सोमवार, 16 अगस्त 2010

क्या पुरुष अपने ‘समदुखी मीत’ की व्यथा कथा समानुभूति से लिखेंगे ?

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औरत की दुनिया -


क्या पुरुष अपने ‘समदुखी मीत’ की व्यथा कथा समानुभूति से लिखेंगे ?
-  सुधा अरोड़ा  
      




mannu bhandari indore city bhaskar interview‘‘ साहित्य समाज का दर्पण है ’’ उक्ति घिस घिस कर पुरानी हो गई , पर साहित्य का समाशास्त्रीय  विश्लेषण  आज भी साहित्य का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं बन पाया । साहित्य और समाजविज्ञान के बीच की इस खाई ने साहित्य और साहित्यिक समीक्षाओं को शुद्ध कलावादी बना दिया और समाजविज्ञान के मुद्दों को एक अलग शोध का विषय , जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं ।




हिन्दी साहित्य में महिला रचनाकारों की आत्मकथाएँ उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं । पुरुषवर्ग यह सवाल पूछता है कि लेखिकाएँ  अपनी आत्मकथाएँ  क्यों नहीं लिखतीं ? पर लिखी गयी आत्मकथाओं को इस या उस कारण से कटघरे में खड़ा करता रहता है।




हमारा भारतीय लेखक समाज काफी क्रूर और निर्मम है । बाहर बाहर से सहानुभूति जताता हुआ, यह एक लेखिका के पर कतरने को और उसके औरत होने के कारण जन्मे दुख, उसकी तकलीफ, उसकी व्यथा पर ठहाका लगाने की मंशा रखता हुआ, शातिर अंदाज में मंद मंद मुस्कुराता और व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ करता है ।




Ek Kahani Yah Bhiहंस के मार्च अंक में ‘‘ आत्मा का आईना ’’ आलेख में वरिष्ठ समीक्षक मैनेजर पांडे ने बेहद उदारमना होकर मन्नू जी की किताब ‘ एक कहानी यह भी ’ की एक बेहतरीन विश्लेषणात्मक समीक्षा की है , लेकिन अंत तक आते आते उनकी आलोचकीय दृष्टि पर पुरुषवादी सोच ने धावा बोल दिया है। उनका एक लंबा पैराग्राफ है जिसमें मीता के प्रति गहरी समानुभूति से उन्होंने एक टिप्पणी दी है । वे लिखते हैं -


‘‘ इस कहानी में एक पात्र और उससे जुड़ा प्रसंग ऐसा है जिस पर अगर मन्नू परानुभूति या समानुभूति के साथ सोचतीं और लिखतीं तो उनकी आत्मकथा असाधारण होती. वह पात्र है मीता, जो एक ओर राजेन्द्र यादव के बौद्धिक छल का शिकार हुई है तो दूसरी ओर मन्नू तथा राजेन्द्र के बीच तनाव और अलगाव का कारण भी है. मेरे सामने सवाल यह है कि क्या मीता के कुछ दुख-दर्द नहीं होंगे. अगर वे हैं तो उनकी चिंता किसी को नहीं है, न राजेन्द्र को और न मन्नू को. मन्नू तो एक स्त्री हैं और संवेदनशील लेखिका भी. यही नहीं, वे स्वयं राजेंद्र के छल से पीड़ित स्त्री हैं इसलिए उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे मीता की पीड़ा को एक समदुखिनी के दर्द को समझने और व्यक्त करने की कोशिश करतीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. मीता तो लेखिका नहीं है फिर उसके दुख दर्द की कहानी कौन कहेगा ? लगता है कि दूसरी असंख्य स्त्रियों की तरह मीता की पीड़ा भी अनकही रह जाएगी . ’’ (हंस: मार्च 2010 - पृष्ठ-54




इस पैराग्राफ में प्रश्नकर्ता का भी बौद्धिक छल उजागर होता है । वह लेखिका से उस विश्लेषण की माँग कर रहा है जो कृति का अभीष्ट है ही नहीं । हाल ही में मन्नू जी से एक पत्रकार ने साक्षात्कार लिया और `हंस'(मार्च) में प्रकाशित इस आलेख ‘ आत्मा का आईना ‘ के अंतिम पैराग्राफ पर उनकी राय पूछी । मन्नू जी ने कहा - ‘‘ जब मीता ने राजेंद्र जी से सारे सम्बन्ध तोड़ लिए थे, उनके सारे पत्र भी लौटा दिए थे, तो जैसे ही उसे पता चला कि वह मुझसे शादी कर चुके हैं, दोबारा वह उनकी जिन्दगी में दाखिल हो गई । अगर उसकी जगह मैं होती और राजेंद्र किसी और से शादी कर रहे होते या कर चुके होते मैं तो अपने को पूरी तरह उनसे काट लेती, उनकी जिंदगी में कोई दखल न देती और एक पत्नी का अधिकार छीन कर कभी अपना घर बसाने का सपना तो नहीं ही देखती । ’’ मन्नू जी की इस उक्ति से आप स्त्रियों की किस्मों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींच सकते हैं । इस विभाजक रेखा के दूसरी ओर पड़ी स्त्रियों का दुख उनके अस्तित्व का नहीं, उनकी आकांक्षाओं ( आज के संदर्भ में महत्वाकांक्षाओं ) का है जिसमें प्रेम या भावना से पैदा होने वाली पीड़ा-व्यथा का कहीं नामो निशान नहीं है । अगर कुछ है तो वह तहस नहस करने का एक त्रासजनित सुख है ।




