क्यों बड़बडाती हैं औरतें
( ऋषभदेव शर्मा )
नहीं मालूम कि अपने आप से बतियाना कैसी आदत है।
नहीं मालूम, लोग ऐसे आदमी को कैसी नज़र से देखते होंगे..
फिर भी अच्छा लगता है अपने आप से बतियाना।
कभी कभी अपने आप से गुँथ जाना - फल की अपेक्षा के बिना।
मैं ख़ुद से मुखातिब हुआ तो
लगा किसी ने कहा हो -
लगा किसी ने कहा हो -
बड़बड : आप ही आप ; औरतों की तरह
क्यों बडबडाती हैं औरतें !
नहीं, अब कहाँ बडबडाती हैं औरतें ! अब तो वे खूब बोलती हैं.
नहीं, अब कहाँ बडबडाती हैं औरतें ! अब तो वे खूब बोलती हैं.
जाने कब से चुप थीं !!
जाने कब से चुप थी मैं!
शायद तब से जब पहली बार मुझसे मेरा मैं छीन लिया गया था .
शायद तब से जब पहली बार मुझसे मेरा मैं छीन लिया गया था .
छीन लिया गया था मुझसे मेरा जंगल, मेरा खेत, मेरा शिकार, मेरी ताकत.
कल तक सारी धरती सबकी साझी थी,
घर भी साझा था।
कितना मनहूस था वह दिन जब किसी पिता ने
किसी भाई ने
किसी बेटे ने
किसी पति ने
किसी बेटी को
किसी बहन को
किसी मां को
किसी बहन को
किसी मां को
किसी पत्नी को
सुझाव दिया था घर में रहने का,
हिदायत दी थी देहरी न लांघने की
और बंटवारा कर दिया था दुनिया का - घर और बाहर में.
बाहर की दुनिया पिता की थी - वे मालिक थे, संरक्षक थे.
बाहर की दुनिया पिता की थी - वे मालिक थे, संरक्षक थे.
भीतर की दुनिया माँ की थी - वे गृहिणी थीं संरक्षिता थीं.
माँ ने कहा था - मैं चलूंगी जंगल में तुम्हारे साथ; मुझे भी आता है बर्बर पशुओं से लड़ना !!
हँसे थे पिता -तुम और जंगल? तुम और शिकार ??कोमलांगी, तुम घर को देखो. बाहर के लिए मैं हूँ न !प्रतिवाद नहीं सुना था पिता ने और चले गए थे सावधान रहने का निर्देश देकर दरवाजे को उढकाते हुए.
माँ रह गयी थी बड़बड़ाती हुई ........
बस तभी से बड़बड़ा रही हैं औरतें ............
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