. इन स्मृतियों में वर्तमान से संवाद और उसमें मौजूद संरचनाओं, समय और अंतराल के बीच का एक लंबा उत्सर्जन और अशुद्धियों का स्खलन क्रमशः जारी रहता है. हाँ ये बात और है, कई बार एक समुदाय उन अशुद्धियों को अपने सामाजिक सरोकारों से जोड़कर उन्हें पुनर्जीवित करने का कार्य भी सम्पादित करता है. बहस और संवाद के बीच यहीं से स्मृतियों के सकारात्मक और निष्क्रिय अंतर्भूत विषयों का कई बार टकराव होता है.


तात्पर्य है कविता स्मृतियों के ही एक दृश्य-बिम्ब का साक्षात अवलोकन है, जिसमें समय अंतराल और वर्तमान तथा भविष्य के गर्भ में छिपे पहलुओं पर बीजांकुर होता है. यदि कोई विषय कविता में सहज ही या सायास आया है उस पर स्मृतियाँ लगातार हावी रहकर अपनी जरूरी भूमिका अदा करती हैं. कविता में कई बार स्मृतियों की ऐतिहासिकता और प्रासंगिकता के चलते उसके अन्य तमाम पहलू दबकर रह जाते हैं. जिन्हें कविता अपने अंदर तब तक जीवित रखती है जब तक उसपर बातचीत का सही समय नहीं आता या भविष्य में सुरक्षित नहीं रहता. हमें अनामिका और पवन करण की कविता को इसी बुनियाद पर रखकर, कसौटी में कसकर देखने की जरूरत है. जब अनामिका कहती हैं....

दुनिया की सारी स्मृतियों को
दूध पिलाया मैंने,
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में
जाले लगे!


दुनिया की सारी स्मृतियों को/ दूध पिलाया मैंने, यह पंक्तियाँ इस ओर साफ़ संकेत करती हैं कि वो आदिम सभ्यता में रची बसी स्मृतियों का स्तुति-गान कर रही हैं. स्मृतियों में छिपे इतिहास की गूँज यहाँ मौजूद है. और इस गान में उनका समर्पण भाव उन्हें चेतना के उस स्तर पर ले जाकर खड़ा कर देता है जहाँ अतीत का पुनर्जीवन कवि के अंतर्जगत में आरम्भ हो चुका है...किन्तु अवशेष स्मृतियों के साथ सबसे बड़ी बाधा है- निश्चित समय का निरंतर बने रहकर आभास होना. इसीलिए वे आगे कहती हैं “तब जाकर” यानी जब वह कार्य पूरी तरह संपादित होकर अपने प्रस्थान बिंदु तक पहुँच चुका है, स्मृतियों का पुनरुत्थान तब दिखाई देता है। वे आगे कहती हैं “मेरे इन उन्नत पहाड़ों की/ गहरी गुफाओं में” यानी स्मृतियों का पुनर्जीवन और उसके अंग अब वर्तमान के साथ संपर्क बना चुके है. स्मृतियों के भीतर ही वर्तमान तक आने के क्रम में तमाम तरह के विकार और दोषपूर्ण गत्यात्मकताएँ छिपी होती हैं. ऐसे में यदि कविता अपने इतिहास-संसार से ऐसा कुछ हासिल नहीं कर सकी है जोकि वर्तमान को अपने तर्क और विचार से सहमत कर सके तो द्वंद्वात्मकता और अस्थिरता के बीच विषय के साथ एकचित्त होकर भी ‘कविता का अस्तित्व’ अपने पूर्ण संकट में आना स्वाभाविक है. “जाले लगे” इसी तरफ एक जटिल होती हुई प्रक्रिया जान पड़ती है.


फिर जाले के साथ मौत की चुहिया का आना अत्यंत अस्वाभाविक-सा जान पड़ता है; लगता है जैसे एक अस्पष्ट व जबरन अर्थगर्भित थोपा हुआ बिंब एक खास प्रयोजन तक पहुँचने के लिए लादकर लाया जा रहा है. जाले के साथ मकड़ी यदि आती तो बात समझ में आ सकती थी.