‘ अन्या से अनन्या ' की लेखिका प्रभा खेतान क्या मीता नहीं हैं ? क्या उस ‘मीता’ की भरी पूरी आत्मकथा से अनकही मीताओं के तथाकथित दुख दर्द की भरपाई नहीं हो गई ? मन्नू जी ने तो फिर भी मीता के कोण से कई कहानियाँ  लिखीं - जिनमें ‘स्त्री सुबोधिनी’ , ‘एक बार और’ चर्चित भी हुईं क्योंकि उसकी स्थिति में कल्पना का पुट देकर कहानियाँ  लिखना ही उनके लिए संभव था । मीता के वास्तविक जीवन की न तो मन्नू जी को जानकारी थी, न वे उसके निजी जीवन से वाकिफ होना चाहती थीं तो वे आत्मकथा जैसी विधा में उसका क्या बयान करतीं - जो पूरी तरह सच और वास्तविकता पर आधारित होती है । जिस ‘व्यथा’ को हाईलाइट करने की बात हमारे वरिष्ठ समीक्षक करते हैं , शायद वे यह नहीं जानते कि यह मीता ‘तनाव’ का कारण जरूर थी पर ‘अलगाव’ का नहीं । मीता - चाहे वह जैसी भी हो - का एकवचन तो पत्नी स्वीकार करके जीवन के तीसेक साल गुजार देती है पर बहुवचन में ‘ मीताओं ’ को स्वीकार करना मुश्किल होता है ।




विडम्बना तो यह है कि इनमें से कुछ मीताओें के भी एक नहीं , कई मीत होते हैं । आज के समय में इन बहुवचन में ‘मीत’ पालने वाली ‘मीताओं’ का दुख दर्द कैसा ? अनकही पीड़ा का अर्थ क्या है ? यह अनकही पीड़ा-व्यथा किस किस्म के समीक्षकों को आलोड़ित करती है ? ऐसी मीताएँ पुरुषों  के ‘‘बौद्धिक छल का शिकार’’  नहीं होतीं, वे तो सबकुछ जानते समझते एक पिता और पति के दायित्व से पुरुष  को डिगा कर उसका प्रेमी के रूप में खुद शिकार करती हैं । इस शिकार में उसे न सिर्फ विवाहित पुरुष से प्रेम (!) करने का , बल्कि सिर्फ अपनी देह के तांडव के बूते पर एक समर्पित-समझदार-विदुषी औरत को उसके अधिकार से अपदस्थ और उसकी ‘स्पेस’ से बेदखल करने का दोहरा सुख शामिल हो जाता है जो उसे एक त्रासदी निर्मित करने का और संगति में विध्वंस करने का भी क्रूर त्रासजनित आनंद देता है । हमारे समीक्षकों के पास इन देहवादी ‘मीताओं’ को पहचानने की निगाह क्यों नहीं है ? समीक्षकीय दृष्टि की सारी स्पष्टता इस ‘मीता’ के संबंध पर आकर धुंधलके में क्यों बदल जाती है ?




संभवतः इसका कारण यह है कि हिन्दी साहित्य मीताओं से अंटा पड़ा है । आज के अधिकांश लेखकों- कवियों-समीक्षकों के जीवन में एक एक मीता है । ये सब मीताओं वाले पुरुष हैं - गाँव में जिनकी बेपढ़ी बीवियाँ या शहर में जिनकी पढ़ी लिखी बीवियाँ उनके बच्चों को बगैर किसी गिले-शिकवे के पाल रही हैं इसलिए अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर इन मीताओं के प्रति उनकी सहानुभूति का पलड़ा भारी है ।




हिन्दी साहित्य में पुरुष रचनाकारों ने भी आत्मकथाएँ लिखी हैं । क्या हमारे वरिष्ठ समालोचक पुरुष आत्मकथा लेखक से आग्रह करेंगे कि उनकी पत्नी का अगर कोई ‘मीत’ रहा है तो उस समदुखी ‘मीत’ की व्यथा कथा का वे संवेदनशीलता से बयान करें ? आखिर संवेदनशीलता सिर्फ महिलाओं की बपौती तो नहीं है न !




