सोमवार, 16 जून 2008

स्त्री विमर्श : एकालाप : २ (पत्नीं मनोरमां देहि )



पत्नीं मनोरमां देहि
-ऋषभ देव शर्मा









  • व्यवस्था ज़रूरी है समाज के सुचारू संचालन के लिए। इसलिए उन्होंने 'घर' और 'बाहर' का बंटवारा कर दिया


इसी के साथ बंटवारा कर दिया श्रम का।

जन्मना स्त्री होने के कारण मेरे हिस्से में 'घर' और 'घर का काम' आ गया।

वे धीरे-धीरे मालिक बन गए और मैं गुलाम।

मैं चाहकर भी अपना क्षेत्र नहीं बदल सकती थी।

सेवा करना ही अब मेरी नियति थी !




  • मालिक तो मालिक है।

गुलाम उसके लिए मेहनत करते हैं, उत्पादन करते हैं।

हम औरतों ने भी अपनी मेहनत और अपना उत्पादन सब जैसे मालिक के नाम कर दिया।

घर बनाया हमने - बसाया हमने।

मालिक वे हो गए।

होते ही.

हमारे मालिक थे, तो हमारे घर के भी मालिक थे।

हमें बहलाना भी उन्हें खूब आता था।

वस्तुओं पर हमारे नाम अंकित कर दिए गए।

हम खुश।

पर सच तो यही था कि नाम भले हमारे लिखे गए हों, सब कुछ था मालिक का ही।

और तो और, हमारे बच्चे भी हमारे न थे।

उत्पादक स्त्री, उत्पादन स्त्री का; उत्पाद मालिक का।

हमारे श्रम का फल, हमारे सृजन का फल - दोनों ही हमारे न हुए.




  • देह से हमने श्रम भी किया और सृजन भी।

उत्पादन और पुनरुत्पादन - दोनों क्षमताएँ हमारी होकर भी हमारी न रहीं।

न देह और न घर - पर हमारा नियंत्रण रहा।

अपने बारे में, अपने शरीर के बारे में, अपने घर के बारे में, अपनी संतान के बारे में - कोई फैसला करने का हक हमारे पास नहीं रहा।

सारे फैसले हमारे लिए वे करने लगे - कभी पिता बनकर, तो कभी पति बनकर।

वह दिन भी आ गया जब स्त्री को जन्म लेना है या नहीं, यह भी वे ही तय करने लगे।

पुरूष विधाता बन गया।

शायद विधाता कोई पुरूष ही होगा - अगर कहीं हो, या कभी रहा हो।


  • सारे निर्णय उनके हिस्से में आए।

और मेरे हिस्से में आया अनुकरण, अनुगमन, अनुपालन, अनुसरण।

बेशक, उन्होंने मुझे देवी बनाकर पूजा भी।

पर कितनी चालाकी से मुझसे मेरी आजादी के बंधक-पत्र पर हस्ताक्षर करा लिए।

भक्त बनकर आए वे मेरे सामने; और हाथ जोड़कर याचना की -"पत्नीं मनोरमां देहि, मनोवृत्तानुसारिणी/तारिणी दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम। "

हंह!उन्होंने मुझे पत्नी बना लिया - मुझे उनकी आज्ञाओं का ही नहीं, मानसिक और अप्रकट इच्छाओं का भी अनुसरण करना होगा,

अपनी कुलीनता औ पवित्रता के बल पर मैं उन्हें पापों के दुर्गम संसार सागर के पार ले जाऊं।

मैं तो साधन हूँ, माध्यम भर हूँ - उनकी मुक्ति के लिए।

  • और मेरी मुक्ति?

मेरी देह की मुक्ति, मेरे मन की मुक्ति, मेरी आत्मा की मुक्ति??

मेरी वैयक्तिक मुक्ति, मेरी सामाजिक - आर्थिक मुक्ति, मेरी आध्यात्मिक मुक्ति???

नहीं, शायद मेरी मुक्ति का कोई अर्थ नहीं - जब तक मैं छाया हूँ।
छाया कहीं कभी मुक्त होती है?
तो...छाया हूँ मैं...चिर बद्ध छाया?



स्त्री नहीं हूँ मैं?