'कहते हैं महावैद्य
खा रहे हैं मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है


महावैद्य स्मृतियों में आख्यायित ज्ञानसंपदा से संचालित एक सक्षम और निष्कर्ष तक जाने का बोध देने वाला शब्द-चरित्र है. यह सशक्त चरित्र इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि वह मौत को सार्वभौम जगत के जटिल प्रश्न ‘कैंसर’ को बचकाने तरीके से हल करते हुए उसे ‘चुहिया’ के रूप में ले आया है. यदि यहाँ मकड़ी आयी होती तो मौत का उद्घाटन करने में ज्यादा बेहतर स्थिति होती. मकडी तो चूहे से हर मामले में सशक्त और खतरनाक चरित्र हो सकता था. मगर मौत का अगंभीर वर्णन कविता में कहीं भी दहशत और तनाव नहीं पैदा करता. इसीलिए यह स्मृतियों का महावैद्य इतिहास से कटा हुआ और काल्पनिक तथा अवैज्ञानिक जान पड़ता है. कारण, मकड़ी एक मांसाहारी जंतु है और चूहा उससे कम घातक और हिंसक है. कैंसर रूपी व्याधि के जाले उन्नत पहाड़ों को यानि छातियों को खा रहे हैं. चूहे जाले नहीं बुन सकते. जबकि मकड़ी जाले बुनकर मांसाहार करने के लिए ही जानी जाती है. ये जाले जहरीले हैं. इनके एक-एक रेशे में जहर भरा है, जिससे उन्नत पहाड़ भीतर ही भीतर खोखले हो रहे हैं. ये जाले विकृतियों के जाले हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध व्याधि ‘कैंसर’ से है. यह कविता का असम्वेदनशील और सबसे अधिक कमजोर पक्ष रहा है जहाँ से कविता अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थान कर रही है. अब जबकि बिम्ब और उसका प्रतिबिम्बन ही अवैज्ञानिक हो तब कविता से यह उम्मीद करना कि वह सही-सही अपने उद्देश्य को प्राप्त करे सिद्धांत और व्यवहार दोनों ही स्तरों पर बेहद कठिन और श्रमसाध्य कार्य है. जिसकी परिणति यह हुई कि कविता आगे बढ़कर निहायत गैरजिम्मेदाराना तरीके से एक पक्ष लेकर आती है..

कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई!


इस तरह के कथन से मालूम हो जाता है कि कविता एक गैरजरूरी संवाद और मजाकिया लहजे के साथ लगातार कल्पना-लोक में विचरण करने की मंशा से भरी है. जिसका हकीकत से कोई सम्बन्ध नजर नहीं आता और सबसे अधिक भयभीत करने वाली व्याधि ‘कैंसर’ से कोई जद्दोजहद भरा पीड़ाजनक सम्बन्ध स्पष्ट दिखाई नहीं देता है. बेहद अजीब है कि कोई कवि घातक बीमारी को लेकर इतना असंवेदनशील हो सकता है और उस पर तुर्रा यह कि

निकलेगी चुहिया तो देखूँगी मैं भी,
सर्जरी की प्लेट में रखे
खुदे-फुदे नन्हे पहाड़ों से
हँसकर कहूँगी-हलो,
कहो, कैसे हो? कैसी रही?


यह कहते-कहते कविता अतिवादी और विक्षिप्त होती चली गयी. जहाँ यह मानना होगा कि कवि का कल्पना-लोक इतना संकुचित और दृष्टि इतनी दोषपूर्ण हो सकती है ! जिस घातक बीमारी के जाले हटाने और चुहिया को मारकर निकालने की गारंटी चिकित्सक भी नहीं ले सकता, उसे कवि अपनी काव्यात्मक शल्य-क्रिया द्वारा कुशल औजारों के प्रयोग से बड़ी सहजता और शैशव-जिज्ञासा के निमित्त रहकर एक सुखद निश्चित परिणाम को प्राप्त भी कर लेता है. वाह रे कवि मन.. धन्य हो ऐसी कल्पना..