प्रभा खेतान की ‘‘अन्या से अनन्या’’ की काफी चर्चा हुई क्योंकि खुलकर उन्होंने विवाहित पुरुष से अपने प्रेम संबंध की चर्चा की । राजेंद्र जी ने भी प्रभा खेतान से अपनी मित्रता को सार्त्र और सिमोन के संबंधों के बरक्स रखा और एक साक्षात्कार में यह भी कहा - ‘‘ प्रभा खेतान मेरी बहुत इंटीमेट फ्रेंड रही हैं ।’’ ( 23 लेखिकाएँ और राजेंद्र यादव - पृष्ठ 85) .   मुझे हैरानी तब होती है जब मैं देखती हूँ  कि प्रभा खेतान की आत्मकथा ‘‘अन्या से अनन्या ’’ के बारे में प्रकाशित  तमाम समीक्षाओं में, एक भी आलोचक ने यह सवाल नहीं उठाया कि सहजीवन निभाने वाले जिन अपने प्रेमी डॉ. गोपालकृष्ण सराफ के बारे में उन्होंने इतने विस्तार से लिखा है , वह संवेदनशील लेखिका जरा अपनी समदुखिनी - पाँच बच्चों की माँ, श्रीमती सराफ की पीड़ा, यातना के बारे में भी कुछ लिखतीं कि पति को अन्या के पास जाते देखकर उन महिला पर क्या बीतती होगी ? कलकत्ता के तमाम साहित्यकार ‘जन्नत की हकीकत’ जानते हैं पर जाहिर है , हमें सिर्फ उतना ही दिखाई देगा और उतना ही समझ में आएगा, जो शब्दों में कह दिया गया है । उस आत्मकथा में बस इतना ही जिक्र है कि डॉ. सराफ कहते हैं कि वह हर समय रोती रहती है, उसे तो रोने की आदत पड गयी है । ‘अन्याओं ’ से संबंध रखने वाले अधिकांश लेखक कवि कलाकारों की बीवियों को रोने की आदत पड़ जाती है जिससे बचने के लिए वे साइकिएट्रिस्ट के चक्कर लगाती हैं या एंटी डिप्रेसेंट दवाइयाँ खाती हैं । इनसे हमारे समीक्षक वर्ग का सरोकार नहीं है क्योंकि एक रोने-कलपने वाली, चिड़चिडी, बुझी हुई पत्नी कमोबेश सबके घरों में मौजूद है जो खुद तनाव और बीमारियों से ग्रस्त होते हुए भी, गैर जिम्मेदार पति को बख्शते हुए बच्चों समेत परिवार के दोनों पहियों को अपने मजबूत (!) कंधों पर यथासंभव भरसक खींचती चली जाती हैं । इसी श्रेणी में आती हैं मन्नू जी । मन्नू जी की किताब एक कहानी यह भी - जिसके बारे में भूमिका में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि यह किताब चौदह साल में टुकड़ों टुकड़ों में लिखी गयी । यह उनके जीवन की लेखकीय यात्रा है, आत्मकथा नहीं है और उन्होंने अपने निजी जीवन के प्रसंग खोलकर नहीं लिखे, एक पूरक प्रसंग भी उन्होंने एक संपादक के दबाव के तहत ही लिखा वर्ना वह उतना भी नहीं लिख पातीं , फिर भी समीक्षक ढिठाई से कहे चले जा रहे हैं कि मीता के बारे में वे परानुभूति या समानुभूति के साथ सोचतीं और लिखतीं तो उनकी आत्मकथा असाधारण होती।.......




आज भारतीय समाज और जीवन में ही नहीं , साहित्य में भी मूल्य बदल रहे हैं । अनैतिकता हमें चौंकाती नहीं है, आकर्षित  करती है । उसका बयान हमें रोमांचकारी लगता है । दूसरे तमाम मुद्दों को दरकिनार कर , हम ललक कर उस किताब को पढ़ना चाहते हैं । साहित्य का प्रकाशक इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ है । मैत्रेयी की आत्मकथा का फ्लैप मैटर देखें -‘‘ मैत्रेयी ने डॉ. सिद्धार्थ और राजेंद्र यादव के साथ अपने संबंधों को लगभग आत्महंता बेबाकी के साथ स्वीकार किया है।’’ अंदर पूरी किताब का एक एक पन्ना पढ़ जाइए , आप उस ‘आत्महंता बेबाकी’ (!) को ढूँढते रह जाएँगे । इसके उत्तर में फरवरी 2009 के आउटलुक में राजेंद्र यादव की अपनी एक टिप्पणी पर्याप्त है -‘‘ मैत्रेयी ने मुझे कुछ जरुर जाना होगा पर लिखने में शायद वह भी चूक गई है । चूकने से ज्यादा कहना चाहिए कि वह छिपा गई है। वह जो इबारत में नहीं झाँकता, पर पीछे से झाँकता जरूर दिखता है। जाने उसने ऐसा क्यों किया ? ’’ ( आउटलुक: फरवरी 2009 - पृष्ठ - 75 )