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपका लिखा दो चार लेख पढ़ता चला गया .आपने लेबल के साथ पुरा न्याय किया है "एकालाप" . उतना पढ़ा लिखा नही हूँ .फ़िर भी इस विषय पर एक माँ का बेटा , पत्नी का पति , बहन का भाई, भाभी का देवर ,बेटी का बाप होने के नाते अपने को योग्य मानता हूँ . आपने नारी समर्थन मे काफ़ी ठोस तथ्य इक्कठा किए हैं कुछ कम सम ही सही पर पुरूष का तथ्य भी संतुलन के लिए जरूरी था . मैंने बहुतों लेख पढ़ें हैं स्त्री विमर्श पर सब के सब एकालापी ही थे . आख़िर कौन पहल करेगा एक ईमानदार बहस की शुरुआत का ? वही न जिसका लिखा पढ़ा जाता हो , छपता हो , बिकता हो , सामाजिक मूल्य स्थापित करता हो . अपने ही हाथों अपने दूसरे हाथ को थुरने भर का जुगाड़ करता लेख आज नारी सशक्तिकरण का कागजी सबल बना है .
    शिक्षा {हर तरह की }अच्छे संस्कार से पनपी जीवन शैली समाज को सशक्त बनाएगी .आपने या अन्य देवियों ने जिस टाईप के पुरूष की बात की है वह कितना विकृत और अशक्त है .पापी ,दुराचारी, हैवान को पुरूष न कहा जाए .

    भार्या रक्षतु भैरवी ! का अनुनय विनय करने वाला पति पुरूष ही है ,सदाचार और संयम पर पुरूष भी अधिकार रखता है .केवल माँ ही बेटी को स्कूल नही भेजती उसका बाप जो पुरूष है अपनी बेटी को उच्च शिक्षा के साथ कराटे सिखलाने को आतुर है ताकि आपके द्वारा जिसे पुरूष कहा जा रहा है ,उसे मौके पर ही दम तोड़ने को विवश किया जाए .
    अतः देवियों से नम्र निवेदन यह है कि इस विषय पर चल रहे बहस मे पुरूष शब्द को अलग रखें. सार्थक बहस सबलता के पक्ष मे तभी सम्भव है . हमे सबल समाज की कामना है .
    सादर
    संजय शर्मा

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  2. प्रियवर ,

    आपके विचारों का स्वागत है.
    इधर लोग पुरूष विमर्श में भी व्यस्त हैं, तो विस्मय क्या !

    मेरे लिए स्त्री विमर्श का आधार
    आज भी मेरे चतुर्दिक स्त्री के मानवाधिकारों का हनन है.
    मेरे निकट स्त्री विमर्श का पुरुश्विरोधी होना कतई गैर-ज़रूरी है ;
    मगर पुरुश्प्रधानता के सामाजिक यथार्थ का क्या कीजे !!

    ~ ऋषभ देव शर्मा

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  3. प्रियवर ,

    आपके विचारों का स्वागत है.
    इधर लोग पुरूष विमर्श में भी व्यस्त हैं, तो विस्मय क्या !

    मेरे लिए स्त्री विमर्श का आधार
    आज भी मेरे चतुर्दिक स्त्री के मानवाधिकारों का हनन है.
    मेरे निकट स्त्री विमर्श का पुरुश्विरोधी होना कतई गैर-ज़रूरी है ;
    मगर पुरुश्प्रधानता के सामाजिक यथार्थ का क्या कीजे !!

    ~ ऋषभ देव शर्मा

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  4. और मेरी मुक्ति?
    मेरी देह की मुक्ति, मेरे मन की मुक्ति, मेरी आत्मा की मुक्ति??

    मुक्ति के इतने रूप... बहुत सोच में पड़ जाता हूं यह सब पढ़कर।

    जवाब देंहटाएं
  5. बात तो आपकी सोलह आने सही है लेकिन मुक्ती के लिए संघर्ष करना ही पङता है मानसिक सोच के स्तर पर संघर्ष का रास्ता कठिन है पर असाध्य नहीं है नारी मन को लेकर कुछ विचार आप से मिलते जुलते हैं तथा समाज की मानसिकता में कुछ परिवर्तन अवस्य आया है लेकिन पूरी तरह क्रांतीकारी सोच के लिए यह जरूरी है की नारी की मुक्ती के लिए सारा समर्थन घर की स्त्रियों से मिलना शुरू हो यदि घर में ही किसी की भावना को समर्थन नहीं मिलेगा तो कोई ये सोच ले की बहार पुरूष उसे आजादी देने वाला है केवल दिवा स्वप्न है जितनी भी आजादी स्त्रियों की दिखाती है वह घरों से माता पिता की सोच से शुरू हुई है समाज को तो बदलना ही होगा |

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