बात यहीं खत्म हो जाती तो भी ठीक था. अब जबकि कवि ने सर्जरी कर दी, उसे सफलता मिल गयी, तब वह गम्भीर हो जाने की बजाय और अधिक मनोरंजक व खिलंदड़ तरीके से पेश आता है.. भला ऐसी कौन -सी स्त्री होगी, जो अपने सौंदर्य के प्रतिमान और स्मृतियों तक को दूध पिलाकर पोसने वाले सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग को खोकर आह्लाद और आनंद की चरम अवस्था में जियेगी और सुखद अनुभूतियों की गल्प-कथा से बतरस करेगी? जिन उन्नत पहाड़ों से इतिहास और स्मृतियाँ निर्मित हुईं, जिन पहाड़ों ने भविष्य की सूखी परियोजनाओं में दरिया बहा दिए, जिन पहाड़ों के रस और सौंदर्य से स्वप्न, कल्पना और यथार्थ का रेशा-रेशा सींचा गया, जिन पहाड़ों के गर्भ-गृह में आदि से अनंत तक बसे पुरखे और पुश्तें लाखों योनियों के चक्कर काटकर बारम्बार दुनिया में विचरते हैं, जिन पहाड़ों पर टिकी हैं कायनात की सबसे जीवंत साँसें, जिन पहाड़ों में वे औषधियाँ छिपी हैं जो अबोध चेतना की शिराओं को बोधगम्य बनाती हैं और कमजोर को ताकतवर; आखिर उन पहाड़ों को काटकर भला कोई कैसे सर्जरी की प्लेट में सजाये उनकी अवहेलना और उपेक्षा कर सकता है? यह निर्मम और क्रूरतम उद्घाटन है जैसे किसी मानसिक रोगी ने अपने विकार और व्याधि के वशीभूत इतना घिनौना कृत्य और नृसंश घटना को अंजाम दिया हो. हमें यह कहने में हरगिज़ कोई गुरेज नहीं कि यह हिन्दी कविता-जगत में अब तक की सबसे क्रूरतम और अतिसंवेदंहीन प्रस्तुति है. जिसमें मानवीय होने की गरिमा व पक्षधरता कतई कहीं भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती.


इस प्रकरण के बाद कविता अपना मानसिक संतुलन कहें कि पूरी तरह खो देती है. वह आपे से बाहर जाकर एक विकृत दुनिया से वाबस्ता होती है, जहाँ उसे किसी भी तरह के विरोध की कोई संभावना कहीं दिखाई नहीं देती.

अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी!
दस बरस की उम्र से
तुम मेरे पीछे पड़े थे,
अंग-संग मेरे लगे ऐसे,
दूभर हुआ सड़क पर चलना!
बुल बुले, अच्छा हुआ, फूटे!
कर दिया मैंने तुम्हें अपने सिस्टम के बाहर।
मेरे ब्लाउज में छिपे, मेरी तकलीफों के हीरे, हलो !
कहो, कैसे हो?'


इस कथन में रोग से निजात पाने की भावना जो किसी बीमारी से जूझ रही स्त्री में होती है और निजात पाने के बाद समूची देह का निखार जिसे वह प्राप्त पुनः करती है वह पक्ष जैसे एकाएक खारिज कर कर दिया गया है. अनामिका ने जिन्हें कविता के आरम्भ में उन्नत पहाड़ की संज्ञा से पहचान दी उसे ही अब बुलबुले, अच्छा हुआ फूटे कहकर संबोधित कर रही हैं और इससे भी आगे जाकर मेरी तकलीफों के हीरे कहने से भी नहीं चूकतीं. इन विशेषणों से साफ़ जाहिर है कि कविता में संवाद करने वाले चरित्र का मानसिक संतुलन पूरी तरह बिगड़ चुका है. यहाँ किसी अंग के भंग होने पर पीड़ा की बजाय अतिवादी सोच की परिणति हुई है, जोकि वस्तुतः वास्तविक दुनिया में कतई सम्भव नहीं. इस स्थिति में संवाद के स्तर पर जाकर कुछ भी कहना एक साइकेडेलिक दुनिया की निर्मिति मालूम होता है. एक ऐसा संसार जहाँ व्यक्ति की चेतना में बसी छवियाँ आकार लेती हुई कुछ नई सृष्टि करती हैं. एक ऐसी सृष्टि जो वास्तविक संसार से पृथक है जिसमें मनुष्य अब तक जिया उससे बिल्कुल भिन्न, अलग, इतर। यहाँ मन में उठने वाले आवेग और संवेगों से लगातार नयी-नयी कल्पनाएँ अपना अस्तित्व ग्रहण करती हैं और मनोकूल परिस्थितियों में जीती हुई आनंद में सराबोर बार -बार उत्प्लावित होती हैं. वहाँ संवाद और भी गहराते हैं, जैसे अनामिका की ये पंक्तियाँ कहो, कैसे हो? कैसी रही?/अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी! /दस बरस की उम्र से तुम मेरे पीछे पड़े थे,/अंग-संग मेरे लगे ऐसे,/दूभर हुआ सड़क पर चलना!/बुल बुले, अच्छा हुआ, फूटे!/कर दिया मैंने तुम्हें अपने सिस्टम के बाहर।