आत्मकथा लेखन की सबसे बड़ी चुनौती है -  अपने जीवन, बल्कि कहना चाहिए, अपनी व्यथा से, अपने झेले हुए से, एक दूरी बनाने की । आत्मकथा लेखन में सेल्फ सेंसरशिप - स्व प्रतिबंध - अपना अंकुश सबसे पहले सबसे आड़े आता है । भारतीय समाज में परिवार एक बहुत महत्वपूर्ण इकाई है । अगर हम सच बोल रहे हैं तो हमारे अपने परिवार के या करीबी लोग नाराज हो सकते हैं। तो मेरा मानना यह है कि इस तरह के प्रतिबंधों के बीच आत्मकथा नहीं लिखी जानी चाहिए । एक ईमानदार आत्मकथा तभी लिखी जा सकती है जब आप यह मानकर चलें कि आपके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा, सिवाय उन जंजीरों के जो समाज ने हमारे इर्द गिर्द जकड़ रखी हैं । 





जबकि वास्तविकता यह है कि एक औरत का अपनी आत्मकथा लिखना स्त्री सशक्तीकरण की ओर बढ़ता पहला चरण है । ईमानदारी इसकी पहली शर्त है । अपने जीवन को और अपनी कलम को महिमामंडित करने या अपने गुनाहों पर परदा डालने के लिए लेखकीय बुनावट के साथ शब्दों से खेलना , भाषा की कशीदाकारी करना और कला के कीमखाबी लिहाफ में अपनी करतूतों को सजा धजाकर प्रस्तुत करना आत्मकथा की विधा के मकसद को ही डिफ्यूज करना है । 




अंत में कुछ जरूरी बातें --

सबसे पहले मन्नू जी की इस पुस्तक ‘एक कहानी यह भी ’ को पढ़ते हुए यह स्पष्ट कर लिया जाना चाहिए कि यह पुस्तक दाम्पत्य के दैनंदिन के छलावों में मरती खपती एक ईर्ष्यालु स्त्री का सियापा नहीं, बल्कि इसमें एक स्त्री रचनाकार की बौद्धिक दृष्टि और उस दृष्टि का आलोक भी है जो एक ‘सामान्य‘ स्त्री का ‘रचनाकार’ स्त्री में कायांतरण करता है। दाम्पत्य के अलावा भी साहित्यिक और सामाजिक अंतर्विरोधों के कई मुद्दों को रचनात्मकता के पार्श्व में रखकर देखने की इस पुस्तक में वस्तुगत और निरपेक्ष कोशिश है । यहाँ स्त्री के किसी गोपन जगत को खोलकर लोलुप पाठकीय उपभोग के लिए किया गया मुआयना नहीं है बल्कि आत्मसजग भाषा में एक स्त्री रचनाकार के परिवेश की मार्मिक मीमांसा है । लेकिन इसका क्या किया जाए कि हिन्दी साहित्य में आलोचना क्षेत्र के अधिपतियों की आस्वाद ग्रंथि में जादुई यथार्थ ( मैजिकल रिएलिज़्म ) के बदले आभासी यथार्थ ( वर्च्युअल रिएलिज़्म ) का चस्का लग गया है। यह एक दुखद स्थिति है कि वे महिला रचनाकारों की आत्मकथाओं में प्रेम के पुराने त्रिकोण के रोमांच का अतिरेक में आख्यान सुनने की अपेक्षा रखते हैं और ऐसी तमाम मीताओं की मर्मकथा सुनना चाहते हैं ताकि बौद्धिक लंपटई का साहित्यीकरण कर सकें । पुरुष रचनाकारों की आत्मकथा में क्या उन्होंने किसी छूटे हुए प्रसंग या छूटे हुए पात्र को लाने की माँग कभी की,  जो लेखक की पत्नी का लंपट प्रेमी रहा हो ?





जहाँ तक संवेदनशीलता के साथ पीड़ा और दुख दर्द को व्यक्त करने का सवाल है तो वे तो क्रिमिनल्स - जघन्य अपराधियों - के भी हो सकते हैं तो इन मीताओं के क्यों नहीं ? मीताएँ बहुत हैं और उनकी आबादी में उत्तरोत्तर इजाफ़ा हो रहा है क्योंकि साहित्य के बाजार का विचार उनकी रचनात्मकता का राजमार्ग बन रहा है । यह मुद्दा अलग है और इस पर विस्तार से फिर कभी लिखा जाएगा । अभी सिर्फ इतना ही कि आत्मकथात्मक रचना से उस ब्यौरे की अनावश्यक  माँग  बार बार क्यों की जाती है जो उस रचना का अभीष्ट है ही नहीं ?

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1702, साॅलिटेअर, हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई - 400 076 





बुधवार, 4 अगस्त 2010

असावधान भाषा की सांस्कृतिक ठेस

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‘असावधान भाषा की सांस्कृतिक ठेस’
-प्रभु जोशी




सुपरिचित कथाकार और सम्प्रति महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूतिनारायण राय ने ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में ‘समकालीन स्त्री विमर्श’ के केन्द्र में चल रही ‘वैचारिकी' पर बड़ी मारक टिप्पणी करते हुए यह कह डाला कि लेखिकाओं का एक ऐसा वर्ग है, जो अपने आपको बड़ा ‘छिनाल' साबित करने में लगा हुआ है। कदाचित् यह टिप्पणी उन्होंने कुछेक हिन्दी लेखिकाओं द्वारा लिखी गई आत्म कथात्मक पुस्तकों को ध्यान में रख कर ही की होगी। हालांकि इसको लेकर दो तीन दिनों से प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही मीडिया में बड़ा बवण्डर खड़ा हो गया है। लेकिन, हिन्दी भाषा-भाषी समाज में यह वक्तव्य अब चौंकाने वाला नहीं रह गया है। इस शब्दावलि से अब कोई अतिरिक्त ‘सांस्कृतिक-ठेस' नहीं लगनी चाहिए। क्योंकि, ‘कल्चर-शॉक‘ का वह कालखण्ड लगभग अब गुजर चुका है।




उत्तर औपनिवेशिक समय ने हमारी भाषा के ’सांस्कृतिक स्वरूप’ को इतना निर्मम और अराजक होकर तोड़ा है कि ‘सम्पट’ ही नहीं बैठ पा रही है कि कहाँ, कब क्या और कौन-सा शब्द बात को ‘हिट’ बनाने की भूमिका में आ जायेगा। हमारे टेलिविजन चैनलों पर चलने वाले ‘मनोरंजन के कारोबार’ में भाषा की ऐसी ही फूहड़ता की जी-जान से प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है। ‘भीड़ू’, ‘भड़वे’ और ‘कमीने’ शब्द ‘नितान्त’ ‘स्वागत योग्य’ बन गये हैं। ‘इश्क-कमीने’ शीर्षक से फिल्म चलती है और वह सबसे ज्यादा ‘हिट’ सिद्ध होती है। संवादों में गालियाँ संवाद का कारगर हिस्सा बनकर शामिल हो रही हैं। इसलिए ‘छिनाल’ या ‘छिनालें’ शब्द से हिन्दी बोलने वालों के बीच तह-ओ-बाल मच जाये, यह अतार्किक जान पड़ता है। क्योंकि जिस विस्मृति के दौर में ‘भाषा की भद्रता’ को मसखरी में बदला जा रहा है, वहाँ ऐसे शब्दों को लेकर ‘बहस‘ हमें यह याद दिलाती है कि आखिर हम कितने दु-मुँहे और निर्लज्ज हैं कि एक ओर जहाँ हम ‘स्लैंग’ के लिए हमारे जीवन में संस्थागत रूप से जगह बनाने का काम कर रहे हैं, तो वहाँ फिर अचानक इस फूहड़ता पर आपत्तियाँ क्यों आती हैं ?