कविता में कतई अहसास तक नहीं होता कि कोई जहरीली चुभन थी. किसी असहनीय पीड़ा से मुक्ति मिली हो. यहाँ ऐसा प्रतीत होता है मानो एक विकार भीतर छिपा था. जिसे बाहर निकालकर उसके बेघर होने की कामना से उत्सव मनाया जा रहा है. आखिर ये तकलीफों के हीरे हैं क्या? यही अब तक स्त्री के उपहार या फिर जगत-निर्मिति के आधार या फिर इतिहास में सबसे मौजूं और विश्वासपात्र थे, जो अब घृणा के दायरे में लाकर रख दिए गए हैं. यह तकलीफों का कैसा प्रचलन है जिसमें मनुष्यता की सारी सीमाएँ लाँघकर कविता अतार्किक और बड़बोली होती चली गयी है. जब स्मृतियों को दूध पिलाने की कल्पना में कविता लेकर जाती है तब एक भव्य प्रतिमा का अहसास होता है, एक दिव्यता की अनुभूति होती है, एक विशालता में जीवन का सबसे सुंदर क्षण कुलांचें लेता दिखाई देता है, एक स्त्री द्वारा मनुष्य के भीतर उन्मुक्त और तरंगित जीवन-रस का आस्वादन होता है. वह लम्हा मानो तमाम खुशगवार पलों पर भारी है; मगर जैसे ही मौत की चुहिया का जिक्र आता है मानो सारी कल्पनाओं के ढाँचे को कुतरने और खोखला करने का भी व्याप्त करने का प्रयास किया जाता है. किन्तु एक स्वप्न में ही संभव है चूहे का इतने बड़े ढाँचे को बड़ी सहजता से भीतर घुसकर उसे कुतरना. मगर फिर संदेह होता है कि यदि ये चुहिया ही मौत का रूप धारण कर आई है तो फिर ये जाले किसने लगाए हैं? वो मकड़ी कौन थी जो पूरी कविता में कहीं दिखाई नहीं देती मगर जाले दिखाई देते हैं. ऐसा लगता है मानो कविता में फैंटसी-जगत के किवाड़ खटखटाते हुए यह ख्याल कि अब कविता अपने समूचे वजूद को लेकर उसमें प्रवेश कर गयी है, बेहद भटकाव पैदा करने वाली तमाम स्थितियाँ लेकर आता है. कविता बेचैन करने की बजाय संरचनागत त्रुटियों से भरी दिखाई देने लगती है. वह जिस प्रयोजन को पाना चाहती है वहाँ तमाम अड़चनें साफ़ झलकती हैं.


जैसे कि स्मगलर के जाल में ही बुढ़ा गई लड़की
करती है कार्यभार पूरा अंतिम वाला-
झट अपने ब्लाउज से बाहर किए
और मेज पर रख दिए अपनी
तकलीफ के हीरे!


ये तकलीफ के हीरे यहाँ स्तन हैं या फिर कैंसर की गाँठें. कुछ भी स्पष्ट नहीं है. अगर ये कैंसर की गाँठें हैं तो इन्हें वह स्तनों से बाहर नहीं निकाल पाई बल्कि उसके साथ ही स्तन देह से काटकर बाहर निकाल दिए गए. यह अंग का काटकर देह से अलग किये जाने का जो क्रम है वह हमेशा ही एक अस्वाभाविक प्रक्रिया रही है. किसी भी कविता के फैंटसी जगत की निर्मिति में कला के तीन क्षण हमेशा मौजूद होते हैं – एक, जिसमें जहाँ चेतन-अवचेतन में बसे दृश्य-बिम्ब होते है. दूसरा, जहाँ इन बिंबों के साथ कुछ विचार आते हैं । तीसरा, अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए बिंबों, विचारों को लेकर कल्पना-लोक निर्मित होता है. यह क्षण इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यहाँ वैज्ञानिक चेतना के द्वारा कविता अपने अन्तिम पड़ाव तक पहुँचती है. और उद्देश्य को पूरा करने के लिए मूल आधारों को लेकर सभी के संयोजन से लक्षित होती है.