चौंकाता केवल यह है कि एक चर्चित, और गंभीर लेखक अपने वक्तव्य में ऐसी असावधानी का शिकार कैसे हो जाता है ? दरअस्ल, वह कहना यही चाहता था कि आज के लेखन में ‘हेट्रो सेक्चुअल्टी‘ (यौन-संबंधों की बहुलता) स्त्री के साहस का ’अलंकरण’ बन गया है। विवाहेत्तर संबंधों की विपुलता का बढ़-चढ़ कर बखान ‘स्त्री की स्वतंत्रता‘ का प्रमाणीकरण बनने लगा है। यौन संबंधों की बहुलता उसके लिए अपने देह के स्वामित्व को लौटाने का बहुप्रतीक्षित अधिकार बन गई है। हालांकि, इस पर अलग से गंभीरता से बात की जा सकती है। क्योंकि इन दिनों हिन्दी साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों में ‘एकनिष्ठता‘ को स्त्री का शोषण माना और बताया जाने लगा है। खासकर हिन्दी कथा साहित्य में यह हो गया है। कविता में भी है कि ‘उत्तर आधुनिक बेटी’, अपनी माँ को दूसरे प्रेमी के लिए काँच के सामने श्रृंगार करते देखती है तो प्रसन्नता से भर उठती है। उसे माँ के एक ‘अन्य पुरूष’ से होने वाले संबंध पर आपत्ति नहीं है। ऐसी कविता सामाजिक जीवन में एक ‘नई स्त्री की खोज’ बन रही है तो दूसरी तरफ कथा साहित्य में ‘निष्ठा‘ एक घिसा हुआ शब्द हो चुका है। निष्ठा से बंधी स्त्री को ‘मॉरल फोबिया‘ से ग्रस्त स्त्री का दर्जा दे दिया जाता है। याद दिलाना चाहूँगा, हेट्रो सेक्चुअल्टी को शौर्य बनाने की युक्ति का सबसे बड़ा टेलिजेनिक प्रमाण था, कार्यक्रम ‘सच का सामना’। जिसमें मूलतः ‘सेक्स‘ को लेकर सवाल किये जाते थे और जिसमें विवाहेत्तर यौन संबंधों की बहुलता का बखान कर दिया, वह पुरस्कार के प्राप्त करने का सबसे योग्य दावेदार बन जाता था। बहरहाल, इसी तरह के घसड़-फसड़ समय को जाक्स देरिदा ने कहा है, ‘टाइम फ्रैक्चर्ड एण्ड टाइम डिसज्वाइण्टेड’। यानी चीजें ही नहीं, भाषा और समाज टूट कर कहीं से भी जुड़ गया है। भाषा से भूगोल को, भूगोल को भूखे से और भूखे को भगवान से भिड़ा दिया जाता है। इसे ही ‘पेश्टिच‘ कहते हैं। मसलन, अगरबत्ती के पैकेट पर अब अर्द्धनिवर्सन स्त्री, ‘देह के चरम आनंद’  की चेहरे पर अभिव्यक्ति देती हुई बरामद हो जाती है। हो सकता है सिंदूर बेचने की दूकान का दरवाजा देह-व्यापार की इमारत में खुल जाये। पहले मंदिर जाने के बहाने से प्रेमी से मिला जाता था, लेकिन अब मंदिर प्रेम के लिए सर्वथा उपयुक्त और सु रक्षित जगह है। एक नया सांस्कृतिक घसड़-फसड़ चल रहा है, जिसमें बाजार एक ‘महामिक्सर’ की तरह है, जो सबको फेंट कर ‘एकमेक’ कर रहा है। अब शयनकक्ष का एकान्त चौराहे पर है। और बकौल गुलजार के बाजार घर में घुस गया है। समाज में एक नया ‘पारदर्शीपन’ गढ़ा जा रहा है, जिसमें सब कुछ दिखायी दे रहा है और नई पीढ़ी उसकी तरफ अतृप्त प्यास के साथ दौड़ रही है और अधेड़ पीढ़ी ‘सांस्कृतिक अवसाद’ में गूंगी हो गई है। उसकी घिग्घी बँध गयी है। और, शायद सबसे बड़ी घिग्घी ‘भाषा के भदेसपन’ पर बँधी हुई है। अंतरंग को ‘बहिरंग’ बनाती भाषा के चलते ही, लम्पट-मुहावरे अभिव्यक्ति का आधार बन रहे हैं। और इस पर सबसे ज्यादा सांस्कृतिक ठेस हमारी उस भद्र मध्यमवर्गीय चेतना को लग रही है, जो कभी-कभी मीडिया अपने हित में जागृत कर लेता है। अगर मोबाइल पर युवाओं के बीच की बात को लिखित रूप में प्रस्तुत कर दिया जाये तो हम जान सकते हैं कि भाषा खुद अपने कपड़े बदल रही है। उसे कुछ ‘ज्ञान के अत्यधिक मारे लोग’ भाषा की ‘फ्रेश लिग्विंस्टिक लाइफ’ कह रहे हैं। लेकिन, संबंधों को लम्पट भाषा के मुहावरे में व्यक्त किया जा रहा है।




दरअस्ल, विभूतिनारायण राय अपनी अभिव्यक्ति में असावधान भाषा के कारण, भर्त्सना के भागीदार हो गये हैं। क्योंकि, वे निष्ठाहीनता को लम्पटई की शब्दावली के सहारे आक्रामक बनाने का मंसूबा रख रहे थे। शायद, वे साहित्य के भीतर फूहड़ता के प्रतिष्ठानीकरण के विरूद्ध कुछ ‘हिट’  मुहावरे में कुछ कहना चाहते थे। मगर, वे खुद ही गिर पड़े। एक लेखक, जो वाणी का पुजारी होता है, वही वाणी की वजह से वध्य बन गया। याद रखना चाहिए कि बड़े युद्धों के आरंभ और अंत हथियारों से नहीं, वाणी से ही होते हैं। एक लेखक को शब्द की सामर्थ्य को पहचानना चाहिए। ‘सूअर’ के बजाये ‘वराह’ के प्रयोग से शब्द मिथकीय दार्शनिकता में चला जाता है। भाषा की यही तो सांस्कृतिकता है। इसे फलाँगे,  तो औंधे मुँह आप और आपका व्यक्तित्व दोनों ही एक साथ गिरेंगे और लहूलुहान हो जायेंगे। जख्म पर मरहम पट्टी लगाने वालों के बजाय नमक लगाने वालों की तादाद ज्यादा बड़ी होगी।





4, संवाद नगर
इन्दौर






गालियाँ, चरित्रहनन, आत्मस्वीकृतियाँ : कलंक : मानसिकता व भाषा के बहाने स्त्रीविमर्श

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गालियाँ, चरित्रहनन, आत्मस्वीकृतियाँ : कलंक : मानसिकता व भाषा के बहाने स्त्रीविमर्श
-  (डॉ.) कविता वाचक्नवी 





हिन्दी की लेखिकाओं के लिए जिस भाषा-व्यवहार का प्रसंग भारत व हिन्दी साहित्य में अभी चला, वह नवीनतम उदाहरण है ; जो हमें किन्हीं चीजों पर विचार करने और अपने को समझने (+बदलने)  का अवसर देता है | 


इस पूरे प्रकरण में दो बातें परस्पर गुँथी हैं। पहली  है - वर्तमान साहित्य पर टिप्पणी और दूसरी है -  टिप्पणी का महिला- केन्द्रित होना, जेंडर मूलक / आधारित होना | गलती टिप्पणी में नहीं टिप्पणी के लिंग (जेंडर) आधारित होने में हैं | 


क्या यह सच नहीं कि  इधर गत कुछ वर्षों में साहित्य में यथार्थ के नाम पर अथवा सन्स्मरणों के नाम पर या आत्मस्वीकृतियों के नाम पर जो कुछ लिखा जाता रहा है , वह इतना वाहियात, घटिया व  लज्जास्पद है कि उसे साहित्य कहना साहित्य का अपमान है?


विचारणीय यह है कि क्या यह सब मात्र स्त्रियाँ ही लिख रही हैं ?  एक वास्तविक चरित्र को जब ‘हंस’ में द्रौपदी कह कर अपमानित किया जाता है, जब छत्तीसगढ़ की सद्यप्रसवा आदिवासी युवती  को एक शेयर्डकक्ष में आधी रात को कामक्रीडा के लिए खरीद कर बुलाए जाने व स्तनपान के लक्षण दिखाई देने आदि के घिनौने यथार्थ की आत्मस्वीकृतियों के बहाने सस्ती लोकप्रियता बटोरते हुए महान् बनने  की कवायद की जाती है,  तब कहाँ सो जाते हैं साहित्य के पहरुए ? ...  और कहाँ चली जाती हैं महिला के सम्मान के लिए लड़ने वाली स्त्री- पुरुष आवाजें  ?  तब साहित्य को पतनोन्मुख करने ( अपितु साहित्य से अधिक निजी पतनशीलता के प्रमाण देने  में ) कोई पक्ष कमतर नहीं ठहरा |  आज जो लोग साहित्य के पतन के लिए चिंतित हो टहल गए ,  कहाँ सो गए थे तब  वे ? और जो इस टहला टहली से खिन्न रुष्ट हो अपनी इज्जत के लिए लड़ रहे हैं तब वे कहाँ सोए थे ? क्या उन प्रसंगों में तार तार हुई स्त्रियों की इज्जत,  इज्जत नहीं थी ? क्या उन्हीं स्तंभों में स्त्रियाँ भी उसी तर्ज पर नहीं लिखती रहीं ? तो फिर मलाल कैसा ? दोनों तरह वालों को अब सुध आई ? ....  तो आई क्यों ? 


साहित्य का चीर हरण करने वालों की  भीड़  में किसी का भी पक्ष लेना कदापि न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता | स्थिति एक दम वही है, जो द्रौपदी के सम्मान की राजदरबार में हुई थी | चीरहरण और भरे दरबार में अपमानित करने के जितने दोषी कौरव थे, उतने ही वे पांडव भी, जिन्होंने कुलवधू को दाँव पर लगा दिया था | मेरे जैसा व्यक्ति उस पतन पर लज्जित है, साहित्यिक द्रौपदी की पीड़ा और त्रास पर दुखी है, दोनों दलों द्वारा अपने अपने स्वार्थ अथवा मनोरंजन के लिए राजदरबार में प्रयोग की जाती लेखन रूपी पाँचाली के क्रंदन से विचलित है |



अब ज़रा आगे बढ़ें तो इस घटना के बहाने और चीजें साफ़ हुई हों या न हुई हों किन्तु यह बात एकदम साफ़ हुई कि सबसे इज़ी टार्गेट हैं महिलाएँ | एक पक्ष का बस चला और अवसर मिला तो वह दूसरे को छोटा दिखाने के लिए स्त्री को अपमानित करती, व्यभिचारिणी सिद्ध करती  हुई गाली देगा और जब दूसरे को अवसर मिला तब भी गाली स्त्रियों को दी जाएगी, उन्हीं का चरित्र हनन किया जाएगा |