इस धरातल पर भी यह कविता अपने पूर्ण रूप में खुद को अभिव्यक्त कर पाने में पूरी तरह प्रेरक-तत्वों और फैंटसी के सशक्त माध्यमों को ग्रहण नहीं कर सकी है. हाँ, कई बार यह भ्रम हो सकता है कि कविता की इस योजना में सब कुछ ठीक-ठीक प्रस्तुत किया गया है, क्योंकि कविता का रूप और अंतर्वस्तु के बीच भाषा, शिल्प संवेदना का संयोजन एक निश्चित मात्र में किया गया है. किन्तु उद्देश्य को यह योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने के बावजूद यथार्थ की संश्लिष्ट संरचना को भेद नहीं पाती. स्मगलर शब्द अपने औचित्य को लेकर पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो सका. वह केवल एक खाली स्पेस भरने के लिहाज से आगे आये शब्दों की कतार को थोड़ा और आगे खिसकाने का काम अवश्य करता है. जबकि यहाँ बिना इस शब्द के भी अर्थ में कोई बदलाव, भटकाव, अस्पष्टता कहीं दिखाई नहीं देती। यदि स्मगलर शब्द हटा भी दिया जाए तो कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि जाले तो कविता के आरम्भ में बिना किसी ऐसी संज्ञा से जुड़े हुए भी अपनी बात कहते हैं, जैसे कि जाल में ही बुढ़ा गई लड़की. यहाँ अगर कविता पहले ही अपने अर्थ को लेकर तटस्थ होती तो ऐसे किसी सहयोगी विशेषण ‘स्मगलर’ की जरूरत नहीं पड़ती. एक और बात –

जैसे कि निर्मूल आशंका के सताए
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं संबंध
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है!

यहाँ कोख के जाए का जो सम्बन्ध स्तनों में जीवित व्याधि से जोड़ा जा रहा है, तो यह एक अवैज्ञानिक सोच का परिणाम है. क्योंकि कोख से जन्म लेने वाली संतानें अपने नैसर्गिक रूप में स्वभाविक चरण पूरे करते हुए समूची कल्पनाओं से भरी रोमांचित करती हुई देह से बाहर आती हैं और आनंद की अनुभूति से भर देती हैं स्त्री-देह. यहाँ स्त्री देह में प्रजनन के समय की पीड़ा को कविता अपने भीतर व्याधि की पीड़ा से जोड़कर देखती है. जोकि निहायत गलत उदाहरण के बतौर पर पेश किया गया है. संतानें कोख से बाहर इसलिए नहीं आतीं कि वे देह को दुःख पहुँचा रही हैं, बल्कि उनके प्रजनन के सभी चरण पूरे होते ही वे अपने स्वाभाविक स्वरूप में देह से बाहर आती हैं; जबकि व्याधि यदि अपने समस्त चरण देह में पूरे करती तो वह देह को पूरी तरह खा जाती, उसके प्राण हर लेती, उसे लाश बनाकर छोड़ती. यदि स्त्री अपना दूध पिलाकर इस व्याधि को पोसती तो फिर वह व्याधि उसका खून क्यूँ पीती? उसका जिस्म क्यूँ निचोड़ती? उसकी देह के भीतर अनंत पीड़ाओं के गुच्छे रक्त-शिराओं में क्यूँ उपजाती? चूंकि कविता का मनस्ताप ज्यादा विद्रोही होने का भी प्रयास करता है, शायद इसीलिए नई-नई मुश्किलों में लगातार फँसता चला जाता है.

जाने दो, जो होता है सो होता है,
मेरे किए जो हो सकता था-मैंने किया,
दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने!
हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुपफाओं में!


कविता में अर्थ को पाने की जो तकनीक, यांत्रिकता, उत्पादक क्षमता यहाँ अपनाई गयी हैं निश्चित ही उनमें कहीं भी साम्यता नहीं दिखाई देती। वे आपस में ही एक-दूसरे के साथ अंतर्विरोधों को भोगती हुई आपस में गुत्थमगुत्था हैं और बेचैनी में कोई हल जैसे नहीं सूझता इस स्थिति में कविता कह उठती है - जाने दो, जो होता है सो होता है, मानो कविता बनने के क्रम में तमाम नए तरह की चुनौतियाँ सामने आती गयीं जिनसे कविता उलझना नहीं चाहती. यह भाग्यवादी और निरुपाय होने की ओर अपराधी भावना का आत्मसमर्पण से भरा एक संकेत है. फिर अंत में अपने अतीत का वही स्वर्णकाल भरा गान- “दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने!” आरम्भ होता है. और एक तयशुदा संतोष के साथ कविता अपने भीतर सुखद क्षणों में जीती अपने दुखों के साथ एक आत्मतोष भरे लहजे याकि संवाद के साथ समाप्त होती है

हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं में!


कविता का यह चरित्र निहायत फिल्मी और आदर्शवादी लगता है, किन्तु यथार्थ और वैज्ञानिक चेतना से भरा तो हरगिज़ नहीं हो सकता. कविता यह माँग भी नहीं करती कि पाठक क्या सोचता है. वह तो जुनून में अपनी स्क्रिप्ट के भीतर गम्भीर समस्या को नाटकीय तरीके से लेकर आती है और जितनी नाटकीय संवादधर्मिता उसके समूचे दृश्यों में निभाई गयी है उतने ही नाटकीय अंदाज़ में उसके समाधान को भी दर्शाया गया है. इस कविता की पटकथा सुनकर विचार और यथार्थ चेतना से कमजोर पक्ष वाले व्यक्ति को भले ही संतोष मिले, एक सुख का अनुभव हो, किन्तु इस समस्या के प्रति जागरूक व्यक्ति को यह हल और तार्किक परिणति कतई रास नहीं आयेगी.

हाँ, बहा दीं दूध की नदियाँ!
तब जाकर जाले लगे मेरे
उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में!
लगे तो लगे, उससे क्या!
दूधो नहाएँ
और पूतों फलें
मेरी स्मृतियाँ!


लगे तो लगे, उससे क्या! स्त्री देह के भीतर दुःख में भी सुख का साझा. अतीत की गौरव-गाथा के शिलान्यास के साथ वर्तमान की दैहिक-व्यथा की तिलांजलि. काश, यथार्थ की कटु रौशनाई इस दृश्य पर पड़ी होती; तो इन सुखद यात्राओं की स्वप्निल रंगीन पॉलिश उतर गयी होती. परिकल्पना के बंधे पुलिंदे भरभरा कर हाथ से छूट गए होते तो अच्छा होता. कम से कम स्त्री-देह जो इस पीड़ा के साथ एक जरूरी अभियान में शामिल लड़ रही है और अंत तक लड़ेगी, जब तक जीत या हार नहीं होती, उसे ये सुखद कल्पनाओं के घोड़े रौंदकर न चले गए होते. अतीत का सुख उसे नहीं अखरता.

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5 टिप्‍पणियां:

  1. is bakvas kavita par itna vimash samy ki barvadi ke atirikt kuchh nahi--kahi rajendra yadav ki aatma aa gayi is kavita mein

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  2. ...आपने सही विश्लेषण किया है!...यह कविता अपने विषय से भटक गई है!...कवियित्री अपने मनोभाव ठीक से व्यक्त नहीं कर पाई है!..बुल बुले,अच्छा लगा लगा फूटे'...बुल बुले शब्द प्रयोग शायद'निपल्स'के लिए किया गया है!

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  3. SAHEE VISHLESHAN KE LIYE LEKHAK KO BADHAAEE . AESEE
    KAVITAAON SE GUREZ HEE KARNAA CHAAHIYE KAVITA JI .

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सार्थक विश्लेषण किया है.जब बड़े कवि इस तरह का लेखन करें तो आँख में उंगली डालकर दिखाने की ज़रुरत होती ही है..इसी कविता को अगर किसी नए व्यक्ति ने लिखा होता तो शायद लोग एक सरसरी निगाह डालकर ,मुंह बिचका कर आगे बढ़ जाते कोई नोटिस भी न लेता.यह कविता अपने कारणों से नही बल्कि अपने रचयिता के ख्यातनाम होने के कारण इतनी चर्चित हो रही है..कैंसर जैसे रोग पर ज़रूरी साहित्यिक लेखन का अभाव है...जिससे इसकी पीड़ा को स्वर मिलता हो..!

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