मामला इतना-भर नहीं है; अपितु मजेदार बात तो यह है कि एक पक्ष की गाली के विरोध में उठे स्वर भी दूसरे पक्ष की स्त्री को गाली देते आगे बढ़ते हैं | कुलपति के शब्द प्रयोग पर धिक्कारने व गाली देने के सिलसिले में जहाँ लेखकों व लेखिकाओं तक ने ममता कालिया व श्रीमती नारायण सहित उक्त वि. वि. में किसी भी प्रसंग या कारण से भूमिका निभाने वाली स्त्रियों तक को अपमानित किया व वही सब ठहराने की चेष्टा में आरोप प्रत्यारोप बरते, वे उसी मानसिकता का परिचय देते हैं कि आपसी युद्धों में भारतीय समाज स्त्री को ही कलंकित करता है , स्वयं स्त्रियाँ तक भी | हिन्दी के ब्लॉग जगत् में भी यहाँ तक कह दिया गया कि अमुक अमुक अवसर पर अमुक अमुक ( कोई न कोई ) स्त्री उक्त वि वि में भागीदारी के लिए पहुँच जाएगी, वह वहाँ कैसे पहुँची ..... आदि आदि आदि | जिस प्रकार के शब्द के लिए एक पक्ष को कोसा और आरोपित किया जाता है, उसी तरह का काम दूसरा पक्ष स्वयं कर रहा होता है |


क्यों जी, यह कहाँ का न्याय है कि दोष किसी का भी हो, किन्तु कलंकित की जाएगी स्त्री ही , चरित्रहनन होगा स्त्री का, गाली मिलेगी स्त्री को ?


समाज में सदा से यही होता आया है | युद्ध करेगा पुरुष; कभी मद में, कभी उन्मत्त हो कर, कभी क्रोध में, कभी लोभ में, कभी शौकिया या आदतन किन्तु भोगी जाएँगी स्त्रियाँ, या भेंट में दी जाएँगी | आधुनिक युद्धों में भी यही स्थिति है , भले ही वे साम्प्रदायिक हों अथवा इतर |


क्या ऐसा इसीलिए कि स्त्री ही सबसे कमजोर प्राणी है समाज का ?  या इसलिए कि स्त्री की समाज में स्थिति सबसे बुरी है, सबसे घटिया | 


निस्संदेह कभी न कभी अपने आसपास के लोगों की निकृष्टता देख उन्हें गालियाँ देने का मन सब का  होता है किन्तु क्या यह विचार का विषय नहीं है कि गालियाँ स्त्री-केन्द्रित ही क्यों हों,  लैंगिक ही क्यों हों ?  संस्कृत में कभी कोई गाली लैंगिक नहीं रही | न ही मात्र स्त्री केन्द्रित | अपितु सीधे सीधे उसे दोषी या आरोपित करने वाली गाली होती रही हैं, जो सीधे स्वयं उत्तरदायी है या कह लें जिसे गाली दी जा रही है | यही स्थिति आज भी पूर्वोत्तर भारत की बोलियों में है.



हम लोग जब गुरुकुल में पढ़ा करते थे तो ऐसी ऐसी गालियाँ प्रयोग करते थे कि आज भी उनकी संरचना व सृजनात्मकता को लेकर मन से वाह निकलती है; किन्तु कभी कोई गाली लैंगिक शब्दावली की नहीं थी. लैंगिक शब्दावली कि गालियों का निहितार्थ ही यह है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष की स्त्रियों के प्रति कुत्साभाव से ग्रस्त है व सब से `ईज़ी टार्गेट'  (अर्थात् स्त्री) को निशाना बनाकर, अपमानित कर के अपने क्रोध को शांत करना चाहते हैं |


साहस हो तो यह हो कि कोई भी पक्ष बिना किसी भी पक्ष की स्त्री के प्रति कुत्सा लिए स्वयं आपस में निपटे | सीधे सीधे दोषी या दुष्ट को धिक्कारें, न कि एक दूसरे पक्ष की स्त्री को व्यभिचारिणी सिद्ध करें या अश्लील भाषा से कलंकित करें |


इस गाली पुराण का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दी- समाज में सारी की सारी गालियाँ स्त्री को लगती हैं ( उन पर केन्द्रित होती हैं) चाहे दी भले वे पुरुष को जा रही हों ;  और सारे के सारे आशीर्वाद पुरुष को लगते है ( उसके लिए सुरक्षित होते हैं ) भले ही दिए वे चाहे स्त्री को जा रहे हों |


उस समाज पर आप क्या कहिएगा जिसकी सारी गालियाँ स्त्री के लिए सुरक्षित हैं व सारी आशीर्वाद पुरुष के लिए |

मुझे चिंता इस समाज की है; न कि इस पक्ष या उस पक्ष की | 

आपकी चिंता का विषय कौन व क्या है ?     ......  बताइयेगा ?





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